पटवाजी नहीं रहे। भगवान ने उनके महाप्रयाण का वही दिन नियत किया जो कुशाहाऊ ठाकरे का था। 28 दिसम्बर को हम ठाकरे जी की पुण्यतिथि मनाते हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा का जो रसूख है वह ठाकरे जी की बदौलत लेकिन उसकी धार तेज की सुंदरलाल पटवा ने। पटवाजी ने अविभाजित मध्यप्रदेश में ऐसी तेजस्वी पीढ़ी गढ़ी जो पिछले एक दशक से निर्विघ्न सत्ता की बागडोर संभाले हुए हैं। चाहे शिवराज सिंह हों या रमन सिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल हों या कैलाश विजयवर्गीय सबमें पटवा की छाप दिखती है। नब्बे के चुनाव में भारतीय जनता युवा मोर्चा से निकलकर चुनाव के जरिए जो पीढ़ी विधानसभा पहुंची उसकी मेधा की सच्ची परख यदि किसी ने की वो पटवा जी ही थे। आइएएस की तर्ज पर आप इसे नब्बे का बैच भी कह सकते हैं।
1941 में राज्य प्रजामण्डल से राजनीति की शुरुआत करने वाले पटवा जी 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। इसके बाद उनका ध्येय ही संगठन हो गया। मालवा में संघ और संगठन की जमीन तैयार करने में भले ही कितने दिग्गज रहे हों पर पटवाजी ही वहां के पोस्टर ब्याय रहे। मुझे पटवा जी को देखने सुनने का अवसर 82-83 के आस-पास मिला। तब मैं प्रशिक्षु पत्रकार था। पुरानी विधानसभा की पत्रकार दीर्घा से सदन की कार्रवाई देखना और उसे अखबार में रिपोर्ट करना एक अद्भुद् अनुभूति थी। विपक्ष के नेता के रूप में पटवा जी जब सरकार पर हमला बोलते थे, तब ट्रेजरी बेंच स्तब्ध रह जाता था। अभी भी लोग मानते हैं कि 80-85 का समय प्रतिपक्ष की राजनीति का स्वर्णिम दौर था जिसकी अगुआई पटवाजी के हाथों में थी। पटवाजी ने प्रतिपक्ष की राजनीति की एक मर्यादा और नीति निर्देशक सिद्धांत गढे़। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह पर इतने तीखे हमले (जिसमें चुरहट लाटरी भी शामिल था) करते थे, इसके बावजूद भी उनके और अर्जुन सिंह की मित्रता के रिश्तों की कहानी सत्ता के गलियारों से गली-कूंचों तक सुनी जाती थी। प्रतिपक्ष की राजनीति का वह दौर ‘बिलो द बेल्ट’ हिट करने का नहीं था। मैं पटवाजी का मुरीद था लेकिन तब तक कोई संवाद या पहचान जैसी बात नहीं थी। अवसर मिला और उसके कारण बने ठाकरे जी। 90 के विधानसभा चुनाव के पहले रीवा में भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति होनी थी। रीवा के जिला भाजपाध्यक्ष थे कौशल प्रसाद मिश्र। ठाकरे जी को दिल्ली से आना था इलाहाबाद के रास्ते। कुछ ऐसा संयोग बना कि ठाकरे जी को लेने मुझे इलाहाबाद जाना पड़ा। वहां से ठाकरे जी को लेकर रीवा चले। रास्ते में ही परिचय हुआ कि मैं कार्यकर्ता नहीं पत्रकार हूं। मैं गया भी इसीलिए था ताकि ठाकरे जी से लंबा इन्टरव्यू कर सकूं। यहां राजनिवास में पटवाजी, कैलाश जोशी, विक्रम वर्मा, नंद कुमार साय जैसे दिग्गज उनकी अगवानी में खड़े थे। ठाकरे जी के साथ जीप से उतरने पर सबकी नजरे मेरी ओर भी गई। ठाकरे जी के हांथ में मेरा सौंपा हुआ अखबार था, जिसमें चुनाव के मद्दे नजर मेरा एक विश्लेषण था। बैठक के बाद मुझे पता चलाकि ठाकरे जी उस अखबार को लहराते हुए नेताओं से कहा था कि ये अखबार ठीक लिखता है कि हम आगे बढे नहीं है अपितु कांग्रेस पीछे हटी है इसलिए भाजपा का माहौल दिख रहा है अभी काफी कुछ करने की जरूरत है। शाम को राजनिवास में पटवाजी से मिलने पहुंचा। वे बड़े स्नेह से मिले और बोल-शुकल जी बहुत करारा लिखते हो।
पटवाजी की भाषण शैली के मुरीदों की संख्या लाखों में है। किस्सागोई के साथ धारदार व्यंग आम जनता पर सीधे उतर जाता था। पटवाजी के भाषणों को जस का तस उतार दिया जाए तो उसके तथ्य-कथ्य कई व्यंगकारों की रचना पर भारी पड़ेगे। विन्ध्य में जब वे आते थे तो उनके स्वाभाविक निशाने पर अर्जुन सिंह वे श्रीनिवास तिवारी होते थे। और जिस शानदार व्यंगशैली से इन पर प्रहार करते थे कि सुनने वाले सालों-साल तक गुदगदाते रहते थे। ‘चुरहट के कुंवर कन्हैय्या’ और ‘तिवारी जी का डबल बेड’’ वाले दो जुमले आज ही किसी ने सुनाए, पटवाजी को याद करते हुए। बहरहाल 90 में भाजपा की सरकार बनी और पटवाजी ने दूसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ ली। इससे पहले वे प्रदेश की जनता पार्टी की सरकार में एक महीने (20 जनवरी 80 से 17 फरवरी 80 तक) के मुख्यमंत्री रह चुके थे। यह चुनाव किसानों की कर्जामाफी और हर खेत को पानी हर हाथ को काम के नाम पर लड़ा गया था। मुख्यमंत्री बनने के अगले महीने ही वे रीवा आए और मनगवां में किसान ऋणमुक्ति सम्मेलन में एक वृद्ध महिला को ऋणमुक्ति प्रमाण पत्र सौंपते हुए उसके पांव छू लिए। यह तस्वीर उनके पूरे कार्यकाल तक सरकारी प्रचार प्रसार में आयकानिक बनी रही।
‘नब्बे की प्रदेश भाजपा सरकार नए खून व नए जोश से लबरेज थी। प्रतिपक्षा में थे पं.श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल बोरा, कृष्णपाल सिंह और भी कई दिग्गज जो विधानसभा में चुनकर पहुंचे थे। श्री शुक्ल नेता प्रतिपक्ष थे। विपक्ष ने एक वर्ष के भीतर ही पटवा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा। मैंने ऐसी ऐतिहासिक बहस विधानसभा में पहली बार देखी-सुनी। पटवाजी ने जवाब के लिए कमान युवा विधायको को सौंपी जिसके अगुआ थे शिवराज सिंह चौहान। प्रतिपक्षी कांग्रेस के दिग्गजों के जवाब में शिवराज सिंह चौहान ने एक घंटे का भाषण दिया मुझे याद है कि श्यामाचरण और अर्जुन सिंह की ओर इंगित करते हुए श्री चौहान ने यह कहते हुए अपने भाषण पर विराम दिया था-सूपा बोले तो बोले, चलनी क्या बोले जिसमें छेदय छेद हैं। प्रस्ताव गिर गया। सत्रावसान के रात्रि भोज में पटवा जी को प्रणाम करने का मौका मिला तो बरबस ही पूछ बैठा शिवराज जी जैसे मेधावी युवा नेता को मंत्रिमण्डल से बाहर क्यों रखा है दादा? पटवा जी बोले-शुकल जी अपना शिवराज लंबी रेस का घोड़ा है देखते जाइए।
पटवाजी की पारखी नजर के सभी कायल थे। यह सर्वज्ञात है कि शिवराज जी को मुख्यमंत्री बनाने की पृष्ठिभूमि पटवाजी ने ही तैय्यार की। पटवाजी से आखिरी संवाद पिछले वर्ष तब हुआ जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के दस वर्ष पूरा होने पर मुझे विशेष सामग्री तैय्यार करने का काम मिला उसमें पटवाजी का इन्टरव्यू भी शामिल था। पटवाजी ने राजनीति के बारे में बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा था ‘यहां कोई किसी का गुरू या चेला नहीं होता, सब अपने प्रारब्ध और कर्म के हिसाब से आगे बढ़ते हैं। राजनीति में कभी कोई किसी की जगह नहीं ले सकता सबको अपनी अपनी जगह बनाना पड़ती है। पटवाजी मध्यप्रदेश की राजनीति की आत्मा में सदा-सदा के लिए चस्पा रहेंगे सरकार किसी की आए-जाए उनकी स्थापनाएं, आदर्श और सिद्धान्त सबके लिए अपरिहार्य रहेंगे।
1941 में राज्य प्रजामण्डल से राजनीति की शुरुआत करने वाले पटवा जी 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। इसके बाद उनका ध्येय ही संगठन हो गया। मालवा में संघ और संगठन की जमीन तैयार करने में भले ही कितने दिग्गज रहे हों पर पटवाजी ही वहां के पोस्टर ब्याय रहे। मुझे पटवा जी को देखने सुनने का अवसर 82-83 के आस-पास मिला। तब मैं प्रशिक्षु पत्रकार था। पुरानी विधानसभा की पत्रकार दीर्घा से सदन की कार्रवाई देखना और उसे अखबार में रिपोर्ट करना एक अद्भुद् अनुभूति थी। विपक्ष के नेता के रूप में पटवा जी जब सरकार पर हमला बोलते थे, तब ट्रेजरी बेंच स्तब्ध रह जाता था। अभी भी लोग मानते हैं कि 80-85 का समय प्रतिपक्ष की राजनीति का स्वर्णिम दौर था जिसकी अगुआई पटवाजी के हाथों में थी। पटवाजी ने प्रतिपक्ष की राजनीति की एक मर्यादा और नीति निर्देशक सिद्धांत गढे़। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह पर इतने तीखे हमले (जिसमें चुरहट लाटरी भी शामिल था) करते थे, इसके बावजूद भी उनके और अर्जुन सिंह की मित्रता के रिश्तों की कहानी सत्ता के गलियारों से गली-कूंचों तक सुनी जाती थी। प्रतिपक्ष की राजनीति का वह दौर ‘बिलो द बेल्ट’ हिट करने का नहीं था। मैं पटवाजी का मुरीद था लेकिन तब तक कोई संवाद या पहचान जैसी बात नहीं थी। अवसर मिला और उसके कारण बने ठाकरे जी। 90 के विधानसभा चुनाव के पहले रीवा में भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति होनी थी। रीवा के जिला भाजपाध्यक्ष थे कौशल प्रसाद मिश्र। ठाकरे जी को दिल्ली से आना था इलाहाबाद के रास्ते। कुछ ऐसा संयोग बना कि ठाकरे जी को लेने मुझे इलाहाबाद जाना पड़ा। वहां से ठाकरे जी को लेकर रीवा चले। रास्ते में ही परिचय हुआ कि मैं कार्यकर्ता नहीं पत्रकार हूं। मैं गया भी इसीलिए था ताकि ठाकरे जी से लंबा इन्टरव्यू कर सकूं। यहां राजनिवास में पटवाजी, कैलाश जोशी, विक्रम वर्मा, नंद कुमार साय जैसे दिग्गज उनकी अगवानी में खड़े थे। ठाकरे जी के साथ जीप से उतरने पर सबकी नजरे मेरी ओर भी गई। ठाकरे जी के हांथ में मेरा सौंपा हुआ अखबार था, जिसमें चुनाव के मद्दे नजर मेरा एक विश्लेषण था। बैठक के बाद मुझे पता चलाकि ठाकरे जी उस अखबार को लहराते हुए नेताओं से कहा था कि ये अखबार ठीक लिखता है कि हम आगे बढे नहीं है अपितु कांग्रेस पीछे हटी है इसलिए भाजपा का माहौल दिख रहा है अभी काफी कुछ करने की जरूरत है। शाम को राजनिवास में पटवाजी से मिलने पहुंचा। वे बड़े स्नेह से मिले और बोल-शुकल जी बहुत करारा लिखते हो।
पटवाजी की भाषण शैली के मुरीदों की संख्या लाखों में है। किस्सागोई के साथ धारदार व्यंग आम जनता पर सीधे उतर जाता था। पटवाजी के भाषणों को जस का तस उतार दिया जाए तो उसके तथ्य-कथ्य कई व्यंगकारों की रचना पर भारी पड़ेगे। विन्ध्य में जब वे आते थे तो उनके स्वाभाविक निशाने पर अर्जुन सिंह वे श्रीनिवास तिवारी होते थे। और जिस शानदार व्यंगशैली से इन पर प्रहार करते थे कि सुनने वाले सालों-साल तक गुदगदाते रहते थे। ‘चुरहट के कुंवर कन्हैय्या’ और ‘तिवारी जी का डबल बेड’’ वाले दो जुमले आज ही किसी ने सुनाए, पटवाजी को याद करते हुए। बहरहाल 90 में भाजपा की सरकार बनी और पटवाजी ने दूसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ ली। इससे पहले वे प्रदेश की जनता पार्टी की सरकार में एक महीने (20 जनवरी 80 से 17 फरवरी 80 तक) के मुख्यमंत्री रह चुके थे। यह चुनाव किसानों की कर्जामाफी और हर खेत को पानी हर हाथ को काम के नाम पर लड़ा गया था। मुख्यमंत्री बनने के अगले महीने ही वे रीवा आए और मनगवां में किसान ऋणमुक्ति सम्मेलन में एक वृद्ध महिला को ऋणमुक्ति प्रमाण पत्र सौंपते हुए उसके पांव छू लिए। यह तस्वीर उनके पूरे कार्यकाल तक सरकारी प्रचार प्रसार में आयकानिक बनी रही।
‘नब्बे की प्रदेश भाजपा सरकार नए खून व नए जोश से लबरेज थी। प्रतिपक्षा में थे पं.श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल बोरा, कृष्णपाल सिंह और भी कई दिग्गज जो विधानसभा में चुनकर पहुंचे थे। श्री शुक्ल नेता प्रतिपक्ष थे। विपक्ष ने एक वर्ष के भीतर ही पटवा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा। मैंने ऐसी ऐतिहासिक बहस विधानसभा में पहली बार देखी-सुनी। पटवाजी ने जवाब के लिए कमान युवा विधायको को सौंपी जिसके अगुआ थे शिवराज सिंह चौहान। प्रतिपक्षी कांग्रेस के दिग्गजों के जवाब में शिवराज सिंह चौहान ने एक घंटे का भाषण दिया मुझे याद है कि श्यामाचरण और अर्जुन सिंह की ओर इंगित करते हुए श्री चौहान ने यह कहते हुए अपने भाषण पर विराम दिया था-सूपा बोले तो बोले, चलनी क्या बोले जिसमें छेदय छेद हैं। प्रस्ताव गिर गया। सत्रावसान के रात्रि भोज में पटवा जी को प्रणाम करने का मौका मिला तो बरबस ही पूछ बैठा शिवराज जी जैसे मेधावी युवा नेता को मंत्रिमण्डल से बाहर क्यों रखा है दादा? पटवा जी बोले-शुकल जी अपना शिवराज लंबी रेस का घोड़ा है देखते जाइए।
पटवाजी की पारखी नजर के सभी कायल थे। यह सर्वज्ञात है कि शिवराज जी को मुख्यमंत्री बनाने की पृष्ठिभूमि पटवाजी ने ही तैय्यार की। पटवाजी से आखिरी संवाद पिछले वर्ष तब हुआ जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के दस वर्ष पूरा होने पर मुझे विशेष सामग्री तैय्यार करने का काम मिला उसमें पटवाजी का इन्टरव्यू भी शामिल था। पटवाजी ने राजनीति के बारे में बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा था ‘यहां कोई किसी का गुरू या चेला नहीं होता, सब अपने प्रारब्ध और कर्म के हिसाब से आगे बढ़ते हैं। राजनीति में कभी कोई किसी की जगह नहीं ले सकता सबको अपनी अपनी जगह बनाना पड़ती है। पटवाजी मध्यप्रदेश की राजनीति की आत्मा में सदा-सदा के लिए चस्पा रहेंगे सरकार किसी की आए-जाए उनकी स्थापनाएं, आदर्श और सिद्धान्त सबके लिए अपरिहार्य रहेंगे।