Thursday, February 28, 2013

बोले चला निरा लबरी


झूठ बोलना सबसे आसान काम है, बोल दिया सो बोल दिया। चुनाव में नेता जी ने जनता जनार्दन महोदय से कहा-हम आपके पसीने के साथ अपना खून बहाएंगे। झूठे  नारे पर सवार होकर सीधे सत्ता के साकेत में उतर गए। अब पांच साल तक जनता का खून चुसवाएं या जनार्दन जी की खाल खंैचवाए कौन रोकने वाला। फिर आएंगे, झूठ का डबल धमाका करेंगे। जरूरत पड़ी तो जाति-पांति के स्वाभिमान का तड़का लगाएंगे। फिर चुनावी ताड़का का वरण कर ले जाएंगे। झूठ बोलना भी एक कला है। घोषणापत्रों में सफेद झूठ को काली स्याही से छपवाकर बंटवा दिया जाता है लोग पकड़ नहीं पाते। पकड़ने वालों पर झूठ की ऐसी करारी मूठ मारते हैं कि रिटायर होने तक वह चकरघिन्नी खाता रहता है, इस दफ्तर से उस दफ्तर, इस शहर से उस शहर। 
रिमही बोली के स्मरणीय पुरोधा कवि शंभू काकू ने झूठ पर अदभुत कविता लिखी थी-  बोले चला निरा लबरी। लबरिन से सब काम सधाय। लबरिन नेता देय बनाय। लबरिन अब कल्याण करी, बोले चला निरा लबरी। हर हर गंगे गोदावरी। मेरे एक साथी ने बताया कि झूठ का एक अलग तर्कशास्त्र होता है। एक झूठ बोलिए जब लगे कि पोल खुलने वाली है तो पुराने झूठ को बचाने के लिए तड़ से नया झूठ बोल दीजिए । इसी तरह पुराने झूठ की रक्षा करने के लिए नया झूठ बोलते जाइए । देखेंगे कि झूठ का ऐसा जबरदस्त संजाल तैयार हो जाएगा कि उसमें उलझा बड़े से बड़ा सत्यवादी विद्वान, झूठ को ही सच के नजरिये से देखने लगेगा। एडोल्फ हिटलर ने क्या किया था? अपने मंत्रीपरिषद में गोएबेल्स नाम से झुट्ठे को प्रचारमंत्री बनाकर रखा था। पूरे आत्मविश्वास के साथ एक झूठ को सौ बार दोहराइए वह सच लगने लगेगा। गोएबेल्स अब हमारे नेताओं के आराध्य देव हैं। हर पार्टी में गोएबेल्स का एक पद आरक्षित होता है। कई सूबों के मुखिया खुद ही गोएबेल्स को अपने व्यवहार व स्वभाव में उतार लेते हैं। जैसे गांवों में अभी भी बरम बाबा - किसी सुपात्र पण्डे के सिरे आकर बोलने लगते हैं उसी तरह। अपने सूबे में तो यही है। बच्चियों के रेप में यह देश भर में नम्बर वन। पर लाडली लक्ष्मी की जय। हर शुभ काम कुमारी कन्या का पांव पूज कर। इन कन्याओं को  चुन चुनकर जिस तरह से पेट में ही मार दिया जाता है या दुर्भाग्यवश पैदा होते ही गला दबा दिया जाता है उसके चलते यह तय मानिए कि निकट भविष्य में कन्याओं के पांव ही पूजने के लिए नहीं मिल पाएंगे। पर बोलने में क्या जाता है? लाडली को लक्ष्मी कह दो, अपने घर का क्या जाता है, महालक्ष्मी कह दो, दुर्गा या सरस्वती बना दो। इश्तहारों में इन सबको पूजते हुए दिखो। सभाओं मंचों से यही बोलो। वक्तव्यों में यही, यही दुहराते जाओ। गोएबेल्स की तरह तरह सौ सौ बार दुहराओ, जनता भूल जाएगी कि अपना सूबा बच्चियों के दुष्कर्म में अव्वल नम्बर है। हाल ही में एक खबर पढ़ी। जो एक्स्ट्रा कमाएगा वो जेल जाएगा। सोचा- इस पर अमल होगा। सुबह देखा तो मंत्री जी बंगले में। अफसर बहादुर मर्सडीज में, वैसे ही मजे में थे। कोई जेल नहीं गया। किसी के घर एक्स्ट्रा कमाई नहीं निकली। आप जपते रहिए जो एक्स्ट्रा कमाएगा, जेल जाएगा। दफ्तर जाइए... चढ़ावा चढ़ाइए फाइल तभी आगे खिसकेगी। बाबू टेबिल के नीचे नोट गिनता जाएगा, और सूबे के मुखिया का नारा दोहराता जाएगा, कि जो एक्स्ट्रा कमाएगा वो जेल जाएगा। अपने शंभू काकू ठीक ही कह गए... बोल चला निरा लबरी। लबरिन अब कल्याणकारी। हर -हर गंगे गोदावरी।

Wednesday, February 27, 2013

इंद्रधनुष अच्छे हैं,काले बादलों को भी देखिये

 चिदम्बरम साहब ने यह आलेख 14 मार्च 2004 को फाइनेंशियल एक्सप्रेस में लिखा था, तब केंद्र में एनडीए की सरकार थी और वे संसद के सदस्य नहीं थे। लेख में देश के गरीबों का दर्द व उनके संघर्ष को चिदम्बर साहब ने शिद्दत से महसूस किया है। 28 फरवरी को बतौर वित्तमंत्री आम बजट पेश करेंगे। इस लेख के बरक्स समङिाएक थनी और करनी के बीच का यथार्थ।

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पी. चिदम्बरम
चिड़िया की आंख से तसवीर का एक पहलू नजर आता है।
हवाई जहाज से हर शहर खूबसूरत दिखता है। रोशनी के समंदर में सभी गड्ढे और टीले खो जाते हैं। राष्ट्र के विकास की बातें जोश पैदा करती हैं। एक केंचुए की नजर से देखने पर तसवीर का एक अलग ही पहलू नजर आता है। धारावी मुम्बई है और मुम्बई धारावी। झोपड़पट्टी, गटर और गलियों में भटकते बच्चे, किसी की भी संवेदनशीलता पर भारी पड़ेंगे। क्या सचमुच देश का विकास हुआ है? हम ताज्जुब करते हैं।
दोनों ही पहलू तस्वीर के सही रूप को स्पष्ट नहीं करते हैं।
तस्वीर अपने वास्तविक रूप में तभी नजर आएगी, जब हम उसे व्यक्तिगत, घरेलू व सामुदायिक स्तर पर देखेंगे। राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त अर्थशास्त्र शोध परिषद समय-समय पर बाजार सव्रेक्षण करता रहता है। जिसे ‘मिश’ (मार्केट इन्फार्मेशन आफ हाउसहोल्ड) कहा जाता है। ‘मिश’ हर परिवारी के मुखिया से पूर्व वित्तीय वर्ष के दौरान परिवार के आय के आकलन के लिए कहता है। हाल के सव्रेक्षण के परिणामों से इस बात पर रोशनी पड़ी है भारत 1991 के बाद किस रास्ते चला है।
1989-90 में भारत में 142 मिलियन परिवार थे। इन परिवारों में से 58.8 प्रतिशत की वार्षिक आय 2001-02 की कीमतों के हिसाब से 45,000 से भी कम थी। (इस तरह इन परिवारों की वास्तविक आय 1989-90 में इससे भी कम होगी, लेकिन 2001-02 में क्रय क्षमता 45,000 के बराबर होगी) कुल परिवारों में से 14.2 प्रतिशत की आय 90,000 रुपये या उससे अधिक है। बाकी परिवार जिस स्तर के अंतर्गत आते हैं, उन्हें निम्न मध्यम वर्ग कहा जाता है। इनकी वार्षिक आय 45,000 से 90,000 के बीच में है। फिर दस वर्ष के आर्थिक सुधारों के बाद इसमें क्या बदलाव आया है? 2001-02 में परिवारों की संख्या बढ़कर 188 मिलियन हो गई। यह बढ़ोत्तरी लगभग एक तिहाई है। परिवारों की संख्या में हुई अच्छी खासी बढ़ोतरी के बावजूद, एक बड़ी संख्या में से केवल 34.6 प्रतिशत की वार्षिक आय 45,000 के ऊपर थी।
और दूसरी तरफ जिनकी वार्षिक आय 90,000 से ऊपर थी, उनका प्रतिशत 14 से बढ़कर 28 हो गया। स्वाभाविक है कि निम्न मध्यम वर्ग भी 27 से बढ़कर 37.4 प्रतिशत हो गया।
चिड़िया इस बारे में क्या कहेगी कि क्या भारतीय लोग ज्यादा उन्नति कर रहे हैं? परिवार की आय का स्तर निम्न से निम्न मध्यम वर्ग में पहुंच गया और निम्न मध्यम वर्ग से मध्यम वर्ग पहुंच गया।
लेकिन ये तब जब सभी परिवार में सदस्यों की संख्या औसतन पांच हो, निम्न वर्ग में भी और मासिक आय कम से कम 3500 रुपये हो। मकान मिल पाएगा और बच्चों को उचित शिक्षा।
सफलता की कहानी मध्यम वर्ग के पास है- कुल परिवार की संख्या में से 20 प्रतिशत इसी श्रेणी में आते हैं यानी 52 मिलियन परिवार-260 मिलियन लोग। इन परिवारों की मासिक आय 7500 रुपये या ज्यादा है। गत वर्षो में भारतीय मध्यम वर्ग उभरकर सामने आया है और यही सच है।
उभरते मध्यम वर्ग की सफलता की कहानी पर तो कई पृष्ठ अलग से लिखे जा सकते हैं। वे उपभोग ज्यादा करते हैं, इच्छा भी ज्यादा की करते हैं। बहुत साल पहले मैंने एक सीधी सी बात रखी थी कि क्या चीजें अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। मैंने कहा था,‘इच्छाएं उपभोग को प्रभावित करती हैं, उपभोग उत्पादन को और उत्पादन निवेश को प्रभावित करता है।’ और मेरा विश्वास है कि वह बात यहां बिल्कुल सटीक बैठती है।
260 मिलियन लोगों का मजबूत मध्यम वर्ग, देश को ऊंचाइयों तक ले जा सकता है। यह वर्ग शिक्षित है, बहुत कुछ करना चाहता है, हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार है। अगर इस वर्ग के विचार प्रज्वलित हो उठें। इंजीनियर, मैनेजर, बैंकर, चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट और विश्व बाजार में दिग्गज कंपनियों का नेतृत्व कर रहे कर्मचारी इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अब केंचुए की आंख से तस्वीर को देखें। जमीनी स्तर पर 65 मिलियन परिवार है, जिनकी मासिक आय 3,750 रुपये या उससे कम है। क्योंकि 3,750 रुपये की औसत मासिक आय है, इसलिए ऐसे कई परिवार भी हैं जिनकी मासिक आय इससे भी कम है। 65 मिलियन परिवार यानी 325 मिलियन लोग। इतनी आबादी तो किसी एक महाद्वीप की है। इसलिए हमारे पास असंतोषियों का एक पूरा महाद्वीप है, जो दो छोरों को मिलाने के लिए संघर्ष करता रहता है। दो भागों में विभाजित है, शहरी और ग्रामीण। 7.5 मिलियन परिवार शहरी हैं (37.5 मिलियन लोग)। इनमें से जो सबसे गरीब हैं वो अपने लिए दो जून का खाना नहीं जुटा पाते, वे कच्चे डेरों में रहते हैं। उनके बच्चे स्कूल नहीं जाते, अगर जाते भी तो शुरुआती कुछ साल के लिए। उनके पास शारीरिक श्रम के अलावा कोई दूसरी योग्यता नहीं है। अब परिस्थितियां उन्हें अपने चंगुल में पूरी तरह दबोच लेती है। तो सैकड़ों की संख्या में आत्महत्या के लिए विवश हो जाते हैं, जैसा आंध्र प्रदेश में हुआ। भारत चमक रहा है, 260 मिलियन लोगों के लिए। भारत अवसाद में है 325 मिलियन लोगों के लिए।
आर्थिक सुधार के पहले उस वर्ष की कहानी खट्टी-मीठी दोनों हैं। 260 मिलियन लोगों के जीवन में आई चमक के उत्सव के लिए 325 मिलियन लोगों के संघर्ष पर कंबल डालना एक क्रूर मजाक है। अगले आठ वर्षो में यानी 2009-10 तक भारत की कहानी इसी पटकथा पर चलेगी। मध्यम वर्ग बढ़कर 107 मिलियन परिवारों का हो जाएगा। (535 मिलियन लोग)। निम्न आय वर्ग अपने 35 मिलियन परिवार की सीमा पर टिका रहेगा।
(175 मिलियन लोग)। ज्यादा और तेज गति के आर्थिक सुधार मध्यम वर्ग के लिए संभावनाओं के और दरवाजे खोलेगा। ये गरीब हैं, जिन्हें सहायता की जरूरत है। बिना सहायता के वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित नहीं होंगे। बिना सहायता के वे कोई नई योग्यता हासिल नहीं कर सकते।
गरीबों के अलावा, यहां कई और उपेक्षित वर्ग हैं जैसे जनजाति, विकलांग, बीमार और वृद्ध। इनकी संख्या लाखों में है। इनके मामले में राज्य अक्सर कठोर और हृदयहीन दिखता है। और ज्यादातर मामलें में वह अपनी प्रत्यक्ष ज्ञान के हिसाब से सही भी रहता है। इस समस्या के समाधान और उपेक्षित वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यवस्था के लिए रूप को डिजाइन करना पड़ेगा। जब हम आसमान में चमकीली रेखा को देखें, तो आसपास के काले बादलों को अनदेखा न करें। भारत खुशी से चमक भी रहा है, और अवसाद ग्रस्त भी है। आने वाले चुनाव ही दिखा पाएंगे कि कौन सी राजनैतिक पार्टी (या पार्टियों का समूह) भारत की सही तस्वीर सामने रखने के काबिल है।

Tuesday, February 26, 2013

इस रेल बजट में "कैटल क्लास" के लिए क्या!

आप जब यह लेख पढ़ रहे होंगे तब तक लोकसभा में रेल बजट प्रस्तुत हो रहा होगा। हम सब यह जानने की कोशिश कर रहे होंगे कि अपने इलाके को कितनी रेल सुविधाएं मिलीं, कौन नई ट्रेन चलेगी। कहां नई पटरियां बिछेंगी, या फिर किराए का क्या होगा। पिछले कई वर्षो से रेल बजट का प्रस्तुतिकरण महज राजनीतिक उपक्रम रह गया है। आम आदमी के हितों को फोकस करने की बजाय क्षेत्रवाद या गठबंधन के जिस दल के मंत्री के जिम्मे रेल मंत्रालय है उसकी दलीय प्रतिबद्धता प्रमुख रहती है। पिछले साल दिनेश त्रिवेदी ने इस चलन से हटकर बजट पेश करने की कोशिश की तो वे ममता बनर्जी के कोप के शिकार हो गए। दुनिया में यह पहली ऐसी घटना थी जब किसी मंत्री को राजनीतिक कारणों से इस तरह बेइज्जत होकर त्यागपत्र देना पड़ा हो। त्रिवेदी की सोच प्रगतिशील व यथार्थ के धरातल पर टिकी थी। ममता बनर्जी की सोच लालू यादव की सोच का विस्तार मात्र था। लोक लुभावन सड़क छाप घोषणाओं में आम आदमी के हित के लिए ये नेता स्टेशन पर कुल्हड-सत्तू लिट्टी-चोखा और 10 रुपए के जनता भोजन से ज्यादा नहीं। आम आदमी मवेशियों की तरह डिब्बे में सफर करें और स्टेशन के नलों का गंदा पानी पीकर बीमार होकर मरे इस दिशा में किसी रेल बजट में गंभीर पहल व ठोस विचार नहीं दिखा।

रेल की व्यवस्था और सोच में आम आदमी कहां है. रेलगाड़ियां ही अपने-आपमें जीवंत दृष्टान्त हैं। सामान्य श्रेणी, जिसमें आम गरीब मुसाफिर सफर करता है, लम्बी से लम्बी रेलगाड़ियों में महज दो डिब्बे लगते हैं। एक इन्जन के बाद और दूसरा गार्ड के डिब्बे से पहले। इनके बीच में वातानुकलित श्रेणियों के डिब्बे और सेकन्ड क्लास स्लीपर। ये मान सकते हैं कि रेलगाड़ी के आगे-पीछे लगने वाले ये सामान्य श्रेणी के डिब्बे, विशिष्ट श्रेणी के डिब्बों में सफर करने वालों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं। यानी कि रेलगाड़ी चाहे आगे से भिड़े या पीछे से कई टक्कर मारें (ईश्वर करे कभी ऐसा न हो) पहला आघात जनरल क्लास यानी कि आम आदमी को ही लगेगा।

दूसरे, सामान्य श्रेणी के डिब्बे अपराधों के मामले में भी शॉक आबजर्वर का काम करते हैं। मसलन जहरीला बिस्किट देकर यात्रियों को लूटने वाले, किसी न किसी बहाने यात्रियों से जबरिया वसूली करने वाले जीआरपी, आरपीएफ और रेल्वे के चेकिंग स्टाफ के लिए सबसे मुफीद जगह यही है। बजबजाते और गन्धाते सामान्य श्रेणी के डिब्बों के यात्री शशि थरुर के शब्दों में सचमुच कैटल क्लास के हैं। कहने को आम मुसाफिरों के लिए हर लाइन पर सस्ते किराए वाली पैसेन्जर गाड़ियां हैं। पर कभी इन गाड़ियों में कोई मंत्री, विधायक या सांसद या कि रेल्वे का आला अफसर यात्रा करके देखे तो पता चलेगा कि भारतीय रेल्वे अभी भी किस युग में है। पांच घंटे का सफर कभी-कभी पन्द्रह से बीस घंटे में तय होता है। सभी गाड़ियों को पास देने के लिए इन्हें ही कुर्बानी देनी पड़ती है। क्या गरीब भारतवासी को यह हक नहीं कि वह भी गन्तव्य तक वक्त पर पहुंचे। इन गाड़ियों के डिब्बे साफ-सफाई और सुरक्षा रेल्वे की सबसे निचली प्राथमिकता में होता है।

मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनने की बुनियाद में रेल्वे ही है। वह ऐतिहासिक घटना दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर से 80 किलोमीटर दूर पीटरमेरिटजबर्ग रेल्वे स्टेशन की है? वह ऐतिहासिक तारीख थी 7 जून 1893। प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे मोहनदास करमचन्द गांधी को रेल्वे के अंग्रेज अधिकारियों ने सामान समेत कोच से फेंक दिया था। करमचन्द की आत्मा में बैठा महात्मा इसी घटना के बाद जागृत हुआ। गांधीजी ने जाति-रंग- नस्ल व वर्ग के खिलाफ लड़ाई यहीं शुरु की। दक्षिण अफ्रीका में अहिंसक क्रांति की ये चिंगारी नेल्सन मंडेला तक जारी रही। दक्षिण अफ्रीका आज आजाद मुल्क है पर उसकी आजादी के पीछे रेल्वे के वर्ग चरित्र की यह घटना है। गांधीजी जब हिन्दुस्तान लौटे तब यहां रेल लाइनें बिछ चुकी थी और रेलगाड़ियां चलने लगी थी। यहां की रेल्वे का चरित्र दक्षिण अफ्रीका जैसा ही था, क्योंकि अंग्रेज बहादुरों के लिए स्पेशल कोच और सैलून लगा करते थे।

गांधीजी ने देश-दर्शन के लिए रेलयात्रा ही चुनी। वे जीवनभर तृतीय श्रेणी की यात्रा करते रहे गांधी डिवीजन का जो देसज शब्द चल निकला उसके पीछे गांधी जी की तृतीय श्रेणी की रेल यात्रा ही है। गांधीजी ने रेलयात्रियों के जरिए ही देश के आम आदमी के बारे में अपनी समझ विकसित की, और उनका स्वप्न था कि देश जब आजाद हो तो वह वर्गविहीन, श्रेणी विहीन रहे। देश में सिर्फ एक ही श्रेणी एक ही वर्ग रहे वह आम भारतीय का। आजादी के बाद रेल्वे ने सिर्फ एक संशोधन किया, अपने डिब्बों में "गांधी क्लास" यानी की तृतीय श्रेणी नाम को विलोपित कर दिया।

गांधी जी देश में वर्ग व श्रेणी विहीन समाज का सपना देखा था, वह कई क्षेत्रों में चूर-चूर तो हुआ ही, रेल्वे में वर्ग और श्रेणी विभाजन वास्तव में कई-कई खांचों में बंटे अपने समाज की फौरी तस्वीर प्रस्तुत करता है। सामान्य रेलगाड़ी में पांच श्रेणियां, तीन ऐसी की दो सामान्य की। रेल्वे का आला अफसर, सरकार के शीर्ष अधिकारी और महामहिमों के लिए स्पेशल सैलून। फिर राजधानी-शताब्दी और दूरन्तों श्रेणी की रेलगाड़ियां। पर्यटकों के लिए पैलेस-ऑन-व्हील जैसी स्पेशल गाड़ी। और जहां तक जनप्रतिनिधियों तथा धर्माचार्यो व मठाधीशों को शामिल करते हुए समाजसेवियों की बात करें तो ऐसे लोगों की संख्या सैकड़ों नहीं अपितु हजारों में है जिन्होंने पिछले दस साल से रेल में यात्रा ही नहीं की। इनके लिए सरकार के या कारपोरेट घरानों की चार्टर सेवाएं व हैलीकाप्टर हाजिर।

इस बाजारू व्यवस्था में गांधीजी के सपने को हकीकत में बदलने की बात करना महज जुबानी-जमा-खर्च होगा, लेकिन जिस आदमी की बात यूपीए सरकार की अगुआ कांग्रेस करती है उस आम आदमी के लिए रेल यात्रा सम्मानजनक बनायी जा सकती है। और ज्यादा क्या चाहिए, डिब्बे में बैठने के लिए एक सुविधाजनक सीट, स्वच्छ व साफ वातावरण। ज्यादा संख्या में फास्ट पैसेन्जर, साफ-सुथरे यात्री प्रतीक्षालय, शुद्धपेय जल, और सबसे बड़ी बात सुरक्षित यात्रा की गारंटी। जनता शासनकाल के रेलमंत्री मधुदण्डवते स्तुत्य है, उन्होंने ही सामान्य श्रेणी में लकड़ी के फट्टे की जगह गद्दीदार सीटों के लिए पहल की थी व बाकायदें बजट में प्रावधान भी किया था। आप जब तक इस लेख को पूरा कर रहे होंगे, देश का रेल बजट आपके सामने होगा। रेल सुविधाओं की क्षेत्रीय प्राथमिकता, चुनाव की दृष्टि से लोकलुभावन व लालूछाप मसालेदार योजनाओं के बीच रेलमंत्री के बजट में आम आदमी की कितनी चिन्ता है और उसकी हैसियत क्या है. सब कुछ बजट को देखने-सुनने के साथ ही साफ होता जाएगा।

लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
jairamshuklarewa@gmail.com

Monday, February 25, 2013

संतों! देखहुं जग बौराना!


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
बिना किसी निमंत्रण पत्र के आस्था के महाकुम्भ, पुण्यों से भरा, प्रयाग में पिछले एक माह से छलक रहा है। वे बड़भागी हैं जिन्हें अमृत की वह बूंद जो कभी घड़े से छलकी थी पवित्र कर गई होगी, परंतु मुहूर्त के उन क्षणों का लाभ सिर्फ अखाड़े के साधु संतों को ही मिला होगा, क्योंकि आम जनता के लिए रास्ते रुके हुए थे। कहते हैं गंगा, जमुना, सरस्वती के संगम पर महाकुम्भ एक धार्मिक महोत्सव ही नहीं है, आस्थाओं संस्कृतियों विश्वासों का महापर्व भी है। यदि गंगा स्नान से पुण्य नामक पदार्थ मिलता है, ऐसा विश्वास है तो निश्चित रूप से यह अंधविश्वास से अधिक कुछ नहीं है। हमारी वैज्ञानिक सोच को क्यों तब काठ मार जाता है जब हम आस्था के नाम पर ठगे जाते हैं।

अंधविश्वासों और रुढ़ियों के विरुद्ध हम क्यों सवाल नहीं उठाते? हमारा समाज का राजनैतिक वर्ग जो विकास की बात करते हैं, शायद इसलिए चुप रहते हैं, कि यह धर्म का क्षेत्र है। इसकी आंच से हम झुलस जाएंगे। हमसे तो बेहतर नानक, कबीर और रैदास थे जो कठौती में गंगा रखते थे। वैसे भी गंगा ब्रहम्मा के कमण्डल में बहुत वर्षो तक अवस्थित रही। लाखों लोग स्वर्ग की पंक्ति के लिए महीने भर से कल्पवास कर रहे हैं। घर के प्रपंचों में ईश्वर चिंतन हो नहीं पाता। गंगा किनारे प्रपंच कम हो जाते हैं, कौन जाने? संसार का सबसे बड़ा मेला प्रयाग में उमड़ता है। मेला मिलने से होता है, यहां भीड़ में कौन किससे मिलता है, हां बिछड़ने वालों की उद्घोषणा लगातार होती रहती है। इस आस्था में ज्ञान की मौजूदगी का अभाव है। यदि इस आस्था को धर्म कहते हैं तो मुझे विवेकानन्द की वह उद्घोषणा याद आती है कि मैं धर्म और आध्यात्म की भूमि भारत हूं, मैं महान हूं, परंतु मैं दरिद्र, वंचित, शोषित भारत हूं-यह मेरा सच है और इस सच के आगे मैं धर्म और आध्यात्म को तिलांजलि देता हूं। मेरा धर्म दरिद्र दुखी भारत है।

हमारे जीवन की सबसे बड़ी विसंगति ढोंग है जिसे हम पीढ़ी दर पीढ़ी ढोते हुए गौरवान्वित होते रहे हैं। ढोंग को हमने साध कर महिमामंडित किया है। धर्म के नाम पर निर्थक अवैज्ञानिक रूढ़ियां और तात्विक विवेचन रहित आचार परम्पराएं चल पड़ती हैं। सच तो यह है कि धर्म के मूल तत्व को रूढ़ियों ने कमजोर किया है। महाभारत कहता है कि जो धर्म किसी अन्य धर्म के विरुद्ध जान पड़ता है, वह धर्म ही नहीं है। जो धर्म अविरोधी होता है, वस्तुत: वही धर्म है। "धर्म तो बांधते धर्म न ए धर्म: कुधर्म तत्/अविरोधी तु यो धर्म: सधर्मो मुनिसत्तम।" धर्म को बाह्यचारों और आडम्बरों से ढ़ककर हमने उसका स्वरूप ही बदल दिया। इस पाप और पुण्य की परिस्थिति जन्य परिभाषाएं रचते हुए हम पाप धोते रहे, पुण्य कमाते रहे। इस व्यवसायिक कारोबार में आत्मा मरती रही, जिसकी अनदेखी करते रहे।

जिन्होंने धर्म को गंभीरता से ग्रहण नहीं किया, उसकी अनिवार्यता में उनका विश्वास नहीं। जिन्होंने उसमें विश्वास किया उसका व्यक्तित्व भी विभाजित रहा। विश्व जीवन का एक भाग वह है जो ईश्वरमय है, जिसमें सभी जीव एक है, जिसके अणु-अणु में ईश्वर का वास है। किंतु जो व्यवसाय और जीविका का संसार है, उसे वे ईश्वर से विछिन्न मानकर चलते हैं तथा यह समझते हैं कि इस व्यवसायी विश्व में अशांति और संघर्ष, विरोध और दुराव तथा छल और प्रपंच सभी क्षम्य है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहते हैं ऐसे लोग वस्तुत: पलायनवादी कहे जाएंगे। वे व्यवसाय की दुनिया में जब थक जाते हैं, तभी केवल विश्राम पाने के लिए धर्म की दुनिया में आते हैं। धर्म उनके लिए मात्र कवच है। वे रूप बदलकर आए कालनेमि से भिन्न नहीं है।

विवेकानन्द की पीड़ा को समझने का देश ने प्रयत्न ही नहीं किया। कंठी माला, आरती, घंटे, स्नान-ध्यान में मग्न लोग यह देख ही नहीं रहे हैं कि देश विकास के नाम पर किस चारित्रिक पतन की ओर जा रहा है। आस्था और अंधविश्वास के कारण देश कितनी बार पराजित हुआ, यह बताने गजनवी और गोरी नहीं आएगा, रूप बदलकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आ रही हैं। हमारी भाषा बदल गई है, विकास की भाषा मातृभाषाएं नहीं रह गई।

आश्चर्य है कि धर्म ने सबसे अधिक विनाश भारत का किया और धर्म को अफीम की संज्ञा देने वाले मार्क्‍स यूरोप में पैदा हुआ। पोप के दरवाजे पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाला मार्टिन लूथर यूरोप में जन्मा जिसने स्वर्ग की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए, भारत में भी कमोवेश यही स्थिति तब भी थी आज भी है। गनीमत है कि देश किसी धर्म का मुखापेक्षी नहीं है। धर्म न तो पुस्तकों में है न सिद्धान्तों में, धर्म आचरण और अनुभूति में निवास करता है। हिंसा सर्वथा त्याज्य नहीं है। एक बार किसी ने विवेकानन्द से पूछा- "कोई शक्तिशाली व्यक्ति यदि किसी दुर्बल का गला टीप रहा हो, तो हमें क्या करना चाहिए! स्वामीजी ने तड़ाक से उत्तर दिया-क्यों? बदले में उस शक्तिशाली की गर्दन टीप दो। क्षमा भी कमजोर होने पर अक्षम्य है, असत्य और अधर्म है, युद्ध उससे उत्तम धर्म है।" वास्तविक शिव की पूजा निर्धन और दरिद्र की पूजा है। केस्टा नामक भूखे संथाल को भोजन करा कर उन्होंने कहा था "तुम साक्षात नारायण हो। आज मुझे संतोष है कि भगवान ने मेरे समक्ष भोजन किया।" यह महाभाव क्या किसी संत साधु महात्मा में बचा है। साधुओं के इन अखाड़ों की पंगत में क्या किसी दरिद्र नारायण को प्रसाद मिलता है। धर्म सभा में विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित होते हुए भी विवेकानन्द ने कभी अपने को जगतगुरु नहीं माना, जबकि अपने देश में महामण्डलेश्वर और जगतगुरुओं के धतकरम सारा देश देखते हुए भी मौन है। पाप का कुम्भ भरा होते हुए भी फूट नहीं रहा है। पता नहीं यह कुम्भ किस धातु का बना है। यदि फूट गया तो आस्था समाप्त हो जाएगी। कुम्भ फूटेगा नहीं, वह आस्था के बल पर पुष्ट है।

जिस देश के छ: करोड़ हाथ पुण्य प्राप्त कर चुके हों, उस देश में दामिनियां सुरक्षा की गुहार लगाए? भ्रष्टाचार के लिए जनता सड़कों पर उतरे? वे पवित्र हाथ ही यदि व्यवस्था सुधार में उठ जाएं तो देश का अतीत गर्वित होकर वर्तमान को आशीषे! लेकिन उन हाथों में तो पाप धोया है, प्रायश्चित किया है। देश के सबसे बड़े संत गांधी विवेकानन्द या किसी ने भी स्नान और कल्पवास से मुक्ति और मोक्ष की बात नहीं कही। कुम्भ में एकत्रित साधु संतों के स्वास्थ्य को देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि कॉरपोरेट भारत के बाद देश की पूंजी कहां है? सोने के भगवान से लेकर सोने के सिंहासन तक इन्हीं के पास भरे पड़े हैं और सोने के भाव ने आम आदमी का सोना मुश्किल कर दिया है। वह सोता है तो सपने देखता है, जागता है तो छटपटाता है। प्रयाग के सेक्टरों, घाटों पर मुक्तिकामी लोगों की बिलबिलाती इच्छाओं को देख कबीर चिंतित है-"संतों! देखहु जग बौराना।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।

Wednesday, February 20, 2013

'बुंदेलखंड पैकेज में हो रहा है भ्रष्टाचार'


 गुरुवार, 8 दिसंबर, 2011 को 20:11 IST तक के समाचार
बुंदेलखंड के किसान
जन-सुनवाई के दौरान सैंकड़ों किसानों ने अपनी परेशानियों का बयान किया.
पिछले एक दशक से सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड के त्रस्त किसानों के लिए बृहस्पतिवार को दिल्ली में एक सार्वजनिक सुनवाई का आयोजन किया गया.
सुनवाई के दौरान किसानों पर बढ़ता क़र्ज़, बढ़ते क़र्ज़ के दबाव में आकर हो रही आत्महत्याएं, गांवों में पानी की किल्लत, सूखा और किसानों के शहरों की ओर हो रहे पलायन जैसे मुद्दों को उजागर किया गया.
बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग के सात ज़िलों और पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के छह ज़िलों से मिलकर बना एक विशाल क्षेत्र हैं, जो भारत के सबसे कम विकसित भागों में से एक है.
"क़र्ज़ से दुखी होकर मेरे पति ने ज़हर पी लिया था. इसके बाद मेरे देवर और सास ने मिलकर मुझे घर से निकाल दिया. मेरी तीन बेटियां है. इनके भविष्य की चिंता मुझे खाए जा रही है. मैं और मेरे पिताजी जब अधिकारियों के पास मुआवज़ा मांगने जाते हैं, तो हमें लताड़ दिया जाता है."
विमला यादव, मृत किसान की विधवा
दशकों से सूखे की मार की वजह से बुंदेलखंड में इसी साल के शुरुआती पांच महीनों में 519 किसानों ने आत्महत्या की, जबकि 2010 में ये सालाना आंकड़ा 583 था.
साल 2009 में केंद्रीय सरकार ने बुंदेलखंड के लिए 7,226 करोड़ रुपए का एक विशेष आर्थिक पैकेज जारी किया था, लेकिन दिल्ली आए किसानों की शिकायत है कि सरकार की इस घोषणा के दो साल बाद भी उस पैकेज का लाभ उन तक तिनका भर भी नहीं पहुंचा है.
झांसी से आए श्रीराम नरेश ने बताया, “अधिकारी बहुत भ्रष्ट हो गए हैं, जिसका नतीजा हम किसानों को भुगतना पड़ रहा है. हमारे लिए बनाए हुए पैकेज का फ़ायदा हम तक ही नहीं पहुंच रहा है. अधिकारी सिर्फ़ पैसा खाने की सोचते हैं. कोई ये नहीं सोचता कि सूखे से निपटने के लिए हमारे लिए गांव में कुँए बनाए जाएं. दिल्ली से पैसा राज्य में आता है, लेकिन निचले स्तर तक पहुंचते पहुंचते वो पैसा न जाने कहां ग़ायब हो जाता है.”

धांधली

ग़ैर सरकारी संस्था एक्शन ऐड की स्थानीय प्रोग्राम मैनेजर गुरजीत कौर का कहना है कि 2009 से लेकर अब तक, सरकारी पैकेज की केवल 11 प्रतिशत राशि ही इस्तेमाल हो पाई है.
उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड में बिगड़ते हालात को देखते हुए पैकेज के कार्यान्वयन की गति को बढ़ाना बेहद ज़रूरी है.
उन्होंने कहा, “पैकेज तो सरकार ने दे दिया, लेकिन इसके कार्यान्वयन के रास्ते में जितनी अड़चनें आ रही हैं, उस पर सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है. सबसे बड़ी मुसीबत है भ्रष्टाचार. दूसरी ओर इस पैकेज के लागू किए जाने की प्रक्रिया में कहीं भी आम लोगों की सहभागिता नहीं है. गांवों में जो प्रभुत्व वाले लोग हैं, उन्हीं को ही पैकेज के लाभ मिल रहे हैं. सूखे की स्थिति से निपटने के लिए ज़मीनी स्तर पर जिस तरह की दूरदर्शी योजना होनी चाहिए, उसका कहीं न कहीं अभाव है.”
बुंदेलखंड के लिए दिए गए सरकारी विशेष पैकेज में धांधली के आरोपों के बीच मुख्यमंत्री मायावती की ये शिकायत है कि केंद्र सरकार ने बुंदेलखंड को 80,000 करोड़ रुपए के पैकेज की स्वीकृति नहीं दी.

दोहरी मार 

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पति की आत्महत्या के सालों बाद भी विमला यादव को मुआवज़ा नहीं मिला है.
सार्वजनिक सुनवाई में किसानों का पक्ष रखने आए आपदा निवारक मंच के मुताबिक़ बुंदेलखंड की लगभग 86 प्रतिशत आबादी सीधे तौर पर कृषि पर निर्भर है.
ग़ैर-सरकारी संस्था एक्शन ऐड का कहना है कि बुंदेलखंड में 75 प्रतिशत परिवार क़र्ज़ में डूबे हुए हैं और हर परिवार पर औसतन 45,000 रुपए का क़र्ज़ बकाया है.
दमोह ज़िले से दिल्ली आई विमला यादव के पति ने क़र्ज़ के दबाव में आकर आत्महत्या कर ली थी.
पति के स्वर्ग सिधारने के तुरंत बाद ससुराल वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया. विमला आज भी अपने पति की मौत के मुआवज़े का इंतज़ार कर रही है.
विमला अपनी आपबीती का बयान करते हुए कहती हैं, “क़र्ज़ से दुखी होकर मेरे पति ने ज़हर पी लिया था. इसके बाद मेरे देवर और सास ने मिलकर मुझे घर से निकाल दिया, जिसके बाद मुझे अपने माइके लौटना पड़ा. मेरी तीन बेटियां है. इनके भविष्य की चिंता मुझे खाए जा रही है. लेकिन अब मुझे मुआवज़े की भी आस नहीं है. मैं और मेरे पिताजी जब अधिकारियों के पास मुआवज़ा मांगने जाते हैं, तो हमें लताड़ दिया जाता है.”
"पैकेज तो सरकार ने दे दिया, लेकिन इसके कार्यान्वयन के रास्ते में जितनी अड़चनें आ रही हैं, उस पर सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है. सबसे बड़ी मुसीबत है भ्रष्टाचार. गांवों में जो प्रभुत्व वाले लोग हैं, उन्हीं को ही पैकेज के लाभ मिल रहे हैं."
गुरजीत कौर, एक्शन ऐड
केवल बुंदेलखंड विशेष फ़ंड में ही नहीं बल्कि दूसरी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं में भी धड़ल्ले से हो रही धांधली की मार किसान को झेलनी पड़ रही है.
जहां एक ओर विमला यादव अपने मुआवज़े की लड़ाई लड़ रही है, वहीं टीकमगढ़ से आए सीता राम पाल मनरेगा में हो रही धांधली को उजागर करने के मक़सद से दिल्ली आए.
मनरेगा की राशि के दरुपयोग को साबित करने वाले बहुत से दस्तावेज़ हाथों में लहराते हुए सीता राम कहते हैं, “मेरी पत्नी की साल 2003 में मौत हो गई थी. लेकिन मेरी जानकारी से परे उसके नाम का फ़र्ज़ी जॉब कार्ड बना कर सरपंच और सचिव ने उसके नाम का वेतन अपनी जेब में रख लिया.”
सीता राम जैसे कई किसानों की कुछ ऐसी ही कहानियां थीं.
कई किसानों का कहना है कि मनरेगा के अंतर्गत भी उन्हें नौकरी न मिल पाने की वजह से ज़्यादा से ज़्यादा किसान शहरों का रुख़ कर रहे हैं.

बंटवारे से फ़ायदा?

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सीता राम पाल का आरोप है कि उनके गांव में मनरेगा योजना के फ़ंड का दुरुपयोग किया जा रहा है.
उत्तर प्रदेश के चुनाव नज़दीक हैं और इस बीच चुनावी गहमा-गहमी बढ़ती नज़र आ रही है.
उत्तर प्रदेश के कई पिछडे हुए इलाकों में अब नेताओं के आने-जाने की ख़बरें आ रही हैं.
पिछले दिनों योजना आयोग के अध्यक्ष मोन्टेक सिंह आहलुवालिया भी बुंदेलखंड की स्थिति का जायज़ा लेने वहां पहुंचे थे.
जहां कांग्रेस के नेता यूपी के पिछड़े इलाकों का दौरा कर अपना चुनावी कार्ड खेल रहे हैं, वहीं मायावती ने राज्य के बंटवारे की बात कर चुनावी सरगर्मी बढ़ा दी है.
कुछ लोगों ने मायावती की इस घोषणा को केवल एक चुनावी हथकंडा बताया था लेकिन सभा में मौजूद कुछ किसानों का मानना था कि बुंदेलखंड के नए राज्य बन जाने से उनकी स्थिति में सुधार आने की उम्मीद है.

Friday, February 15, 2013

फिर भी छुट्टा घूम रहें हैं रेप के आरोपी नेता


 शुक्रवार, 15 फ़रवरी, 2013 को 19:34 IST तक के समाचार
दिल्ली बलात्कार
दिल्ली बलात्कार की घटना के बाद पूरे देश में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर आवाज़े उठने लगीं थीं.
मनोज कुमार पारस उत्तर प्रदेश सरकार में स्टैंप ड्यूटी के मंत्री हैं. नगीना विधानसभा क्षेत्र से चुने गए विधायक मनोज कुमार पारस पर एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के आरोप हैं.
पिछले साल (2012) दिसंबर में दिल्ली में एक बस में एक पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और फिर उनकी मौत के बाद भारत सरकार ने कहा था कि वे महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए यौन अपराध के मामले में त्वरित कार्रवाई करते हुए तुरंत इंसाफ़ दिलाने की कोशिश करेगी.
दिल्ली बलात्कार मामले के पांच अभियुक्त गिरफ़्तार हो चुके हैं और फ़ास्ट ट्रैक अदालतों में उस केस की सुनवाई भी हो रही है.
लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के इन दावों का उत्तर प्रदेश पर कोई ख़ास असर नही है.
मंत्री मनोज कुमार पारस पर छह साल पहले बलात्कार के आरोप लगे थे लेकिन आज तक उनके ख़िलाफ़ न तो अदालत ने कोई कार्रवाई की है और न ही इस मामले को ख़ारिज किया है.
लेकिन पारस का मामला अकेला नहीं है जिसमें किसी राजनेता या मंत्री पर इस तरह के आरोप लगे हैं.
कई राजनेताओं पर बलात्कार या महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन शोषण के आरोप हैं.

एक तिहाई नेताओं पर आपराधिक मामले

जस्टिस वर्मा कमेटी
वर्मा कमेटी ने कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे.
राजनेताओं पर नज़र रखने वाली दिल्ली स्थित ग़ैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार भारत में 4835 निर्वाचित नेताओं में से लगभग एक तिहाई ने अपने नामांकन पर्चे में अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज होने की बात स्वीकार की है.
उनमें उत्तर प्रदेश तो शायद सबसे आगे है क्योंकि यहां के मौजूदा 58 मंत्रियों में से 29 पर कोई न कोई आपराधिक मामला दर्ज है.
उत्तर प्रदेश में ही मनोज कुमार पारस के साथी, परिवहन मंत्री महबूब अली पर अपने राजनीतिक विरोधी की हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है.
लेकिन महबूब अली अपने ऊपर लगे आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहते हैं, ''हो सकता है कि अदालत या पुलिस थाने में मेरे ख़िलाफ़ कोई शिकायत दर्ज हो लेकिन अगर जाँच होती है, तो आरोप ग़लत साबित होंगे.''
"अक्सर राजनेता अपने पद का इस्तेमाल करके मामले को वर्षो नहीं बल्कि दशकों तक टालने में सफल हो जाते हैं."
एडीआर के राष्ट्रीय संयोजक अनिल बैरवाल
मनोज कुमार पारस भी अपने ऊपर लगे बलात्कार के आरोप को ख़ारिज करते हुए कहते हैं कि ये उनके राजनीतिक विरोधियों की साज़िश है.
भारतीय समाज में हालाकि एक महिला के लिए बलात्कार का मामला दर्ज करवाना बहुत ही असाधारण बात है क्योंकि उलटे पीड़ित लड़की या महिला को ही पारिवारिक और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है.
लेकिन भारतीय क़ानून के अनुसार आरोप चाहे कितने भी गंभीर हों जब तक वे साबित नहीं हो जाते राजनेता अपनी कुर्सी पर बने रह सकते हैं.
"हो सकता है कि अदालत या पुलिस थाने में मेरे ख़िलाफ़ कोई शिकायत दर्ज हो लेकिन मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है."
महबूब अली, परिवहन मंत्री, उत्तर प्रदेश
एडीआर के राष्ट्रीय संयोजक अनिल बैरवाल कहते हैं कि अक्सर राजनेता अपने पद का इस्तेमाल करके मामले को वर्षो नहीं बल्कि दशकों तक टालने में सफल हो जाते हैं.
एडीआर के मुताबिक़ आपराधिक मामलों के अभियुक्त नेताओं की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है.
एडीआर के अनुसार 1448 सांसदों और विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें 641 पर तो हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर अपराध के आरोप हैं.

लोकतंत्र को ख़तरा

"राजनीतिक पार्टियां केवल इस बात में विश्वास रखती हैं कि चुनाव जीतना ही असल मुद्दा है. चुनाव कैसे जीते जाएं इससे कोई लेना देना नहीं."
प्रोफ़ेसर जगदीप चोकर, एडीआर के संस्थापक सदस्य
कांग्रेस पार्टी के मौजूदा 206 सांसदों में से 44 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं जबकि पूरे देश में सभी पार्टियों को मिलाकर छह विधायकों पर बलात्कार के मामले दर्ज हैं.
दिल्ली बलात्कार के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी के सदस्य गोपाल सुब्रमण्यम कहते हैं कि 'भारतीय लोकतंत्र ख़तरे में है.'
वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सिफ़ारिश की थी कि गंभीर आरोप झेल रहे सभी राजनेताओं को अपने पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए. लेकिन उनकी सिफ़ारिश को सरकार ने मानने से इनकार कर दिया है.
एडीआर के संस्थापक सदस्यों में से एक प्रोफ़ेसर जगदीप चोकर कहते हैं, ''राजनीतिक पार्टियां केवल इस बात में विश्वास रखती हैं कि चुनाव जीतना ही असल मुद्दा है. चुनाव कैसे जीते जाएं इससे कोई लेना देना नहीं.''

Tuesday, February 12, 2013

एक कुंभीपाक भी है इस महाकुंभ में


 अपन तो संत रैदास के चेले हैं-जब मनचंगा तो कठौती में गंगा। सो कुंभ स्नान करने नहीं गए। करोड़ों-करोड़ लोग लोग जो मोक्ष की लालसा लिए हुए गए उनमें से पैंतीस- चालीस लोग रेलवे स्टेशन की भीड़ में ही कुचलकर परलोक सिधार गए। कई अपाहिज होकर वापस लौटे। प्रयाग, कनखल, नासिक, उज्जैयिनी में भरने वाले महाकुंभों में प्राय: ऐसे हादसे होते आए हैं। मंदिरों में भरने वाले मेलों में भी भगदड़ से उपजी ऐसी जानलेवा घटनाएं होती आई हैं। पर आस्था हमेशा से जीतती रही है। लोग जान हथेली पर रख कर या यूं कहिए कि जान देने की शर्त पर भी पुण्य, मोक्ष की लालसा के साथ कुंभ, तीरथ व मंदिरों में पहुंचते रहे हैं और आगे भी पहुंचते रहेंगे। आस्था का मनोविज्ञान बड़ा जटिल है। यहां विज्ञान और तर्कशास्त्र पराजित हो जाता है। गंगाजी के जिस जल को पर्यावरणशास्त्री अत्यन्त प्रदूषित, अपेय व हानिकारक बताते हैं, उसी गरल को श्रद्धालु एक घूंट पीकर व शरीर में छिड़ककर खुद को धन्य मानता है।
अपने अंत समय के लिए भी वह गंगाजल का प्रबंध करके रखता है। हर महाकुंभ में करोड़-करोड़ श्रद्धालु पहुंचते हैं आस्था की डुबकी लगाने के लिए। सिर पर गठरी धरे या खुद गठरी से बने मीलों-मील पैदल चलकर।
यही आस्था नाम का तत्व साधु, संतों, मठाधीशों को प्रभावित करता है और राजनेताओं को भी। पिछले महाकुंभ में एक बड़े राजनेता के साथ महाकुंभ में जाने को मिला। वहां एक नामी संत के टेंटनुमा आश्रम में सत्कार का प्रबंध था। काजूकिश िमश, मेवा के साथ बोतलबंद पानी। जब गंगाजल के बारे में जानना चाहा तो आश्रम के प्रबंधक ने बताया कि यहां गंगाजी का पानी पीने योग्य नहीं। करोड़ों-करोड़ लोग जिस महाकुंभ में एक डुबकी-एक घूंट गंगाजल की लालसा से आते हैं, उसके तीर पर तप करने वाले महाराज जी बोतलबंद पानी पीते हैं। गंगा में डुबकी के दिखावे के बाद शॉवर में शैम्पू, साबुन मलकर स्नान करते हैं, फिर श्रृंगार कक्ष में लटें संवारने के बाद शाम को व्यास- गद्दी पर बैठकर पुण्य और मोक्ष पर प्रवचन देते हैं। महाकुंभ की विशाल बस्ती में ऐसे आश्रमों और साधु संतों की भी एक बस्ती है। कई साधु संतों के रजत व स्वर्णजड़ित सिंहासन हैं। एक बाबा चांदी के रथ पर सवार होकर स्नान करने गए तो दूसरे सजे, हाथी, घोड़ों में। यह वही प्रयाग है जहां प्रभु श्रीराम दीनहीन निरीह अछूत केवट का आतिथ्य स्वीकार करते हैं, गंगापार करने की ˜उतराई लेने को लेकर मनोविनोद करते हुए तुलसीबाबा लिखते हैं ˜उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय राम गुह लखन समेता और यहीं निषादराज को ˜तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई कहकर गले लगाते हैं। आज इसी प्रयागराज के दो रंग हैं। एक गरल को अमृत मानकर पीने वाले आस्थावानों का दूसरा बोतलबंद पानी पीने और र8जड़ित सिंहासन पर बैठने वाले कई कथित साधु-संतों व धर्माचार्यो का।
आस्था की तिजारत (व्यापार) सभी को भाती है। साधु-संत रूप बदलकर आम श्रद्धालुओं को इसी के नाम पर ठगने में सफल हो जाते हैं और राजनेता इसी को वोट का आधार बनाकर सत्ता तक पहुंचने में। इस महाकुंभ में यही हो रहा है। उसी साधुसं तों की अलग बस्ती में। अभी तक ऐसी कोई खबर सुनने-पढ़ने को नहीं मिली कि किसी साधु-संत ने अपने प्रवचन में धर्म के नाम पर होने वाले व्यभिचार-भ्रष्टाचार की कोई बात कभी कही हो। जबकि साल भर मीडिया में आश्रमों के व्यभिचार व भ्रष्टाचार की खबरें सुर्खियां बनती ही रहती हैं। कहीं सेक्स रैकेट तो कहीं हवाला। धर्म संसद में ऐसे भी किसी प्रस्ताव के बारे में चर्चा नहीं सुनी कि आर्थिक मंदी के इस दौर में गरीबों, मजलूमों व वंचितों की मदद में आश्रमों-मंदिरों में संचित अरबों की धनराशि का खजाना खोल दिया जाना चाहिए। स्विट्जरलैण्ड के बैंकों और मंदिरों, आश्रमों की तिजोरी का धन राष्ट्रीय संपत्ति में शामिल कर लिया जाए और हम इस एक कदम से ही चीन के आगे और अमेरिका की बराबरी पर खड़े हो जाएं। पर नहीं, हमारे साधु-संतों को नरेन्द्र मोदी और राम मंदिर की बड़ी चिंता है।
रामकथा को घर-घर पहुंचाने वाले एक थे तुलसीबाबा, जब अकबर ने उन्हें आगरा आने का आमंत्रण भेजा तो जवाब में उन्होंने कहा अपना क्या, मांगकर खाइबो, मसीत (मस्जिद) में सोइबो। आज के साधु-संतों राममंदिर की बड़ी चिंता है। राम की राम के आदर्शो की राम के प्रजा की नहीं, इसलिए उन्हें दिल्ली की गद्दी पर नरेन्द्र मोदी जैसा योद्धा चाहिए। महाकुंभ की विशाल बस्ती के बीच बसी, कुलीन साधु-संतों की बस्ती में राम-राम नहीं नमो-नमो का संकीर्तन चल रहा है। नरेन्द्रभाई मोदी कारपोरेट के चहेते हैं। नामचीन साधु-संतों के आश्रम भी सवा रुपए के गऊदान में नहीं अपितु कारपोरेट के चंदे से चलते हैं।
उद्योगपतियों को धन कमाने के आगे धर्म के लिए फुरसत कहां, सो ये साधु-संता उन्हीं के योग-क्षेम और कुशलता के लिए जप- तप करते हैं। इसलिए हमारे ऐसे साधु-संतों का भी कारपोरेटाइजेशन हो गया। आम श्रद्धालुओं के योग-क्षेम से इनका कोई लेना देना, इन्हें तो सिर्फ उनके हिस्से की आस्था चाहिए। और आस्था के लिए राम और राम मंदिर से बड़ी बात क्या। अत: धर्म संसद के इंतजामकर्ता विहिप के अशोक सिंहल ने अतिरेक में यहां तक कह दिया कि ˜नरेन्द्र मोदी-पंडित जवाहर लाल नेहरू की बराबरी के नेता हैं।सिंहल को मालूम होना चाहिए कि नेहरू का बचपन इन्हीं गंगा मैया की हिलोरें देखते हुए बीता है और ये वही नेहरू हैं जिनके खिलाफ सन 1956 में फूलपुर संसदीय क्षेत्र से साधु-संतों ने प्रभुदत्त ब्रrाचारी नाम के एक साधु को चुनाव में खड़ा किया था। आरएसएस के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के अत्यन्त निकट प्रभुदत्त ब्रrाचारी के समर्थन में करपात्रीजी महाराज की रामराज परिषद और सावरकर की हिंदू महासभा थी।
नेहरू ने अपने भाषणों में आमजनता से अपील की थी ‘यदि आपको लगता है कि ये साधु-संत ही देश और पार्लियामेंट को चलाने में सबसे योग्य हैं तो मैं आपसे अपील करता हूं कि इस चुनाव में आप मुङो भारी मतों से हरा दीजिए और जानते हैं क्या परिणाम निकला, प्रभुदत्त ब्रrाचारी की जमानत जब्त हो गई और उन्हें ऐतिहासिक मतों से पराजय मिली। सो इस महाकुंभ को आस्थाओं की तिजारत से बचाइए, भ्रम मत फैलाइए, इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है। देश की जनता हकीकत से वाकिफ है, वह अब भावनाओं में बहने वाली नहीं। राम की गंगा वैसे भी बहुत मैली हो चुकी। अपने-अपने वैचारिक मैल इसमें और मत मिलाइए। कारपोरेट के चंदे से धर्म का धंधा और मौज मस्ती करएि। देश को चलाने का काम औरों पर छोड़िए।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208 

Saturday, February 9, 2013

कितना कारगर है ये जुवेनाइल एक्ट!



संतोष खरे
ऐसे बच्चों और किशोरों की देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता होती है जिनकी आयु 18 वर्ष से कम हो। जो बेघर-साधनहीन हो। भीख मांग कर जीवनयापन करते हों। जिस व्यक्ति के साथ रहते हो उससे उनकी जान का खतरा हो या वे उपेक्षित हो। मानसिक या शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो। जिनके माता-पिता या संरक्षक उस पर नियंत्रण न कर पाते हो। घरों से भागे हुये हो या माता-पिता के द्वारा त्याग दिये गये हो। जिनके साथ लैंगिक दुराचार किया जाता हो। अवैध कार्य कराये जाते हो। ड्रग (नशे) का आदी हो। किसी प्राकृतिक आपदा, युद्ध आदि का शिकार हो गया हो। कोई अपराध किया हो। अत: उनके पुनर्वास तथा कल्याण के उद्देश्य से जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन) एक्ट, 2000 लागू किया गया।

इस अधिनियम के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किशोर न्याय बोर्ड का गठन किया गया जिसमें मेट्रोपोलिटन या ज्युडिशियल मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी तथा दो सामाजिक सदस्य जिनमें से एक महिला सदस्य होगी, रहते हैं। जब किसी किशोर या बच्चे ने कोई अपराध किया हो और उसे किसी न्यायालय में उपस्थित कराया गया हो तो वह ऐसे किशोर या बच्चे को संरक्षण अधिकारी के पास भेज देगा। न्यायालय जांच करने के बाद इस बात की पुष्टि करेगा कि उसके समक्ष लाया गया बच्चा किशोर की उम्र का है तो वह उसे बोर्ड के समक्ष भेज देगा।

राज्य शासन ने इस अधिनियम के अंर्तगत की जाने वाली जांच की अवधि के लिये आब्जरवेशन होम तथा पुनर्वास के लिये स्पेशल होम की स्थापना की है। ऐसे संस्थानों की स्थापना राज्य शासन स्वयं या स्वैच्छिक संगठनों के साथ अनुबंध करके करता है। यह जानकारी मिलने पर कि किसी किशोर ने कोई अपराध किया है, विशेष किशोर पुलिस इकाई या पदेन पुलिस अधिकारी उसे 24 घंटों के अंदर बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करेगा। किसी भी किशोर अपराधी को जेल या पुलिस लॉकअप में नहीं रखा जायेगा। जब किसी किशोर ने कोई जमानती या गैर जमानती अपराध किया हो और उसे गिरफ्तार किया गया हो तो उसे या तो जमानत पर रिहा किया जायेगा या किसी परिवीक्षा- अधिकारी की देख-रेख में रखा जायेगा किन्तु यदि यह संभावना हो कि वह रिहा होने पर किसी ज्ञात अपराधी के साथ मिलकर अपराध कर सकता है तो उसे रिहा नहीं किया जायेगा। जब उसे रिहा न किया गया हो तो उसे आब्जरवेशन होम में भेज दिया जायेगा। किसी किशोर को गिरफ्तार करने पर पुलिस तत्काल उसके माता-पिता या संरक्षक को सूचित करेगी तथा किशोर को बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करेगी। बोर्ड चार माहों के अंदर जांच संपन्न करेगा जांच में यह पाये जाने पर कि उसने अपराध किया है उसके माता-पिता या संरक्षक को समुचित सुझाव देकर उसे उसके घर भेजा जा सकता है, सामूहिक सुझाव प्राप्त करने या सामुदायिक सेवा करने हेतु आदेशित किया जा सकता है, 14 वर्ष से अधिक आयु का हो तो उस पर या उसके माता-पिता पर अर्थदंड लगाया जा सकता है, उसे तीन वर्ष तक के प्रोबेशन पर छोड़ा जा सकता है अथवा उसे स्पेशल होम में भेजा जा सकता है। यदि किशोर ने 16 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली हो और बोर्ड इस बात से संतुष्ट हो कि उसके द्वारा गंभीर प्रकृति का अपराध किया गया था तो उसे किसी सुरक्षित स्थान पर भेजा जायेगा और इसकी सूचना राज्य शासन को भेज दी जायेगी।

किशोर अपराधी के संबंध में की जाने वाली जांच कार्यवाही की सूचना किसी अखबार, पत्रिका या किसी दृश्य मीडिया में प्रकाशित नहीं की जायेगी तथा उसका नाम, पता, विद्यालय आदि का विवरण प्रकाशित नहीं किया जायेगा। ऐसा करने पर दोषी व्यक्ति को 25 हजार रुपयों तक के अर्थदंड से दंडित किया जा सकता है। यदि स्पेशल होम या आब्जरवेशन होम से कोई किशोर फरार हो गया हो तो पुलिस अधिकारी उसे बिना वारण्ट के अभिरक्षा में लेकर उपरोक्त स्थानों में वापस भेजेगा पर ऐसी फरारी के आधार पर उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जायेगी। जिसके नियंत्रण या वास्तविक नियंत्रण में किशोर रहता हो उसके द्वारा यदि उसके साथ निर्दयता का व्यवहार किया जाता हो या अनावश्यक उपेक्षा कर उसे शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता हो तो उसे 6 माह तक के कारावास अथवा अर्थदंड या दोनों से दंडित किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति किसी किशोर का उपयोग भीख मांगने के लिये करता हो, बच्चे को कोई व्यक्ति सार्वजनिक स्थान पर नशीले पदार्थ खिलाता हो, खतरनाक पदार्थो से संबंधित कार्यो में किशोर का नियोजन करता हो तो उसे 3 वर्ष तक का कारावास तथा अर्थदंड से दंडित किया जा सकता है। राज्य शासन बाल कल्याण समिति का गठन कर सकता है जो बालकों के कल्याण से संबंधित कार्यो का निष्पादन करेगी।

इन्ही उद्देश्यों के लिये शासन "बालगृह" की स्थापना तथा "शेल्टर होम" को मान्यता प्रदान कर सकता है। इनका प्रमुख कार्य बालकों को उनके घर-परिवारों में पुर्नस्थापित करना होता है। बालगृहों या स्पेशल होम में रहने वाले बालकों का पुनर्वास, पूर्व एकीकरण तथा दत्तक ग्रहण कराया जा सकता है। उनको पोषण सुविधा तथा अन्य सुविधायें उपलब्ध कराई जाती है। जब इस अधिनियम के प्रावधानों के अंर्तगत किसी किशोर को सक्षम प्राधिकारी के समक्ष लाया जाता है तो उसके माता-पिता या संरक्षक उसके संबंध में की जाने वाली कार्यवाही में उपस्थित रह सकते है। आवश्यक न होने पर कार्यवाही बालक की अनुपस्थित में की जा सकती है। यदि ऐसे किशोर या बालक को उसकी बीमारी के लिये लगातार चिकित्सा की आवश्यकता हो तो उसे मान्यता प्राप्त स्थान पर भेज दिया जायेगा। इस अधिनियम के अंर्तगत सक्षम प्राधिकारी के आदेश से असंतुष्ट होने पर 30 दिवस के अंदर सत्र न्यायालय को अपील तथा उच्च न्यायालय के समक्ष रिवीजन प्रस्तुत की जा सकती है। बालगृह तथा स्पेशल होम में रहने वाले बालक या किशोर को अन्य किसी बालगृह या स्पेशल होम में स्थानांतरित किया जा सकता है।

और अंत में...ऐसा प्रतीत होता है कि इस कानून की संरचना इस आधार पर की गई है कि बालकों तथा किशोरों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हुये उन्हें दंडित करने के बजाय सुधारा जाये। पर यह देखा गया है कि इस लचीले कानून का लाभ लेकर बालकों और किशोरों का उपयोग गंभीर अपराधों के लिये किया जाता है। निर्धन वर्ग के बालकों या किशोरों से उन्हें लालच देकर आपराधिक कृत्य कराना आसान होता है। कानून निर्माताओं को इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिये अन्यथा इस कानून का उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
लेखक सुपरिचित व्यंग्यकार एवं अधिवक्ता हैं।

जब आवै संतोष धन..


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
गरीबी में भी हमारे पास संतोष और सुख की पूंजी थी। यह मार्क्‍स की पूंजी से भिन्न थी। इसमें भौतिक सुख भले न रहा हो आत्मिक सुख था। प्रगति और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम शामिल क्या हुए, पुरानी पूंजी भी बचा नहीं पाए और उस जगह पर पहुंचते हैं जहां कोई अपना नहीं दिखता दूर-दूर तक।
विरासत की यह पूंजी अब सिर्फ यादों में है। जिनके लिए सपने देखे थे, उनने भी अपने सपने पाल लिए, अर्थ की इस रेस में घर- परिवार पत्‍नी पुत्र, भाई-बहन, दादा-दादी, काका-काकी, नाना- नानी, मित्र-पड़ोसी के रिश्ते सिर्फ स्मृतियों में रह गए। संयुक्त परिवार खत्म हुए तो समाज, व्यक्ति केन्द्रित हो गया। पति-पत्‍नी और पुत्र पुत्री में परिवार की संज्ञा सिमट गई। अधिक से अधिक पैसा कमाने की प्रवृत्ति में मां-बाप ने बच्चों पर विराम तो लगाया, उन्हें "पालना घर" भेजकर या दाई (नौकरानी) के हवाले सौंपकर मुक्ति पा ली। स्नेह-ममता, दुलार-चुम्बन की उस उम्र के सपने को रौंद दिया। बच्चे ने बहन नहीं देखी, काका-काकी, दादा-दादी नहीं देखी। ये रिश्ते संबंध थे, लेकिन उनसे परिचित कराना पिछड़ापन और प्रगति में बाधक मान लिया गया। जिन संबंधों से संवेदना सहयोग के बीज उगते हैं, वे बोए ही नहीं गए। परिणाम यह हुआ कि संवेदित प्रसंगों में भी ये लड़के विगलित नहीं होते।

मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ करुण भाव से तिरोहित हो गए। भावनात्मक शून्यता से पले बढ़े ये लड़के यदि आपराधिक प्रवृत्ति की ओर उन्मुख हुए तो दोष किसका? हम अक्सर अपने को दोषमुक्त करने के लिए इसे समाज में फैली विकृतियों, टीवी, इंटरनेट पर डालकर छुट्टी पा जाते हैं। हमने कभी अपने बच्चों के लिए समय नहीं निकाला। उन्हें आधुनिकता के इतने उपकरणों में घेर दिया कि उनका संसार ही मशीनी हो गया। प्रसिद्ध कवि पाव्लो नेरुदा ने कहा था-"हमारी सारी प्रगति और आधुनिकता बेकार है, अगर हम इन नन्हें फूलों को नहीं बचा पाए।" जहां हम खड़े हैं, वहां से पीछे लौटना तो असंभव है, लेकिन जो हमारी पहचान थी उसके बारे में ठहरकर सोचने और दौड़ के इस क्रम में जिसका "टारगेट" ही न दिख रहा हो, उस पर चिंतन मनन करना क्या आवश्यक नहीं दिखता? जिस देश के चिंतन की महान परम्पराएं रही हों। जिसने जीवन को समझने के लिए विराट ग्रंथ रचे वही देश झिलमिलाते आभासी सुख की अंधेरी गलियों में खो जाए। दुख में मल्हार गाने वाले, सुखों को चुनौती देते रहे हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में सुख की तलाश करने वाले लोगों के भद्दार किस्सों से इतिहास भरा पड़ा है। लोक और समाज में वे कभी भी आदरणीय नहीं हुए। शहरों में फैले भ्रष्टाचारी तंत्र से ध्यान बंटाने के लिए शासन का विकेन्द्रीकरण गांवों की समावेशी संस्कृति को लीलता जा रहा है। काम करने वाले हाथों को मनरेगा का झुनझुना और गरीबी अति गरीबी रेखा का राशन थमाकर निठल्ले और कामचोरों की फौज खड़ी करके सरकारें निर्विकार भाव से खुश हैं।

प्रगति और विकास के नाम पर सुरसा के विशाल मुंह की तरह फैलते शहरीकरण, उद्योगीकरण और उदारीकरण के भयानक जंगल में कुटीर उद्योग, खेती, पशुपालन दम तोड़ रहे हैं। और इनसे जुड़े गांव जवार हर क्षण आशंका के साए में जी रहे हैं कि पता नहीं कब सरकारें, कॉरपोरेटों के लिए उनकी जमीन और आम निस्तारी जंगल पर कंक्रीट के महल खड़ी कर दें। छोटे उद्योगों, खेती, पशुपालन से जुड़े लोगों के ऊपर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं। माल कल्चर, मॉस कल्चर को समाप्त करने के दहलीज पर खड़ी कह रही है, "तुम्हें पिछड़ा गरीब नहीं रहने देंगे, रोजगार देंगे" और वह टेक्निकल नान टेक्निकल के नाम पर ठगा जा रहा है। गांव शहर बन रहे हैं, गांव की आत्मीयता शहरी होकर व्यक्ति केन्द्रित होती जा रही है। गांवों में बसने वाले हिन्दुस्तान की कल्पनाएं सिर्फ कविताओं में रह जाएंगी। सुजलासुफला, शस्य श्यामला धरती अधिनायकों का जय-जयकार करती हमें हमारे अतीत को चिढ़ाएंगी।

अमीरी की दौलत में हमने अपनी आत्मा, देश और सभ्यता को पूरी तरह दरकिनार कर दिया। लोक व्यवहार और गीतों पर रीमिक्स ने कब्जा कर लिया है। लड़की की विदाई पर न सिर्फ पूरा गांव दुखी होता था वरन लोकगीतों में तो पशु पक्षियों के भी रोने और उदास होने के स्वर मिलते थे। खूंटे से बंधी गाय और भैंसे उदास और चारा-पानी, खाना पीना छोड़कर लड़की को जाते हुए देख रही हैं कि इसी के हाथ से इतने दिनों तक हमने दाना-सानी-भूसा खाया था। पशुता और मनुष्यता का पार्थक्य समाप्त करने वाले भाव गीत स्मृतियों में हैं। उन्हें जीवन्त रखने की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हुआ जा सका। बड़े और छोटे के बीच के अनुशासन की सीमा रेखा खत्म करने का अभिशाप समाज के ऊपर है, किंबहुना हम सबके ऊपर। नौकर के रहते हुए अपने बेटों से अतिथियों के आवभगत, सत्कार के संस्कार अनजाने ही मिल जाते थे। दूसरों के सामने उठने बैठने-बात करने का संस्कार सहज रूप से मिलने के दिन व्यस्तताओं ने छीन लिए। जब से स्कूल जाना शुरु हुआ तब से हर विषय और कार्य की घंटी बजने का क्रम सेवा निवृत्ति तक कायम रहा। लेकिन घर रूपी स्कूल की घंटी बिना बजे और बजाए आज भी बज रही है। उसके कालखण्ड कभी नहीं बदले। वह घंटी सचेत करने की है, समाज के आत्म चेतन की यह घंटी नहीं बज रही है, उसे बजाना, सुनना और समझना भी होगा, क्योंकि हमारा सब कुछ धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। हमारा संतोष,सुख भी दूसरों पर निर्भर है। जो नितांत निजी था वह अब प्रश्नांकित है। यह मंथन का समय है अन्यथा हम मिट जाएंगे।

शिष्टता और सभ्यता आचरण के विषय हैं। व्यवहार से हम व्यक्ति के संस्कार का मूल्यांकन करते हैं। तमाम वैश्विक उपलब्धियों के बाद आचरण में अपने माटी के संस्कार से विलग हो अपनी संस्कृति का क्षरण है। गरीबी और अमीरी भारतीय दर्शन में तरु की छाया और हाथ का मैल थी। इसका संबंध दिल और दिमाग से था। बड़े-बड़े अमीर दिल से गरीब और गरीबों की अमीरी के अनेक उदाहरण हमारी थाती हैं। गरीबों में दान की विराट परम्परा आज भी गावों में है। उनके कमाई का कुछ प्रतिशत दूसरों के लिए भी है। अर्थ की इस अंधी दौड़ मे रिश्ते और सम्बन्ध हाशिए पर हैं। गजनवी सारा लूट का माल हाथ में लेकर जन्नत में जाना चाहता था। मृत्यु के समय बंधी मुट्ठी खुल गई। धन की कोई सीमा नहीं है, संख्याएं अनंत हैं। धन सुख का किंचित साधन हो सकता है, साध्य नहीं। निश्चिंतता की नींद धन संग्रह में नहीं है। मन की लगाम को कसकर जीवन का अर्थ जीवन के लिए जीना, करना ही सच्चा मनुष्यत्व है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।

खाये जाओ खिलाये जाओ बुद्धू बनाए जाओ

चिन्तामणि मिश्र
भारत में प्राथमिक और माध्यमिक सरकारी स्कूलों में छात्रों की मिड डे मील योजना दुनिया की सबसे बड़ी मुफ्त स्कूली भोजन योजना है और भ्रष्टाचार की गोद में बैठी यह परियोजना दुनिया का सबसे बड़ा लूट-खसोट का कार्यक्रम भी है। तामिलनाडु और गुजरात से शुरू हुई यह योजना अब देश भर में चल रही है। इस योजना को शुरू करने का मकसद स्कूलों में दाखिलों और हाजरी में वृद्धि करना, बच्चों में कुपोषण कम करना, जातिभेद खत्म करके बच्चों में आपसदारी बढ़ाना है। इसको पूरे देश में लागू हुए एक दशक से अधिक हो गया है किन्तु कड़वा सच यह भी है कि पूरी दुनिया में कुपोषित बच्चों की मौत में आज भी हमारा देश दूसरे स्थान पर है। कुपोषण से मरने वाले बच्चों को बचाने के लिए छह साल तक के बच्चों पर ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि कुपोषण से मरने वाले बच्चों की उम्र छह साल तक की है।

सरकार को इन बच्चों के कुपोषण से लड़ना चाहिए जो खाने के अभाव में जिन्दा ही नहीं बचते है। इन बच्चों के मां-बाप का सपना शिक्षित होना नहीं बल्कि उनका जीवित बचे रहना है। यह जरूर है कि दोपहर के इस फोकट-भोजन के कारण स्कूलों में छात्रों की हाजरी बढ़ी है, किन्तु आधे से ज्यादा छात्र भोजन ग्रहण करने के बाद स्कूल से चले जाते हैं। अगर एक बार मान भी लिया जाए कि इस योजना से छात्रों के दाखिले और हाजरी में इजाफा हुआ है तो शिक्षा का स्तर जस का तस क्यों है? इस योजना का मकसद शिक्षा का स्तर बढ़ाना नहीं है, जो अपने आप सरकार के षड़यंत्र को बेनकाब कर रही है। हाजरी बढ़ाने से क्या हासिल होगा अगर पढ़ाई का स्तर नहीं बढ़ता है।

इस फोकट के भोजन कार्यक्रम ने पहले से ही चौपट पढ़ाई को पाताल में धकेल दिया है। स्कूलों में एक शिक्षक नियमित रूप से भोजन-पानी की व्यवस्था में लगा रहता है। रसद, नून-तेल- लकड़ी मंगवाना, रसोइयों से काम लेना, भोजन वितरित कराना और बर्तनों की देखभाल करने का काम जिम्मे में होने से वह किसी भी दिन कक्षा में प्रवेश ही नहीं करता है। स्कूल का हेडमास्टर कैश-बुक लिखने, स्टाक रजिस्टर भरने, बाउचर्स एकत्र करने में रोज कई घन्टे गुजारता है। इस तरह दो मास्टर रसोईया और भंडारी बना दिए गए है। सरकार का अंधतत्व इतना प्रबल है कि उसे नहीं दिखता कि दो मास्टरों की कक्षाओं के छात्रों को कौन पढ़ाता है, क्या भूत पढ़ाते है? एक तरफ बच्चों को एक वक्त का पोषक आहार देने के लिए करोड़ों रुपए सरकार लगा रही है और दूसरी तरफ बेहद घटिया भोजन बच्चों को परोसा जा रहा है। हर स्कूल में भ्रष्टाचार का बजबजाता कुन्ड बन गया है, जिसमें संस्था प्रधान उसका भंडारा सहायक मास्टर तैर रहे हैं, इस तैराकी में वे भी डुबकी लगा कर अपना इहलोक बनाने में जुटे हैं, जिनको निगरानी का काम सौंपा गया है। इस योजना को बनाने और लागू करने वालों को बुद्धि का अजीर्ण है। वे इतना भी नहीं समझ पाए कि एक बच्चे को एक जून का खाना देकर स्कूल जाने का लालच देने का जाल सफल नहीं हो सकता है। गरीब परिवार का बच्चा काम करके पूरे परिवार के लिए दो जून का खाना जुटा लेता है। बच्चे के श्रम से पूरे परिवार का पेट जुड़ा है न कि एक बच्चे की एक वक्त की भूख से।

स्कूलों में कई बच्चे भोजन के वक्त अपनी थाली लेकर आ जाते है और भोजन लेकर वापस चले जाते हैं। ऐसे बच्चें आसपास के खेतों में या सड़कों पर चल रहे निर्माण कार्य में अथवा मवेशी चराने के कामों में लगे हैं। इनके नाम स्कूलों में दर्ज हैं, इनको रोज स्कूल में उपस्थित भी दिखाया जा रहा है। ऐसी नौटंकी करने से किसी का भी भला नहीं हो रहा है। भ्रष्टाचारी जोंको का गिरोह जरूर मुटिया रहा है। स्कूलों में भंडारा चलाने का मकसद शिक्षा का स्तर बढ़ाना बताया गया है लेकिन शिक्षा का स्तर जस का तस ही है। फोकट के एक-जूनी भोजन से शिक्षा का स्तर कैसे बढ़ेगा, इसे सरकार ने आज तक नहीं बताया है। वैसे सरकार की प्राथमिकता में सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा प्रदान करने का प्रबन्ध करना है ही नहीं। शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक होते हैं इनका कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है, किन्तु सरकार शिक्षकों को मवेशी चराने वाले चरवाहों से अधिक और कुछ मानती ही नहीं।

प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों के वेतन, सेवा शर्ते, सरकार के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से भी ज्यादा बदतर हैं। उपर से सरकार का हर विभाग इनका माई-बाप है। शिक्षकों को शिक्षा देने के काम में न लगा कर नाना प्रकार के ऐसे काम दिए गए हैं, जिनका शिक्षा से कोई सम्बन्ध दूर-दूर तक नहीं है। सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तो दूर यहा शिक्षा देने का माहौल ही नदारत है क्योंकि सरकार पर्दे के पीछे निजी स्कूलों को आगे बढ़ाने के काम में लगी है। इसके लिए शिक्षक दोषी नहीं हैं अगर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर नहीं उठ रहा है तो इकलौती दोषी सरकार तथा एसी-कुटिया में बैठ कर बेतुकी योजना बनाने वाली थकी-हारी बूढ़ी नौकरशाही है जिसे मैदानी हकीकत और उसकी दुश्वारियों का ज्ञान ही नहीं है।

अगर सरकार वास्तव में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा तथा छात्रों का स्तर सुधारना चाहती है, तो शिक्षा में प्रयोग करने से बचना होगा। शिक्षा को आईएएस गिरोह के चंगुल से बाहर निकाल कर शिक्षाशास्त्रियों के सुपुर्द किया जाए। आजादी के एक दशक तक देश में यही प्रक्रिया थी। इसके परिणाम बहुत बेहतर थे। पढ़ाने का तरीका तथा समय और परीक्षाओं पर नियंत्रण, पाठक्रम एवं निरीक्षण शिक्षाशास्त्रियों के हाथ में होना चाहिए। इसके साथ जो बहुज जरूरी है कि शिक्षकों से गैरशिक्षिकीय कामों में बेगारी लेना बन्द किया जाए।

छात्रों को स्कूलों में भंडारा के माध्यम से उनको मानसिक रूप से भिखारी बनाने से हम उनका और देश का भला नहीं कर रहे हैं। असल लक्ष्य शिक्षा का स्तर उठाना है। निजी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा का स्तर इसीलिए ऊपर है क्योंकि वहा शिक्षकों से बेगारी नहीं ली जाती, उन पर ऐंठू नौकरशाही का दबाव नहीं है। शिक्षक केवल पढ़ाने का काम करते है। वहां रोज फोकट का खाना मांगने के लिए छात्र हाथ नहीं फैलाते। शिक्षा को गैर-शिक्षकीय नौकरशाही ने तबाह किया है। शिक्षक में आज भी क्षमता है कि वह देश के भविष्य को गढ़ सकता है उसे संवार सकता है। हमने उसे अवसर ही कब दिया है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।