Tuesday, April 17, 2012

बाबुल मोरा नैहर छूटो जाएं

     चिन्तामणि मिश्र
 आमतौर पर शादी समारोहों  में शामिल होने से बचने का प्रयास करता हंू। विशेष रूप से लड़की की विदाई पर तो गायब होने का जुगाड़ कर लेता हूं। लेकिन इस बार कुछ नहीं कर सका और लड़की की विदाई का साक्षी बन कर बहुत व्यथित हुआ। मुझे अपने काम से वाराणसी जाना पड़ा। वहां मैं निकट के मित्र शिवम् के घर रुका। शिवम् ने बताया कि उनका परिवार पास के कस्बे चुनार गया है, परिवार की शादी में, शिवम् को भी जाना है। मित्र की मनुहार थी कि मैं भी चलूं, दूसरे दिन वापस लौट आयेंगे। मैंने सोचा अकेले पड़े-पड़े क्या करुंगा, सो शिवम् के साथ चुनार चल दिया। वहां शिवम की भतीजी की शादी थी। रात में शादी की रस्में पूरी हुई और सुबह कन्या की विदाई हो गई। मैंने देखा विदाई के समय घर की कुछ औरतें और कुछ पुरुष लड़की के पीछे चल रहे थे। गांव की शादी जैसा रोने-धोने और पछाड़ मारता दृश्य तो नहीं था, लेकिन उदासी तो थी ही। औरतें लड़की को फूलों से सजी कार में बैठा आई थी। शिवम् दूर खड़े थे। मैंने अनुभव किया कि वे रस्म अदायगी करने आये थे और अपने ही परिवार में हाजरी बजा रहे थे। जबकि मेरा गला भर आया था और आंखों में आंसू तैरने लगे थे। मंै सोच रहा था कि शिवम् को घर के बाहर तक लड़की को छोड़ कर आना चाहिए था, क्योंकि वे तो लड़की के चाचा थे। मेरा क्या है जो इस तरह भावुक हो गया।
   कल फेरों और आज विदाई में महसूस किया कि शादी में आये ज्यादातर लोग रस्म अदायगी कर रहे थे। वर-वधु और उनके माता-पिता के अलावा शायद ही कोई आत्मिक लगाव महसूस कर रहा हो। इसलिए लड़की को दरवाजे पर छोड़ का जाना और गला रुंध जाना, मुझे ही अटपटा लग रहा था। किसी महिला को ऐसा लगे तो फिर भी समझा जा सकता है कि उसे अपनी विदाई का क्षण याद आ गया हो, लेकिन मुझे ऐसा क्यों हुआ? लड़की, न बेटी थी, न बहन । समझ में आया कि अपने संस्कार हैं कि लड़की को घर की देहरी तक छोड़ कर आओ। वह अपने पीहर से ससुराल जा रही है और अब पराई हो गई है। उसका अपने बाबुल का घर छूट गया है। उसे अब नया घर बसाना है। अवध के आखरी नबाव वाजिद अली शाह की जग-प्रसिद्ध ठुमरी में भी ऐसा कुछ है- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए,अंगना तो पर्वत भयो और देहरी भई विदेश।’ इस ठुमरी ने मुझे हमेशा रुलाया है। नैहर से पी के घर हम सभी को जाना पड़ता है। नीरज ने भी लिखा- ‘मुड़-मुड़ न देख,खड़ा जो बचपन लिए खिलौने,हर घर ही नैहर से पी के घर जाने की तैयारी है। ’ नीरज को मैं सूफी परम्परा का आधुनिक कवि मानता हंू। उनके कहने का निर्गुनिया रहस्य अलौकिक भाव के एकान्त में ला पटकता है। बाबुल का घर छोड़ कर ही लड़की दुलहन बनती है।
 संसार का उल्लास, हंसी-खुशी दुलहिनों की है। दुलहन ही तुलसी चौरा में दीपक जलाती है। आंगन और देहरी के साथ घर को जगमग कर देती है। आप कल्पना कीजिए किसी ऐसे घर की, जहां ? घर वालों और स्वयं घर को प्रतिक्षा हो एक ऐसी बहू की जो सब को अपने स्नेह के सूत्र में बांध ले। एक ऐसी बहू जो घर के एक-एक कण को अपनी सेवा से नया रूप दे दे। बहू के मांगलिक चरण घर की दहलीज को लांघ कर अन्दर बढ़े और पूरा घर उस सुन्दरी के नूपुरों की तरह झनकने लगे। जहां उदासी थी वहां जीवन के गीत खनक उठें। मंैने ऐसी ही एक दुलिहन को अपने मंदिर में दीपक जलाते देखा है। वह दुलहन जिस घर से आई है अब वह घर उसके भाईयों-भावजों का घर उसके लिए घर नहीं बल्कि एक पड़ाव बन कर रह गया है। उसकी ननदें जब भी धर गृहस्थी में थकती तो थोड़ा सा विश्राम करने भावज के घर चली आती थी। अब उसकी लड़की भी यही करती है, अपनी मां के घर आ जाती है। यह पड़ाव गिने-चुने दिनों का होता और उसके बाद उसे अपने घर की याद सताने लगती है। इसके विपरीत वह दुलहिन उस घर को जहां डोले से उतर कर अपना पहला कदम रखा था, छोड़ कर जाने का नाम ही नहीं लेती है। उसके लिए अपना ही घर ही यात्रा है और अपना घर ही पड़ाव है। उसने डोले से उतरते ही घर गृहस्थी को फूलों की मालाओं की तरह पहन लिया,अब उस माला को उतारने की उसे सुधि ही नहीं है। हालांकि उपभोगतावाद की सुनामी ने इस बुढ़ा गई दुलहन को अपनी बहुओं से एकान्तवास का पैकज मिल गया है किन्तु वह अपनी अर्थी अपनी सास की देहरी से ही ले जाने की जिद किए है।
 दुलहिन और दीपक का साथ बहुत पुराना है। घर में आंगन जब बहु से  उल्लास में भर जाता है तो उसका जीवन-दीपक स्नेह से लबालब हो जाता है। उसके कर्मों की बाती को थोड़ा उकसा देने पर चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है। दुलहिन जिस मानसिक जीवन दीप को जलाती है,उससे घर ही नहीं,अड़ोस-पड़ोस और मंदिर-चौरा भी जगमगाता है। लड़की के विदाई गीत सभी बोलिओं में हैं और रोते हुए महिलाएं गाती भी हैं तो जो भी उन्हें सुनता है,वह भी भावुक हो जाता है, रोता है। आत्मीय और निजी सम्बन्धों का दायरा सीमित कर दिया है। अब तो महिलाओं को विदाई गीत याद भी नहीं हैं। लेडीज संगीत आयोजित होने लगे हैं इनमें पैसा देकर गाने वाली बुला ली जाती हैं, या फिर टेप बजा लिया जाता है। मैं समझता हूं कि विवाह गीत टेप पर सुनने के लिए नहीं बने हैं,वे गाने   के लिए हैं। भले ही गाने वालिओं के गले सुरीले न हों। वे तो भावनाओं को जीने के लिए हैं। विवाह के पहले मांगलिक कारज से लेकर आखरी कारज तक के इन गीतों में हमारे संस्कार और उद्गार होते हैं।
     अब तो शादियां चन्द घन्टों में निपटने लगी हैं। होटलों, मंडपों में लड़के-लड़की के परिवार मध्यान्ह में मेहमान जैसे आते हैं। रस्म पूरी करके दूसरे दिन सबेरे अपने धर चल देते हैं। तिलक से लेकर फेरों तक केवल वैभव प्रदर्शन अब शादियों का स्थायी मूल भाव हो गया है। इस अवसर पर विनम्रता की नहीं धन के अंहकार की मुनादी होने लगी है। स्वरुचि भोज के नाम पर गिद्ध भोज ने खिलाने वाले को अतिथि-सत्कार की भावना से बांझ बना दिया है। हमने अपने रीति-रिवाज और परम्पराओं को देश निकाला दे दिया है। अब बनावट और दिखावा का इतना प्रसार हो गया है कि चारो तरफ सांस्कृतिक अराजकता का कब्जा है। अपनी संस्कृति तथा परम्पराओं को पक्के निर्लज्य होकर विदा कर रहे हैं। इन्हें जानने समझने का प्रयास बन्द कर दिया। पहले जिज्ञासा मरती है फिर रस सूखता है। इसके चलते कन्या की विदाई में भी हमारे भीतर की रस-गागर सूखी ही रह जाती है।
                                       - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                          सम्पर्क - 09425174450.

Friday, April 13, 2012

बाबा साहेब पर कर्मकाण्ड का घेरा

चिन्तामणि मिंश्र
बाबा साहेब अम्बेडकर आजादी के आन्दोलन में जितना सक्रिय रहे, उससे कहीं ज्यादा दलित आन्दोलन में उनका योगदान है। बाबा साहेब उच्च कोटि के विद्वान तो थे ही वे राजनीतिक समझ और धार्मिक विवेक रखते थे। वे जीवन भर जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे। भारतीय इतिहास में उनका उल्लेख कई प्रकार से कई स्थान पर किया जाता है। समाज सुधारक,संविधान निर्माता,साहित्यकार, बौद्ध दार्शनिक और विधि विशेषज्ञ के रूप में उनका स्थान शिखर पर है। हकीकत तो यह है कि भारत में दलितों को आज जो कुछ प्राप्त हुआ है उसका पूरा और इकलौता श्रेय बाबा साहेब की राजनैतिक लड़ाई और उनके चिन्तन को है। उन्होंने इस सोच को बदला कि दलितों की दशा और दिशा बदलने के लिए घिघिआने तथा देवी-देवताओं का नाम लेकर गुहार लगाने से कुछ नहीं होने वाला है जैसा कि भक्तिकाल में सन्त-महात्मा करते रहे है। उनकी सोच थी कि राजनीति से परहेज रख कर लोकतंत्र में सत्ता पर काबिज नहीं हुआ जा सकता और दलित तथा अन्य वर्ग की समस्याओं का समाधान सत्ता से ही निकलता है।
    भारत के दलितों को अम्बेडकर के रूप में सच्चा हितैषी तथा क्रांतिकारी नेता मिला था, जिसने स्वाधीनता संग्राम के दौरान आजादी के मायने ही बदल दिए। उन्होंने स्वराज का विरोध नहीं किया बल्कि कहा कि उनके लिए स्वराज उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि स्वराज किन हाथों में होना चाहिए। बाबा साहेब मानते थे कि स्वराज की स्थापना समाजवादी रास्ते से ही हो सकती है। आजाद भारत में समाजवादी व्यवस्था होनी चाहिए। बाबा साहेब ने अपने चिन्तन को अमलीजामा पहनाने के लिए इंडिपेडेंट लेबर पार्टी बनाई थी। पहले आम चुनाव के समय उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी और शेतगार कामगार पार्टी के साथ मिल कर चुनाव भी लड़ा था। वे समकालीन समाजवादियों का साझा मोर्चा बनाना चाहते थे। उनका डा. लोहिया से मिल कर पार्टी बनाने का इरादा था, किन्तु उनके असमय निधन के कारण इरादा पूरा नहीं हो सका। वे मानते थे कि दलित, पिछड़े वर्ग की समस्याओं का समाधान और जाति व्यवस्था का खात्मा तभी होगा जब समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों के साथ मिलकर काम किया जायेगा। दलित अकेले  कभी यह बदलाव नहीं ला सकते
  बाबा साहेब के जीवन में धर्म अनुपस्थिति नहीं था। वे धार्मिक व्यक्ति थे। उनका पूरा परिवार कबीारपंथी था। वे हिन्दूधर्म के ब्राम्हणवाद और हिन्दू धर्म की कठोर जातिवादी मानसिकता का विरोध करते रहे। जब उन्हें यह एहसास हो गया कि दलितों और अछूत जातियों की दशा हिन्दू बने रहकर और हिन्दू समाज में बदल सकना असम्भव है तो उन्होंने अपने अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है। धर्म परिर्वतन के कुछ ही माह बाद उनका निधन हो गया और उनकी नव-बौद्धों को लेकर जो योजना थी वह सामने नहीं आ सकी ।
   विडम्बना तो यह रही कि अम्बेडकरवादी नव-बौद्धों ने बौद्धधर्म को भी कर्मकांड के रूप में ही अपनाया। बाबा साहेब को फोटो फे्रम में प्रतिष्ठा करके भगवान घोषित कर डाला। अन्य धार्मिक पंथों की तरह बुद्ध और बाबा साहेब भी भक्तिभाव से के वल पूजित रह गए। नव-बौद्ध दलित वोट बैंक की जगह अब बौद्ध वोट बैंक हो गए। बाबा साहेब के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक विचारों को विकसित और स्थापित करने में रूचि ही नहीं रही। बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के अवसर पर अपने अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएं निर्धारित की थी, किन्तु नव-बौद्ध इन प्रतिज्ञाओं का पालन करने की जगह जातिवाद, छुआछूत और ऊंच-नीच की भावना में आकंठ डूबे हैं। वे हिन्दू धर्म की नकल कर रहे हैं। शादी-ब्याह के अवसर पर कलश स्थापना हिन्दूओं की ही तरह से होती है। फर्क इतना है कि कलश में आम के पत्तों की जगह पीपल के पत्ते होते हैं। हवन कुंड की जगह दीपक और लाल रक्षासूत्र कलावा की जगह सफेद रक्षा सूत्र ने ले ली है। गायत्री मंत्र की जगह नमोतस्य भगवतो का जाप होता है। अम्बेडकरवादी बौद्ध आज भी बेटी-बेटों की शादी में जाति को ही महत्व देते हैं। यह बाबा साहेब का अनुगमन नहीं है।
  आज अम्बेडकर का जिस तरह से जिक्र होता है, उसमें उनका क्रांतिकारी तेवर गायब होता जा रहा है। उनको लेकर कई खेमे बन गए हैं। ऐसे लोग नव-उदारवाद और भूमंडलीकरण को दलित हित में मानते हैं। उन्हें लगता है कि अंगे्रज भारत में देर से आए और जल्दी चले गए। वे मानते हैं कि उपनिवेशवाद भारत के लिए वरदान था। मैकाले महान मुक्तिदाता था। ऐसे अम्बेडकरवादी चिंतक दलित की मुक्ति का माध्यम अस्मिता की लड़ाई को मानते हैं। समझने की बात यह है कि अस्मिता की लड़ाई तभी महत्वपूर्ण हो सकती है जब उसका उद्देश्य शोषण विहीन समाज की स्थापना हो। यह लड़ाई अस्मिता को आधार बना कर लड़ी जानी चाहए किन्तु सामाजिक मुक्ति तभी सम्भव है जब इसमें सर्म्पूण समाज की मुक्ति की कामना हो। दलित चेतना केवल दलित हित की बात न सोचे। इसे मानव मात्र की मुक्ति से जोड़ना होगा। ऐसा करने पर ही बाबा साहेब के विचारों के साथ समझ और न्याय होगा। बाबा साहेब के निधन के बाद दलित आन्दोलन आरक्षण के मुद्दे से जरा भी आगे नहीं बढ़ा। आरक्षण ने दलितों में नव-ब्राम्हण पैदा किए जिसमें सम्पन्न दलित नेता, ठेकेदार नौकरशाह, एनजीओ के कुबेर, डॉक्टर, इंजीनियर,   प्रोफेसर,का मध्यवर्ग विकसित हुआ है।  इनके सरोकार गैर दलित समुदाय के सरोकारों से जुड़ गए हैं। अब इनकी चिन्ताएं आम दलित जनता के प्रति नहीं, शोषक वर्ग के लिए होती हैं।
     भारत के इतिहास में दो महापुरुषों की प्रतिज्ञा का जिक्र बहुत होता है। पहली ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ जिसने राजनीतिक और सामाजिक संतुलन  में घटतौली की थी, दूसरी प्रतिज्ञा अम्बेडकर की ‘भीम प्रतिज्ञा’- कि हिन्दू होकर नहीं मरूंगा। इस प्रतिज्ञा के चलते बुद्ध की शरण में जाना कोई बदलाव नहीं ला सका क्योंकि हिन्दू धर्म से ही मिलता जुलता बौद्ध धर्म है। लेकिन इन तमाम बातों से परे एक बात हमेशा महत्वपूर्ण है कि बाबा साहेब हमारे समय के महानायक है। उनकी दलितों के लिए तेजाबी सोच, उनका संघर्ष, उनकी विद्वता और उनका चिंतन, वंदनीय है।
                                     - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
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गद्दारों के गठजोड़ के पीछे कौन

फेसबुक में इन दिनों एक कविता युवाओं  में सबसे ज्यादा शेयर की जा रही है। धरा बेच देंगे गगन बेच देंगे,नदी पर्वत और चमन बेंच देंगे अरे नौजवानों अभी तुम न संभले तो ये भ्रष्ट नेता वतन बेंच देंगे। किसी मंचीय कविता की ये पंक्तियां युवाओं की चिन्ता और आक्रोश की अभिव्यक्ति  बनी हुई हैं। देश की सेना और रक्षा तैयारियों को लेकर एक के बाद एक खुलासे हो रहे हैं। इसी बीच अमेरिका द्वारा पाकिस्तान चरमपंथी हाफिज सईद पर जिन्दा या मुर्दा पकड़ने का इनाम घोषित करना। खबरों के पीछे किसी वरिष्ठ मंत्री के होने से सब कड़ियां कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ी हैं। सबसे पहले बात करते हैं, हाफिज सईद के बहाने अमेरिकी चाल पर। देश की सुरक्षा खामियों, सेना में विद्रोह की फर्जी खबर और पाकिस्तान के राष्टÑपति आसिफ अली जरदारी की प्रस्तावित यात्रा के बीच अमेरिका द्वारा हाफिज सईद को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए ईनाम की घोषणा और वह भी मुंबई के गुनहगार घोषित करते हुए, महज इत्तेफाक नहीं है। इसके पीछे पेंटागन और अमेरिका के सामरिक रणनीतिकारों की सोची समझी चाल है। यह सही है कि हाफिज सईद भारत का दुश्मन है और हमारे खिलाफ विष वमन करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि हाफिज सईद वही शख्स है,जिसके संगठन जमात-उद-दावा ने पाकिस्तान में भूकंप पीड़ितों की मदद में आए अमेरिकी डॉलरों से आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर संचालित कर रहा है। अमेरिका को इसकी पूरी खबर है, लेकिन तब उसने हाफिज सईद पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने कोशिश क्यों नहीं की? अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि उसे मुंबई के पीड़ितों का दर्द झलकने लगा व जिन्दा व मुर्दा पकड़ने के लिए 50 करोड़ डालर की घोषणा कर दी, जिसका हाफिज सईद ने खुद यह कह कर मजाक उड़ाया कि मैं लाहौर में हूं, अमेरिका आए और वह ईनाम मुझे दे।
    दरअसल, इन सबके पीछे अमेरिका की गहरी सोच छिपी हुई है। पहले हाफिज सईद को लेकर पाकिस्तान में उसके समर्थन में जितना वातावरण बनेगा भारत में उतनी ही बौखलाहट बढ़ेगी। दोनों देश के बीच रिश्तों के सुधरने की जो प्रक्रिया चल रही है और जरदारी की भारत यात्रा के साथ सौहार्द्र का वातावरण बनने की जो जरा सी भी गुंजाइश है उस पर पलीता लग जाएगा। भारत और पाकिस्तान की सरकारें और राजनयिक शक्तियां एक दूसरे के खिलाफ मुश्के कसने लगेंगी, जो कि शुरू भी हो गया है। दूसरा, सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह की प्रधानमंत्री को लिखी गई चिट्ठी का लीक होना कि सेना के पास एक हफ्ते तक की लड़ाई के लिए गोला बारूद का स्टाक नहीं बचा है।  इस खबर में देश द्रोही लीकेज के पीछे छुपी हुई मंशा यह थी कि पूरे देश में आम नागरिकों में भय का वातावरण निर्मित हो जाएगा तथा सरकार पर रक्षा तैयारियों को तत्काल चाक चौबंद करने का दबाव बढ़ेगा, इससे लंबित पड़े रक्षा सौदे तत्काल अमल में आ जाएंगे। इस खबर के असर से सरकार और सेना उबर पाती कि इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के सीईओ कम प्रधान संपादक शेखर गुप्ता ने खबर ब्रेक की, कि जिस दिन वी के सिंह जन्मतिथि के मसले को लेकर सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर थे, उसी दिन सेना की पलटन ने दिल्ली की ओर कूच किया था। खबर का संकेत यह था कि सेना ने वी के सिंह के इशारे पर तख्ता पलट की पूरी तैयारी कर रखी थी।
दरअसल, रक्षा सौदागरों और सेना की बीच घुसे उनके भेदियों की आंखों में जनरल वी के सिंह और रक्षामंत्री ए के एंटोनी दोनों ही बराबर खटक रहे हैं। वी के सिंह ने सेना में भ्रष्टाचार की सड़ांध में जैसे ही कार्रवाई का फिनायल छिड़कना शुरू किया, वैसे ही सेना के भीतर ही उनके खिलाफ साजिशें शुरू हो गई और जन्मतिथि का प्रकरण उभरकर सामने आ गया। वी के सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ जितने ही मुखर होते गए साजिशें भी उसी हिसाब से गंभीर होती चली गर्इं और एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता की ब्रेकिंग न्यूज तो इसका चरमोत्कर्ष है। वी के सिंह को सरकार की नजरों से गिरने के प्रयास के चलते ही सैन्य विद्रोह की बात सामने लायी गई। रक्षा सौदागरों के दलालों के आड़े आ रहे ईमानदार रक्षा मंत्री ए के एंटोनी भी निशाने पर लिए गए और विवाद को इतना तूल दिया गया कि सरकार एंटोनी को हटाने के लिए मजबूर हो जाए।
कुल मिलाकर जो परिदृष्य सामने उभरता है उससे कई बातें आइने की तरह साफ है। एक तो यह कि एक के बाद एक खुलासे किसी तयशुदा स्क्रिप्ट के हिस्से हैं। पटकथा लेखक और निर्देशक कहीं सात समंदर पार बैठे हैं। इस नाटक के अभिनेता खलनायकों में, सेना के भीतर बैठे गद्दार,बाहर घूूम रहे दलाल और सत्ता के साझीदार कुछ नेता शामिल हैं। यदि गार्जियन की खबर को सही माने तो सरकार का ही एक वरिष्ठ मंत्री इस गठजोड़ में शामिल हैं,और उसी का हाथ एक्सप्रेस की ब्रेकिं ग न्यूज के पीछे है। यदि यह बात सही है तो सेनाध्यक्ष की प्रधानमंत्री को लिखी गई चिट्ठी के लीक होने के पीछे भी इन्हीं महोदय का हाथ होना चाहिए। देश की संभवत: यह पहली घटना होगी जब मीडिया का एक हिस्सा ऐलानिया तौर पर  देश द्रोहियों का औजार और प्रवक्ता बनकर सामने आया है। इस घटना के बरक्स कल्पना कीजिए कि यदि मीडिया के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश (जिसकी पैरवी बड़े कार्पोरेट   घराने कर रहे हैं) की इजाजत मिल गई तो देश के संवेदनशील मामलों का क्या होगा अन्दाजा लगाया जा सकता है।
बहरहाल, एक के बाद एक घटना क्रम उभर रहे हैं उससे अंदाजा लगा सकते हैं कि देश को कितनी गंभीर साजिश व दुश्चक्र के दलदल की और धकेलने की कोशिशें की जा रही हैं। देश की हवा पानी और राशन खाने वाले सेना में घुसे गद्दार, संसद में बैठा वह मंत्री और अखबार में संपादकीय रचने वाले पत्रकार महाशय, हथियारों के सौदागरों के हाथों की कठपुतली की मानिन्द नाच रहे हैं। जरूरी है कि इन सभी संदर्भों को ध्यान में रखते हुए एक उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया जाए तथा तय समय-सीमा के भीतर साजिश का पर्दाफाश हो, और देश को दांव में लगाने वाले गद्दारों को चौराहे के लैम्प पोस्ट पर लटकाकर फांसी दी जाए,चाहे वह व्यक्ति सेना का ओहदेदार हो, मीडिया का संपादक या सरकार में शामिल वह वरिष्ठ मंत्री।
                             - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।
                                 सम्पर्क - 09425813208.


Thursday, April 5, 2012

सौ-सौ मतलब हैं बिन बोली बात के

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
मौसम की प्रतीक्षा केवल मनुष्य को नहीं, धरती के जीव-जंतु को भी होती है। शायद इसिलिए मौसम का असर सब से पहले मनुष्येत्तर उपक्रमों में दिखता है। जीव-जंतु, वृक्ष आदि मौसम के आगमन और परिवर्तन की सूचना जाने किस सेटेलाइट से प्राप्त करते हैं कि उनके व्यवहार में अचानक परिवर्तन अक्सर देखा गया है। भूकंप , सुनामी की सूचना प्रकृति के उन जीवधारियों में अधिक देखी गई है जो धरती की सतह पर रहते हैं, उसके कंपन और धड़कन से भविष्य की आहट का अहसास करते हैं। और कुछ दैनदिन से हटकर हरकत करते हैं। मनुष्य पृथ्वी का सबसे सचेतन जीव है। मौसम की प्रतीक्षा वह हमेशा से करता रहा है।  अपने को मौसम के अनुकूल ढालता है, फिर  अगले मौसम आने की प्रतीक्षा करने लगता है। एक समान मौसम में रहना उसके स्वभाव में नहीं है। प्रकृति भी हमेशा एक समान कब रही है। परिवर्तन जीवन का विकास क्रम है। वर्षा की पहली बौछार ग्रीष्म की उमस से राहत देती है। वर्षा के चौमास से ऊबकर उस सर्दी की अपेक्षा होती है। शीत और ठार से भी मुक्ति की कामना भी उसका स्वभाव है। मनुष्य इन्हीं तत्वों से अपने में भी परिवर्तन की अनुगूंज महसूस करता है। और अपनी खुशी प्रकृति के इन्हीं माध्यमों से व्यक्त करता है। धरती के सभी जीवों में सबसे अस्थिर मनुष्य का ही है।
  भारतीय परिवेश में प्रत्येक परिवर्तन को मनुष्य ने उत्सवों से जोड़ा है। उसने नव वर्ष को बासन्ती नवरात्र से होली से, वर्षा हो हरियाली उत्सवों से, सर्दी को शारदीय नवरात्र और दीवाली से जोड़ते हुए अपनी बहुरंगी विविधता का दर्शन छिपा है। चैत्र महीना नवान्न का महीना है। गरीब-अमीर के खुश होने का साझा महीना। मजदूर-किसान वर्ष भर भले ही खेतों में काम करते हों, यह महीना उनके कर्मों का सुफल है। किसान का सच्चा निवास गांव है। जहां आज भी शुद्ध हवा है, लोगों में आपस में कुछ आस्था-विश्वास बचा है। अक्सर लोग पूछते हैं कि आखिर गांव में ऐसा क्या है जिन्हें आप सराहते थकते नहीं। गांव में परिवार है, रिश्ते हैं, एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होने की सहन इच्छा है, संवेदना है और आज भी शहरों की अपेक्षा विश्वास है। कुछेक अपवाद हो सकते हैं फिर भी गांव बेहतर है। इन पर चर्चा इसलिए होनी चाहिए कि इनका प्रतिशत देश की कुल आबादी का तीन चौथाई है। चैत-बैशाख के कच्चे फलों का महीना है। फसल के दाने साहूकार ले जाएगा। आम महुआ के फल-फूल की रखवाली-तकबारी किसान करेगा। पकने और तैयार होने पर शहरी बनिए लोभ-लालच  देकर उसे सस्ते दाम में खरीद ले जाएंगे और दोगुने-तिगुने लाभ पर बेचेंगे। यहीं प्रकृत न्याय गांव भोग रहा है। यही नियति भी है उसकी फिर भी अपनी ओसारी में बैठकर तंबाकू-चूना का हिसाब वह नहीं लगाता। सामने से प्रत्येक निकलने वाले के लिए उसकी थैली का मुंह खुला है।
    गर्मी पड़ने लगी है। किसान के घर का पटौंहा किसी भी एसी को चुनौती देने में पूर्ण सक्षम है। न बिजली गुल होने का डर न लू लगने की चिंता। इस मौसम में भी प्रकृति के अनेक प्राणी सुखी हैं जबकि धरती का तापमान सामान्य से लगातार ऊपर बढ़ रहा है। गांव में एक लोकोक्ति है- धूपकाल में  तीन मोटान, सकहा, गदहा और गिरदान। सकहा दमा के मरीज हो कहते हैं। दमा के बारे में लोक मान्यता है कि दमा, दम के साथ ही जाता है। जब तक दम है तब तक दमा है। दमा में खांसी आती है, कफ पित्त, वात के संतुलन बिगड़ जाने से यह रोग होता है। गांजा-तंबाकू पीने वालों में यह रोग अक्सर होता है। सांस लेने में तकलीफ होती है। कफ सूखने के कारण खांसी आती है। लगातार खांसते-खांसते मरीज का दम उखड़ता है, नसें फूल जाती हैं, आंखें लाल हो जाती हैं। सर्दी के बीतते ही उसे राहत मिलती है।अब धूपकाल है। चार महीना की कमी वह इन्हीं गर्मी के महीनों में पूरी करता है, इसीलिए सकहा मोटा है।
डार्बिन ने कहा था- मनुष्य एक सामाजिक पशु है कदाचित इसीलिए मनुष्य ने अपने स्वभाव में स्वभाव में सभी पशुओं के लक्षण देखकर ही उनसे उपाधि धारण की। कभी मनुष्य शेर के समान हुआ तो कभी गीदड़, सुअर, कुत्ता, लोमड़ी, गधा, पशु, जानवर भी कहलाया परंतु किसी भी पशु ने मनुष्य के स्वभाव की नकल नहीं की। हां गाय जरूर मां कहलाई परंतु बैल पिता नहीं बन सका। पशुओं के सहजात स्वभाव में मनुष्य के सबसे करीब गधा है।  निरंतर भार ढोता है कभी किसी से कोई शिकायत नहीं, लादते जाएं जब तक खुद के नीचे रखे र्इंट फूट न जाएं तब तक उसे एतराज नहीं। कभी-कभी मनुष्य का स्वभाव याद आते ही दुलत्ती अवश्य झाड़ देता है।
 भारतीय पौराणिक सृष्टि में जब देवताओं ने अपनी-अपनी सवारी तय की, शीतला मां ने गधे को अपना वाहन चुना। शीतला मां नाम से तो शीतल हैं लेकिन लोक में इनका रूप उग्र है और विशेषत: बच्चों पर इनका प्रकोप होता है। इन्हें गांवों में शीतला महारानी कहते हैं। शहर इन्हें चेचक कहता है, लेकिन दवा देने और सुई लगाने से एतराज करता है। नीम के पेड़ पर मां का निवास माना जाता है इसलिए नीम के शीतल पत्तों की डाली से हवा की जाती है। सारे शरीर में छोटे-बड़े फफोलों की तरह निकले ये महरानी के रूप में कभी-कभी आंख भी ले लेती हैं। रोगी के अनजाने में पशु-बैढ़ी भी की जाती है। गधे के मूत्र का   शरीर में लेप करने से शीतला माता को शांति मिलती है। रविवार को पुष्य नक्षत्र में मिर्गी के मरीज के कान में गधे का मूत्र डालने और नक्ष्य देने से लाभ होता है। गधे के मालिक  का प्रभाव तो अयोध्या ने भोगा ही, पता नहीं किस सिरफिरे ने उसे निर्मली का विरुद दे दिया। हालांकि यह विरुद कपड़े धोने  के लिए दिया गया था। लेकिन उसने रामायण कथा ही धो दी। मनुष्य के स्वभाव के सबसे नजदीक होने के कारण ही लेखकों ने गधों पर कई एक उपन्यास कथाएं लिखी हैं। हर स्थिति में स्थितप्रज्ञ रहने वाला यह प्राणी इस मौसम में सबसे अधिक खुश रहता है। इसीलिए मोटा हो जाता है। वह बैशाखनंदन भी कहलाता है।
गिरगिट का देशज गिरदान है। सर्दी में वह भी दुबला गया था। रंग उड़ गया था। गर्मी के आते ही उसके भी रंग बदले। लाल हो गया। बाड़ी या पौधों पर सिर डुलाकर प्राणायाम करने लगा। सूर्य नमस्कार उसका पहला योग है। उसकी कथा भी पुराणों में वर्णित है। कौन जाने इन्द्रासन पाने के लोभ में मनुष्य ने इनसे ही रंग बदलने की प्रक्रिया अपनाई हो। नहुष को भले ही ऋषियों का शाप भोगना पड़ा हो परंतु आधुनिक गिरगिट जल्द ही सिंहासन पा जाते हैं। वर्तमान में इन्हीं का मौसम है। इनकी निष्ठा दल या विचार में नहीं, पद में ही होती है। इसीलिए हर हाल में ये गिरगिट सा रंग बदलते रहते हैं।
                                                 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
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संवेदनाओं के बजंर होने का दौर

चिन्तामणि मिश्र
पिछले माह के अंतिम मंगलवार को अखबार देख कर मन बहुत बेचैन रहा। सारा दिन तनाव और अवसाद में गुजरा। अखबार में छपा चित्र नेशनल हाईवे में दिनदहाड़े घटी दुर्घटना में मारे गए दो छात्रों में से एक छात्र के शव का था, जिसे दो पुलिस वाले घटनास्थल से टांगे हुए घसीट कर हटा रहे थे। हमारी पुलिस अशोभनीय और गैरजिम्मेदाराना काम कर रही थी, जिसे घटनास्थल पर जुटी भारी भीड़ भी देख रही थी, किन्तु किसी की भी संवेदना ने इसके लिए उनको धिक्कारा नहीं। इधर धर्म और हर समुदाय में मृतक को सम्मान देने का चलन है। हमारी परम्परा और हमारी संस्कृति किसी के भी शव को हाथ जोड़ कर सम्मान देने की है। उस दिन ड्यूटी कर रहे पुलिस के जवानों ने मानवता को किरिच-किरिच कर ऐसा तोड़ा कि उसकी टूटन आज भी बरकरार है। छात्रों के शव पर चादर डाल कर स्ट्रेचर पर रख कर घटनास्थल से हटाया जा सकता था। शहर के सरकारी अस्पताल में चादरों और स्ट्रेचरों का अकाल नहीं है। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब मन में संवेदना की नदीं मरी न हो। हमने तो संवेदना और मनुष्यता का पिंडदान करके श्राद्ध कर डाला है। हमारी तटस्थता तभी दरकती है, जब हमारा कोई इसका शिकार होता है। पुलिस के आला अधिकारियों ने भी इसे देखा होगा किन्तु किसी ने भविष्य में इसे न दुहराने के लिए निर्देश तक नहीं दिए। मेरे शहर में मानव अधिकारों की गुहार लगाते हुए कई संगठन काम कर रहे हैं। इनके काम सराहनीय हैं, किन्तु इस प्रसंग में इनकी चुप्पी चुभती है।
   पिछले माह देश की राजधानी दिल्ली में पुलिस वाले एक घायल महिला को घसीटते हुए अदालत ले गए थे। अदालत ने ऐसी अमानवीयता के लिए लताड़ लगाई । मानवता की कपालक्रिया हमारे यहां पुलिस वर्दी के ही लोग नही करतें, बल्कि हम सब करते हैं।Þ सड़क दुर्घटना में घायल और मृतक के जेबरात, नकदी ,पर्स,मोबाइल गायब कर दिए जाते हैं। ऐसी अमानवीयता से दुर्र्घटना के शिकार की पहचान संकट में पड़ जाती है। पड़ोसी राज्य से देवी दर्शन के लिए आये पति और पत्नी सड़क दुर्घटना में मारे गए। उनका बैग,जेवर,नगदी और पहचान पत्र उठाईगीरों ने गायब कर दिया। इनकी पहचान के लिए कोई सूत्र नहीं था, पुलिस ने लावारिस और पहचान-विहीन मान कर दफना दिया। डेढ़ माह बाद जब परिवार वाले तलाश करते हुए देवी की नगरी में पहुचे और पुलिस से सम्पर्क किया तो कपड़ों और मृतकों के फोटो से पहचान स्थापित हो पाई।
   गाडरवारा जिला के बारहाबड़ा के सरकारी स्कूल में दसवीं की परीक्षा के दौरान पन्द्ररह और बीस मार्च को नकल सामग्री की खोज में शिक्षिकाओं ने छात्राओं के कपड़े उतरवा कर तलाशी ली। बस अमानवीय कारनामें को पूरा करने के लिए छात्राओं के अधोवस्त्रों को भी उतरवा लिया गया । छात्राएं ऐसा न करने के लिए गिड़गिड़ाती रही किन्तु शिक्षिकाएं नहीं मानी। छात्राओं को दिगम्बर करने की बेशर्मी छात्रों और पुरुष कर्मचारियों के सामने की गई। इस तरह की घटनाएं विराट प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं, कि क्या हम वास्तव में लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं? क्या हमारा सभ्यता और मानवीयता से अभी भी कोई सरोकार बाकी है? इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज और देश को शंतिपूर्ण ढंग से चलाने के लिए कायदे कानून का पालन सभी को करना होता है, किन्तु लोगों के सम्मान उनकी निजता और मर्यादा की कीमत पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई नहीं हो सकती। नकल न होने देना और इसके लिए तलाशी लेने का अधिकार अगर कानून शिक्षिकाओं को देता भी है तो छात्राओं की निजता और उनकी मर्यादा को भंग करके नहीं देता है। शिक्षिकाएं एकान्त कमरे में तलाशी ले सकती थीं। ऐसा न करने के पीछे कोई तर्कसंगत कारण नहीं है, यह कुकृत्य उन्होंने अपने  घमंड को सहलाने तथा अपनी संड़ाध मारती सोच के प्रदर्शन के लिए किया। जाहिर है कि हमारी शिक्षा का कर्मकांड लोगों को सभ्य और संवेदनशील बनाने में असफल है। विडम्बना तो यह है कि आधुनिकता और विकास के शोर के बीच मानवीयता तथा संवेदना का जिस तरह क्षरण होता जा रहा है उसकी हमारे देश और समाज को कोई फिक्र नहीं है। यह समय के साथ सभ्य होने के दावे के बीच पलता एक ऐसा विद्रूप है, जो आखिरकार समाज को ही खोखला करेगा। दूसरो को कमतर और खुद को श्रेष्ठ मानने की ग्रंथि ही सामान्य मानवीय गुणों से वंचित कर रही है। यही मानसिकता व्यक्ति को संवेदनहीन बनाती है और व्यक्ति क्रूर व्यवहार करने लगता है।
 शासन-व्यवस्था के स्तर पर संवेदना को सुखाने और सामाजिकता को वनवास देने की बात समझ में तो आती है, क्योंकि ऐसा करना राजधर्म है और सत्ता का अपना स्वार्थ है, किन्तु समाज संवेदना शून्य होने लगे तो बात गम्भीर हो जाती है। तीन-चार दशक पहले तक लोग दूसरोें के दुख को अपना दुख समझते थे। बस्ती में भाईचारा और मुहल्लादारी की राह में अमीरी-गरीबी, धर्म, जाति, बाधा नहीं थी। आज भीड़ में भी आदमी अनजाना,अकेला, बे-गाना है। यह बदलाव अचानक नहीं आया है। इसके लिए उपभोगितावादी सोच जिम्मेवार है और जिम्मेवार है पारिवारिक टूटन का सिलसिला। हमारे समाज में संयुक्त परिवार थे। संयुक्त परिवारों में रह कर संवेदना, करुणा, जबाबदेही, पर-दुख-कातरता का पाठ परिवार के बुर्जुगों से पढ़ लेते थे। अब एकल   परिवारों का चलन है जहां नैतिकता की शिक्षा देने की कोई गुंजाइश नहीं है। वहां भय, स्वार्थ, असुरक्षा, कलह, तनाव, बेगानापन की दीक्षा मिल रही है।
आज देश में धर्म का प्रसार चारो ओर दिख रहा है। धर्मस्थलों,धार्मिक आयोजनों, प्रवचनों, सत्संगों में बेतहाशा भीड़ देख कर आभास होता है कि लोग अपने पुरखों से भी ज्यादा धार्मिक हो गए हैं। लेकिन आज संवेदना और सामुदायिकता की जगह स्वार्थ का कब्जा है। कोई भी धर्म ऐसी शिक्षा तो नहीं देता है। लेकिन ऐसा बसलिए हो रहा है, क्योंकि लोग धर्म-भीरू हो गए हैं। इसी का नतीजा है कि पड़ोस में मौत हो जाने पर बगल का पड़ोसी जन्मदिन की पार्टी स्थगित नहीं करता। दीवार के उस पार लाश होती है और दीवार के इस पार धूमधाम से धमाल हो रहा होता है। दुख में भी पड़ोसी का पड़ोसी से नाता नहीं रह गया है। ऐसे समय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता दिमाग में तूफान की तरह तोड़फोड़ मचाती है- यदि तुम्हारे घर के/ एक कमरे में लाश पड़ी हो/तो क्या तुम/दूसरे कमरे में गा सकते हो?/यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में/ लाशें सड़ रही हों/ तो क्या तुम/ दूसरे कमरे में ंप्रार्थना कर सकते हो/ यदि हां, तो मुझे तुम से कुछ नही कहना है।
                                        - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
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गुजरात से भी आगे होता अपना विन्ध्यप्रदेश

  मिलती 24 घन्टे बिजली, हर खेत को पानी और हर हाथ को काम


 उद्योगों की संभावनाएं, प्राकृतिक संसाधान और विश्वस्तरीय पर्यटन के मुकाम को आधार बनाकर आंकलन करें, तो आज विन्ध्य प्रदेश में 24 घन्टे बिजली मिलती और ऊपर से बेंचते भी। हर खेत तक नहरों से पानी पहुंचता और इतने उद्योग धंधे खुल जाते कि बेरोजगार युवाओं के हाथों में काम होता और उन्हें कप प्लेट धोने या रिक्शा खींचने बाहर नहीं जाना पड़ता। विन्ध्य प्रदेश देश के बड़े एजुकेशन के हब के रूप में उभरता, इन्जीनियरिंग तथा चिकित्सा के राष्ट्रीय संस्थान यहां होते।
ऊर्जा और सीमेन्ट 
विन्ध्य क्षेत्र में कोई 12 थर्मल प्लांट और इतने ही सीमेन्ट कारखाने आने वाले पांच सालों में उग आएंगे। विन्ध्य प्रदेश जिन्दा होता तो ये कारखाने अस्सी के दशक तक बन चुके होते, और देश के कुल उत्पादन में ऊर्जा के क्षेत्र में 20 फीसदी व सीमेन्ट के उत्पादन में 15 फीसदी का योगदान देते। यहां इतनी बिजली पैदा होती कि 24 घंटे के उपयोग के बाद हर साल अरबों की बेंचा करते। आयरन और बाक्साइड व डोलोमआइट, ग्रेनाइट जैसे खनिजों के आधार पर इस्पात व एल्म्यूनियम के संयत्र भी लगते।
प्रकृति और पर्यटन
विश्व के दस श्रेष्ठ पर्यटन स्थलों में शामिल खजुराहों का आकर्षण और भी बढ़ता साथ ही बांधवगढ़, पन्ना व संजय गांधी टाइगर रिजर्व ऐसे प्रमुख पर्यटन स्थल बनते कि विश्व के कई देश यहां से सीधे जुड़ जाते विदेशी मुद्रा की बारिश होती। अमरकंटक, मैहर, ओरछा, चित्रकूट और पीतांबरा पीठ तीर्थों के रूप में आपकी शान बढ़ाते। विन्ध्य प्रदेश में वन आबादी का ऐसा औसत होता जिसे विश्व में आदर्श के रूप में पेश किया जाता।
अभी कहां जाता है हिस्सा 
खनिज, प्राकृतिक संसाधनों के माध्यम से अभी भी हम प्रदेश को 35 से चालीस फीसदी राजस्व दे रहे हैं। ऊर्जा उत्पादन में विन्ध्य का एकाधिकार है। रेल भाड़ा में अकेले सतना सालाना आठ अरब देता है, तो इस राजस्व से किसकी बरक्कत होती है? आसान सा जवाब है, भोपाल की चिकनी सड़कों और इन्दौर की अट्टालिकाओं में हमारे संसाधनों की कमाई जज्ब होती है, वहीं राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संस्थान खुलते हैं। और हवाई अड्डे बनाए जाते हैं। हमारी कमाई का आधा हिस्सा भी हमें मिल जाए तो विन्ध्य क्षेत्र चमन हो जाए।
 > 23603 वर्ग मील (35 रियासतों को मिलाकर)
> 8 जिले- रीवा, सीधी, सतना, शहडोल, पन्ना, छतरपुर,   टीकमगढ़, दतिया
> 2 संभाग - रीवा और नौगांव
> 60 विधानसभा सीटें
> 6 लोकसभा सीटें (2 एकल- 2 दोहरी सदस्यता)
1948 से 1952 तक
बघेल खण्ड के मुख्यमंत्री - कप्तान अवधेश प्रताप सिंह
बुंदेल खण्ड के मुख्यमंत्री - कामता प्रसाद सक्सेना
राज प्रमुख - महाराजा मार्तण्ड सिंह रीवा
ुउप राजप्रमुख -महाराजा यादवेन्द्र सिंह पन्ना
1952 से 1956 तक
प्रथम और अंतिम निर्वाचित मुख्यमंत्री - पं. शंभूनाथ शुक्ल
यह किस्सा नई पीढ़ी को बताना जरूरी है ताकि वह जाने कि उनके भविष्य के साथ राजनीति ने कैसा अपघात किया। भारत के स्वतंत्र होने के बाद 35 रियासतों को जोड़कर 4 अप्रैल 1948 को विन्ध्य प्रदेश का जन्म हुआ। एक प्रदेश को जितने संसाधन चाहिए वे सब थे। साक्षरता, प्रति व्यक्ति आय और प्राकृतिक संसाधनों में विन्ध्य प्रदेश औसत से ऊपर था। विधिवत विधानसभा की राजधानी और ज्यूडिशियल कमिश्नरी (अब का हाईकोर्ट) भी। राज्य मंत्रालय और गवर्नर हाउस सब कुछ एक प्रदेश की तरह ही था पर एक राजनीतिक साजिश के चलते एक नए प्रदेश (मध्य प्रदेश) के लिए एक आठ वर्षीय अबोध प्रदेश के जज्बातों का गला दबा दिया गया, वह तारीख थी 1 नवम्बर 1956। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि विन्ध्य प्रदेश होता, तो गुजरात, पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र विकास के मामले में हमारे पिछलग्गू होते। यह किस्सा नई पीढ़ी को बताना जरूरी है ताकि वह जाने कि उनके भविष्य के साथ राजनीति ने कैसा अपघात किया। भारत के स्वतंत्र होने के बाद 35 रियासतों को जोड़कर 4 अप्रैल 1948 को विन्ध्य प्रदेश का जन्म हुआ। एक प्रदेश को जितने संसाधन चाहिए वे सब थे। साक्षरता, प्रति व्यक्ति आय और प्राकृतिक संसाधनों में विन्ध्य प्रदेश औसत से ऊपर था। विधिवत विधानसभा की राजधानी और ज्यूडिशियल कमिश्नरी (अब का हाईकोर्ट) भी। राज्य मंत्रालय और गवर्नर हाउस सब कुछ एक प्रदेश की तरह ही था पर एक राजनीतिक साजिश के चलते एक नए प्रदेश (मध्य प्रदेश) के लिए एक आठ वर्षीय अबोध प्रदेश के जज्बातों का गला दबा दिया गया, वह तारीख थी 1 नवम्बर 1956। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि विन्ध्य प्रदेश होता, तो गुजरात, पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र विकास के मामले में हमारे पिछलग्गू होते।