Saturday, November 26, 2011

कसाइयों के झुन्ड और एक बेचारी रत्नगर्भा


कभी-कभी कोई खास विशेषता ही जिन्दगी और वजूद की सबसे बड़ी दुश्मन बन जाती है। कस्त्ूारी मृग को ही ले लीजिए, यह प्रजाति अब लुप्तप्राय है। इसके उदर में पाई जाने वाली मूल्यवान कस्तूरी ही इसके वंशनाश का कारण बन गई। किवंदंतियों में मणिधर सांप के बारे में सुनते हैं। इस प्रजाति के लुप्त होने के पीछे भी निश्चित तौर पर वह मणि ही होगी जो उसकी विशेषता हुआ करती थी। हमारी धरतीमाता को भी रत्नगर्भा कहा जाता है। आज यह रत्न ही उसके वजूद पर संकट का कारण है। दक्षिण में बेल्लरी तो उत्तर में आरावली, पश्चिम में गोवा तो पूरब में ओडिसा, देश का ऐसा कोई प्रांत या जिला नहीं बचा है जहां खनिज माफिया न सक्रिय हो। बडेÞ-बडेÞ पंजों वाली जेसीबी और पोकलिन धरतीमाता की कोख को क्षत-विक्षत कर रही है। एक आंकलन के अनुसार देश में तीन चौथाई खदानें अवैध तरीके से चल रही हैं। प्रति दिन अरबों रुपयों का बहुमूल्य खनिज निकाला जा रहा है। अवैध को वैध बनाकर दूसरे देशों को निर्यात किया जा रहा है। खदानों की काली कमाई से रेड्डी बन्ध्ुाओं जैसे नवधनाढयों की नई जमात देश में उतरा रही है। हर प्रदेश, हर जिले और ताल्लुकों में रेड्डी बन्धुओं के बिरादरों की सल्तनत खड़ी हो रही है। इसी काली कमाई के धन का निवेश राजनीति में हो रहा है। मामला कुछ ऐसे हो गया है कि जो खदानों से कमा रहे हैं वे राजनीति में निवेश करके अपनी हैसियत सुनिश्चित करने में लगे हैं और जो राजनीति में जमें हैं वे अवैध खदानों में सत्ता की ताकत आजमा रहे हैं। इटली से उपजा माफिया शब्द सही मायनों में यहीं चरितार्थ हो रहा है।
     अपने विन्ध्य की धरती का भी रत्नगर्भा होना ही उसके अस्तित्व पर भारी पड़ रहा है। यहां तो जल-जंगल-जमीन, नदी पहाड़,Þ चौतरफा ही  खनिज कसाइयों का झुंड जेसीबी-पोकलिन और डंफर लिए रत्नगर्भा के पीछे हाथ धोकर पड़ा है। अवैध खदानों को लेकर हवस इस हद तक पहुंच चुकी है कि खुदा न खास्ता दुनिया के वैज्ञानिक महामशीन की तरह महाजेसीबी और महापोकलिन बना दें, जिसके पंजे, गांव के गांव और शहर के शहर एक साथ खोदने की क्षमता रखते हों, तो ये खनिज कसाई इसका भी उपयोग करने से न चूकें। सब कुछ  खन-खोदकर सीमेंट कारखानों के ग्राइंडर के पेट में झोंक दें। तुलसीदास के चित्रकूट चित चारु के सरभंग आश्रम के वनप्रांतर और पहाड़ को खोदकर हजम किए जा चुके हैं। जिस सिद्धा पहाड़ के बारे में वर्णन है कि यहां प्रभु श्रीराम ने निशचरहीन करंउ महि का प्रण किया था, उसे भी खनिज के लोभ में खोखला हो चुका है। यहां खनिज माफिया महज धरती भर ही नहीं खोदता, हमारे गौरवशाली इतिहास,पुरातात्विक विरासत और आस्थाओं की भी तिजारत करता है। इधर सतना से रीवा, सीधी और मैहर कैमोर तक सीमेंट कारखानों की श्रृंखला है। जितने अभी स्थपित हैं उतने ही पांच वर्षों के भीतर और खड़े होने जा रहे हैं। खनिजों की चोरी, लूटपाट और डकैती के प्रेरणा स्त्रोत यही हैं। इन्हें लाइम स्टोन चाहिए। यहां की धरती में लाइम स्टोन की इतनी प्रचुरता है कि कहीं भी दो कुदाल मारिए निकल आएगा। सरकार ने इन कारखानों को जायज तरीके से खदानों की लीज दे रखी है, पर नजायज खदानों से ही यदि कारखानों का पेट भरता है तो हर्ज ही क्या है। दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं उन्होंने अपने यहां खदानों पर प्रतिबंध लगा रखा है। पर्यावरणीय कारणों से और भविष्य में बहुमूल्य खनिजों के संरक्षण की दृष्टि से भी। ये देश भारत और इन्डोनेशिया जैसे विकासशील देशों से खनिज पदार्थ आयात करते हैं। जैसे अपने कटनी, सिहोरा के आसपास पाया जाने वाला आयरन ओर का ब्लूडस्ट चीन और जापान जाता है जबकि यहां लौह अयस्क के विशाल भंडार हैं। वैज्ञानिकों ने इन्डोनेशिया के मौत की घोषणा कर दी है। खनिजों के अंधाधुंध दोहन ने वहां का पर्यावरण और परिस्थतिकी का सत्यानाश कर दिया है। सबसे ज्यादा प्राकृतिक आपदाएं इसी देश में आती हैं। अपने देश में भी जल जंगल और जमीन पर जिस तरह डकैती पड़ रही है, किसी दिन वैज्ञानिक भारत के मौत की भी घोषणा कर सकते हैं।
 विन्ध्य क्षेत्र के बिगड़ते पर्यावरण और परिस्थितिकी के संकेतों को समझिए। आंकड़े बताते हैं कि अपने सतना जिले में जनसंख्या की वृद्धि दर देश और प्रदेश की औसत वृद्धि दर से लगभग दो प्रतिशत कम है। यानी कि लोग यहां नहीं रहना चाहते। यहां पीने के पानी का संकट तो है ही सांस लेने वाली हवा में भी खतरनाक स्तर तक जहर घुल रहा है। पंद्रह साल पहले इंडिया टुडे में झुकेही के समीप एक विधवाओं के गांव की रपट छपी थी। रपट में बताया गया था कि चूना भट्ठों का धुआं आदमी की जिंदगी कोे कैसे लीलता है। कैमोर से लेकर सतना और इधर रीवा तक सीमेंट कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुआं, किश्तों में जिंदगियां छीन रहा है। धीमे जहर का असर लंबे समय के बाद सामने आता है। वैध-अवैध खदानों ने भूमिगत जल को सोख लिया है। पानी की आपूर्ति के लिए कारखानों के हजारों फिट गहरे पाताल तोड़ कु ओं ने जमीन को बंजर बनाना शुरू कर दिया है। क्या आपने ध्यान नहीं दिया कि सतना के आसपास हजारों की संख्या में आम के वृक्ष क्यों सूख रहे हैं।  वृक्षों में फल आना बंद हो रहा है। सिंगरौली देश के पांच सर्वाधिक   प्रदूषित क्षेत्रों में से एक चिन्हित किया गया है। अभी तो इस क्षेत्र में मुश्किल से पांच हजार मेगावाट ही बिजली बन रही है। पांच साल के भीतर जब यह उत्पादन बढ़कर पंद्रह हजार मेगावाट हो जाएगा तब प्रदूषण की क्या स्थिति होगी कल्पना कर सकते हैं। आने वाले दिनों में सिंगरौली से लेकर सतना तक थर्मल प्लांट और सीमेंट कारखानों की चिमनियां ही हमारे औद्योगिक विकास और सभ्यता की कहानी कहेंगी। इधर लाइमस्टोन व उधर कोयले के लोभ में रत्नगर्भा धरतीमाता का शीलहरण होता रहेगा। खनिज कसाइयों के झुंड के झुंड बेल्लारी के रेड्डी बन्धुओं की तरह राजनीति और भ्रष्टाचार की नित नई कहानियां गढ़ते रहेंगे। प्रकृति के साथ यह व्यभिचार कब तक सहा जाता रहेगा? आखिर कब तक?
राजा को प्रजा पर कैसे कर रोपण करना चाहिए, मनु-स्मृति में एक श्लोक है-
 यथाल्पाल्पदन्त्याद्यं वार्योवत्सषटपदा:।
 तथाल्पाल्पो ग्रहीतव्यो राष्टÑाद्रज्ञाब्दिक:कर:।।
यानी कि जिस प्रकार जोंक,बछड़ा और भौंरा अपने-अपने खाद्य रक्त, दूध और मधु-पराग को ग्रहण करता है उसी प्रकार प्रजा से उतना कर लेना चाहिए कि उसकी स्थिति पर कोई फर्क न पड़े। यही दृष्टांत प्रकृति के साथ भी अपनाया जाना चाहिए। दोहन और शोषण के बीच के फर्क को समझिए। खनिज के धंधे से जुड़े लोग भी हमारे अपने हैं, इसी विन्ध्य वसुन्धरा की संतान। उन्हें यह समझना होगा कि रत्नगर्भा धरतीमाता की इज्जत को क्षत-विक्षत किया तो  फल भी उन्हीं की आनेवाली पीढ़ी ही भोगेगी और प्रकृति का देवता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा।

Thursday, November 24, 2011

पशु-पक्षी व प्रकृति से टूटती रिश्तेदारी


सभ्यता के इस उत्तर आधुनिक युग में हमने दुनिया मुठ्ठी में कर लिया है। हमारा बौद्धिक, भौतिक विकास हुआ परंतु जिस हृदय की विशालता और विराट रूप के लिए हम चर्चित रहे, उसका संकुचन हुआ। पहले हमारे परिधि में घर-परिवार समाज और देश था। परिवेश के पशु-पक्षी, पेड़-वृक्ष, प्रकृति, जीव जन्तु, नदी-तालाब सब हमसे समाहित थे। जिस पर्यावरण की चिन्ता आज विश्व को है, उसके लिए हमने ऋचाएं कहीं। न सिर्फ समाज की चिन्ता हमने की बल्कि सारा लोक हमारे चिन्तन के केन्द्र में था। प्रकृति के प्रत्येक रूप को हमने सहचर मानकर समरसता सीखी। प्रकृति पर विजय पाने का दम्भ हमने नहीं किया। नदी पार करते समय अंजलि में जल लेकर प्रणाम भाव से उसके पार जाने की विनती की। पेड़ पर चढ़ते हुए मन ही मन उससे स्वीकृति मांगी।
    विकास की अंधी दौड़ में हमसे बहुत कुछ छूट गया। परम्परा और संवेदनशीलता हाशिये पर चली गई, जो कभी केन्द्र में थी। मनुष्य की सार्थकता संवेदना है, इसी से वह अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है। लेकिन अब असली संवेदना पर भी प्रश्न चिन्ह है। हमारे बड़का दादा (बड़े पिता जी) ने मसि और कागद नहीं छुआ था, कलम भी नहीं पकड़ी थी। कागद में क्या लिखा है, नहीं जानते थे, परंतु आखिन की देखी कहने में कभी नहीं हिचके। आज वह आंखिन देखी सच कहने का साहस, पढ़ने-लिखने के बावजूद हममें नहीं हैं। उनका संसार (लोक) विस्तृत था। पशु-पक्षी उनके समाज में थे, उनको पालने का दायित्व बोध उनमें था। पशुओं से तो स्वार्थ था, परंतु पक्षियों से भी उनका सामिप्य था। घर के कोने की ओरमानी की ठाठ में धान के बालियों को बांध देते ताकि चिरई खेत-खलिहानों के बाद भूखे न रहें। अमीरी नहीं थी, माघ और भादौं हर वर्ष होते थे, लेकिन चावल की किनकी चिड़ियों के लिए आंगन में छींटते थे और गर्मी के दिनों में घर के बाहरी कोने में एक भरी गगरी पीने के लिए जमीन पर या ठाठ में टंगा देते थे। तमाम नकली सम्पन्नता के बाद भी अब वैसा नहीं हो पाता। जिनके इर्द-गिर्द चिड़ियों की चीं-चीं गंूजती थी, उनके नाती-पोते किसी चिड़िया की जाति नहीं पहचानते। हम ग्लोबल हुए, परंतु अपनी वैश्विक दुनिया भूल गए, परिवेश से विरत हो गए।
     हमारे पास संसाधनों का अभाव था, परंतु मनुष्य होने का भाव था। अभावों में भी हम खुश थे। हर संभव सम्पन्नता के बावजूद हम सुखी नहीं हैं। पशु-पक्षी के भी हमने नाम रखे थे। गौरेया, सुआ, पोड़की, पेंगा, गलरी, कौआ, मैना, कबूतर, बुलबुल, फुदकुल्ली, कठखोलनी, धनेह, महोख, घुंघुंआर, खूसड़, नीलकंठ हमारे साथी थे, अब उन्होंने भी हमारे आंगन-खेत, खलिहान, पेड़, वृक्ष छोड़ दिये। आंगन से मठा घोंटने की संगीतमयी छोढ़िया (मथानी) गायब है। पशुओं को पास बुलाना छोड़ दिया, वे भी हमसे किनाराकशी करने लगे। प्यार की भाषा वे भी समझते हैं, हमारी ही भाषा ने मिठास खो दी है। सुबह और शाम की लाली देखने से हम महरूम हैं। चिड़ियां हमें जगाती थीं, हमारे इष्ट और अनिष्ट उनके तेवरों से जुड़े थे। कौआ, अतिथि के आने की सूचना देता था। वह चालाक पक्षी माना जाता था, परंतु कहते हैं कि कोयल अपना अण्डा कौवे के घोसलें में छोड़कर मातृत्व की सेवा से विरत हो जाती है। कौवा उसके अंडों को सेता है। पंख आने पर वे उड़ जाते हैं। चालाक और होशियार तो मीठा बोलने वाली कोयल है। हम उसके अधिक करीब हैं। पक्षियों में संवेदना भी हमसे कम नहीं हैं। कहीं-कहीं तो हमसे अधिक हैं। एक कौवा मरता है, एक दूसरे की आवाज पर पूरी बिरादरी के कौवे इकट्ठे हो जाते हैं। हमारे घर के पिछवाड़े अमरूद के एक पेड़ पर एक घोंसला था, घोंसले में अंडे थे। एक दिन पड़ोसी का लड़का अण्डे देखने के लिए पेड़ पर चढ़ा। पास की डाल पर ही दोनों नर-मादा बैठे थे। जैसे ही लड़का घोंसलों की तरफ बढ़ा। दोनों चिड़ियों ने चिल्लाते हुए उस पर हमला कर दिया। एक-एक कान पर दोनों ने चोंच मारना शुरु किया। लड़का चीखते हुए डाल से कूद पड़ा। यह साहस उन बेजुबानों का होता है जिनके बारे में कहते हैं कि उनके विवेक नहीं होता। हमारे शास्त्रों में काग और शुक तो ज्ञान के अकूत भण्डार थे। मंडन मिश्र के शुक-सारिका उनके प्रतिनिधि शास्त्रज्ञ थे। लौकिक संस्कृत के आदि कवि, क्रौंच का आंर्तनाद नहीं सह सके और मनुष्य बहेलिया को शाप दे बैठे, आदि काल से मनुष्य के सहचर रहे पशु पक्षी आज मनुष्य की संगति से विरत हैं। इसमें मनुष्य की अर्थ संस्कृति और सिर्फ अपने में केन्द्रित लाभ और उपयोग की स्वार्थमय संस्कृति है।
 साहित्य को भी बाजार ने ग्रस लिया है। अब उसमें समस्त जीव जन्तुओं की बात नहीं होती। महादेवी की सोना हिरणी,  और गिल्लू (गिलहरी) जैसे जीवन्त और अमर पात्र संस्मरणीय नहीं होते। महादेवी की ऊब से छटपटाकर प्राण देने वाली सोना हिरणी की संवेदना अभी भी अशेष है।  पशु-पक्षियों तक की खोज खबर और उनकी भाषा समझने वाले हम, अपनों की ही भाषा नहीं समझ पा रहे हैं। पशु पक्षियों का हमारे बीच से गायब होते जाना, मनुष्यत्व की परिभाषा पर प्रश्न चिन्ह है। उनसे हमारी 21 वीं सदी का अपरिचित अशुभ संकेत है। पुनर्नवा होना हमारे भारतीयता की परम्परा की पहचान है, पिछड़ेपन की निशानी नहीं। जीव जन्तुओं के आपसी वार्तालाप को समझने की अनेक कहानियों से हमारे शास्त्र   और लोक भरे पड़े हैं। गांव का किसान अपने पशुओं का दुख दर्द जानता है, वे भी स्रेह और दुलार की भाषा आंखों और मुखाकृति से पढ़ समझ लेते हैं। दोनों के बीच साहचर्य भाव है। विजेता और विजित का भाव नहीं वह सब कहां गया?
भौगोलिक स्तर पर मनुष्य सीमाबद्ध है। वह भारतीय, पाकिस्तानी, ईरानी, रूसी, नार्वेनियन, स्वीडिश, फ्रांसीसी और ब्रिटिश है, इन सबकी राष्टÑीय सीमाएं हैं और प्रतिबद्धताएं हैं। उन्हीं के आसपास रहने वाले पशु-पक्षी, हवा-पानी, अन्तरजातीय और अन्तरराष्टÑीय है। हजारों किलोमीटर की अथक यात्रा करके उन्मुक्त विहार करते यूरोपीय पक्षी भारत के अनेक पक्षी विहारों, अभ्यारणों मे बिना बीजा पार पत्र के प्रतिवर्ष प्रवास पर आते हैं। अपने छोड़ गए संतति का हाल चाल जानने, चिल्का झील का पानी पीने और राजस्थान के रेतीले किन्तु सजल धारा में स्नान करने का लोभ वे छोड़ नहीं पाते। किन्तु स्वदेश इतना प्यारा होता है कि वापस भी चले जाते हंै। हम चेतन पक्षी, प्रवासी भी यदि इन पक्षियों से कुछ सीख पाते तो कुछ मनुष्य हो लेते? हमारे लोक जगत में कितने ही सलीम अली हैं जिनको देखकर पक्षियों का समूह उन पर चोंच मानने नहीं उन पर दुलार लुटाने की होड़ लगाते हंै। उनको हमारी संगति चाहिए, वे हमारे सहचर हैं। राष्टÑकवि दिनकर ने कहा था- पक्षी और बादल। ये भगवान के डाकिये हैं। जो एक महादेश से। दूसरे महादेश को जाते हैं। हम तो समझ नहीं पाते हैं। मगर उनकी लाई चिट्ठियां/पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बांचते हैं।      
                                               

Monday, November 21, 2011

तसल्लियों के इतने साल बाद


 आज जब उत्तरप्रदेश को चार राज्यों में बांटने की चर्चा चल पड़ी हो, तो ऐसे में विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय का सवाल  स्वाभाविक ही उठ खड़ा होता है। यूपी के इन प्रस्तावित राज्यों समेत देश भर में जितने भी नए राज्यों की मांग उठती रही है, वे कभी भी एक राज्य के रूप में अस्तित्व में नहीं रहे हैं। इन राज्यों की मांग के पीछे उपेक्षा के तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन असल कारण क्षेत्रीय दलों व उनके नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा है। विन्ध्यप्रदेश का मामला इन सबसे अलग है। सन् 2000 में जब छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण की प्रक्रिया अंतिम दौर पर थी तब भोपाल में भाजपा के सांसद रह चुके वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रशासनिक अधिकारी सुशीलचंद्र वर्मा ने अखबारों में एक भावुक विज्ञप्ति जारी की थी। श्री वर्मा ने कहा था कि आज जब छत्तीसगढ़ राज्य बनने जा रहा है तो मुझे दुख है कि विन्ध्यप्रदेश के साथ भीषण अन्याय हो रहा है। यदि प्रदेश का कोई विभाजन हो, तो पहला अधिकार विन्ध्यप्रदेश का है क्योंकि वह सात वर्षों तक एक फलता फूलता राज्य रहा है। वर्माजी विन्ध्यप्रदेश में आईएएस अधिकारी के रूप में पदस्थ रहे हैं व मध्यप्रदेश में इस राज्य के विलीनीकरण के राजनीतिक अन्याय को देखा था। वर्माजी आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी शुभेक्षा विन्ध्यवासियों के साथ सदैव रहेगी।
दरअसल जो भी ऐतिहासिक तथ्यों को निष्पक्षता के साथ अध्ययन करेगा उसका अभिमत सुशीलचंद्र वर्मा जैसा ही होगा, चाहे वह दिल्ली में बैठा हो या भोपाल में। विन्ध्यप्रदेश के विलय के पीछे कोई ठोस कारण या तर्क नहीं थे। सीमा कमीशन और राज्य पुनर्गठन आयोग ने जनता का अभिमत लिए बिना ही वही सिफारिश की जो केंद्र सरकार ने चाहा। विलीनीकरण के खिलाफ तब समाजवादी विधायक रहे श्रीनिवास तिवारी का विधानसभा में दिया गया भाषण दस्तावेज के रूप में ऐतिहासिक धरोहर है। श्री तिवारी ने तत्कालीन विन्ध्यप्रदेश की आर्थिक क्षमता, साक्षरता और प्राकृतिक संसाधनों का आंकड़ेवार ब्योरा पेश किया था। उन्होंने विधानसभा में केंद्र सरकार को चुनौती दी थी कि सरकार विन्ध्यप्रदेश के विलीनीकरण के पक्ष व विपक्ष को सामने रखकर नया चुनाव कराए। बहरहाल उनकी आवाज सत्ता के नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। सदन में विन्ध्यप्रदेश को अवक्षुण रखने के लिए सर्वसम्मति से प्रस्ताव में हाथ उठाने वाले कांग्रेसी विधायकों के मुंह में दही जमा रहा। किसी की हिम्मत नहीं हुई कि पंडित नेहरू के सामने विन्ध्यवासियों की भावनाओं को पुरजोर तरीके से रखें और एक राज्य को अकाल मौत की सजा से बचाएं। विन्ध्यप्रदेश का विलोपन ही कांग्रेस की राजनीतिक अदावत और सत्ता की स्वेच्छाचारिता के चलते हुआ। पहले आम चुनाव के बाद केरल कांग्रेस के हाथ से निकल चुका था। विन्ध्यप्रदेश में समाजवदियों का जिस तरह से वर्चस्व बढ़ने लगा उससे यह लगभग तय था कि अगली सरकार समाजवादियों की बनेगी इसलिए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने विन्ध्यप्रदेश को अपनी महत्वाकांक्षा के सलीब में चढ़ाने की क्रूरतापूर्ण साजिश को अंजाम दिया।
सन् छप्पन में मध्यप्रदेश के उदय के साथ ही विन्ध्यवासियों का सौभाग्य बिछिया-बीहर में विसर्जित हो गया। दिलासा के लिए राज्यपुनर्गठन आयोग ने वचन दिया कि वह विन्ध्यक्षेत्र के हितों से जुड़ी बात केंद्र सरकार के समक्ष रखेगा और नवगठित मध्यप्रदेश की सरकार से उसका पूरा ख्याल रखने की वचनबद्धता लेगा। भला गुजरे गवाही और बहुरी बारात की कौन फिक्र करता है। विन्ध्यक्षेत्र की यही स्थिति हुई। जबलपुर को हाईकोर्ट और विद्युत मंडल, इंदौर को वाणिज्य,श्रम,लोक सेवा आयोग के प्रदेश कार्यालय सहित हाईकोर्ट की बेंच ग्वालियर को रेवन्यू बोर्ड, भूअभिलेख, आबकारी, आडिट के प्रदेश मुख्यालय समेत हाईकोर्ट की बेंच दी गई। तय यह हुआ था कि रीवा को वन और कृषि विभाग का प्रदेश कार्यालय मिलेगा तथा ज्यूडिशियल कमिश्नरी की एवज में हाईकोर्ट की बेंच दी जाएगी, पर हांसिल आया शून्य।  हम कदम-कदम पर छले गए,उफ् तक नहीं की। कभी रीवा की बराबरी में रहा भोपाल महानगर हो गया। वहां की वादियां अफसरों व नेताओं के सपनों में बसती हैं। विन्ध्यक्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों की कमाई से भोपाल-इंदौर की सड़कें चमचमाती हैं। खनिज रॉयल्टी का साठ प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा हमारा होता है और आईआईटी-आईआईएम इंदौर में खुलता है। हमारे कोयले से अगले साल तक लगभग दस हजार मेगावाट बिजली पैदा होने लगेगी और हम भोपाल में एम्स और आईआईएससी के उद्घाटन की खबर पढ़ रहे होंगे। विकास की ऐसी भीषण विषमता शायद ही कहीं देखने-सुनने को मिले।
विन्ध्यप्रदेश को सियासत की सूली में लटका दिए जाने के बाद उसके दोनों बेटे बघेलखंड और बुंदेलखंड अनाथ हो गए। लेकिन शोषण और उपेक्षा से मिले दर्द के रिश्ते से आज भी ये एक सूत्र में बधे हुए हैं। मुझे याद है कि जब श्रीनिवास तिवारी जी की पहल पर 10 मार्च 2000 को जब विधानसभा में विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय का संकल्प सर्वसम्मति से पास हुआ तो बघेलखंड से ज्यादा बुंदेलखंड के जनप्रतिनिधियों के चेहरों में उत्साह और उमंग के भाव थे।  शिवमोहन सिंह ने सदन में प्रस्ताव रखते हुए जब यह कहा कि ..सदन का यह मत है पृथक विन्ध्यप्रदेश की स्थापना हेतु राज्य शासन आवश्यक पहल करे तथा इसे मूर्त रूप देने हेतु केंद्र सरकार से   अनुरोध करे... तब भावनाओं के अतिरेक में दतिया के राजेन्द्र भारती और टीकमगढ़ के मगनलाल गोइल भी बह रहे थे । रामप्रताप सिंह, इन्द्रजीत कुमार, केदारनाथ शुक्ल, आईएमपी वर्मा, विद्यावती पटेल, पुष्पराज सिंह बढ़चढ़ कर संकल्प के पक्ष में आए । सदन में रवीन्द्र चौबे, चौधरी राकेश सिंह, वनवारीलाल अग्रवाल, सुनीलम और ईश्वरदास रोहाणी जैसे कई प्रतिनिधियों ने इस संकल्प को सार्थक और समयानुकूल कहा था। आज इनमें से कई छत्तीसगढ़ के प्रमुख नेता हैं। इस ऐतिहासिक क्षण के चश्मदीद  रोहाणीजी विधानसभाध्यक्ष हैं। 27 मार्च 2000 को भोपाल में ही विन्ध्यप्रदेश के गठन का राजनीतिक प्रस्ताव भी पारित हुआ। तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष श्री तिवारी के बंगले में बुंदेलखंड और बघेलखंड के प्राय: सभी प्रमुख नेता थे। बुंदेलखंड के गांधी लक्ष्मीनारायण नायक की अध्यक्षता में विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय के संकल्प को दोहराया गया, यहां बुंदेलखंड के प्रमुख नेताओं में ब्रजेन्द्र सिंह राठौर, उमेश शुक्ल, केशरी चौधरी, कैप्टन जयपाल सिंह और सतना के डॉ. लालता खरे, सईद अहमद जैसे नेता भी थे। प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास लंबित है। आज जरूरत है कि दलगत हदबंदियों से ऊपर उठकर अपने हक की लड़ाई लड़ने की। केंद्र में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार है। उस तक प्रभावशाली तरीके से अपनी आवाज पहुÞंचाएं व बताएं कि छप्पन साल पहले हमारे साथ किए गए क्रूर मजाक का प्रायाश्चित यही है कि अब विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय का मार्ग प्रशस्त किया जाए।

Friday, November 18, 2011

लोकोक्तियों में सांस्कृतिक चेतना



ज्ञान और कर्म का समाहार ही सम्पूर्ण मानव-संस्कृति है। संस्कृति पर लोक का दांय है। ग्राम-संस्कृति ही लोक संस्कृति है। जिस साहित्य और कला में लोक तत्वों की जितनी ही प्रमुखता होगी वह उतना ही शाश्वत होगा, किंबहुना कालजयी भी होगा। भक्तिकालीन कविताएं इसीलिए श्रेष्ठ हुर्इं कि उनमें लोकतत्व की प्रधानता थी। लोक कविताओं में जीने की खुशी है तो उसका दर्द भी, निर्मल हंसी है तो कठोर व्यंग भी। संस्कृति जीवन चेतना की वाहिका है। संस्कृति जीवन का सुन्दर, सुकोमल, और सौरभमय पक्ष भी है, समाज के विकास का इतिहास भी। लोक जीवन के चारों ओर बिखरे उपकरण, उसके रीति रिवाज, क्रियाकलाप, धार्मिक-आध्यात्मिक आद्यान, भाषा, गीत, मौखिक आख्यान, प्रचलित लोकोक्तियां और मुहावरे उसके विकास की कहानी कहते हैं। बघेली में लोकोक्तियों के लिए ‘उखान’ राष्टÑ का प्रचलन है। यह ‘उखान’ उपाख्यान का लोक सम्मत रूप है। गम्भीरता से देखा जाए तो लोकोक्तियां अपने गर्भ में एक आख्यान पाले रहती हैं। अर्थात लोकोक्तियां लघुकथाएं हैं, ग्राह्य नीति वाक्य है, एक सूक्ति है, परंतु उनमें सूक्ति जैसी दुर्बोधता ओर नीरसता नहीं होती। वे कालेत्तर होती हैं। उनमें जीवन की सरलता होती है और यह सरलता चिन्तन को जन्म देती है।  ये समझ के साथ विकास पाती हैं। अपनढ़ भी इसका भरपूर सार्थक प्रयोग करते हैं। यही उखान (उक्खान) के कालातीतत्व का रहस्य है, उनका प्रसार सुदूर अतीत से लेकर आसन्न वर्तमान तक है।
‘अधजल गगरी छलकत जाए’ ओछे व्यक्ति का प्रतीक न केवल भारतीय लोक जीवन में है बल्कि ‘इम्प्टी पाट मेक्स मच न्वायज’ के रूप में आंग्ल-जीवन में भी प्राप्त है। ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ समान स्वभाव वालों की जमात को उजागर करता है, आंग्ल-जीवन में ‘बर्ड्स आर सेम फीदर फ्लाक टूगेदर’ बन जाता है। ग्राम्य-अंचल में प्रचलित ‘जेकर जइसन बाप महतारी, तेकर तइसन लड़िका’, ‘लाइक फादर लाइक सन’ से कहां कम है। लोकोक्तियां अमर सांस्कृतिक चेतना तत्व है, गहरी अनुभूतियां हैं, सर्वजनीन, विश्वसनीय हैं। इनके सामने भूगोल की सीमाएं अस्तित्वहीन हैं। इनकी जड़ें मानव स्वभाव की अतल गहराइयों में होती है। बघेली मानस कहता है ‘इनकी धोती आकाश में सूखती है।’ हमारी सांस्कृतिक दांय इन लोकोक्तियों में सुरक्षित है। प्रत्येक काल और समाज में स्वार्थियों  की कमी नहीं रही है। ये किसिम-किसिम के होते हैं। पेट के स्वार्थी या पेटू भी ऐसे ही प्राणी हैं। बघेली में इन्हें ‘हउहा’ कहा जाता है। ‘हउहा’ का चरित्र बहुत ही घृणास्पद और मनोरंजक होता है। ये खा-खाकर मरेंगे, परंतु मर-मर कर भी खाएंगे, और खाने के लिए ललचते रहेंगे। इनके स्वभाव को ‘अपन पेट हाहू, मैं न देइहौं काहू’ लोकोक्ति बखूबी व्यक्त करती हैं। हरेक समाज और जाति कुछ दृढ़व्रती, संयमी और निर्भीक व्यक्तियों के त्याग और संयम के बल पर आज भी गौरवान्वित है, ‘जब कांडी म मूंड़ दीन त मूसर से कउन डेरि’ उक्खान ऐसे ही जुझारू चरित्र को उजागर करता है। लोक जीवन में छाया-धूप के रंगारंग आवर्त-विवर्त की तरह सुख-दु:ख का चक्र चलता रहता है। दु:ख और विवाद की गहराई में आशा की किरण ही धैर्य बंधाती है। इस आशा और जीवन के प्रति अदम्य विश्वास की झलक एवं जिजीविषा की ललक ‘बारह महीना बाद घूरेउ केर दिन फिरथ’ उखान में मिलती है।
   काहिलों और निकम्मों का अभाव कभी नहीं रहा। ऐसे लोग प्राप्त अवसरों का भी उपयोग करना नहीं जानते। ‘बारह बरस दिल्ली रहे, भाड़ ही झोंका किए’ ऐसे ही चरित्रों की ओर संकेत है। इस लोकोक्ति में दिल्ली की प्रतिष्ठा, ख्याति एवं कर्म के क्षेत्र में खुली स्थिति की भी ध्वनि है। उसकी दयनीयता का कहना ही क्या? उसकी कहानी ‘आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ लोकोक्ति की गहरी निराशा में व्यंजित होती है। कपास की खेती और उसका ओटा जाना भी ज्ञातव्य है, इतना ही नहीं यह भी ध्वनित होता है कि ‘हरि भजन’ ही जीवन का महत उद्देश्य रहा है।  कृषक संस्कृति का विज्ञापन तो अनेक लोकोक्तियां करती हैं ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी’ या ‘अब पछिताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ उद्धृत पहली लोकोक्ति उपयुक्त समय पर वांछित क्रिया के सम्पन्न न होने से प्राप्त निराशा, बेबसी एवं दयनीयता का खुलासा करती है। खेती वर्षा पर आश्रित है। मेघ की अदया मार सीधे किसान के पेट पर पड़ती है। वही पीड़ा इस लोकोक्ति का मुखर स्वर है। काल किसी के लिए ठहरता नहीं। समय उसी का हुआ है, जिसने उसे आगे से पकड़ा है, अन्यथा वह द्वार पर दस्तक देकर चला गया है। और ‘हाथ मीजिबो हाथ रहयो’ वाली स्थिति ही मिली है। काल के आगे व्यक्ति का बौनापन भी उद्धृत उपर्युक्त लोकोक्ति का प्रतिपाद्य है।
  लोकोक्ति का नाम रूप कहावत भी है। पढ़े लिखे लोग अपने लेखन को लोक से जोड़ने के लिए इनका प्रयोग करते हैं, लेकिन गांव के लोग तो बात बात में सहज प्रवाह में इनका उपयोग करते हैं। कहावतें/लोकोक्तियां ग्रामीण जनता का दर्शनशास्त्र है। इनमें कही हुई बातें राई-रत्ती सच्ची तथा मानवीय होती है। इसका संचरण बोली-भाषा में किंचित हेरफर के साथ पूरे संसार में एक जैसा है। ‘बनावट’ व्यक्ति के ओछेपन की पहचान है। ओछापन लोक-जीवन में व्याप्त एक महत्वपूर्ण चरित्र है। बड़प्पन भी इसके रहते सुरक्षित है। ‘अरहर की टट्टी गुजराती ताला’ कहावत में ध्वनित अर्थ पर   विचार करें- ताले कभी गुजरात के प्रसिद्ध रहे होंगे और किवाड़ की जगह अरहर की सूखी टटिया। कितनी सार्थक व्यंग्योक्ति है। विसंगति कब और कहां नहीं रही। यह विसंगति विचार, क्रिया और व्यवहार सभी क्षेत्रों में, समाज और जातियों में न्यूनाधिक मात्रा में पाई ही जाती है। न्यायिक संदर्भों में एक विसंगति ‘चोर चौतरा नाची, साहु क फांसी होय’ तो कालजयी है। इस लोकोक्ति पर तो काल का दाग आज भी नहीं लगा। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का मंजर तो शाश्वत सत्य है। काल की गति धूल को आसमान में चढ़ा देती है, नहीं तो बिल्ली के आगे  भला चूहों की क्या बिसात। जो चूहे ‘बिल्ली के गले में घन्टी कौन बांधे’ प्रश्न पर परेशान थे, वे ही समय आने पर ‘बूढ़ी भई बिलैया मुसबे टेमा कान’ शक्तिशाली या दम्भी को यह गांठ बांध लेने की सीख भी मिल रही है कि ‘पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान।’
  लोकोक्तियों में मुखर लोक सांस्कृतिक तत्व हमारी संस्कृति का इतिहास है। हमारे चेतना की कहानी है। इसके आरोहावरोह तंत्री या तमूरे की पदार्थिक सीमा का अतिक्रमण कर अखंड भूमण्डल और अकूत गगनमण्डल को यावद्वयव आच्छादित किये हुए हैं, लोक होनहार बिरबा हैं, संस्कृति लोक पर फूल ओर फल रही है, यही आश्वस्ति-भाव है।
                                              - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                      सम्पर्क - 09407041430.

ऐसे बने गामा रुस्तम-ए-हिंद


सुरेन्द्र किशोर
गामा पहलवान को कौन नहीं जानता? पर वह कैसे रुस्तम-ए-हिंद और रुस्तम-ए-बर्तानिया बने थे, यह आज भी कम ही लोगों को मालूम होगा। कला मर्मज्ञ राय कृष्ण दास ने इसका विवरण विस्तार से लिखा है। पहले रुस्तम-ए-हिंद की उपाधि के बारे में। प्रयाग में 1911 में प्रदर्शनी हुई। वहीं राय कृष्ण दास को गामा की कुश्ती देखने का मौका मिला। अमृतसर में 1880 में जन्मे गामा का 22 मई 1963 को लाहौर में निधन हो गया। प्रयाग के दंगल के समय गामा रीवा के महाराज वेंकट रमण सिंह की प्रतिपालकता में थे। महाराज भी उस दंगल में आये थे। उस समय गामा पूरे ओज पर थे। दंगल में कई अन्य नरेश भी आये थे, जिनके अपने-अपने मंच बने थे।
  रीवा नरेश की कुर्सी के नीचे की दरी पर गामा बैठे थे। सिर पर मुड़ासा, तन पर पंजाबी कुर्ता और लुंगी। पांच फिट सात इंच के गामा ऐसे बैठे थे कि शरीर संपत्ति का कोई अनुमान ही नहीं होता था। ऐसा जान पड़ता था कि मानो कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है जिसका बदन बना ही नहीं। मुकाबला करीम पहलवान से होना था। कलियुगी भीम प्रो. राममूर्ति उसके पृष्ठपोषक थे। वे उसे लिये हुए ठाट-बाट से रंगभूमि में प्रविष्ट हुए। करीम ने पहले से ही जांघिया चढ़ा रखा था। सारी देह पर सिंदूर पुता था। कदम-कदम पर अकड़-अकड़ कर, छाता एक बार दायीं ओर, फिर बायीं ओर तानता, या अली, या अली गर्जन करता अखाड़े तक पहुंचा। दर्शकों को यह दंभ खल उठा।
 गामा ने महाराज के चरण छुए। मुड़ासा, कुर्ता और लुंगी उतार कर रख दी। थोड़ा सा दूध, जो पहले से तैयार था, पीकर दो चार बैठकें लगाकर एक बार जो देह को फुलाया, तो देखते-देखते मृग शावक, मृग राज में परिणत हो गया। हजारों अपलक आंखें एक संग उस शरीर सौष्ठव का निहारने करने लगीं। विनीत भाव से वे अखाड़े में उतरे और पलक मारते ताल ठोंक कर दोनों मल्ल गुंथ गये। दावं-पेच के करिश्मे होने लगे, जिनमें गामा प्रबल पड़ते जा रहे थे।
  किंतु तभी करीम ने एकाएक अपने शरीर को अखाड़े पर डाल दिया और विकल ध्वनि में हाय मार डाला, हाय मार डाला की धुन लगा दी। उस क्लाइमेक्स की यह परिणति देख सभी को आनंदमिश्रित कौतूहल हुआ। रेफरी के पूछने पर करीम ने कराहते हुए बताया कि गामा ने मेरी पसली तोड़ डाली है। डॉक्टर मौजूद थे।  उन्होंने भली-भांति जांच कर कहा कि पसली टूटने का नामोनिशान तक नहीं है। यह बहाना मात्र है। किंतु लाख कहने पर भी करीम लड़ने को तैयार नहीं हुआ।  तब गामा विजयी घोषित किये गये। उन्हें रुस्तम-ए-हिंद की गदा भेंट की गयी। गदा को उसी विनीत भाव से रीवा के महाराज के चरणों में रखकर गामा पुन: अपने स्थान पर उसी भांति बैठ गये। गामा का नाम 1910 में पूरी दुनिया में फैल चुका था। तब इंग्लैंड में उनकी भिड़ंत जिबस्को नामक पहलवान से हुई थी। जिबस्को ने गामा से लड़ते समय पेट के बल जमीन थाम ली थी। गामा रद्दे पर रद्दे लगाते रहे, उसे चित करने की कोशिश करते रहे, पर वह टस से मस नहीं हुआ। उसका शरीर इतना वजनी था कि गामा उसे उठा नहीं सके। कुश्ती अनिर्णीत रही। कुश्ती के लिए दूसरा दिन तय किया गया। पर जिबस्को नहीं आया। आयोजक उसके यहां दौड़ते-दौड़ते हार गये। वह मुंह छिपाता रहा। इस पर गामा विजयी माने गये। गामा को रुस्तम-ए-बर्तानिया की उपाधि दी गयी। गामा की वजन उठाने की क्षमता पर राय कृष्ण दास ने लिखा है, यह तब की बात है जब गामा दतिया नरेश की छत्रछाया में थे। 1901-02 में भयंकर प्लेग की बीमारी आयी, तब मैथिलीशरण गुप्त का परिवार चिरगांव से भाग कर दतिया चला गया था। उनके संग लोहे की एक भारी तिजोरी थी, जिनमें उनका सारा माल था। मैथिलीशरण जी की पहली ससुराल दतिया में थी। गामा का मैथिलीशरण जी की ससुराल वाले परिवार में आना-जाना था। जिस तिजोरी को दसियों लोगों ने मिलकर किसी तरह बैलगाड़ी पर चिरगांव में चढ़ाया था, उसे गामा और उनके भाई ने इस तरह खिलवाड़ में बैलगाड़ी से उतार कर ठिकाने रख दिया, मानो वह तिजोरी नहीं, दफ्ती की बनी पोली पेटी हो। इससे पता चलता है कि जिबस्को कितना वजनी पहलवान था।
 प्रयाग में मूक चलचित्र प्रदर्शनी  हुई। उसमें गामा-जिबस्को कुश्ती का समूचा दृश्य था। गामा साधारण पहनावे में थे। ऊनी ड्रेसिंग गाउन पहने उन्होंने रंगभूमि में प्रवेश किया था। उन्होंने जिबस्को से हाथ मिलाया। तब से लेकर तब तक के दृश्य दिखाये गये, जब अचल-कूर्म बने जिबस्को को टस से मस करने के भीष्म प्रयत्न में गामा विफल रहे। गामा और गुलाम दो अलग-अलग पहलवान थे। कुछ लेखक दोनों के बीच घालमेल कर देते हैं। गुलाम का देहांत 20 वीं सदी के प्रारंभ में ही हो गया था, जब गामा पट्ठे ही थे। पंडित मोतीलाल जी 1899 में पेरिस प्रदर्शनी में गुलाम पहलवान को साथ ले गये थे।
                                                     - लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

दांव, जो उल्टा भी पड़ सकता है


प्रमोद जोशी
उत्तर प्रदेश प्राचीन आर्यावर्त का प्रतिनिधि राज्य है। इसके कई शहरों का देश में ही नहीं, दुनिया के प्राचीनतम शहरों में शुमार होता है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1947 की आजादी तक यह प्रदेश राष्टÑीय आंदोलनों में सबसे आगे होता था। वैदिक, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के अनेक पवित्र स्थल उत्तर प्रदेश में हैं। सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से यह भारत का हृदय प्रदेश है। आबादी में दुनिया का सबसे बड़ा उपराष्टÑीय क्षेत्र है। यदि इसकी तुलना विभिन्न देशों से करें, तो दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश साबित होगा। ब्राजील से भी बड़ा। आर्थिक और सामाजिक मापदंडों पर यह इलाका 1947-48 में प्राय: अधिकतर मामलों में तत्कालीन राष्टÑीय औसत से या तो ऊपर रहता था या काफी करीब था। कानपुर अपने वक्त में देश के सबसे विकसित औद्योगिक शहरों में था। लखनऊ, कानपुर, आगरा, बरेली और मेरठ जैसे शहर साठ साल पहले बेंगलुरू, अहमदाबाद, बड़ोदरा या कोयम्बटूर के मुकाबले उतने हल्के नहीं थे, जितने आज हैं। देश के सबसे अच्छे शिक्षा संस्थान इस प्रदेश में थे। आजादी के 64 साल में राष्टÑीय स्तर पर कहानी बेहतर हुई। उत्तर प्रदेश में बद से बदतर होती गई। विकास के ज्यादातर पैमानों पर उत्तर प्रदेश पिछड़ता चला गया।
 अक्सर कहा जाता है कि देश को आठ प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश ने दिए हैं। पर राष्टÑीय राजनीति में सबसे निर्णायक भूमिका उत्तर प्रदेश की होती है। तब क्या वजह है कि विकास की दौड़ में यह प्रदेश बजाय सबसे आगे रहने के लगातार पिछड़ता चला गया? क्या इसका आकार इसकी वजह है? इतने बड़े राज्य का प्रशासन सफलतापूर्वक चलाना क्या असंभव है? प्रश्न प्रदेश, उल्टा प्रदेश और कायर प्रदेश जैसे विशेषण क्या इस प्रदेश को शोभा देते हैं? देश के बीमारू प्रदेशों में इसकी गिनती होने की मूल वजह क्या इसका आकार है? और क्या इसके टुकड़े कर देने मात्र से बीमारी खत्म हो जाएगी? राज्य-मंत्रिमंडल ने उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने का फैसला कर जरूर लिया है, पर यह बगैर राष्टÑीय बहस के लागू नहीं हो पाएगा। उत्तर प्रदेश के आकार और विकास पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं, पर प्रदेश की जनता ने शिद्दत से यह सवाल कभी नहीं उठाया। 1950 में यूनाइटेड प्रॉविन्स से उत्तर प्रदेश बनने के वक्त, इसका आकार आज से भी बड़ा था। तब यह राष्टÑीय मानकों में बीमारू नहीं था। 61 साल में ऐसा क्या हुआ, जिसने इसे बीमार बना दिया? क्या सिर्फ आकार? उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में राज्य छोटा बनाने या नया राज्य बनाने का जनांदोलन नहीं चल रहा है। हरित प्रदेश, बुंदेलखंड या अवध प्रदेश बनाने की मांग उठती रही है, लेकिन यह मांगें ही हैं। जनता इन मांगों के समर्थन में वैसे सड़कों पर नहीं उतरी, जिस तरह तेलंगाना की जनता उतरी। जबरदस्त आंदोलन के बावजूद तेलंगाना गठन में तमाम अवरोध हैं। विदर्भ और गोरखालैंड के आंदोलन अरसे से चले आ रहे हैं। अनेक भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आधार इन राज्यों की स्थापना का समर्थन करते हैं, लेकिन वे नहीं बने। बनें या न बनें, लेकिन उनके पीछे कम से कम जनता की मांग है। उत्तर प्रदेश को काटकर चार राज्य बनाने की मांग न तो जनता की ओर से है और न राजनीतिक दलों की ओर से। प्रदेश सरकार के इस फैसले के बाद ज्यादातर राजनीतिक दल सन्नाटे में हैं। एकदम इसका विरोध करने में वे घबरा रहे हैं। केवल समाजवादी पार्टी ने सीधा विरोध किया है। बसपा से सीधा और खुला राजनीतिक विरोध इसी पार्टी का है। इसे यह मुखर रूप में व्यक्त कर रही है।
 सहज ही समझ में आता है कि सरकार का यह फैसला चुनाव के पहले का राजनीतिक कदम है। इसे कुछ लोग इस रूप में भी ले रहे हैं कि सरकार एंटी इनकंबैसी की ओर से ध्यान हटाकर बहस के रुख को मोड़ देगी। इसकी नाटकीयता में चतुराई देखी जा रही है। जरूर चतुराई होगी, लेकिन उत्तर प्रदेश के निवासी नासमझ नहीं हैं। तमाम विसंगतियों के बावजूद उत्तर प्रदेश राजनीतिक मामलों में देश का नेतृत्व करता है। देश में अनेक उप-राष्टÑीयताएं हैं। भाषा, क्षेत्रीय पहचान, संस्कृति वगैरह के कारण उप राष्टÑीयताएं विकसित हुई हैं। सांस्कृतिक बहुलता की दृष्टि से यह अच्छा है। मौका आने पर हम सब भुलाकर राष्टÑीय धारा में शामिल होते हैं, लेकिन गंगा-यमुना की तरह उत्तर प्रदेश हमेशा एक राष्टÑीय धारा में बहता है। प्राचीन आर्यावर्त के प्रतिनिधि इस राज्य के निवासियों ने हमेशा अपने आपको भारतीय और सिर्फ भारतीय माना। इसकी विशालता ने भले ही इसे पिछड़ा बनाकर रखा हो, लेकिन निवासियों ने अपने हाथ-पैर काटकर छोटा होने की कामना नहीं की।
हाल के वर्षों में उत्तराखंड, झरखंड और छत्तीसगढ़ का अनुभव बताता है कि छोटे राज्य बनने से आर्थिक विकास का रास्ता खुलता है। स्थानीय प्रशासन सक्रिय होता है। स्थानीय आबादी की शासन में भागीदारी बढ़ती है। राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ती है। छोटे जातीय-सामाजिक समूहों और उनके निरंकुश नेताओं को ताकतवर बनने का मौका भी मिलता है। भ्रष्टाचार के दरवाजे भी खुलते हैं। देश के अंतर्विरोधों को खोलने की जरूरत है, लेकिन देश को जोड़े रखने के लिए इस विकेंद्रीयता और केंद्रीयता के बीच संतुलन भी चाहिए। जो नियम छोटे राज्य पर लागू होते हैं, वही छोटे देश पर भी लागू होते हैं। अनेक दिलजले भारत को   टुकड़ों में बांटने की कामना भी रखते हैं। राजनीति में भी राष्टÑीय दलों के क्रमश: कमजोर होने के नकारात्मक पहलू सामने आए हैं। छोटी राजनीतिक इकाइयां छोटे राजनीतिक समूहों की ताकत बढ़ाती हैं, तो यह एक उपलब्धि है, लेकिन उसके खतरे भी हैं। उत्तर प्रदेश का विभाजन कुछ नए क्षेत्रीय समूहों को जन्म देगा। उनके निहितार्थ समझने की जरूरत भी है।
80 सांसदों के साथ उत्तर प्रदेश इस वक्त देश का सबसे ताकतवर राज्य है। बड़े राज्यों के प्रशासनिक नियंत्रण के दूसरे सूत्र भी हैं। क्षेत्रीय विकास परिषदें बनाकर बड़े राज्य के भीतर स्वायत्त क्षेत्र बना सकते हैं। यह काम प्रशासनिक और आर्थिक सतह पर होगा। आखिर हम स्थानीय निकायों को स्वायत्त बनाने की कोशिश कर ही रहे हैं। इन्हें सबल बनाकर जनता की भागीदारी सुनिश्चित करके बड़े राज्य की शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। यह निर्णय विकास के नहीं, राजनीति के रास्ते खोलने के वास्ते है। इसकी नाटकीयता से एक बात यह भी पता लगती है कि प्रदेश के सत्तारूढ़ दल में असुरक्षा का भाव है। यह इतना महत्वपूर्ण मसला था, तो 2007 में सरकार बनते ही इसकी प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए थी। बहरहाल यह एक दांव है, जो उल्टा भी पड़ सकता है।
                                                 - लेखक वरिष्ठ  स्तंभकार हैं।

Monday, November 14, 2011

कहाँ तो तय था


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए.

---Dushyant Kumar

विकास सूचकांक में मप्र सबसे फिसड्डी


 मप्र सरकार भले ही विकास दर के आधार पर प्रदेश को प्रगति के पथ पर सबसे आगे बता रही हो, लेकिन वास्तविकता इससे कहीं उलट है। दस प्रदेशों के विकास सूचकांक में मप्र सबसे फिसड्डी है। पीएचडी चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के एक अध्ययन में यह बात सामने आई।

चैंबर्स ने मप्र सहित दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और जम्मू कश्मीर के विकास सूचकांकों का अध्ययन किया। अध्ययन के अनुसार कृषि व उससे जुड़े क्षेत्रों में बेहतर विकास दर के बावजूद खाद्यान्न उत्पादन में फिसड्डी रहने और गरीबी व बेरोजगारी कम करने में असमर्थ होने के चलते राजस्थान, मप्र और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार के समानांतर भी नहीं चल पा रहे हैं।

मप्र और छत्तीसगढ़ में गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों का आंकड़ा 30 प्रतिशत को पार कर चुका है। बालिका संरक्षण के लिए तमाम योजनाओं के बावजूद मप्र में शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक बनी हुई है। अध्ययन में वित्त वर्ष 2005 से 09 के बीच राज्यों के आर्थिक विकास से जुड़े सभी पहलुओं को आधार बनाया गया है।

अध्ययन के आधार पर जारी राज्य विकास सूचकांक में दिल्ली को पहला स्थान मिला है, जबकि मध्यप्रदेश सबसे निचले दसवें पायदान पर है। रिपोर्ट के मुताबिक, फूड बास्केट माने जाने वाले इन राज्यों का देश के सकल राज्य घरेलू उत्पादन (जीएसडीपी) में अकेले 34 प्रतिशत का योगदान है।

इनमें उप्र का सर्वाधिक नौ, राजस्थान का पांच, मप्र, पंजाब का 4-4 और छग का दो प्रतिशत है। अन्य राज्यों का एक प्रतिशत से भी कम है। प्रति व्यक्ति सालाना आय के मामले में दिल्ली शीर्ष पर है। वहां प्रति व्यक्ति आय 1,17,000 रुपए है, जबकि छत्तीसगढ़ व राजस्थान की 30 से 40 हजार, और मप्र और उप्र की रैंक सबसे नीचे Rमश :27,250 और 23,132 रुपए है।

क्या कहा प्रदेश के बारे में

> मप्र देश के तीन अविकसित राज्यों में शुमार हैं।
> कृषि आधारित इस प्रदेश में कृषि अनुत्पादक है, जिसके कारण प्रदेश में गरीबी विद्यमान है।
> सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं होने के कारण उत्पादकता कम है। फसलों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
> प्रदेश में कृषि को विकसित करना होगा, नई तकनीक, उन्नत बीजों का प्रयोग करने के अलावा मार्केटिंग को भी विकसित करना होगा।

विकास के सूचकांक में दिल्ली अव्वल

> दिल्ली 65.15
> हरियाणा 53.61
> पंजाब 52.21
> उत्तराखंड 45.19
> हिमाचल 44.49
> छत्तीसगढ़ 44.13
> जम्मू कश्मीर 42.55
> उप्र 42.54
> राजस्थान 42.09
> मध्यप्रदेश 38.34
(स्रोत : पीएचडी चैंबर्स आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री की अध्ययन रिपोर्ट, आंकड़े फीसदी में)

मप्र विकास की ओर बढ़ रहा है। जहां तक प्रति व्यक्ति आय का प्रश्न है, वह राष्ट्रीय औसत से इसलिए कम है क्योंकि हमारी सरकार आने के पूर्व प्रदेश की स्थिति बहुत ही खराब थी। मैंने पीएचडी चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की अध्ययन रिपोर्ट नहीं देखी है, इसलिए उस पर मैं कमेंट नहीं कर सकता।
राघवजी, वित्त मंत्री

मप्र के पिछड़ने की कई वजहें हैं। हमारे यहां कुशल श्रमिकों की कमी है, सड़कें नहीं हैं, शिक्षा के मामले मंे हम पीछे हैं। कृषि उत्पादकता भी अपेक्षाकृत कम है। हम विकास के आधारभूत मानकों को भी पूरा नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में हम विकासशील से विकसित राज्य की श्रेणी में कैसे आ सकेंगे?
राजेंद्र कोठारी, पूर्व रेजीडेंट डाइरेक्टर, पीएचडी चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री

दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो

दुष्यंत कुमार की हर पंकितयां अवाम के हक में नारे की तरह गंूजती रही हैं। सन् पचहत्तर के आस-पास लिखी एक गजल की कुछ पंक्तियों पर गौर करें और उसके बरक्स आज के हालात पर नजर डालें,
 भूख है तो सब्र कर  रोटी नहीं  तो  क्या हुआ 
आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुद्दआ।
मौत  ने  धर  दबोचा  एक  चीते की  तरह 
जिंदगी ने जब छुआ फासला रखकर छुआ।
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं 
आह भरकर गालियां दो पेट भरकर बद्दुआ।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुआं।
दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा उनके पिंजरे में सुआ।
पिछले 37 सालों में देश बदला है पर आम आदमी की जिंदगी और मुश्किल हुई है। उसके झोपडंं़ों तक पीने का साफ  पानी नहीं पहुंचा पर टीवी पहुंचा दी गई, ताकि मूर्खों के स्वप्रलोक में वह भी मगन रहे। हाथों में मोबाइल थमा दिया, काम और रोटी का इंतजाम भले न किया हो। मोबाइल और टीवी अमीरी के मानक हैं। शायद इसीलिए अर्थशास्त्री मन्टेक सिंह अहलूवालिया ने अमीरी की नई परिभाषा गढ़ दी और हम कुछ नहीं बोले। जो व्यक्ति बत्तीस रुपए रोजाना खर्च करने की हैसियत रखता है वह गरीबी रेखा से ऊपर है। मन्टेक को नहीं मालूम कि सब्जीमंडी में सोलह रुपए की सौ ग्राम लहसुन मिलती है। कल यह भाव तोले में आने वाला है। 
पहले तोले की माप के साथ सोना जुड़ा था, निकट भविष्य में खाद्यवस्तुएं जुड़ जाएंगी।  लोगों को याद होगा, सतहत्तर के जनता शासन के उत्तरार्ध के दिनों सोने के दाम अचानक बढ़ गए थे। इंदिरा गांधी ने इसे एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा बनाया था। वे अपनी सभाओं में कहती थीं, कांग्रेस का राज लौटा तो बहनों के मंगलसूत्र की साध हम पूरी करेंगे। भारत में सुवर्ण हमेशा से भावनाओं में रचा बसा रहा है। गरीब से गरीब की अंतिम इच्छा यही रहती है जिंदगी में न सही मरते समय उसके मुंह में गंगाजल-तुलसी के साथ सोना डाला जाए। आज वही सोना 29 हजार प्रतिग्राम का भाव पार कर गया। चाहें तो राजनीतिक दल इसे एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा बना सकते हंै। वे एक अपील जारी कर सकते हैं। हमें चुनकर सत्ता में भेजिए, आपके मरते समय तुलसी-गंगाजल के साथ सोने का इंतजाम हम करेंगे। 
 आज जब हम मंहगाई के सवाल उठाते हैं तो हमारे कर्मठ, ईमानदार और अर्थशास्त्र में कुशल प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बेझिझक कहते हैं कि मंहगाई का मसला बाजार पर छोडि़ए सरकार अब कुछ नहीं कर सकती। इसके उलट वे यह कहने में जरा भी देर नहीं करते कि शराब सम्राट विजय माल्या की हवाई सेवा किंगफिशर  को बेलआउट पैकेज देने के लिए वे वित्तमंत्री और विमानन मंत्री से विचार विमर्श करेंगे। किंगफिशर सात हजार करोड़ रुपयों के घाटे के चलते बंद होने के करीब है। वो माल्या जो बेंगलूरू में अपने रहने के लिए पांच हजार करोड़ रुपए का आशियाना बनवा रहे हैं, उनकी डूबती कंपनी को लेकर अपने प्रधानमंत्री को भारी चिंता है। मंहगाई में पिस रही देश की जनता के लिए कोई राहत की बात नहीं, किसी भी किस्म के बेलआउट पैकेज पर चर्चा नहीं। अमेरिका में डूबते कारपोरेट बैंकों और कंपनियों के बेलआउट पैकेज ने ही वहां की अर्थव्यवस्था का बाजा बजा दिया है। अमेरिकी युवाओं ने वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करने के नारे के साथ पिछले दो महीनों से आंदोलन छेड़ रखा है। 
 हम सबने लोकतंत्र की एक सर्वमान्य परिभाषा पढ़ी है। एक एेसा तंत्र जो जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा हो। हमारे प्रधानमंत्री और उनकी मंडली के लोग लोकतंत्र की नई परिभाषा गढऩे में लगे हैं। कारपोरेट का, कारपोरेट के लिए कारपोरेट के द्वारा। अमीरी नापने की नए मीटर बनाए जा रहे हैं। सनसेक्स, इन्डेक्स और ग्रोथ रेट के आंकड़े तय करते हैं कि देश की जनता कितनी खुशहाल है। आम आदमी के आंसू और मुस्कान अब बदहाली और खुशहाली के मापदंड नहीं रह गए। यह कोई कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की बात नहीं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का भी यही मापदंड है। क्या आप इंडिया शाइनिंग और फीलगुड के जुमले को भूल गए। ये नारे भी गरीब के होठों की मुस्कान से नहीं अपितु शेयर के चमकते सट्टाबाजार से निकले थे।  सो यह भूल जाइए कि ये चले गए और वो आ गए तो स्थितियों में कोई फर्क पड़ेगा। आज देश का सबकुछ  मल्टीनेशनल्स और कारपोरेट के ऑक्टोपसी शिकंजे में फॅसता जा रहा है। क्या आपने पहले कभी हवा में सौदेबाजी के बारे में सुना था? लेकिन अब हवाई सौदेबाजी से ही बाजार का रुख(जिस बाजार की बात मनमोहन सिंह करते हैं) तय होता है। इसे वायदा कारोबार कहा जाता है। हमने सुना था कि पहले गांवों मे बेटे-बेटियों के शादी के रिश्त गर्भ में ही तय हो जाया करते थे। अब जिंस के रेट फसल बोते ही तय हो जाया करते हैं। सोना- चॉदी, अन्न-गल्ला सब का एेसा ही कारोबार होता है। अन्न, फल, सब्जियों के बीजों पर डंकल का अनुशासन चलता है। सबकुछ कारपोरेट का, कारपोरेट के लिए, कारपोरेट के द्वारा। क्या कहिएगा किसी को। 
  पुराने जमाने में राजा जनता का सुख-दुख देखने भेष बदलकर उनके बीच जाता था और अपने राजकाज के संबंध में प्रतिक्रियाएं प्राप्त करने के बाद अपनी नीतियों को बनाता-बदलता था। आज के राजा जनता की बदहाली जाानने के लिए जिस रथ से निकलते हैं उसके पहिए में ही भ्रष्टाचार की टायर-ट्यूब और हवा भरी होती है। धन्नासेठों और बेइमान नौकरशाहों के चंदों से सजे पंडालों में सदाचार पर प्रवचन होते हैं और हम तालियां पीटते हुए जयकारों के नारे लगाते हैं। उन्हे चुनते हैं, सत्ता का सूत्र हाथों में सौंपते हैं। सिंहासन में बैठते ही उनके स्वर से वही बोल फूटने लगते हैं जिससे आजिज आकर हमने व्यवस्था बदली थी। यही सबकुछ करते-झेलते आ रहे हैं सदियों से। मंगोल,हूण, शक, तुर्क, पठान, मुगल, पुर्तगाली, डच,फ्रेंच और अंग्रेज आए राज किया। कुछ  रच-बस गए, कुछ चले गए। हम यही गाकर खुश हो लिए कि ..कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों से रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। और शायद संैतीस साल पहले दुष्यंत कुमार इसी इतिहासबोध के चलते देश की नियति के बारे में लिख गए कि.. दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा(दुखी,नराज) न हो, उनके हाथों में है पिंजरा उनके पिंजरे में सुआ।    

Saturday, November 5, 2011

..कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मनुष्य की तरह शब्दों के भी उत्कर्ष और अपकर्ष होते हैं। धर्म, सत्य, सदाचार जैसे शब्द अपने साथ अनेक मिथकों एवं इतिहास कथाओं के साथ अर्थ को व्यापक बनाते थे, और वे ही मानक बन जाते थे। यद्यपि तब भी इनकी अर्थवत्ता पर प्रश्नचिन्ह थे? परंतु आज तो वे सर्वथा निरर्थक हो चुके हैं। विजयदशमी की वार्षिकी कितने दिनों से चल रही है? इसकी सार्थकता और ऐतिहासिकता पर प्रश्न खड़ा करना अविवेकी और नास्तिकता की श्रेणी में आता है। अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य, अनाचार पर सदाचार और बुराई पर अच्छाई की विजय का कर्मकाण्ड हर वर्ष होता है। बुराई के प्रतीक रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण के पुतले देश के बड़े नेताओं की उपस्थिति में जलाये जाते हैं। शायद ही किसी नेता ने इन प्रतीकों के संदर्भों को ईमानदारी और तटस्थ भाव से पढ़ा और महसूस किया हो। वाल्मीकि ने अपने आदिकाव्य में रावण और मेघनाद को महात्मा शब्द से भी सम्बोधित किया है। सूर्पणखा का नाक-कान काटना और बालि को छिपकर मारना, सीता की अग्नि परीक्षा-निष्कासन, शम्बूक-वध किस धर्म एवं सदाचार के मानक हैं।  रावण और उसका परिवार हर वर्ष मरता है अर्थात् हर वर्ष जन्मता भी है, परंतु राम हर वर्ष उसको मारने की प्रतीक्षा करते हैं। हर वर्ष जन्मने वाला परिवार निश्चित रूप से रावण का नहीं है, तो वह रामाश्रयी है। उत्तर भारत में जिसे जलाया जाता है वह एक नाटक परम्परा है जिसे जीवन से जोड़कर वर्षों से दिखाया जा रहा है। धर्म, सत्य, सदाचार, अच्छाई शब्द ताकतवर लोगों का वाग्विलास है। दबाव बनाने वाले अंतर्कथाओं से सम्पन्न इन शब्दों का अपकर्ष निरंतर हो रहा है। कभी कहा जाता है जहां धर्म है वहीं विजय है, कभी यह भी कहा गया जहां मैं हूं वहीं धर्म है। उत्तर भारत की जनता के मानस से रावण-दहन कब निकलेगा कौन जाने? जबकि उनके अन्दर का रावण अद्यावधि जीवित है।
 भारतीय पुरा काव्य और साहित्य में भी लेखकीय ईमानदारी नहीं दिखती। व्यास जैसे रचनाकार भी यत्र-तत्र पाण्डवों के पक्ष में खड़े दिखते हैं। सच तो यह है कि हमने पुराने इतिहास को भी अपौरुषेय मान कर उन्हें पूजनीय बना दिया। उसके निहितार्थ को जीवन में उतारने से गुरेज किया। कृष्ण-सुदामा की मित्रता को मित्रता का मानक मान लिया। मित्रता तो तब धन्य होती जब कृष्ण अपने मित्र का समाचार लेने उनके आश्रम गए होते, हमने उन्हें (कृष्ण) भगवान मानकर भक्त (सुदामा) की परीक्षा लेने तक केन्द्रित कर दिया। मित्रता को हाशिए पर रखा? और कर्ण-दुर्योधन की मित्रता को उस स्तर तक रेखांकित नहीं किया गया। माना कि दुर्योधन का कर्ण की मित्रता में स्वार्थ था, लेकिन कर्ण नि:स्वार्थ निरुद्देश्य मित्रता पर बलिदान हो गया। वह सिर्फ इसलिए जीता रहा कि मित्र दुर्योधन पर बाण चले तो वह अपने सीने पर झेले, न उसे राज्य से मतलब था न जीत-हार से। अनैतिकता की भी नैतिकता होती है।  निहत्थे कर्ण पर अर्जुन का प्रहार भी क्या नैतिक था? धर्म था? कर्ण, भीष्म यह जानते हुए भी कि अनैतिकता के पक्ष में खड़े हैं, नैतिक दिखते हैं। जिसके साथ हैं, जिन वचनों को अनजाने ही स्वीकार कर लिया उसके लिए ताउम्र लड़ते रहे। यही स्थिति द्रोणाचार्य और कृपाचार्य की भी थी। व्यास को सुगंध की तरह अपने काव्य में प्रच्छन्न रहना था, नहीं रह सके। झूठ पर झूठ बोलते युधिष्ठिर अंत तक धर्मराज ही बने रहे। कृष्ण पर अडिग आस्था रखने वाले अर्जुन भी जब कभी संशय के शिकार हुए, उनकी सहायता की। कृष्ण के मूल्य तो निस्पृह और स्थित प्रज्ञता के हैं, लेकिन अर्जुन को पारिवारिक और संसारी ही बने रहने देना चाहते हैं।  वहीं वेद व्यास (द्वैपायन) कृष्ण के साथ प्रभास क्षेत्र तक जाते हैं। कृष्ण हर क्षेत्र में जीवन की पूर्णता की बात करते हैं।
आचार्य चाणक्य अपने उददेश्य की पूर्ति के लिए लोक में कौटिल्य कहलाए।  यह नाम नहीं था यह उनके स्वभाव का गुुण-धर्म है। चाणक्य ने अपने लिए क्या किया? सम्राट बनाने के बाद भी चन्द्रगुप्त के राज्य को निष्कंटक बनाने की बात ही आजीवन सोचते रहे। कृष्ण के जीवन को आदर्श मानते चाणक्य राष्टÑ चिंतन में ही लगे रहे। क्या वे चाहते तो सम्राट हो सकते थे? क्या कृष्ण द्वारकाधीश थे?  क्या राम के जीवन का उत्तरकाण्ड रोका जा सकता था। सीता का पाताल प्रवेश , राम की सरयू समाधि रोकी जा सकती थी? नहीं, यह नियति-कवि के लेखनी की स्याही थी, जो आज भी प्रवहमान है, इतिहास और वर्तमान में भी। चाणक्य शहर के बाहर एक झोपड़ी में रहते थे। तत्कालीन देश के निर्माता थे। चीनी यात्री फाह्यान को आश्चर्य हुआ। उसने चाणक्य से प्रश्न किया कि इतने बड़े देश का प्रधानमंत्री नगर के महल में न रहकर झोपड़ी में क्यों रह रहा है। चाणक्य ने कहा जिस देश का प्रधानमंत्री साधाण कुटिया में रहता है, वहां के निवासी भव्य महलों में निवास किया करते हैं। और जिस देश का प्रधानमंत्री ऊंचे महलों में रहता हो, वहां की आम जनता तो झोपड़ियों में ही रहेगी?  परम्पराएं जब रूढ़ हो जाती हैं, तब प्रथा बनकर कुरीति बन जाती हैं। परम्पराओं में संवर्धन, परिवर्तन और संशोधन होते रहना ही जीवित-जाति का प्रमाण है।
 अनेक अर्थों में बापू बहुत रूढ़ थे, वे बहुत हठी थे, सीमाहीन, परंतु वे भी कभी-कभी नरम हो जाते थे। शराब पीने के वे सख्त खिलाफ थे। पंडित मोतीलाल नेहरू इतिहास में ऐसे अकेले नेता थे जो बेटे के प्रभाव से   राजनीति में आए और ऐतिहासिक लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन के गवाह बने थे। मोतीलाल नेहरू ने बापू से कहा  ‘बापू! मैं शराब छोड़ नहीं पा रहा हंू’ तो बापू बोले- ‘कोई बात नहीं, लेकिन मेरे आश्रम में मत आना।’ आज की स्थिति में कोई ऐसा चरित्र कहीं, किसी का दिखता है। बापू ने देखा कि डॉ. राममनोहर लोहिया सिगरेट पीते हैं। उन्होंने  लोहिया को पास बुलाया - बोले - ‘जरा हिसाब लगाना कि तुम दिन भर में जितने पैसों की सिगरेट पी जाते हो, क्या हिन्दुस्तान का आम आदमी उतने पैसे कमा पाता है।’ समूह और समाज की भी अपनी सोच होती है जो ज्यादा बुद्धिवादी नहीं होता लेकिन वह भी गलत और सही की विवेचना अपनी समझ के अनुसार करता है। इतने दिनों में देखता-परखता वह भी मानने लगा है कि ऐसे प्रतीकार्थों की परम्परा बंद होनी चाहिए। या फिर पुतले जलाने की प्रथा पर जनसंसद बैठनी चाहिए। दुष्यंत ने ठीक कहा था- ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’
                                                           

दश (दस) हरा या दसराहा?

शक्ति परम्परा में दुर्गा पूजा के ये नौ दिन ‘शारदीय नवरात्र’ के रूप में माने जाते हैं। आदिकाव्य रामायण, जो रामकथा का अधिकारिक रुप है (जिसे लेकर भारत की सभी भाषाओं में रामकाव्य लिखे गए) में रावण के मरने की तिथि का कहीं उल्लेख नहीं है, लेकिन दशहरा (दस सिर के खत्म होने की तिथि) निश्चित है। शाक्त परम्परा पूर्वोत्तर भारत की देन है। आर्य परम्परा में शक्ति के यज्ञ हवन-पूजन की चर्चा नहीं है। जबकि बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में मात्र शक्ति की ही न सिर्फ पूजा होती है वरन् यह राज्य सरकारों का भी उत्सव होता है। दुर्गा नवमी के ये दिन आराधना-हवन और साधना (तंत्र) मंत्र के हैं। काली (बंगाल) कामाख्या (आसाम) दन्तेश्वरी (बस्तर) चामुण्डा (मैसूर) और देश के अन्य हिस्सों में भी मां दुर्गा की पूजा के ये दिन, रज-सत-तम तीनों भाव से पूरी श्रद्धा और दृढ़ता के साथ मनाये जाते हैं। दशहरा के दिन रावण के मरने का उल्लेख, हिन्दी क्षेत्र में सबसे अधिक लोकप्रिय रामचरित मानस में भी नहीं है। जो कथा, काव्य और पुराणों में नहीं है, उसे लोक ने सूमची ताकत से देश भर में व्यापक बना दिया है। हां लोक में दशहरा नहीं ‘दसराहा’ है। इस तिथि के बाद दसों रास्ते खुल जाते हैं। जो शुभ कार्य चतुर्मास में वर्षा के कारण बन्द थे, उनकी शुरुआत हो जाती है। तुलसी के राम ने भी चतुर्मास ऋदय मूक पर्वत पर बिताया था तत्पश्चात वानरों, भालुओं द्वारा सीता की खोज का श्री गणेश हुआ था। नदी-नालों का पानी कम होने लगता है। आकाश निरभ्र हो जाता है। खुशनुमा (न गर्मी, न सर्दी) मौसम, प्राचीन काल में राजे-महाराजे इस दिन शस्त्रपूजा किया करते थे और युद्ध करने के के लिए (सीमा-विस्तार)  निकला करते थे। निष्कर्षत: दशहरा की प्रामाणिकता की अपेक्षा ‘दसराहा’ लोक जीवन में अधिक साम्य रखता है किसी अधिक सजे-धजे व्यक्ति को देखकर यह लोकोक्ति यहां के जनजीवन में आम है- ‘दसराहा’ के हाथी कस सजे हैं। राजा हाथी पर सवार होते थे, हाथी को खूब सजाया जाता था। जनता को दर्शन देने के लिए राजे निकलते थे। शक्ति की आराधना परम्परा काव्य और पुराणों में वर्णित राक्षसों में भी हैं।
    लंकाकाण्ड में जब मेघनाद को जाम्ववान पैर पकड़कर फेंकते हैं, तो वे देवी के मंदिर में जाकर हवन-पूजन करने लगता है। विभीषण कहते हैं यदि मेघनाद अनुष्ठान पूरा कर लेगा तो अजेय हो जाएगा अत: उसके यज्ञ का विध्वंश आवश्यक है। राम के आदेश से सभी वानर-भालू जाकर यज्ञ में बाधा डालते हैं। मेघनाद यज्ञ पूरा नहीं कर पाता। गोस्वामी तुलसी भी यज्ञ और देवी की सार्थकता स्वीकार करते हैं। रावण शिव का उपासक था। राम ने रावण के आराध्य शिव की समुद्र तट पर स्थापना की और ‘शिव समान प्रिय मोहि न दूजा’ भी कहा, यह कथन एक वैष्णव की शिव महिमा की स्वीकारोक्ति थी। राम कथा में शिव की स्थापना के साथ शिव-शक्ति अनायास जुड़ जाती है। बिना शक्ति के शिव अग्राह्य हैं। प्रकारान्तर में शक्ति की आराधना राम से सम्पन्न कराके शाक्तों  ने शक्ति को भी रामकथा से जोड़ दिया। ‘निराला’ की ‘रामशक्ति पूजा’ हिन्दी साहित्य में दशहरा के प्रमाणीकरण का एकमात्र आधार है। अश्विन कृष्ण की अमावस का वह दिन था। राम-रावण के युद्ध का दिन। राम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों के प्रयोग उस दिन किया अन्य दिनों वे दिव्यास्त्र कार्य पूर्ण कर वापस राम के पास आ जाते थे। उस दिन एक भी बाण वापस नहीं लौटे। राम हताश-निराश थके, शाम को युद्ध से लौटे। ‘रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर। रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।’ उन्होंने ध्यानाव्यस्थित होकर देखा-देखा है महाशक्ति रावण को लिए अंक ’ लांक्षन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक । उन्होंने देखा ‘अन्याय जिधर-उधर शक्ति’।  राम का स्थिर मन संशय ग्रस्त हो उठा। आज के भयानक युद्ध की वह भीमा मूर्ति। रावण का अट्टहास। सभा ने राम को ऐसा उद्धिग्न कभी नहीं देखा था। वे उठे, उनकी आंख से दो मुक्तादल छलक पड़े। मंत्रियों ने शक्ति की आराधना का महात्म्य बताया। एक सौ आठ कमल के फूलों का एक-एक पुरश्चरण के बाद हवन।  यह तिथि आश्विन की प्रतिपदा थी। नवरात्र तो वासंती थी। यह असमय आई हुई अकाल ‘नवरात्र’।  पूजा आस्था-विश्वास का नाम है। संशय ग्रस्त राम का मन विश्वास में परिवर्तित हो गया। ‘बोले, आवेग-रहित’ स्तर से विश्वास-स्थित। मात: दस भुजा! विश्व ज्योति:! मैं हूं आश्रित! राम द्वारा स्थापित यह दूसरी अर्चना है। सभी दिशायें इस दशभुजा देवी के हाथ हैं। पर्वत के नीचे यह समुद्र जो गरज रहा है, वह सिंह है। राम देखते हैं कि ‘अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशिशेखर’। राम करमाला एक बार मंत्र-जप करने के बाद एक कमल चढ़ाते हैं। छठें दिन मन आज्ञा चक्र पर पहुंच कर ठीक से बैठ गया । राम के जप से अम्बर भी थर-थर कांपने लगा। आठवां दिवस मन ध्यान-मुक्त चढ़ता ऊपर कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर! महाष्टमी के अंतिम प्रहर दुर्गा साकार हुई वे हंंस उठा ले गर्इं पूजा का प्रिय इन्दीवर! पूजा के चरम पर जब राम ने हाथ से पीछे रखा नीलकमल उठाना चाहा तो फूल नदारद थे। ‘आसन छोड़ना असिद्धि भर उठाना चाहा तो फूल नदारद! राम एकाएक अस्थिर हो उठे।’ ‘आसन छोड़ना असिद्धि भर नयनद्वय।’ राम की बुद्धि ने एक युक्ति सोची-मां मुझे राजीव नयन कहती थी अभी तो दो शेष है। बाण खींचकर फलक को ज्योंहिं आंख से लगाया। दुर्गा ने राम का हाथ पकड़कर साधु कहा-   होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन! कह महाशक्ति राम के बदन में लीन।
‘निराला’ की शक्ति पूजा यहीं विराम लेती है। लोकमन इतना विश्वासी है वह मानता है कि दूसरे दिन अर्थात् दशमी के दिन रावण शक्तिहीन हो गया और विजय की यह तिथि दशमी ही रही होगी। सभी दिशाओं को रावण ने घेर रखा था। चर-अचर सारी शक्तियां उसी के नियंत्रण में थी। रावण-वध के साथ ही सभी दिशाएं मुक्त हो गर्इं। अत: लोक का दसराहा काव्य और पुराणोंतिहास का दशहरा हो गया। भारतीय मनीषा प्रकृति के प्रत्येक रूपों में आनंदानुभूति की है। दशहरा के बाद वर्षाकालीन खरीफ फसल काटकर घर में लाने का समय है। नवान्न के आने के शुरुआती दिन आनंद के हैं। जातीय विभाजन के त्यौहारों में दसराहा क्षत्रियों का त्यौहार है। आयुध-पूजन की शास्त्रीय परम्परा विजयादशमी से जुड़ी है। पान-खाना और नीलकंठ पक्षी देखना दसराहा के दिन शुभ माना जाता है। योग-साधना और तंत्र-मंत्र की सिद्धि के लिए दुर्गानवमी एवं दशहरा का विशिष्ट महत्व है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारे में प्रसिद्ध है कि काली मां उनको सिद्ध थी। वे उनसे बात करते थे। वामपंथी भारतीय नेता भी दुर्गा मां की पूजा से असहमत नहीं हो सके। दशहरा दुर्गा पूजन के फलागम है तो दसराहा लोक जीवन में वर्षा के चतुर्मास के बंधन का मुक्ति पर्व ।


... हो न हो, ये है मेरा देखा हुआ



भाषा का परिवेश लोक है। काव्य शास्त्रकार कविता में मूर्धन्य स्पर्श को अनुचित और गवांरू मानते हैं लेकिन पद्माकर की कविता ‘आगे नन्दरानी के तनक पय पीवे काज। तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाढ़ो है’, का क्या करेंगे, जो शास्त्र को लोक के सामने झुकाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसमें पहले चरण की मृदुल विन्यास की व्यंजना देखें और दूसरे चरण के ठकार की पुनरावृत्ति देखें। ‘ठकार’ की परुषता वात्सल्य के प्रवाह में बह गई। ठाकुर (कृष्ण) के ठुनकने से ऐश्वर्य बहुत छोटा पड़ गया। जिन्होंने लोक देखा है, दूध से भरा हुआ बर्तन देखा है, मां के सामने खड़ा उसका दुलारा तनक दूध मांग रहा है, मां अनदेखी कर रही है, बालक ठुनक रहा है, वे ही इस कविता का आनंद ले सकते हैं। जिस कविता मे जितना ही लोक तत्व होगा, लोक दृष्टि होगी वह उतनी ही शाश्वत होगी, किंबहुना कालजयी भी होगी। कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रसखान किस बिना पर प्रासंगिक बने हुए हैं, सिर्फ इसलिए कि इनकी रचनाओं में लोक समग्र रूप से उपस्थित है। एक अपढ़ भी कबीर, रहीम, तुलसी की उक्तियों का सार्थक प्रयोग अपनी बातों में करता है। आज की कविता में भावों का वह उन्मेष नहीं है, जो लोक की जीवन पद्धति थी, है। वे मात्र वर्ष या दशक की कविता बन कर रह गई है। क्योंकि उनसे उनका लोक छिन गया है, वे लोक को गवांरू-संस्कृति-परम्परा का क्षेत्र मानने लगे हैं। वह बड़ा और श्रेष्ठ कवि लेखक हो ही नहीं सकता जिसने लोक की उपेक्षा की। कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नये खराब नहीं होते। विवेकी लोग जांचकर जो हितकर होता है उसे ग्रहण करते हैं। परंतु आज विवेक ही दुराग्रही और पूर्वाग्रही हो गया है, कदापि इसी वजह से हम अनेक जगहों पर अनादृत होते हैं।
   विश्व के तमाम देशों की अपनी लोक परंपरा है। परंपराएं विचार प्रवाह को बनाए रखती हैं, उसे कभी जड़ नहीं होने देती। प्रगति का विरोध नहीं, उसे अपनी कसौटी पर कसती है, तत्पश्चात उसे स्वीकार कर परंपरा में भी शोधन करती हैं। लोक में परंपरा पर ही समाज चलता है। सामाजिक, जातीय, घरेलू, परम्पराएं समाज को गतिशील रखती हैं। परम्पराएं अविरोधी भाव से चलती हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में इनके अलग स्वरूप होते हैं। भारत का शायद ही कोई ऐसा गांव हो जहां लोक परंपराएं न हों। हर क्षेत्र की अपनी परम्पराएं हैं। परम्पराएं जब टूटती हंै लोगों की आस्थाएं चरमरा जाती हैं, सुख-चैन छिन जाता है। सच है कि प्रगति सरिता का प्रवाह है परंतु सरिता पर घाट बनाना, उसकी स्तुति करना, उस पर बांध बनाना परंपरा का काम है। देशी आम में परदेशी आम की कलम लगे, परंतु इसका जरूर ध्यान रहे कि उसमें जो फल लगे, उसमें अपनी मिट्टी का स्वाद रहे। अपनी अस्मिता की मिठास रहे। परंपरा मधु की तरह है, प्रगति करके चीनी बने, परंतु बीमारी में मधु दवा होती है, चीनी नहीं। कितने फूलों के मिष्ट संचय से मक्खी मधु तैयार करती है। यह हमारी परंपरा है। लोक में परम्पराओं को पर्वों और त्यौहारों तक से जोड़ा गया है। शास्त्र में वर्णित देवताओं से भिन्न, गांवों में लोक देवता होते हैं। जिनकी पूजा-अर्चना के लिए शास्त्र की शरण में नहीं जाना पड़ता, क्योंकि इनकी पूजा का विधान उनमें वर्णित नहीं है। मुझे याद आता है कि गांव के गोइड़े में जादौराय (यादव राय) का चौरा हुआ करता था। एक मंदिर था, बगल में चौरे पर हर मंगलवार को एक पंडा बाबा बैठते थे। यह एक लोक विश्वास था कि जादोराय के चौरे पर जाने से सामान्य बीमारी ठीक हो जाती है। वे गांव के लोक देवता थे। अन्ना हजारे के ‘यादव बाबा’  के बारे में जानकर मुझे अपने जादौराय बाबा याद आ गए। गांव का कोई भी व्यक्ति जादोराम की जाति नहीं पूछता। हरेक घरों में ‘बाबा साहेब’ अंधेरी कोठरी के एक कोने में गड्ढे में रहते हैं। ये पशुओंं की रक्षा करने वाले देवता हैं। इनकी पुजाई जिस दिन होती है। उस दिन छोटे बच्चों तक का कलेवा बंद रहता है। कहते हैं जब ये नाराज होते हैं तो पशुओ में बीमारी फैलती है। अब तो पशु भी खत्म होते जा रही हैं फिर भी गांव में बाबा साहब की पूजा बदस्तूर जारी है।
 बघेलखण्ड के गांवों का नववर्ष होलिकोत्सव के बाद चैत्र महीने में होता है। होलिका दहन में एक लम्बी लकड़ी बीच में गाड़ते थे, जिसे सम्वत कहते थे। सम्वत किस दिशा में गिरा, यह शुभाशुभ में शामिल होता था।  नए वर्ष के प्रथम माह में ही किसी दिन दोपहर में गांव के कोने पर स्थित नीम या किसी पेड़ के नीचे देवी के पास सारे गांव के प्रत्येक घर से एक व्यक्ति एक लोटा जल लिए पूरे समूह के साथ गांव का चक्कर लगाता था। जिसमें सबसे आगे एक दलित, जिसके हाथ में सद्य: जात सुअर का बच्चा (घेंटा) रहता था, दौड़ता हुआ चलता था। देवी के पास लौटकर उस बच्चे की बलि देकर गांव के सुखी होने की कामना करता था, इसे ‘निकाई देवी’ की परिक्रमा कहते थे। प्रत्येक घर की दीवारों में गोबर की गोंठ होती थी। गांव में सुख शांति रहे इसके लिए ‘हरियरी की पुजाई’ से लेकर ‘शीतला माता’ तक की पूजा की परंपरा थी। चेचक का निकलना ‘महरानी’ का निकलना मानते थे। ‘तेलिया मसान’ भी पूजित थे। जातीय सौमनस्य के ये उदाहरण आज कहां बिला गए। जो परंपराएं समाज के सभी जातियों को जोड़ती थींं उनका एकदम से   लुप्त हो जाना चिन्तनीय है। गांवों में एक लोकमंत्र हुआ करता था जिसमें ओझा या पण्डा सभी लेकदेवताओं की दुहाई देकर उनसे कल्याण करने की कामना करता था। ओझाई करने वाले ओझा कहलाते थे, अब ब्राह्मणों की एक उपजाति भी ओझा कहलाती है। लोक का दुख सिर्फ उनके द्वारा स्थापित देवता सुनते थे। वे अन्यों के आगे अपना दुखड़ा नहीं रोते।
  हमने परम्पराओं को पिछड़ापन माना। पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोगों ने गांव केवल छोड़ा भर ही नहीं, उससे संबंध भी तोड़ लिया। अपनी विद्वता और सफलता के आगे गांव की खोज खबर नहीं ली। हमारे दिल दिमाग से वह गायब हो गया। हम भूल गए उस आंगन को, उस जमीन को, जिसमें हमारी नाभि-नाल गड़ी थी। जब गांव जाता हूं, अपने बचपन के उन साथियों से मिलता हूं जिनके साथ जिन्दगी के सबसे ईमानदार-निश्छल दिन बिताये थे। जो मेरे अच्छे और धतकरमों के गवाह हैं, और वे उसी तरह भेंटते हैं, तब लगता है कि ये ओढ़ी हुई विद्वता, अभिजात्य एवं बेमानी है। आधुनिकता के दंभ ने लोक परंपराओं की हत्या कर दी और इसके लिए सिर्फ हम गुनाहगार हैं। अपने उखड़े और उजड़े हुए घर परिवार, खेत-तालाब, पेड़ देखकर गीत की वह पंक्ति अक्सर कुरेदती है -सोचता हूं अपने घर को देखकर,हो न हो, ये है मेरा देखा हुआ ।  


वैचारिक मतभेदों के बावजूद मित्रता कायम रही

कांग्रेस की राजनीति में अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी को परस्पर विपरीत ध्रुव के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। लेकिन ऐसा था नहीं, प्राय: ऐसे मौके आते थे जब ये दोनों नेता अंतरंगता के साथ मिलते थे। खासतौर पर विन्ध्य की कांग्रेसी राजनीति में वही होता था जो ये दोनों मिलकर तय करते थे। शायद ही ऐसा कोई आमचुनाव रहा हो जब ये नेता एक दूसरे के निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार करने न गए हों। हां.. जब भी किसी मुद्दे पर मतभेद होता, उसे खुलेआम व्यक्त करने में इन दोनों महारथियों ने कोई परहेज नहीं बरता। कुंवर अर्जुन के बिना यह उनका पहला जन्मदिन है। इस मौके पर खट्टी-मीठी यादों के साथ स्टार समाचार ने बातचीत की उनके समकालीन नेता श्रीनिवास तिवारी से।
- अर्जुन सिंह से आपकी पहली मुलाकात कब और कैसे हुई?
- विद्यार्थी जीवन में हमारी मुलाकात हुई।  हम कक्षा 9वीं में पढ़ रहे थे, उसी साल रणबहादुर सिंह व अर्जुन सिंह दोनों भाई रीवा आए थे पढने के लिए। अर्जुन सिंह उस समय 8वीं कक्षा में थे।
- छात्र राजनीति में आप उन्हें किस रूप में देखते थे?
 -हम दोनों दरबार कालेज में छात्र राजनीति में सक्रिय हुए। वे एक साल मुझसे पीछे के दर्जे में थे। कालेज के छात्रसंघ के चुनावों में हम सभी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। अपने-अपने साथियों व समर्थकों को चुनाव में उतारते थे। मैं महासचिव चुना गया था। बाद में वे भी छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए थे।
-कांग्रेस की राजनीति में आप दोनों कब और कैसे एक साथ आये?
- समाजवादियों के चंदौली सम्मेलन में यह तय हुआ कि कांग्रेस में शामिल हुआ जाए, सो 1975 में मैं कांग्रेस पार्टी मेंआया। इसके पूर्व 1952 एवं 1972 में दो बार सोशलिस्ट पार्टी से विधायक बना था। मैं जब कांग्रेस में आया तब अर्जुन सिंह प्रदेश के कृषिमंत्री बाद में शिक्षामंत्री भी बने।
 -1977 में अर्जुन सिंह किन राजनीतिक परिस्थितियों में नेता प्रतिपक्ष बने?  
- कहानी यह थी कि समाजवादी गुट के कांग्रेसी तेजलाल टेंभरे को नेता प्रतिपक्ष बनाना चाहते थे। लोग उम्मीद कर रहे थे कि मैं भी टेभरे का ही समर्थन करूंगा पर मैंने अपने साथियों को अर्जुन सिंह का साथ देने के लिए तैयार किया। बात विन्ध्यक्षेत्र के गौरव के साथ के साथ जुड़ी थी। हमने अर्जुन सिंह का समर्थन किया और वे नेता प्रतिपक्ष बने।
- 1980 में अर्जुन सिंंह के कैबिनेट में आप मंत्री बने पर ज्यादा दिन निभ नहीं पाई ऐसा क्यों?
- हम दोनों के काम करने के तरीकों  एवं विचार में मतभेद मेरे मंत्रितत्व काल में हुए। उनकी सोच दूसरी थी, और हमारी सोच उनसे भिन्न थी। काम करने के तरीके से वैचारिक मतभिन्नता       आई। मुझे लगा कि इन परिस्थितियों में मेरे लिए काम करना मुश्किल होगा और मैंने पद त्याग दिया।
-कहा जाता है कि सभी नियमों को शिथिल करते हुए काम करने का फार्मूला अर्जुन सिंह को आपने दिया था?
-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी। मुख्यमंत्री के पास लोकहित के अकूत अधिकार होते हैं। उसका  उन्होंने पूरा-पूरा उपयोग किया। सीएम के तौरपर उन्होंने खुद अपनी अलग शैली विकसित की।
-1985 में आपकी टिकट भी काट दी गई थी, किसे जिम्मेदार मानते हैं?
- वैसे तो 1985 में 80 निवृत्तमान विधायकों की टिकट कटी थी, लेकिन मेरी टिकट मूलरूप से अर्जुन सिंह के कारण काटी गई थी। शायद उनको भय था कि कहीं मैं सीएम न बन जाऊं। इसी आशंका के चलते उन्होंने मेरी टिकट कटवा दी। आज भी यह कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं है।
-जब आप स्पीकर थे तब अर्जुन सिंह ने एक बार कहा था कि मुझे रीवा जाने से डर लगता है। ऐसा क्यों कहा?
-मुझे नहीं मालुम कि उन्होंने ऐसा क्यों और किस संदर्भ में कहा था।
- आप दोनों को एक दूसरे का धुर-विरेधी कहा जाता रहा है?
-हमारे मधुर संबंध थे। जब भी भेंट होती थी, मित्रवत होती रही है। हम एक दूसरे के काम भी खूब किये हैं। यह महज दुष्प्रचार है कि हम एक दूसरे के धुर विरोधी थे। अर्जुन सिंह के निधन से मुझे व्यक्तिगत बहुत दुख पहुंचा है। विन्ध्य से जुड़े हर पेचीदा मसलों पर हम दोनों साथ बैठकर विमर्श करते थे, जनहित और पार्टीहित के सवाल पर हम एक थे और मिलकर काम करते थे।
                                          (अर्जुन सिंह से रिश्तों को लेकर श्रीनिवास तिवारी से खास बातचीत 5 नवंबर2011)

Thursday, November 3, 2011

मोर पिया परदेशी चले हो आबा ना


प्र कृ ति की सबसे अनमोल देन वर्षा है। मनुष्य भर नहीं पृथ्वी पर अवस्थित चर-अचर, स्थावर-जंगम सभी का जीवन वर्षा आधारित है। बादल रूठ गए, सारी प्रकृति उदास हो गई। पानी आ गया, जीवन हरिया गया। पानी चला गया फिर मनुष्य के पास बचा ही क्या!  वर्षा का स्वागत मनुष्य मात्र नदी पेड़-वृक्ष, नदी-नाले भी करते हंै, पशु पक्षियों का उत्साह और उल्लास देखते ही बनता है। शायद इसीलिए सबसे अधिक कविताएं और गीत वर्षा पर ही लिखे गए हैं, पंत और निराला ने एक दो नहीं अनेक पावस-गीत, बादल राग में गाए हैं। तुलसी के राम ने भी वर्षा का एकान्त अन्तरतम से महसूस किया। सूर के कृष्ण तो वर्षा के साथ ही धरती पर आए और आते ही यमुना मे पैर (पाद) प्रक्षालन किया। उमड़ती-उफनाती यमुना को पार करते वासुदेव के सिर पर रखी टोकरी से पैर बाहर निकाल कर यमुना में आगे खेलने कूदने का संकेत दे दिया।  भयानक और भयावह वर्षा से केवल वासुदेव को नहीं समूचे ब्रज को डूबने से बचाया। किसी प्रचलित परम्परा के विरूद्ध कृष्ण का पहला प्रतिरोध था ‘गोवर्धन पूजा’। जो कालान्तर में ‘हरियरी की पुजाई’ के रूप में ब्रज से बघेलखण्ड में आई।
    रीतिकाल के कवियों में वर्षा के इस रूप को उद्दीपन रूप में अधिक चित्रित किया है। निश्चित रूप से लोक जीवन में भी प्रोषित पतिकाओं के लिए ऋतु उद्वेलित और उत्तेजित करती है। धूम-धुआरे-कारे बादल आकाश में उठ रहे हंैं, ‘जारत आवत जगत को पावस प्रथम प्रमोद’ ऐसे में नन्हीं-नन्हीं बूंदों को गिरना, बिजली का लपकना, बादलों का गम्भीर दमदमाता गर्जन विरहिणी को अशांत करता है। एक डरावनी सिहरन से भी आप्यायित करता है। सावन-भादौं की झुकी यह अंधियारी रात उसे परदेशी पति की याद दिलाती है। बघेली लोक गीत में कजली और हिन्दुली के असंख्य ऐसे गीत हैं जो जायसी के बारहमासी को चुनौती देते हैं-  ‘लगे हैं अषाढ़,सावन चढ़ि आएं ललकारि, भादौं निशि अंधियार, कुवांर खबरी न पायेंउं, अरे सांवरिया।’ नायिका कह उठती है- ‘मोर, पपीहा बोल रहे हैं, बादल झिमिर-झिमिर बरस रहे हैं।’
सामन-भदउना कई झुकी हई अंधिअरिया, चले हो आबा ना। मोर पिया हो परदेशी चले आबा ना, अपने कोठरिया से तोहार रानी गोहराबइ चले हो आबा न।
बघेली जन-जीवन में सावन-भादौं का महीना लड़कियों के नैहर में होने का महीना है। तीजा का त्यौहार  वे प्राय: मायके में ही बिताती थीं। कजली खेलने-गाने से लेकर पुतरी बहाने की परम्परा नैहर की है। बहू के रूप में ये सब खेल ससुराल में संभव नहीं, क्योंकि ससुराल की एक मर्यादा है, वहां बहू खिलंदड़ी नहीं हो सकती। नैहर में सखियों के साथ खेल करती है। सावन-भादौं आ गया। मायके में जिसकी मां नहीं है, उसको बुलाने के लिए कौन कहे, बाप का कलेजा थोड़ा मजबूत होता है- कैसे, कौन बुलवाए, ससुराल में बिटिया व्यग्र है, दुखी है कहती है- ‘समन-भदउना कइ झुकी अंधिअरिया ये मोर मन लाग नइहरबउ हो ना
माया जो होती न सुधि मोरि लेतीं पै बाबू क कहिन करेजबउ हो ना’
इसी प्रकार भाभी जो होतीं, चाची जो होती, आजी जो होती, सभी रिश्तों से अपेक्षा करती वह नैहर के लिए उत्कंठित है। दूसरी तरफ मां की भी स्थिति बिटिया से कमतर नहीं है। विवशताएं हैं, उनका समाधान नहीं है। सूर की यशोदा तो नन्द से यहां तक कह देती है कि ‘लो ! अपना ब्रज संभालो मैं अपने लाल के पास जाना चाहती हूं!’ बघेली जीवन में मां, बेटी के ससुराल नहीं जा सकती, वह तड़पती है, बिटिया को मां को दुलार भरी बोली कभी नहीं भूलती। पूरब दिशा से उठी है बदरिया, बरसे लागी ना, बदरा नान्ही-नान्हीं बुुदिया बरसै लागें ना, अपने महलिया से माया निहोरै रोवत होंइहीं ना, मोरी बेटी परदेशिन, रोबत होइहीं ना, होतू जो मोर बेटी हाथे पर मुंदरिया, रही हो अउतिउ ना, बेटी हमरे अंगुरिया, रही हो अउतिउ ना, काहे क पठइउ माया देश पर देशबा, नहीं हो बिसरउ ना, माया तोहरिन बोलिया, नहीं हो बिसरइ ना।
गीतों में जीवन के प्रत्येक रंग होते हैं। हर सम्बन्धों के गीतों की अलग ध्वनि है। समाज के प्रत्येक रिश्तों की अलग-अलग अपेक्षाएं होती हैं। सास-बहू के रिश्ते तुलसी के मानस की तरह बहुत कम दिखते हैं दीप बलि नहीं टारन कहेऊ, वाली कौशिल्याएं लोक में बहुत कम हैं। बहू को कठिन से कठिन काम देना बघेली जनजीवन में भी है। गंगा-जमुना नदी का कगार गिर गया है, कोई घाट नहीं है, फिर भी सास का आदेश है कि घड़ा भर के पानी लाने का! घड़ा भी चू रहा है, कैसे पानी आएगा, इससे सास का मतलब नहीं, उसे पानी चाहिए। बहू का संकट और दुख तथा ग्लानि इस गीत में किस प्रकार व्यक्त होती है-
देखें गंगा जमुना जी क  ओदरा कगरबा पई सास पठवंइ गंगा पनिअउ हो ना, सासु मोर दिहिन फुटहा घइलना, भीजइ हो लागें ना, मोर सतरंग चुनरिया भिजइ हो लागे ना,अस रिसि लागइ, पटकि देई घइला, कूदि हो परी ना, येंहीं अगमी दहरिया, कूदि हो परी ना।
कण्व जैसा वीतरागी ऋषि भी शकुन्तला की विदा में फफक पड़ा, शकुन्तला पालित पोषित पक्षियों-पशुओं की तो बात ही क्या, पेड़ पौधे भी हहरा उठे! ससुराल जाती बिटिया गांव से बाहर निकलते, बाबू के बगीचे, तालाब, पेड़ों से भी लिपटकर रोना चाहती है। लोक में कहते भी हैं कि ‘मायके का कुकुर भी भाई जैसा लगता है। कबीर भी   इस वजह से नइहर के छूट जाने से आत्मा को विचलित होते देखते हैं’, ‘बाबुल मोर नइहर छूटत जाय’ बघेली लोक गीत मे भी बेटी को अनुरोध देखें,उसका मायके का प्यार देखें -
एक वन गई, दूसर वन गई तिसरे वने ना, परा बाबू का बगीचा, तिसरे वने ना, थोरई क डोलिया तूं धई दे कंहरिया, देखि हो लेई ना, अपने बाबू क बगिचबा, देखी हो लेई ना, एक वन गई, दूसर वन गई, तिसरे वने ना, परा बाबू क  सगरवा तिसरे वने ना, थोर क डोलिया तूं धई दे कंहरिया, देखि हो लेई ना, अपने बाबू क सगरवा देखी हो लेई ना।
बघेली लोक-जीवन में प्रकृति के सभी जीवों से आत्मीय संबंध आदिम काल से रहे हैं। बहुला चौथ, भादौं कृष्ण पक्ष चतुर्था का प्रमुख व्रत है। गांव भर की प्रिय गाय बहुला (सुरमी) वन में चरने गई। उसे बाघ ने घेर लिया। बहुला ने कहा - ‘मेरा बछड़ा है भैया ! मुझे जाने दो, वह भूखा होगा, उसे दूध पिलाकर आऊंगी तब मुझे खा लेना’ भइया कहने के कारण बाघ ने उसे छोड़ दिया। इस शर्त के साथ कि तुम्हें आना होगा। गाय उदास आती है,  बछड़ा जान जाता है, वह हारा हुआ दूध नहीं पीता। मां के साथ वन जाता है। सारा गांव गाय को रोकता है। गाय नहीं मानती। बछड़ा आगे-आगे चलता है, बाघ को देखते ही ‘मामा प्रणाम’ कहता है और अपने को मां के पहले खाने के लिए बाघ से विनती करता है बाघ इस अनोखे रिश्ते के बंधन में बंधकर दोनों को छोड़ देता है। गांव, गाय और बछड़े को आता देखकर बहुत खुश होता है, दिन और देर रात तक प्रतीक्षा करता गांव उस रात चना और जौ की रोटी खाकर व्रत करता है। बहुरा चौथ भाई (बाघ) और पुत्र (बछड़ा) के चिरंजीवी होने का त्यौहार है। वन्य प्राणियों की रक्षा के लिए यह व्रत एक अनूठा उदाहरण बघेली लोकगीतोें मे मिलता है-
एक बभनमां के सुरहिन गइया पई चेरे उ नदन वन जाइउ हो ना, एक वन गई हइ, दूसरे वन गर्इं हइ, तिसरे वने ना, उहै बिंझ के पहारी, तिसरे वने ना, जब उगइयां मंथवा ओनामा, पइ सिंघ गराजै लागे हो ना,‘आजु के दिना तूं छोड़ा मोर सिंघ, पर घरे बांधे बछड़ू हमारौ हो ना’ ‘गइया जाति चतुर मोंहि लागै, हगि हो डोरे ना’,‘मोर मिला रे अहर बा, ठगि हो डोरे ना’,‘बछड़ू केर किरिया करब मोर भइया, ये लोंटि हम अदबै पहरिउ हो ना’,‘आनो दिना माया हुंकुरति आमा, आजु काहे अनमन ठाढ़िह हो ना’,‘आबा बछोलन तू थने म लगि जा पै सिंध से होरउं बातिउ हो ना’, ‘हारा दुधवा न पिअब मोरि माया, ये हमहूं चलब तोहरे सथबौ हो ना’, ‘एक वन गई दूसर वन गई तिसरे वने ना, पहुंचे सिंध के पहरी तिसरे वने ना’,‘पहले हो मामा तूं हमका भखि ले थे फेरि पीछे माया हमारिउ हो ना’,‘छिटिकि चरा बछड़ू कदली के वन मा, पै इ वन आई तोहारउ हो ना’
वर्षा ऋतु में गाये जाने वाले ये लोकगीत बघेली संस्कृति के सामाजिक जीवन के परिचायक मात्र नहीं है वरन अपनी निरंतरता में भी शास्वत है। सावन-भादौ में झूलों पर गाती लड़कियों, स्त्रियों एवं पुरूषों के गीत, हृदय में करूणा, प्रेम एवं स्रेह को जीवन्त रखते हैं। खेतों में निरौहों करती, ललनाएं, ओनए बादलों को देखकर जब कजली और हिन्दुली की तान देती हंै, बादल झर आते हंैं। गांव से लगे अपने जंगल में पेड़ों पर चढ़ कर नीचे बादलों को चरते हमने देखें हैं। पंत जी ने ‘उड़ गया अचानक लो भूधर’ देखा था। हमारे लोकमानस में उन्हीं कल्पनाओं को गीतों में ढालकर अमर कर दिया। विकास के इस अन्धे दौर में यह जरूर हुआ है कि गांवों  में भी झूले कम हो गए हैं, गीत गाने वाली परम्परा खत्म होती जा रही है, फिर भी ये लोकगीत हमारे जीवन की श्वास-प्रश्वास में है, रहेंगें, समय इन्हें क्षुब्ध करता है, लुप्त नहीं कर सकता, क्योंकि ये कालातीत है।

लोक में शिव, राम और कृष्ण


लोक’ हमेशा से चर्चा में रहा है। वैदिक युग से लेकर आज तक। ऋषियों ने अधिकतर मंत्र लोक पर, लोक के लिए लिखी, लोकमंगल की कामना से। पुराणों में लोकमंगल को कल्पना का साकार अर्थ शिव ने दिया। सुर और असुरों ने समुद्र मंथन किया। मंथन से चौदह रत्न निकले। सही बंटवारे का प्रमाण न किसी पुराण में मिलता है न स्मृति में, न लोक में। श्रम की हिस्सेदारी देवताओं की तमाम चालाकियों के बावजूद बराबर होनी थी। सुर सम्राट देवराज ने मणि, रम्भा, गजराज(ऐरावत)कल्पद्रुम, कामधेनु, घोड़ा, धनुष, हथिया लिया, तो छोटे भाई विष्णु कौन कम थे, उन्होंने लक्ष्मी को अंगीकार कर लिया, शंख ले लिया। धनवन्तरि सुरों के वैद्यराज हो गए। वारूणी (शराब) असुरों को पिला दिया। और हालाहल, सभी भागने लगे उसे देखकर देवता चालाक थे। शिव भोलेनाथ थे, सीधे-सरल-विश्वासी। उनकी महिमा का गायन करने लगे कि ‘प्रभो! आप ही इस विष को पीकर संसार का  कल्याण कर सकते हैं अन्यथा यह विष सारे संसार में फैलकर सबको नष्ट कर देगा, रक्षा करें आशुतोष’। संसार के कल्याण के लिए यह पहला लोकमंगल कार्य था। सारे  शरीर में फैलकर विष, शिव को भी जला डालता, उन्होंने कंठ में ही रोक लिया। कंठ जलने लगा, सर्पों को गले लगाया, माथा जलने लगा, शशि जो मंथन से निकला था उसे माथे पर लगाकर विष को प्रभावहीन किया। अमृत के बंटवारे की कथा तो सारा लोक जानता है। श्रम के फल का यह विभाजन अपनी प्रासंगिकता के साथ कदाचित आज भी जीवन्त है।
   शिव अनार्यों, आर्यों दोनों में पूजित हुए और लोक में तो शिव से बड़ा कोई है ही नहीं, शायद इसलिए कि शिव के स्वार्थ की कोई कहानी भारतीय वांग्मय में नहीं है। वे परमार्थ के देवता थे। सबसे भोले-भाले, दैत्यों, असुरों की किसी भी प्रार्थना पर हरदम वरदान देने के लिए प्रस्तुत और वरदान देकर भागते हुए औघड़दानी शिवपुराणों में दिखते हैं। शिव का अर्थ ही कल्याण है। उनके विशेषण ही उनकी संज्ञा है, संभवत: इसीलिए भारतीय साहित्य में उनकी अव्याहतगति है। शिव जैसा पे्रमी विश्व के किसी साहित्य में नहीं है। सती की लाश कंधे पर लिए, उसे जीवित मानते हुए उससे बात करते हैं। गल-गल के अंग-प्रत्यंग गिर रहे हैं, वह बावला प्रेमी यह मान ही नहीं रहा है कि सती अब नहीं है। देवताओं के कुचक्रों का शिकार, शिव उनको ढूंढ़ता है, परन्तु वे सब छिपे हैं। उनमें शिव के सम्मुख आने का साहस नहीं है। शिव जैसा योगी भी कोई नहीं, अखण्ड और अचल समाधि को भंग करने के लिए देवताओं ने कन्दर्प की बलि दे दी। लोक मंगल के लिए हमेशा हर क्षण, उपस्थित। इसीलिए वे लोक के सर्वाधिकप्रिय महादेव, देवाधिदेव - ‘जरत सकल, सुरवृन्द, विषम् गरल जेहिं पान किए’। शिव पर कोई लोक निन्दा नहीं, कोई लोकापवाद नहीं है।
  लौकिक संस्कृत के आदिकाव्य ‘रामायण’ की रामकथा के अनेक स्वरूप हैं। सीता निष्कासन लोक में स्वीकार्य नहीं है। इस प्रसंग में लोक, सीता के पक्ष में खड़ा है। क्या राम लोकमंगल के लिए वन गए? वन में अस्थि समूह देख कर उन्होंने निश्चरहीन पृथ्वी करने की बात कही। किशोर राम, विश्वामित्र की रक्षा के लिए गए, निर्भय यज्ञ करने को कहा। ताड़का-सुबाहु को मारा। तब निश्चर उनकी दृष्टि में नहीं थे। राजतिलक की तैयारी, वनगमन, चित्रकूट तक उनके चिन्तन में लोक की कोई पीड़ा नहीं थी। सीताहरण के बाद वे लोक के सामने पूरी तरह आते हैं। केवट प्रसंग भी लोक से जुड़ा था। पेड़, पृथ्वी, लता पत्तों तक से सीता का पता पूछते हैं। हरिण-मृग भी  दक्षिण दिशा की ओर घूमकर सीता को ले जाने का संकेत देते हैं। वहीं उनका परिचय वानर, वृक्ष, पक्षी, साधु, सन्तों से होता है। सबको साथ लेकर निश्चरों का नाश करते हैं। वानर स्वार्थ से जुड़े, राक्षस विभीषण स्वार्थ से जुड़ा। राम का स्वार्थ तो था ही। नि:स्वार्थ भाव से राम का साथ देने वाले वृक्ष, पक्षी (जटायु-सम्पाती) और सेतु, निर्माण में लगी गिलहरी थी। नैयायिक कहते हैं कि यदि राम का राज्याभिषेक हो गया होता तो क्या रावण-वध होता। खैर, ये लेकिन-परन्तु की बातें हैं। राम का न तो बचपन लोक से जुड़ा था, न कैशोर्य। वे खेलते भी हैं तो चारों भाइयों के बीच ही। राक्षसों-निशाचरों को मारना उनके रास्ते में आड़े आने का काम था। सीता को लौटाने का सन्देश भेजना युद्ध का टालना था। यदि रावण सीता को वापस कर देता, तब उस प्रतिज्ञा का क्या होता जो भुज उठाकर उन्होंने की थी। सबके सामने सीता की अग्नि परीक्षा के बाद भी कुछ लोगों के कहने के कारण लोकापवाद से डरकर राम ने गर्भवती सीता को जिस तरह धोखे से निकाला उसे लोक ने कभी सही नहीं माना। लोक से राम हार गए। लोक में राम हार गए। अपराजित राम अपनी ही प्रजा(लोक) से पराजित हो जाते हैं।
   लोक की सीता बाल्मीक से कहती है- ‘तोहार कहा गुरु करबै!  परग दस चलबै हो। गुरुजी। राम निरमोंहियां क मुंहबा। बिताया नहि देखबै हो।  तुलसी के राम तो प्रकट हुए थे, लोक कहता है ‘खीर’ खाय पैदा सुत करती पति कर कछू न कामा। जहां शिव का स्वरूप लोक कल्याणकारी कहलाया वहीं राम मर्यादा पुरुषोत्तम, लोक मंगलकारी के रूप में स्थापित हुए।
 लोकरंजन की भूमिका में देवकी की कोख से कृष्ण पैदा हुए, गोकुल में पले। उनकी बाल-लीलाओं ने लोक मन मोहा। पहली बार लोक-साहित्य में वात्सल्य भाव को   रस की संज्ञा मिली। कृष्ण ने प्रभु का आभिजात्य और विशिष्टता छोड़, जीवन को, खेल की तरह लिया। सामान्यों की तरह जिए, उनका साथी भी खेल में दांव न देने पर हड़का कर कहने की हिम्मत रखता है कि या अधिकार जनावत याते अधिक तुम्हारे है कुछ गैया।  माखन-चोरी करता है, मुंह में माखन लगा है, दलील देता है कि उन सभी ग्वाल-बालों ने जबरन मेरे मुंह में लगा दिया है। रो-रो कर मां को अपने पक्ष में कर लेने की अद्भुत लीला लोक में प्रिय है। कृष्ण, लोक में सबसे करीब हैं। लोक के वे लीला पुरुषोत्तम है। सम्पूर्ण महाभारत उनके दायरे में हुआ, बिना अस्त्र चलाए, द्वारकाधीश कहलाए, एक दिन भी राजगद्दी पर नहीं बैैठे। कृष्ण का प्रत्येक कार्य मनुष्य की जीवन-चर्या से जुड़ा। ‘रामायण’ भारतीय दर्शन का स्वप्न और आदर्श लोक है तो महाभारत जीवन का यथार्थ, जो अतीत में था, वह आज भर नहीं, शाश्वत सत्य है। पुराणों में राम और कृष्ण को ईश्वर का अवतार माना गया है। दोनों के जीवन का उत्तरार्द्ध- अवसान त्रासद है। लोक से सबसे करीब राम और कृष्ण की कथा है। लोक में कृष्ण कथा (भागवत) का श्रवण मुक्ति देता है। जीवन के अन्तिम क्षणों में राम और कृष्ण नितांत अकेले थे। शायद जीवन का सत्य भी यही है। हंस अकेला जाई।
   लोक, राम और कृष्ण को विष्णु भगवान का अवतार मानता है। धरती पर उनके द्वारा किए गए कार्यों को श्रद्धा और भक्ति से सिरमाथे स्वीकारता है। समूचे भारतीय साहित्य में दोनों की स्थिति अपौरुषेय है। दोनों लोक में भगवान हैं, लेकिन जिनकी लीलाओं पर वे बेवाक टिप्पणी करते हैं। अकेले शिव ऐसे देवता हैं जो अनादि हैं, अनन्त हैं, जिनके जन्म-देहोत्सर्ग का कोई रिकार्ड न लोक में है, न शास्त्र में। वे देवादिदेव हैं, वे आशुतोष भी हैं, महाकाल भी। प्रलयकार भी हैं, भोलेनाथ भी। न उनका बचपन है न वृद्धावस्था। न आदि है न अन्त। लोक में कामरि है, बोल बम है, तीसरे वर्ष मलिमास है। वर्षा ऋतु के ये सावन-भादौं महीने इन तीनों देवों को प्रिय हैं। सावन तो शिव का महीना ही है। विष की जलन अभीशेष है। वर्षा में उनके भीगने से ताप कुछ कम होता है। वे अपनी इच्छा से कैलाश नहीं गए थे। बर्फ से ढके उस स्थान में शरीर की चित्त की जलन कुछ तो कम हुई होगी। सुरों के षड़यंत्र को वे भूल गए भुला दिया। राम को भी चतुर्मास बिताने का सुख कामदगिरि में बारह बार तो मिला ही। पंचवटी और ऋष्यमूक में मैं भी चौमासा बिताया।
   कृष्ण ने सावन में इन्द्र से मोर्चा लेकर इन्द्र पूजा रोककर गोवर्धन पूजा। कराई थी। इन्द्र का कोप कृष्ण के रहते निरर्थक हो गया। गोकुल में कृष्ण की तमाम लीलाओं के बीच लोक में झूला भी है- ‘झूला पड़ा कदम की डरिया झूलै कृष्ण मुरारी ना’ भादौं शुक्ल पक्ष तीज पार्वती के व्रत का चरम दिन था, जब वे अपर्णा कहलाई- अपर्ण-आशना। आज भी शिव जैसा पति पाने की कामना में लड़कियां और महिलाएं चौबीस घंटे का कठिन व्रत बिना पानी पिए, रात भर जागकर पूरा करती हैं। भादौं की वह भयानक बरसती कृष्ण पक्ष की अष्टमी की आधीरात, लोक में अवस्थित है। देश का यह शाश्वत शास्त्र भी है, लोक भी। शास्त्र के त्रिदेव भले ही ब्रह्मा, विष्णु महेश हों, लेकिन लोक ने शास्त्र से सिर्फ महेश को लिया।
                                   

सावन इसलिए मनभावन

सम्राट अकबर ने बीरबल से पूछा- बीरबल बारह में से चार निकल जाएं तो शेष कितने बचेंगे। बीरबल प्रत्युत्पन्नमति थे, उन्होंने उत्तर दिया- जहांपनाह! शून्य! सभी दरबारी हंस पडेÞ बीरबल की इस मूर्खता पर। बादशाह ने पूछा- कैसे! बीरबल ने कहा- जहांपनाह! वर्ष में बारह महीने होते हैं। बारह में से चार महीने बरसात के होते हैं, यदि ये चार महीने बिना बरसे चले जाएं, फिर तो शून्य ही शेष रहेगा। अकबर का आशय भी यही था क्योंकि शेष दरबारियों का उत्तर ‘आठ’ था। बीरबल के उत्तर से सम्राट खुश हुए। यों भी बीरबल, अकबर के प्रत्येक प्रश्नों के समाधानकर्ता थे। सैकड़ों वर्षों पहले पूछा गया यह प्रश्न और उत्तर आज भी उतनी ही अर्थवत्ता से उपस्थित है।
   यह चतुर्मास (चौमास) भारतीय जीवन-दर्शन का आधार है। अनेक वर्षांे बाद आषाढ़ के प्रथम दिवस पर आर्द्रा  के मेघों ने धरती को तृप्त कर दिया। ग्रीष्म की तपन में पेड़ सूख गए, कुओं ने जवाब दे दिया। धरती की छाती पर कोदौ दरता हैंडपम्प सांस लेने लगा। जाने किसकी आह में इतना दम था कि पूरुब दिशा से बादल उठे और इस तरह बरसे कि लोगों के चेहरे खिल उठे, अनायास ही कृतज्ञता में वाह कह उठे। वर्षा मनुष्य का मुक्तिपर्व है। अंग अंग पुलकित हो जाता है। पेड़- पौधे लहलहा उठते हैं, धरती हरी-धानी चूनर पहन इठलाने लगती है। गर्मी और धूल से धूसर पत्ते सद्यस्राता की तरह लहक कर एक दूसरे को चूमने लगते हैं। नदी का संगीत शुरू हो जाता है, ग्रीष्म में वह दुबली होकर सलिला का अर्थ खो बैठी थी, एकाएक दर्शन बघारने लगी। पशु-पक्षी, जीव-जन्तु सब निकल पडेÞ, वर्षा रानी का स्वागत करने। पक्षी गाने लगे। ग्रीष्म ने सबका गाना छीन लिया था। मेढ़कों ने राग सारंग(बादल) छेड़ा। वर्ष भर पता नहीं कहां छिपा रहा तुलसी बाबा का दादुर। वर्षा ने उसे उद्दीप्त कर दिया, वह ब्राह्मणों की तरह वेद पढ़ने लगा। वेद का आरोह और अवरोह से लगातार दस-बारह घण्टे पढ़ना किसी भी ब्राह्मण के वश का हो न हो, मेढ़कों के वश का है। वे निरन्तरता के साथ लय और स्वर से रात मेघों आह्वान करते रहते हैं। मनुष्यों की तरह वे बेसुरे नहीं हैं। उन्हें किसी उस्ताद की जरूरत नहीं है। चर-अचर हरिया गए।
  वर्षा के इन चार महीनों (आषाढ़, सावन, भादौं, क्वांर) पर ही वर्ष भर की खुशी निर्भर हैं। सारी प्रकृति का आनन्द वर्षा पर निर्भर है। वह गाने लगता है- लगे है असाढ़, सावन चढ़ि आएें ललकार भादौं निशि अधियार। बघेली लोक-जीवन में वर्षा सर्वोत्तम ऋतु है। सबसे अधिक त्यौहार व्रत, उत्सव इसी ऋतु में होते हैं। सावन आनन्द और उत्सव का महीना है। ‘सावन’ गीतों की एक परम्परा का नाम है। कजली, हिदुली लोकगीत, भिनसार से झूले में शाम तक, गांवों में आज भी सुने जा  सकते हंै। बघेली जन जीवन में सावन-भादौं का महीना बहन-बेटियों के मायके में होने का महीना है। राखी से तीजा तक उनके गाने, हंसने खेलने के दिन हैं। ससुराल में रह रही ग्रामीण वधू अपने मायके में पहुंचने के लिए कलप रही है, उसके मां नहीं हैं, पिता को बुलाने की फुरसत नहीं है, वह रोते हुए गा उठती है। जीवन के सुख-दु:ख को उत्सव की तरह गीत गाने की परम्परा भारतीय लोक जीवन में है। यहां स्त्रियां रोते हुए गाती रहती हैं। राजाओं के यहां तो मृत्यु पर रोने के लिए रुदाली होती है। रानी रो नहीं सकती, रोने के लिए तो सामान्य जन होना पडेÞगा। सामान्य ही तो लोक का यथार्थ सत्य है- पूरुब दिशउना से उठी रे बदरिया, बरसै हो लागी ना,उहै नान्ही नान्ही बुंदिया, बरसै हो लागी ना, माया जो होतीं, त सुधिया लइ लेतीं पइ बाबुल क कठिन करेजबउ हो ना। बाप का कलेजा कठिन होता ही है, माता की तुलना में। दूसरी तरफ ऐसे भी चित्र लोक जीवन में है कि मां, आजी बेटी के लिए रो रही हैं। गांव की लड़कियां गुड़िया, कजली खेल रही हैं, हमारी बेटी ससुराल में है उसे देखने की ललक आंसुओं में व्यक्त होने लगती है। बेटी मोर से कहती है-  ऐरिया के बेरिया मैं तोंहि बरजै मोरबा, के मत बोलै ना, मोरे बाबू के सगरबा पै मत बोलै ना। और उधर आजी (दादी) की स्थिति देखिए। तीसरी पीढ़ी का अतिरिक्त स्नेह कितना मार्मिक है- सगरा किनारे ठाढ़ि बेटी कइ आजी, रोबइ हो लागी ना। मुंह दइकै अंचरबा रोबइ हो लागी ना सबकै बेटी खेलैं गुड़िया-कजलिया हमार बेटी ना। कुहकै अपने ससुरबा हमार बेटी ना,  लोक-जीवन में रिश्तों का बहुत महत्व है। आज रिश्ते दरक रहे है।  पहले पशु-पक्षी-पेड़ वृक्षों से भी लिपटकर रोते थे। रिश्ते बन रहे हैं लोक में राम, लक्ष्मण, सीता भी सामान्य मनुष्य की तरह हैं, हां लोक की संवेदना जरूर उनके साथ है। उन पर मेघ नभ छाया अतिरिक्त रूप से नहीं है। वन में जाते हुए वे उन्हें मोहते हैं। आगे-आगे राम चलत हैं पीछे लक्ष्मिन भाई, ओनके बीच म सीता जानकी शोभ बरनि न जाई, तो है लेकिन भरी बरसात में उनके भीगने की चिन्ता है। कौन बिरिछ तर भीजत होइही राम लखन दुनउ भाई। सावन सुख का महीना है तो विरह का महीना भी।
   आषाढ़Þ के ओनए बादलों को देखकर कालिदास का शापित यक्ष मेघ को ही अपना दूत बनाकर अलकापुरी भेजता है, तो बाबा नागार्जुन कालिदास से ही पूछ बैठते हैं- कालिदास सच-सच बतलाना। इंदुमती के विरह शोक में, रोया यक्ष कि तुम रोये थे। तुलसी के राम भी ऋष्यमूक   पर्वत पर बादलों के गर्जन-तर्जन से अकेली सीता की स्मृति में सिहर उठे थे। बरसहिं बडेÞ बूंद, सीता कदम तरि भीजंइ की कल्पना, लोक को है। लोक गीतों में सीता और राधा के बहाने आम लड़की-बहू की तरह खेलने की बाते हैं।
   लोक सहजता का विश्वासी है, उसमें ग्लैमर और अभिजात्य का दिखावा नहीं है- सात सखियां मिलि सीता अकेली। खेलत होंइहीं ना। लट छोरे रे खेलत होंइहीं ना। मोरि पतली पतोहिया खेलत होंइहीं ना। अपने महलिया से ससुरा निहांरइ, भिजत होंइही ना। ससुर चिंतित हैं परन्तु खेल में बाधा नहीं डालता। लोकगीतों में सावन के झूलों का वर्णन अनेक तरह से है। कही ब्रज में कृष्ण और राधा को झूलते हुए देखने का आग्रह है, कहीं शिव के छद्म रूप को पहचान लेने की समझ है। सखियां चला चली दर्शन का ब्रज मा झूलि रहे गोपाल। को या झूलैं को या को या झुलावैं, को या खीचैं डोर। की जिज्ञासा है, वहीं महादेव शिव के रूप बदलने पर पकड़ जाने पर-कतनउ महादेउ तुं बदन छिपउबे चीन्हि हो जाबइ न। तोहर संभरी सुरतिया चीन्हि हो जाबइ ना। बेला और चमेली किस समय फूलती है, यह खिलने की सतत प्रक्रिया है परन्तु लोक ने इनके फूलने का समय अपने, प्रिय प्रणय-काल से जोड़कर गंध को सार्थक कर दिया- हरे रामा, बेला फूली आधीरात, चमेली भिनसारे रे हारी।  बिहारी ने अली-कली में ही बंध्यो लिख कर अविकसित यौवन के प्रति राजा को सचेत किया था। लोक कवि ने कच्ची कली कचनार, टोरत डर लागै रे हारी, कहकर सतर्कता बरतने का संकेत भी दे दिया। बघेली कजली और हिंदुली में लोक-जीवन का संघर्ष और सम्बन्धों का अप्रतिम निर्वाह है।
   सास-बहू और ननद भौजाई में प्रेम तो है, लेकिन लोक में इन सम्बन्धों पर अनेक प्रश्न चिन्ह है। सास और ननद को बहू और भौजी के आने पर, भाई और पुत्र के स्नेह के विभक्त होने के डरने, ईर्ष्या और  जलन भाव पैदा कर दिया। मायके से आए भाई के लिए क्या कुछ नहीं चाहती बहन। आंगन बटोरते बहू के हाथ से बढ़नी कहती है कि मायके से भैया बढ़नी का बोझा लेकर आएंगे। बहू चील्ह (चील) पक्षी से सन्देश भेजती है। संभवत: समूचे लोक और साहित्य बांग्मय में चील से सन्देश भेजने की बघेली बोली की विशिष्ट परिकल्पना है। चील से अधिक दूर दृष्टि वाला कोई पक्षी नहीं होता। भाई बोझा भर बढ़नी लाता है। सास फरिका में रखवा देती है, बहन बमुश्किल से आंगन में भाई का पैर पकड़कर भेंटती है (भेंटना बघेली से मिलना नहीं है- मिलते हुए रोना है) भाई को क्या खाना बनाए, पूछने पर सासु पुरानी रखी कोदई का भात और मूंग की दाल बनाने को कहती है। बहू एकदम प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। सहने की सीमा पार हो जाने पर बहू का यह विद्रोह समीचीन और सार्थक है। बहू कहती है कि कोठे में रखे बढ़िया चावल और अरहर की दाल बनाऊंगी। लोकगीत में कथा है-
 ‘अंगना बहारत टूट गई बढ़निया, पइ सासु गरियाबइ बीरन भइअउ हो ना। जनि गरिआबा सासु हमरा बिरनमा, पइ लइ अइहीं बढ़नी क बोझवउ हो ना। सरग उड़न्ती तइ चिल्हिया रे बहिनी, माया से कहे रे संदेशवउ हो ना। धिया मोरि दूबरि, केशनि भइ लूमरि, पइ हियरउ म भरे हइ विरोगबउ हो ना। बहुत दिना म आंए हइ बीरन भइया, का रची जेउनरिवउ हो ना। बहुत दिना कइ धरी हइ कोदइया, अउ मुंगिया कइ दारिउ हो ना। माचिकब कोदइया, छितराइ जइहैं रे अंगना, खीचि लाउब चउरा अ दारिउ हो ना।
                                           

लोकमंगल की कामनाओं का सुफल ‘आम’


भारत से अधिक फलों और फूलों वाला देश शायद ही विश्व में कोई हो। यहां खुश और प्रसन्नचित्त रहने के लिए फलने और फूलने का आशीर्वाद, बिना कुछ किए सहज रूप से प्राप्त हो जाता है। भारतीय जन-जीवन का सर्वाधिक प्रिय फल, आम है। देश के अलग अलग क्षेत्रों में अनेक तरह के फल होते हैं लेकिन पूरे देश के कोने कोने में आम अकेला ऐसा फल है जो अपनी धज बनाए हुए है, पूरी शिद्दत और अस्मिता के साथ। गरीब की कोलिया से लेकर महाराजा के बगीचे तक इसकी उपस्थिति है। इसका स्मरण होते ही जीभ मुंह के भीतर चलने लगती है। आधे जून से अगस्त तक, इस फल का एकछत्र साम्राज्य रहता है। पेड़ के नीचे गिरे आम को उठाने के लिए पालकियां रुक गर्इं। हाथी पर सवार राजा के हाथी रुक गए, सामान्य की बात कौन कहे? प्राचीन काल में आम के बाग-बगीचे व्यक्ति की हैसियत का निर्धारण करते थे। आम ‘वन-फल’ नहीं ‘जन-फल’ है। कहते हैं कि पुन्नाम नरक से मुक्ति दिलाने वाला वृक्ष आम ही है। पुत्र, पिता का नाम आगे बढ़ाता है। आम भी अपने लगाने (रोपने) वाले के नाम से ही जाना जाता है। इस तरह वह मनुष्य का ‘वंश वृक्ष’ भी है। पेड़ों के नाम लगाने वाले के नाम से चलते हैं। गांवों में परम्परा है कि आम लगाने वाला उसके फल को तब तक नहीं खाता, जब तक उस वृक्ष का व्रतबंध बरुआ नहीं करता। वृक्ष को पुत्रवत मानने की परिकल्पना सिर्फ भारत में है। अम्ल या (आंबिल) के कारण भले उसका नाम आम रखा गया हो, मुझे तो ऐसा लगता है कि यह खास (स्पेशल) के यहां नहीं, हर आम (जनरल) के दुआर और पछीती की शोभा होने के कारण इसका नाम आम पड़ा। आम रसराज है, इसी कारण उसे रसाल कहते हैं।
आम, पृथ्वी पर कब आया, यह तो नहीं जानता, पर कहते हैं कि कामदेव के पंचबाणों में एक वाण आम्रमुकुल (मंजरी) भी था शिव की समाधि भंग करने के लिए काम ने पांच पुष्पों का सरसंधान किया उनमें अशोक, अरविन्द, नीलोत्पल, मल्लिका और आम थे। कमल, नील कमल, (जलज) थे, मल्लिका (लता) बेलि पुष्प थी। अशोक और आम, वृक्ष थे। अशोक के फूल सामान्य के पहुंच और ज्ञान के बाहर है। (आम्र-मंजरी ) नुकीली सुन्दर और सुगंधित होती है इसीलिए आम बौरा (बावला)जाता है। नील कमल तो नीला है ही, अरविन्द का रंग, रक्त था या श्वेत, इसका वर्णन नहीं मिलता, मैं जानता हूं कि वह लाल ही रहा होगा क्योंकि प्रेम का रंग लाल माना जाता है। कामदेवता ने पलाश वृक्ष की ओर लेकर बाण चलाए थे। शिव की समाधि भंग हुई। उन्होंने नेत्र खोले। काम तो क्षार हुआ ही निष्कलुष पलाश भी जल गया। धनुष खण्ड हुआ। वामन पुराण के अनुसार धनुष के टुकडेÞ धरती पर जहां गिरे वहां चम्पा, मौलिश्री, कमल, चमेली और बेला के पुष्प कालान्तर में उगे हैं जो आज तक मनसिज को उद्दीप्त करने के सहायक उपाद बने हुए हैं।
 आम लोक-फल है। बसंत पंचमी के दिन आम्र मंजरी देख लोग पुलकित होते हैं, उसे बौरि कहते हैं। उसके अग्रभाग को तोड़कर चबाते हैं, गदेली (हथेली) पर रगड़ते हैं। सूंघते हैं आम की फसल का स्वागत खाद्यान्न की तरह करते हैं। बौरि में छोटी-छोटी टिकोरी (अमिया) लगती है। फागुन और चैत के आंधी पानी से लड़कर जो टिकोरी बचती हैं, पूर्ण विकसित आम बनने के पहले से उनका उपयोग होने लगता है। जब तक आम में बीज (गुठली) पड़ता तब तक उसे छीलकर ‘अमहरी’ बना लेते हैं, आम का अचार गरीब की तरकारी है। बीज निकाल-सुखा कर और फिर कूटकर आम्रचूर्ण (अमचुर) बनाकर वर्षों चटनी और कढ़ी बना कर भोजन का स्वाद लिया जाता है। पहले आमों के बगीचे थे। सैकड़ों, हजारों पेड़ों  के साथ लखराम (लाखों आम) के वृक्ष होते थे। कहीं ‘बाबू का बगीचा’ ‘बड़का बगीचा’ और कहीं ‘महरानी (देवी) का बगीचा’ प्राय: हर दो तीन गांवों के बीच में आम के बगीचे जातीय और पारिवारिक पहचान के रूप थे। प्रत्येक गांव में कुछ जमीन  बगीचे के लिए छोड़ दी जाती थी जहां सभी घरों के लोग आम के बीज बोते थे, रखवाली करते थे और इस तरह बगीचे तैयार होते थे। पहले किसी के खेत या मेड़ में कोई आम लगा देता था और उसकी पीढ़ियां उसको खाती थी। अब जिसके खेत में आम है, वह उसका है। कितने ही आम लगाने वालों के परिवार के लोग, बिना आम के हो गए। आम का मौसम उनके लिए अकाल का मौसम हो गया। भाइयों में आम के लिए लाठियां चलने लगी। पे्रम और मिठास का यह फल झगडेÞ का कारण बन गया। लोगों ने कलमी आम लगाना प्रारंभ कर दिया। ये झाड़ बन गए पेड़ नहीं बन सके। पेड़ बनने में समय और साधना की समवेत भूमिका होती है। पेड़ के आम पेड़ में ही पकते हैं। कलमी आम तोड़कर पकाए जाते हैं, पहले भूसा, पैरा, घडेÞ में भरते थे अब केमिकल्स से पकने के कारण न तो वह स्वाद रहता है, न स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त। पके आम को पेड़ पर चढ़कर हल्का दम लगाकर हिलाते थे। सिर्फ पका आम ही गिरता था। कलमी आम पकाने के लिए अभिशप्त है। देशी आम की अमहरी, छूना अमचुर से लेकर अमावट (आम्रवते) तक काम आते हैं। इसे चुस्सू (चूसने वाला) भी कहते हैं। ‘शाह’ औ ‘मरई’ को गिराने के लिए कंकड़-पत्थर और छोटी लाठी से साठ-सत्तर हाथ ऊपर वाले आम को तुक कर झोर लिया जाता था। गांवों में ऐसे निशानेबाजों का अब इतिहास शेष है। पुराने पेड़ वर्षा की कमी से या दीमकों के   अभिशाप  से सूखते जा रहे हैं, उन्हें अपने लगाने वालों को न संतुष्ट कर पाने के मलाल ने उनकी जिजीविषा छीन ली। अब बीजू आम लगाने का समय खतम हो गया। ऊंचे उठे कि उखडेÞ। कलमी का जमाना है, उनकी  जडंÞे गहरे नहीं गर्इं। वे झखरा हैं मुसरा नहीं। चूसने वाले आमों में कब्जियत नहीं  होती जबकि काटकर खाने वाले कलमी आम का गूदा गरिष्ट होता है, देर से पचता है, कर्बाइड सीधे हाजमा को प्रभावित करता है। आम्र बौर के गंध से जब शिव की समाधि भंग हो गई तो पके आम को देखकर मनुष्य की स्थिति का अन्दाज सहज ही लगाया  जाता है। गांवो में मुफ्त में मिलने वाला आम शहर में आकर बिकने लगा।
   गांवों में आज भी आम खाने का न्यौता होता है। परात में दस-पांच किस्म के पच्चीस-तीस आम धोकर चूसने के लिए दिये जाते हैं। लोग छक कर सराह कर खाते हैं। खिलाने वाला छांटकर एक-एक आम जिस प्रेम से खिलाता है, उतने प्रेम से तो शबरी ने भी शायद ही राम को खिलाया हो, आम खाने और खिलाने की परम्परा सदियों से रही है। पका आम देख किसका जी नहीं ललचाएगा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लम्बे समय तक शान्ति निकेतन में गुरुदेव के साथ रहे, उन्होंने लिखा है कि एक बार गुरुदेव चीन गए उन्हें आम खाने को नहीं मिला। उन्होंने अपने एक साथी से विनोद में कहा देखिए मैं जितने दिन तक जिऊं उसका हिसाब कर लेने के बाद उसमें एक साल कम कर दीजिएगा, क्योंकि जिस साल में आम खाने को नहीं मिला उसको मैं व्यर्थ समझता हूं, फल व्यक्ति की उम्र बढ़ाते हैं और स्वस्थ रखते हैं। जिस वर्ष मेरे आम नहीं फलते लगता है संसार रस-हीन है, दूसरों के आम से पेट नहीं भरता। आमों को डाल में लटकते हुए देखने का सुख आसमान में लटकते तारों के सुख के समान है। कहते हैं गालिब साहब को आम बहुत पसन्द थे, कमजोरी की हद तक। यह बात शहंशाह को मालूम थी। एक बार शहंशाह ने गालिब को अपने आम के बगीचे की सैर कराई। आम पके थे। पेड़ फलों से लदे थे। पूरा बाग महक रहा था। गालिब हर पेड़ के सामने खडेÞ होकर आम को देखने लगते शहंशाह ने पूछा गालिब क्या बडेÞ गौर से देख रहे हैं, गालिब ने तुरन्त उत्तर दिया जहां पनाह सुना था कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है। हुजूर अपना नाम ढूंढ़ रहा हूं। शंहशाह हंस पडेÞ और ढेÞर सारे आम गालिब के घर भेजवा दिए।
धतूरे की गंध शिव को पंसद है। आम मंजरी शिव पर चढ़ती है। आम स्वर्ग का वृक्ष नहीं है वह धरती की कोख से उपजा अमृत वृक्ष है। अमृत में आम की ध्वनि है। वे बहुत अभागे हैं, जिनके ऊपर आम की छाया नहीं है। देवताओं की पूजा में कलश के ऊपर आम की  टेरी (पत्तों की एक छोटी डार) हवन की समिधा में सूखी आम की लकड़ी आम के पत्ते से घी का होम, कहीं वन्दनवार कभी तोरणद्वार, समग्र रूप में कहें तो जन्म से लेकर मृत्यु (सतलकड़िया में आम की लकड़ी) तक किसी न किसी रूप में आम उपस्थित है। भीमसेनी एकादशी का पूर्ण फलाहार आम ही तो है। वृक्षारोपण सरकारी योजना हो सकती है लेकिन आम का रोपना सल्तनत को युगों तक अपनी मीठी यादों का फल खिलाना है। लोक जीवन से लुप्त होते जा रहे आम का निरन्तर घटना प्रकृति और प्राणी के लिए अशुभ संकेत है, जिसके लिए मनुष्य को सचेत होना होगा। आम का कम होना जीवन से मिठास का कम होना है।
                                   

सर्वहारा का लोक वृक्ष है महुआ


शेफाली, अशोक, शिरिष, कुटज, देवदार, आम पर इतने सुन्दर ललित निबन्ध लिखने वाले आचार्य द्विवेदी से शिकायत है। आम को छोड़कर अन्य सभी पुष्पों पर उनकी मुग्धता पाठक को भी रससिक्त करती है। ‘आम’ बौरा जाता है तो हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती है। आचार्य जी के आम ‘आम्र’ हैं आम (व्यक्ति) नहीं। उनका जितना मन इन फूलों पर गया है,स्तुत्य है। पता नहीं क्यों इन फूलों के साथ वे मधुक, पुष्प को कैसे भूल गए, लगता है गुरुदेव के शान्ति निकेतन में मधुक वृक्ष नहीं था, या उस पुष्प की मादक गंध को बर्दास्त नहीं कर सकेंगे पंडित द्विवेदी। भला मादकता का पंडित से क्या सम्बन्ध? आचार्य, मधुक-पुष्प पर लिखते तो वह वृक्ष भी अभिजात वर्ग का हो जाता। संस्कृत भाषा का मधुक,तद्भव में मधूक और देहात में महुआ हो गया। ‘मधु’ में संचयन की एक विकसित परम्परा है। उसकी मिठास गुड़ और शक्कर से अधिक है। मधु दवा है, साधना है। जिस वृक्ष ने इतनी साधना की, उसका पुष्प अमृत हो गया, वह सचमुच वरेण्य है। प्रसाद ने ‘पुरस्कार’ की मधूलिका को मधुक वृक्ष के नीचे ही आश्रय देकर उसे बोधिवृक्ष बना दिया। मधुक की सघन छाया सूरज के प्रचंड ताप को चुनौती देती है।
  बसंत के आगमन के साथ मधुक वृक्ष भी पलाश की तरह निर्वस्त्र अवधूत की तरह पत्रहीन हो जाता है। शाखाओं की फुनगियों पर कूंचे बनती हैं। कुछ दिन बाद उन कूंचों में फूल विकसित होते हैं। कूंचों से झांकते वे फूल आसमन में लटकते तारों के समान दिखते हैं। मधुमक्खी के छत्ते से झांकते ये फूल खिलने के साथ आधी-रात से सुबह देर तक झरते रहते हैं। कूंची में वे मोती की तरह दिखते परन्तु  धरती पर आते ही कुछ गुलाबी हो जाते हैं। हाथ में उठाते ही अपनी गंध आपके भीतर तक भर देने की क्षमता रखते हैं। हाथ महक उठता है। आनंद की अनुभूति चेहरे पर स्पष्ट दिखती है।
 मधुक अर्थात महुआ, आम आदमी का पुष्प और फल दोनों हैं। आम आदमी के सानिध्य के कारण देवभाषा में इसे स्थान नहीं मिला। इसीलिए इसे अन्त्यजों के हवाले कर दिया गया। न तो इसे स्वर्ग में जगह मिली और न अप्सराओं की वेणीं में, और न देवताओं के कुंज में। यह जंगली हो गया, और जंगल के प्राणियों का भरपूर पोषण किया। आज के अभिजात शहरी इसे आदिवासियों का अन्न कहते हैं। सच तो यह है कि गांव में बसने वालों उन लोगों के जिनके यहां महुआ के पेड़ है, बैसाख और जेठ के महीने में इसके फूल नाश्ता और भोजन हैं।
       मेरे गांव के पूरब और उत्तर बहुत बड़ी ‘मउहारि’(महुआरि) थी। जहां महुआ के पेड़ थे, वहां खेती नहीं होती थी, क्योंकि वे पेड़ इतने सघन थे कि उन्हें महुआ-वन कहा जा सकता है। हम उसे मौहारि कहते थे। प्रत्येक किसान के पास बीस-पच्चीस महुआ के पेड़ थे। गेहूं की कटाई करने के बाद किसान, महुआ बिनाई से लेकर उसे सुखाकर, पीट-साफ कर कुठिला में रखने के बाद ही गेहूं की मिजाई (गहाई) करता था। महुआ के हिसाब की नाप उन दिनों पैला, कुरई, खांड़ी में हुआ करती थी। अधिक पैदावार व्यक्ति की हैसियत निर्धारित करती थी। पेड़ों के नाम हुआ करते थे, मिठौंहा, चिनिहमा, मिसिरीबा, उसके फल की गुणवत्ता बताते थे। पेड़ के नीचे गिरे पत्तों को जलाकर जमीन साफ कर लेते। ताजा गिरे फूलों को चुन चुनकर डलिया में भरते फिर बडेÞ  टोपरा में डालकर सिर पर कपडेÞ की गोढ़री रखकर टोपरी (झौआ) भर महुआ घर लाते। आंगन लीपा रहता, उसमें बिछा देते, पांच, छ: दिन में सूख जाने पर उसे मोंगरी से पीटकर उसके भीतर के जीरा को निकालते और सहेज कर रख देते। गांव के लोग एक दूसरे की खबर लेने पर आम और महुआ को फसल के आने या न आने को समय और अकाल से जोड़ते थे। चौथे और पांचवे दशक में महुआ ग्रामीण जन-जीवन का आधार होता था। प्रत्येक घर में शाम को महुआ के सूखे-फूल को धो-साफ कर चूल्हों में कंडा-उपरी की मंद आंच में पकाने के लिए रख देते थे। रातभर वह पकता,पक कर छुहारे की तरह हो जाता। ठंडा हो जाने पर उसे दही, दूध के साथ खाने का आनन्द अनिर्वचनीय होता। कुछ लोग आधा पकने पर कच्चे आम को छीलकर उसी में पकने के लिए डाल देते। वह खटमिट्ठा स्वाद याद आते ही आज भी मुंह में पानी आ जाता है। लेकिन न वे पकाने वाली दादियां रहीं न, माताएं अब तो सिर्फ उस मिठास की यादें भर शेष हैं। इसे डोभरी कहते, इसे खाकर पटौंहा में कथरी बिछाकर जेठ के घाम को चुनौती दी जाती थी। लगातार दो महीने सुबह डोभरी खाने पर देह की कान्ति बदल जाती थी। दोपहर को इतनी बढ़िया नींद गांव छोड़ने के बाद कभी नहीं आई। डोभरी का अहसास आज भी जमुहाई ला देता है।
     पेड़ों के नीचे पडेÞ ये मोती के दाने टप-टप चूते हैं सुबह देर तक, इन्हें भी सूरज के चढ़ने का इन्तजार रहता है। जो फूल कूंची में अधखिले रह जाते है, रात उन्हें सेती है, दूसरे दिन उनकी बारी होती है। पूरे पेड़ को निहारिये एक भी पत्ता नहीं, सिर्फ टंगे हुए, गिरते हुए फूल। दोपहर और शाम को विश्राम की मुद्रा में हर आने-जाने वाले पर निगाह रखते हैं। कुछ इतने सुकुमार होते हैं कि कूंची में ही सूख जाते हैं, वे सूखकर ही गिरते हैं, उनकी मिठास मधु का पूर्ण आभाष देती है। जब वृक्ष के सारे फूल धरती को अर्पित हो जाते हैं तब ग्रीष्म के सूरज को चुनौती   देती लाल-लाल कोपलों से महुआ, अपना तन और सिर ढकता है। कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष लहक उठता है। नवीन पत्तों की छाया गर्मी की लुआर को धता बताती है। फूल तो झर गये लेकिन वृक्ष का दान अभी शेष है। वे कूंचियां जिनसे फूल झरे थे, महीने डेढ़ महीने बाद गुच्छों में फल बन गए। परिपक्व होने पर किसान इनको तोड़-पीटकर इनके बीज को निकाल-फोड़कर बीजी को सुखाकर इसका तेल बनाते है। रबेदार और स्निग्ध, इस तेल को गांव डोरी के तेल के नाम से जानता है। ऐंड़ी की विबाई, चमडेÞ की पनही को कोमल करने देह में लगाने से लेकर खाने के काम आता है। गांव की लाठी कभी इसी तेल को पीकर मजबूत और सुन्दर साथी बनती थी, जिसे सदा संग रखने की नसीहत कवि देते थे।
   महुआ गर्मी के दिनों का नाश्ता तो है ही कभी-कभी पूरा भोजन भी होता है। बरसात के तिथि,त्यौहारों में इसकी बनी मौहरी (पूड़ी) सप्ताह तक कोमल और सुस्वाद बनी रहती है। मात्र आम के आचार के साथ इसे लेकर पूर्ण भोजन की तृप्ति प्राप्त होती है। इस महुए के फूल के आटे का कतरा सिंघाडेÞ के फूल को फीका करता है। सूखे महुए के फूल को खपड़ी (गगरी) में भूनकर, हल्का गीला होने पर बाहर निकाल भुने तिल को मिलाकर, दोनों को कूटकर बडेÞ लड्डू जैसे लाटा बनाकर रख लेने से वर्षान्त के दिनों में पानी के जून में, नाश्ते के रूप में लेने से जोतइया की सारी थकान एक लाटा और दो लोटा पानी, दूर कर देता है। लाटा को काड़ी में छिलका रहित झूने चने के साथ कांड़कर चूरन बना कर सुबह एक छटांक चूरन और एक गिलास मट्ठा पीकर ताउम्र पेट की बीमारियों को दफा किया जा सकता है।
     संसार के किसी भी वृक्ष के फूल के इतने व्यंजन नहीं बन सकते। व्रत त्यौहार में हलछठ के दिन माताएं महुआ की डोभरी खाती है। पूजा-पद्धति में भी महुआ, आम और छिलका के पत्ते ही काम आते हैं। छिलका अकारण अभिशप्त हो गया समाधिस्थ शिव को कामदेव ने पलाश के ओट से ही पंचशर (पुष्पवाण) मारा था। शिव क्रोधाग्नि से काम तो क्षार हुआ ही, बेचारा पलाश भी जल गया। मुझे लगता है। काम के पुष्पवाणों में यदि अकेला मधुक पुष्प होता तो वह किसी की भी समाधि भंग करने का सबसे सुन्दर और असरकारक बाण होता। कामदेव को मधुक पुष्प की शक्ति का पता नहीं था। समाधि भंग की जो मादकता मधुक पुष्प में है वह काम के अन्य वाणों में नहीं। इतना बहुअर्थी वृक्ष कोई है? पता नहीं देवताओं को इस बेचारे मधुक से क्या चिढ़ थी। वृक्ष भले सख्त हो फूल और फल तो अत्यंत कोमल हैं। फिर जब आपने नारियल जैसे सख्त फल को स्वीकारा तो महुए ने कौन सा गुनाह किया था।