Friday, January 23, 2015

.. इजराइली मॉडल के बरक्स

चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी के साथ भारत को जिस सामरिक तरीके से घेरने की

व्यूह रचना की जा रही है, उसका जवाब अब जीरो टालरेन्स का इजराइल मॉडल ही है। संघ
प्रमुख मोहन भागवत जी ने संघ की सागर शिविर के बाद अपने सार्वजनिक संबोधन में भारत
को इस तरह की रणनीति अख्तियार करने के लिए संकेतों में अपनी बाते रखी हैं। श्री भागवत ने
विस्तार से वह दृष्टान्त रखा कि यहूदियों ने किस तरह इजराइल को एक मजबूत और संप्रभु राष्ट्र
के रूप में खड़ा किया कि आज दुनिया के किसी देश में इतनी हिम्मत नहीं कि वह  उसकी ओर
आँखे तरेर सके।
दरअसल पाकिस्तान जिस तरह शैतान की धुरी में बदल चुका है उसे इजराइल शैली में
ही जवाब देना होगा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार बनने के बाद मोर्चे पर जिस तरह जैसे
को तैसा की रणनीति अपनाई गई उसका असर पाकिस्तान में भी दिख रहा है और चीन में। मोदी
के पहले तक जो भाषा भारत बोला करता थ वही अब ये दोनों पड़ोसी बोल रहे है। सामरिक
नीति पर कामयाबी की दिशा में यह सराहनीय कदम है। लेकिन इससे और आगे बढऩे से पहले
हकीकत के फलक पर खड़े होकर एक बात गौर करना होगी। इजराइल जिन मुल्कों से घिरा है
उनके पास आणविक हथियार नहीं हैं तथा उसकी पीठ पर अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस जैसे
नाटो देशों का हाथ है। यहां पाकिस्तान एटमी ताकत से लैश है, उसकी शैतानियत की गर्भनाल
इन्हीं एटमी हथियारों के नीचे गड़ी है। हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक इन्स्टीट्यूट साइन्स एन्ड
इन्टरनल सिक्यूरिटी ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि पाकिस्तान अपनी चौथी एटामिक
रियेक्टर इकाई खुशाब पर तेजी से काम कर रहा है, यहाँ परमाणु हथियारों में उपयोग किए
जाने वाले प्लूटोनियम को संवर्धित किया जाएगा। अमीरिकी खुफिया सेटेलाइट ने १५ जनवरी
को वहां की तस्वीरें भी जारी की है। पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र मुस्लिम देश है जिसके पास
यह एटमी ताकत है। सही मायने में पूछा जाए तो इस्लामिक आतंकवाद को भी यहीं से ऊर्जा
मिलती है। अब तक दुनिया में जितनी भी बड़ी आतंकी वारदातें हुयी हैं उसका प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष
तौर पर पाकिस्तान से सम्बन्ध रहा है। चाहे वह ९/११ की घटना हो यया मुंबई की। चार्ली एब्दो
की घटना के बाद सबसे कड़ी प्रतिक्रिया भी पाकिस्तान में ही हुई है। अमेरिका ने जिस हाफिज
सईद को वांछित अपराधी मानते हुए करोड़ों डालर का इनाम घोषित किया है वहीं हाफिज
चार्ली-एब्दो की घटना के बाद लाहौर बंद व मिलेनियम मार्च की ऐलान करता घूम रहा है।
पाकिस्तान को सेवा-चिकित्सा व शिक्षा के क्षेत्र में अमेरिका जितना भी अनुदान देता है उसका
हिस्सा हाफिज के जमात-उद-दावा के खाते में चला जाता हैं और उसी रकम से कश्मीर में जब-
तब दबिश देने वाले आतंकी तैय्यार होते हैं।
पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति अभी भी भारत के लिए एक अबूझ पहेली की
भांति है। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि अमेरिका सबकुछ जानते हुए भी आँखे मंूदे हुए है,
और उसी की खैरात में दी गई रकम से अप्रत्यक्ष रूप से आतंकी संगठन पल रहे हैं। जबकि संयुक्त
राष्ट्र संघ की सहमति से अमेरिका ने इराक पर इस संदेह के आधार पर हमला किया था कि वहां
उसने जैविक व रासायनिक हथियार जुटा लिए हैं। अमेरिका को वो नरसंहार के हथियार मिले
या नहीं लेकिन इराक मिट्टी में मिल गया और सद्दाम हुसैन को चूहे की मौत मिली। यह निष्कर्ष
भी अमेरिकी का ही है कि पाकिस्तान की मिलिट्री और उसकी खुफिया एजेन्सी आईएसआई
आतंकवादी संगठनों से मिले हुए हैं और वे इनका इस्तेमाल पड़ोसी देशों के खिलाफ रणनीतिक
तौर पर करते हैं। पाकिस्तान की जम्हूरियत भी वहां की मिलिट्री की बूटों के नीचे दबी है। वहां
लोकतंत्र महज मुखौटा हैं। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के एटमी हथियार सर्वदा असुरक्षित हैं और
जो मिलिट्री एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को पाल सकती है वह किसी भी हद तक जा
सकती है। पेरिस की घटना के बाद इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ जिस तरह दुनिया के देश
जुटते जा रहे हैं और आज नहीं तो कल एक निर्णायक जंग छिडऩी ही है ऐसी स्थिति में यदि
पाकिस्तान के एटमी हथियारों का जखीरा आतंकवादियों के हाथ लग गया तो दुनिया का क्या
हश्र होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। जेहाद के नाम पर आतंक का कारोबार करने
वाले आईएसएस, अलकायदा और तालीबान जैसे संगठनों के शुभचिन्तक पाकिस्तान की
मस्जिदों के बाहर मिलिट्री में भी हैं व वहां के राजनीतिक संगठनों में भी।
इन स्थितियों के चलते अब वक्त की मांग यह है कि पाकिस्तान के परमाणु प्रतिष्ठान को
संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी निगरानी में लेकर इस बात का परिक्षण करे कि पाकिस्तान का परमाणु
कार्यक्रम कितना शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है और कितना उसके शैतानी मंसूबों के लिए। यदि
ऐसा होता है तो उसका सीधा असर इस्लामिक आतंकवाद को काबू करने में दिखेगा। परमाणु
शक्तिविहीन पाकिस्तान में कोई आतंकी शिविर भी नहीं चल पाएंगे क्योंकि ऐसी स्थिति में इन
शिविरों को निपटाने में भारत कोई ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। वैसे मोदी ने मोर्चें पर जीरो टॉलरेंस
की नीति का पालन करने के लिए जिस तरह से भारतीय पलटन को निर्देश दिए हैं और उसका
त्वरित अमल हुआ है वह- देश की सुरक्षा के लिए इजराइली मॉडल की ओर ही बढ़ा हुआ पहला
कदम ही समझिए।

(लेखक - वैचारिक मासिक 'चरैवेति के संपादक है)

पाकिस्तान में है वैश्विक आतंक की गर्भनाल

संयुक्त राष्ट्र की सहमति से अमेरिका ने इराक पर महज इसलिए हमला किया था क्योंकि

उसे संदेह था कि सद्दाम हुसैन नरसंहार के लिए जैविक और रासायनिक हथियार जुटा चुके हैं।
विनाश के ये हथियार मिले या नहीं मिले पर बगदाद धूल में मिल गया और सद्दाम हुसैन को चूहे
की मौत मिली। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान परमाणु हथियारों का जखीरा जमाकर रहा है और
उसकी मिलिट्री तथा खुफिया एजेन्सी आतंकियों को पाल-पोस रही हैं फिर भी न तो संयुक्त राष्ट्र
संघ को कोई फिकर हो रही है और नहीं अमेरिका उसके परमाणु जखीरे को अपने कब्जे में लेने
की कोई पहल कर रहा है। भारत की सुरक्षा की चिन्ता करने वालों के लिए यह यक्ष प्रश्न की
अमेरिका के थिंक टैंक इन्स्टीट्यूट फार साइंस एन्ड इन्टरनल सिक्योरिटी ने अपनी ताजा
रिपोर्ट में कहा है कि पाकिस्तान में परमाणु बम बनाने लायक प्लूटोनियम तैयार करने वाले चौथे
परमाणु रियेक्टर खुशाब में काम शुरू हो गया है। इन्स्टीट्यूट ने १५ जनवरी को सेटेलाइट से
मिली तस्वीरों को भी आधार माना है जिसमें चौथी इकाई पर जोरों से काम चल रहा है।
पाकिस्तान एक मात्र इस्लामिक देश है जिसके पास परमाणु बम बनाने की तकनीक है और वह
एटमी हथियारों का जखीरा भी जमा करके रखा है। पता नहीं क्यों अभी तक ये दुनिया को ये
बात समझ में नहीं आ रही है कि इस्लामिक आतंकवाद की गर्भनाल भी इन्हीं परमाणु बमों के
जखीरे में गड़ी है। चाहे अमेरिका की ९/११ की घटना हो या अन्य कोई आतंकी वारदातें सभी के
कनेक्शन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से पाकिस्तान के साथ जुड़े हैं। ओसामा बिन लादेन की
एबटाबाद में सुरक्षित मिला था और वहीं भारत सब के लिए सबसे बड़े वांछित अपराधी दाउद
इब्राहिम और हाफिज सईद भी बेखटके घूम रहे हैं, उन्माद का कारोबार कर रहे हैं। पाकिस्तान में
लोकतंत्र के किरचे-किरचे वैसे भी बिखरे हुए है, वहां की मिलिट्री और खुफिया एजेन्सियों का
आतंकवादियों से गहरा संबंध है, कई बार यह बात साबित हो चुकी हैं। अब खतरा यह है कि
जिस दिन इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ दुनिया में निर्णायक युद्ध छिड़ेगा उस दिन परमाणु
हथियारों का यह जखीरा आतंकी समूहों के हाथ लगने से शायद ही कोई रोक पाए। ऐसे में अब
यह जरूरी हो गया है कि पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को मानव विरोधी घोषित करते हुए
संयुक्त राष्ट्र संघ उसके अणविक हथियारों के जखीरे को अपने नियंत्रण में ले। अमेरिका को भी
पाकिस्तान में वैसी ही कार्रवाई करना चाहिए जैसा कि उसने इराक में की थी क्योंकि पाकिस्तान
में जम्हूरियत वहां की मिलिट्री के हाथों की कठपुतली है।
आतंकवाद को लेकर अपने दोहरे मापदण्डों के चलते पाकिस्तान दुनिया के सबसे
अविश्वसनीय और खतरनाक देश के रूप में उभर रहा है। यहीं वजह है कि पेरिस की चार्ली-एब्दो
की घटना के बाद यदि सबसे ज्यादा विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं तो पाकिस्तान में ही हो रहे हैं। ये
अमेरिका का कैसा खेल व कैसी मजबूरी है कि जिस हाफिज सईद के लिए वह करोड़ों डालर
रुपए का ईनाम घोषित करता है वहीं हाफिज आतंकवाद के समर्थन में लाहौर बंद व मिलेनियम
मार्च का ऐलान करता है। पाकिस्तान के सेवा-शिक्षा-चिकित्सा क्षेत्र में जो वह अरबों डॉलर का
अनुदान देता है वह हाफिज के कथित समाजसेवी संगठन जमात-उददावा के माध्यम से उन
आतंकी शिविरों तक पहुँच जाता है जहां भारत के खिलाफ विध्वंश की कार्रवाई के लिए आतंकी
तैयार किए जाते हैं। भारत के लिए यह जरूरी है कि अमेरिका से यह कैफियत पूछें कि इतना सब
होते हुए और देखते हुए भी आखिर पाकिस्तान उसके लिए कैसी मजबूरी है।
एशिया के इस उपमहाद्वीप में भारत की स्थिति इजराइल सी बनती जा रही है। एक ओर
चीन तो दूसरी ओर पाकिस्तान। सीमा पर दोनों की नापाक हरकतें। श्री नरेन्द्र मोदी के
प्रधानमंत्री बनने के बाद यद्यपि भारत ने जैसे को तैसा जवाब देने की शुरूआत कर दी है और
उसका असर भी दिखने लगा है लेकिन हमें अपनी रक्षा के लिए जीरो टाँलरेंस का इजराइली
मॉडल अख्तियार करना होगा। इजराइल के लिए सहूलियत यह है कि उसके दुश्मन देशों के पास
परमाणु हथियार नहीं है लेकिन यहाँ तो पाकिस्तान की शैतानियत का ऊर्जा केन्द्र ही उसके
परमाणु प्रतिष्ठान हैं। यदि दुनिया के देशों को वास्तव में आतंकवाद के खिलाफ लडऩा हैं तो सबसे
पहले पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर नजर व नियंत्रण रखना होगा। यह काबू में आ जाए तो
आतंकवाद को मसलना चुटकी का खेल है क्योंकि उसकी गर्भनाल इसी इस्लामिक बम में गड़ी है।

Thursday, January 22, 2015

'जब रेप होता है तो धर्म कहाँ जाता है?'

 मंगलवार, 12 अगस्त, 2014 को 12:54 IST तक के समाचार
म्यूज़ियम का एक दृश्य
"पाँच पांडवों के लिए पाँच तरह से बिस्तर सजाना पड़ता है लेकिन किसी ने मेरे इस दर्द को समझा ही नहीं क्योंकि महाभारत मेरे नज़रिए से नहीं लिखा गया था!"
बीईंग एसोसिएशन के नाटक 'म्यूज़ियम ऑफ़ स्पीशीज़ इन डेंजर' की मुख्य किरदार प्रधान्या शाहत्री मंच से ऐसे कई पैने संवाद बोलती हैं.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से मंचित इस नाटक में सीता और द्रौपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से महिलाओं की हालत की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे ने.
रसिका कहती हैं, "सीता को देवी होने के बाद भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और इसे सही भी माना जाता है लेकिन मेरा मानना है कि 'अग्नि परीक्षा' जैसी चीज़ें ही रेप को बढ़ावा देती हैं."

ये विरोध का तरीका है

म्यूज़ियम का एक दृश्य
नाटक में शूर्पणखा पूछती है, "मेरी गलती बस इतनी थी कि मैंने राम से अपने प्यार का इज़हार कर दिया था? इसके लिए मुझे कुरूप बना देना इंसाफ़ है?"
शूर्पणखा सवाल उठाती है, "अगर शादीशुदा आदमी से प्यार करना ग़लत है तो राम के पिता की तीन पत्नियां क्यों थीं?"
रसिका कहती हैं, "16 दिसंबर को दिल्ली गैंगरेप के बाद इंडिया गेट पर मोमबती जलाने और मोर्चा निकालने से बेहतर यही लगा कि लोगों तक अपनी बात को पहुंचाई जाए और इसके लिए इससे अच्छा माध्यम मुझे कोई नहीं लगा."

कट्टरपंथियों का डर नहीं

म्यूज़ियम का एक दृश्य
नाटक में सीता का किरदार निभाने वाली प्रधान्या शाहत्री हैं, "सच से डरना कैसा? ये हमारा विरोध करने का तरीका है और हम जानते हैं, हम ग़लत नहीं हैं."
जब आस्था का मामला आता है तो घर परिवार से भी विरोध होता है. द्रौपदी की भूमिका निभाने वाली किरण ने बताया कैसे घर वाले उनसे नाराज़ हो गए थे.
रसिका का कहना था, "ये पहली बार नहीं है कि किसी ने द्रौपदी और सीता के दर्द को लिखने की कोशिश की है और उस वक़्त धर्म कहाँ जाता है जब किसी लड़की का रेप हो जाता है."

हिंदू सभ्यता पर हमला?

म्यूज़ियम का एक दृश्य
"कुंती ने हमारा सेक्स टाइमटेबल बनाया ताकि किसी भाई को कम या ज़्यादा दिन न मिलें." द्रौपदी जब मंच से ये संवाद बोलती हैं तो तालियां गूंज उठती हैं.
नाटक की सीता पूछती हैं, "लोग पूछेंगे कि सीता का असली प्रेमी कौन था? वो रावण जिसने उसकी हां का इंतज़ार किया या वो राम जिसने उस पर अविश्वास किया?"
सिर्फ़ हिंदू मान्यताओं पर ही छींटाकशी क्यों, इसके जवाब में वह कहती हैं, "हमने ये कहानियां बचपन से सुनी हैं. हमें ये याद हैं और इसलिए हम इसके हर पहलू पर गौर कर सकते हैं."

वैदिक वाड्.मय से निकला है विज्ञानं

मिथिला प्रसाद त्रिपाठी
संस्कृत का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य तो वेद ही है,ये भारतीय चिन्तन एवं भारतीय ज्ञान विज्ञान के लिए भी सर्वाधिक प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थ है। उन दिनों भी भारत मंे विज्ञान के कई क्षेत्र विकसित थे। भौतिकषास्त्र, रयायनषास्त्र, वनस्पतिषास्त्र, कृषिविज्ञान, गणितषास्त्र, नक्षत्रविज्ञान, जीवविज्ञान, धातुविज्ञान विज्ञान,आयुर्वेद,स्थापत्य विज्ञान,षिल्पषास्त्र,विमान विज्ञान एवं कलाकौषल का अध्ययन अध्यापन एवं प्रयोग प्रचुरता में मिलता था । वैदिक वाड्.मय में अनेक स्थलों पर विज्ञान के विकसित स्वरूप का विवरण प्राप्त होता है। अष्विनी कुमारों द्वारा उपमन्यु की नेत्रज्योति वापस ला देना,अनसूया द्वारा शाण्डिली के पति को पुनर्जीवित कर देना,विष्पला की टूटी टांग का जोड़ा जाना,दधीचि के कटे षिर को पुनः जोड़ देना,गणेष के षिर को हाथी का षिर कर देना ,दक्ष के अण्डकोष का संयोजन सब चिकित्सा के शीर्ष विकास का ही संदेेष देते है। देवों के अन्तरिक्षयान, दिव्यास्त्रांे की प्राप्ति,इच्छागामी पुष्पक और अन्यान्य विमान,अमृतसंजीवनी विद्या से मरे हुए को जीवित कर देना सब प्राचीन भारत के समृद्ध वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान के प्रमाण से है। भृगुसंहिता में कृषिविज्ञान, जलविज्ञान, खनिज विज्ञान, नौकाविज्ञान, रथविज्ञान, अग्नियान, प्राकारनिवेष, नगरनिवेष और यंत्रषास़्त्र का निरूपण मिलता है।अगस्त्य संहिता (1550 शकब्द) में कापर सल्पेट,कापर प्लेट और जिंक एमलगम के साथ पारा केा मिलाकर विद्युत उत्पन्न करने का सोना,लोहा,तांबा,सीसा,टीन और कांसा का उपयोग बर्तन बनाने मंे किया जाता था और चरक,सुश्रुत,नागार्जुन आदि ने सोना,चांदी,तांबा,लोहा,अभ्रक और पारा आदि से औषधियां बनाने का भी निरूपण किया है। नागार्जुन ने रसरत्नाकर में धातु परिष्करण की आसवन भंजन आदि विधियों का वर्णन किया है। कच्चे जस्ते से शुद्धजस्ता बनाने की विधि चैथी शती ई पूर्व. ही भारत में प्रचलित थी जो राजस्थान के जबर क्षेत्र की खुदाई में मिले द्रव्यों से प्रमाणित हो जाता है। यहाॅ इस्पात श्रेष्ठ रूप में मिलता था। यहाॅ
की बनी तलवारंे अरब देष और फारस देष में प्रसिद्ध थीं। 1600 वर्षाे से बिना जंग लगे खड़ा हुआ महरौली दिल्ली के पास का लौह स्तंभ भारत के प्रगत लौह उद्योग को प्रमाणित करता है। 3000 वर्ष पूर्व भी भारत में मिश्रधातु बनाने की कला विद्यमान थी। इस प्रकार धातुकर्म प्राचीन भारत में प्रगत स्थिति में था।
यन्त्रविज्ञान भी पर्याप्त समृद्ध था 1150 ई.में के.वी. वझे रावसाहब ने समरागंण सूत्रधार का सम्पादन किया था उनके विष्लेषण से यह ज्ञात होता है कि यंत्र ज्ञान बहुत विकसित था।1675 ई. में न्यूटन द्वारा खोजे गए गति के नियमों के समान ही वैषेषिक दर्षन के प्रषस्तपाद में वेग संस्कार का वर्णन है। कणाद ने वैषेषिक दर्षन में कर्म अर्थात् मोषन को कारण के आधार पर जानने नौका विज्ञान भी भारत के सुदूर अतीत में समृद्ध स्थिति में था। समुद्र यात्रा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। गुजरात के लोथक की खुदाई से भी यही प्रमाणित हुआ है कि 2450 ई. के पूर्व से ही बंदरगाहों में मिश्र देष से सामुद्रिक व्यापार किए जाते थे। वराह मिहिर (5वी शती ई.) ने बृहत्संहिता में जहाज निर्माण का विवेचन मिलता है। राजा भोज (11 वी शती ई.) ने भी युक्तिकल्पतरू नामक ग्रंथ में जहाज निर्माण का वर्णन किया है। भोज ने जहाज में लोहे का प्रयोग नहीं करने का उल्लेख किया है क्योंकि समुद्री चट्टानों में चुम्बकीय शक्ति के होने की संभावना सदा ही बनी रह सकती थी। आज भी नौ सेना का ध्येय वाक्य ‘‘शंनोवरूणः’’ स्वीकृत है जिसका अभिप्राय है कि वरूण अर्थात् जलदेवता हमारे ऊपर  कृपा करे या कल्याण करें। भारत देष ही अंकविद्या या गणित का जन्मदाता है। शून्य और नौ अंकों के संयोजन से अनन्त गणनाएं किए जाने की सामथ्र्य भारत की ही थी। विष्व को दषमलव भी भारत ने ही दिया है। बीजगणित और रेखा गणित भी भारत में ही सर्वप्रथम पैदा हुए है।
बोदागणित को अव्यक्त गणित भी कहा जाता है। वैदिक युग में यज्ञों के मण्डपों वेदियों और कुण्डों का निर्माण करने के लिए गणितीय सूत्रों का प्रयोग होता था। वैदिक युग के मेधातिथि नामक ऋषि ने 1012 तक की बड़ी संख्याओं को जानते थे। वे अपनी गणना में दस संख्या और उसके गुण को का प्रयोग करना जानते थे। यजुर्वेद के 17 वे अध्याय के दूसरे मंत्र में दस खराब तक की संख्या का उल्लेख मिलता है-100000000000 जैन ग्रंथ अनुयोग द्वार सूत्र जो कि 100 वर्ष ई.पू.का है,इसमें 10140 अर्थात् असंख्य तक गणना की
गयी है। 200 वर्ष ई.पू. पिंगल के छन्दः सूत्र में शून्य का उपयोग किया गया था। छटी शती ई.के गणितज्ञ श्रीब्रम्हदत्त ने शून्य विषयक
1. शून्य मंे घटाना या जोड़ना परिणाम नहीं बदलता।
2. शून्य में किसी भी संख्या का गुणा करने पर शून्य ही आता है।
3. कोई संख्या शून्य से विभाजित होने पर परिणाम अनन्त देती है।
आर्यभट्ट,ब्रम्हगुप्त,भास्कराचार्य,श्रीधराचार्य जैसे गणितज्ञ भारत में हुए है। अनिवार्य वर्ग समीकरण का हल यहाॅ के बीजगणित की उपलब्धि है। यह ब्रम्हगुप्त ने सातवी शती ई.में ही प्रस्तुत कर दिया था इसे जान पेल ने 1688 ई. में हल किया जिसे पेल समीकरण कहते है परन्तु यह एक हजार वर्ष के बाद आया।
शुल्ब सूत्रों में वर्ण और आयत बनाने की विधि प्राप्त होती है। भुजा के संबंध को लेकर वर्ग के समान आयत,वर्ग के समान वृत्त आदि का भी इसमें वर्णन मिलता है। त्रिकोण के बराबर वर्ग खींच कर ऐसा वर्ग बनाना जो किसी भी वर्ग को दो गुना,तीन गुना या एक तिहाई हो,ऐसा वर्ग बनाना जिसका क्षेत्रफल उपस्थित वर्ग के क्षेत्र के समान हो- सब-षुल्बसूत्र में उपलब्ध होता है। त्रिकोणमिति का भारत में अनुपम ज्ञान था ज्या,कोटिया,उत्क्रमज्या का आविष्कार हुआ था। छठी शती में वराहमिहिर के सूर्य सिद्धान्त में त्रिकेाणमिति का वर्णन है और सातवी शती ई.के ब्रम्हगुप्त के त्रिकोणमिति विवेचन में ज्या सरणि भी मिलती है।विविध यज्ञों मंे अनेक प्रकार की वेदियां बनायी जाती थीं परन्तु उनका क्षेत्रफल समान ही रहता था। बोधायन ने अपने
शुल्बसूत्र में पायथागोरस से  1000 वर्ष पहले ही उस प्रमेय को बताया था। आर्यभट्ट ने आज से 1500 वर्ष पहले ही पाई का मान 3.1416 बताया था। पुरी के शंकराचार्य आचार्य भारतीकृष्ण तीर्थ ने वैदिक गणित के 16 मुख्य सूत्र एवं 13 उपसूत्रों का विवेचन किया है जिनसे गणना करना बहुत सरल हो जाता है।
भारत में प्रकृति के निरीक्षण और परीक्षण तथा उसके विष्लेषण की परम्परा वैदिक युग से ही रही है। अथर्ववेद में पौधों को उनके आकार एवं लक्षणों को ध्यान में रखते हुए सात उप विभागों में बांटा गया है-1. वृक्ष 2. तृृण 3. औषधि 4. गुल्म 5. लता 6. अवतान 7. वनस्पति पेड़ पौधो में जीवन होने की भारतीय मान्यता का वैज्ञानिक जगदीष चन्द्र बसु ने शोध पूर्वक सत्यापन कर दिया है। पराषर और सुरपाल के वृक्षायुर्वेद में बीज से वृक्ष बनने तक विष्लेषण मिलता है। वनस्पतियों के चार प्रकार का उल्लेख तो चरक  ने किया है
1. पुष्प बिना फल आ जाना - गुलर (उदुम्बर) कटहल
2. फूल के बाद फल लगना - आम,अमरूद,आदि वानस्पत्य
3. फल पकने पर स्वयं सूखकर गिरना -  गेहूं, यव, चना आदि (औषधि)
4. जिनके तन्तु निकलते है - लताएं आदि।
‘‘या फलिनीर्या अफला अपुष्पा याष्च पुष्पिणी’’ मंत्र में भी चार प्रकार-
पेड़ो का नाम पादप होता है जिससे लगता है कि भारतीय लोग वृक्षों का जडो से द्रवरूपी आहार लेना जानते थे। पेड़ मूल से पानी पीते है। कृषि विज्ञान के रूप  में विकसित हुआ और पाराषर ऋषि ने         कृषि पाराषर’’ तो लिखा ही है परन्तु चाणक्य ने अर्थ शास्त्र में कृषि एंव उनके उत्पादन,सिंचाई व्यवस्था आदि का वर्णन किया है। दो प्रजातियों से नई प्रजाति को विकसित करना वराहमिहिर की बृहत संहिता में चिकित्सा के विषय में वैदिक ऋषियों ने पर्याप्तचिन्हन किया था। अथर्ववेद में जल चिकित्सा,सूर्यकिरण चिकित्सा और मानसिक चिकित्सा का वर्णन तो मिलता ही है। मणिमंत्र और औषधियों का प्रयोग भी प्राप्त होता है। 600 वर्ष ई. पूर्व चरक का अत्रेय संप्रदाय का ग्रन्थ चरक संहिता एवं शल्यकर्म का ग्रन्थ सुश्रुत संहिता प्राप्त होता है। सर्वप्रथम चरक ने बताया की शरीर में हृदय एक मुख्य अवयव है, वे शरीर में रक्त क्रिया के संचार को भी जानते थे। वे यह भी बताते है कि कुछ बीमारियाॅ आॅखों से अदृष्ट कीटाणुओं से भी होती हंै। उस समय के प्रतीक्षित चिकित्सकों और चिकित्सालयों का वर्णन भी चरक ने किया है। वे सर्वप्रथम चयापचय,पाचन और शरीर प्रषिरक्षा का उल्लेख करते है। शरीर विज्ञान,निदान भू्रण विज्ञान,आनुवंषिकी,षिषुलिंग निष्चय चरक को ज्ञात था। सुश्रुत ने शवविच्छेदन प्रक्रिया को आवष्यक माना है वे शल्य क्रिया के लिए 125 उपकरणों की सूची भी देते है। उनका मत था कि यथावष्यक अन्य उपकरण भी तैयार कर लेना चाहिए वे चिमटियंो,चाकू,सुईयों और नलिका के आकार के उपकरणों का उल्लेख करते है। वे पत्थर निकालने ने टूूटी हड्यिों को जोड़ने और मोतियाबिन्द की शल्यचिकित्सा में दक्ष चिकित्सक थे। संसार में प्लास्टिक सर्जरी के जनक सुश्रुत केा माना जाता है । सुश्रुत संहिता में नाक,हौठ कान आदि की प्लास्टिक सर्जरी का वर्णन मिलता है। आत्रेय ने नाड़ी और श्वास की गति से स्वास्थ रक्षा का विवेचन किया। पतंजलि ने योग से निरोग रहने का उपाय बताया। बुद्ध के चिकित्सक आचार्य जीवक ने असाध्य रोगों की चिकित्सा विधि बतायी। वाड्.मय ने अष्टांग संग्रह एवं अष्टांग हृदय ग्रन्थो का निर्माण किया रोग निदान हेतु माधवकर का रोगविनिष्चय या रूधवनिदान प्रसिद्ध है तथा भावमिश्र का भावप्रकाष भी निघण्टु के साथ ही शालिहोत्र नामक पशुुचिकित्सक के ‘हय आयुर्वेद’ अष्व लक्षणषास्त्र तथा अष्वप्रषस्त्र नामक तीन ग्रन्थ मिलते है। इनमें अष्वचिकित्सा का वर्णन है। पालकाप्य ने हस्ति आयुर्वेद लिखा है जिसमें हाथियों की शरीर रचना और इनके रोगों का विवरण है । रोगों की शल्य क्रिया और औषधि चिकित्सा के साथ देखभाल एवं आहार भी वर्णित है। घोडे,हाथियों,गायों,बैलौं, आदि पशुओं की चिकित्सा भी उन्नत अवस्था में थी। छठी षती ई. पूर्व कणाद ने परमाणुओं से पदार्थ बनाने का ज्ञान दिया और परमाणुओं की संरचना प्रवृत्ति और प्रकरणों की भी चर्चा की थी। रसायन विज्ञान के संस्कृत में लिखित लगभग 44 ग्रन्थों की उपलब्धता है। भारत में रत्नविज्ञान का भी उच्च कोटि का ज्ञान था। भारत में वज्र हीरा मरफत पद्मराग, मोती, महानील, इन्द्रनील, मूंगा, चन्द्रकांत, सूर्यकांत, स्फुटिक, पुष्पराग, ज्योतिरस, सौगंधिक, षंख, गोमेद रूधिर या भल्लातक, तुल्थक, सीस, पीकू प्रवाल, वैदूर्य, गिरिवज्र भुजंगमणि, वज्रमणि आदि रत्नों का प्राचीन
काल में ही ज्ञान था। रत्नों को भूमि या जल से निकालना आभूषणों में जड़ देना और हीरा छेदन का भी उनदिनों ज्ञान था। चार पुरूषार्थांे में काम तीसरा पुरूषार्थ है। काम शास्त्र का 1000 अध्यायों का नन्दी का ही पहला ग्रन्थ है। इसे वाम्रव्य ने 150 अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। वात्सयायन का कामसूत्र सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है इसमें 36 अध्याय है। चैसठ कलाएं भी इसमें वर्णित है। कुट्टनीमत और रति रहस्य भी दो और ग्रन्थ कामविद्या के प्राप्त होते है। नारद ने षिव से संगीतषास्त्र का अध्ययन किया था नारदषिक्षा,रागनिरूपण,पंचमस्तर संहिता,संगीत मकन्द आदि प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ है। उमा महेष्वर,भरत,नन्दी,वासुकि,नारद,व्यास आदि संगीत के प्रसिद्ध आचार्य हुए हंै। भृगुषिल्पसंहिता में 16 विज्ञान तथा 64 प्रौद्योगिकीयों का विवेचन प्राप्त होता है। कृष्णाजी दामोदर वझे ने हिन्दी षिल्प षास्त्र नामक ग्रन्थ में 500 प्रौद्योगिकी विषयक ग्रन्थों की सूची दी है। कुछ नाम इस प्रकार है - विष्वमेदिनीकोष, षंखस्मृति, षिल्पदीपिका, वास्तुराजवल्लभ, भृगुसंहिता, मयमतम्, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधारा, कष्यपसंहिता, बृहत्पाराषरीय, कृषिनिसारः, सौरसूत्र, मनुष्यालयचन्द्रिका, राजगृहनिर्माण, दुर्गविधान, वास्तुविद्या,  युद्धजयार्णव आदि। काष्यपषिल्प प्रौद्योगिकी का ग्रन्थ है। प्राचीन खनन से संबद्ध भी संस्कृत ग्रन्थ मिलते है- रत्न परीक्षा लोहार्णव धातुकल्प, लौहपदीय, महावज्रभैरवतंत्र तथा पाषाणविचार षिल्पविद्या का ग्रन्थ नारदषिल्पषास्त्र है। संस्कृत वाड्.मय में वेदो से प्रारम्भ कर अद्यावधि अनेकानेक ग्रन्थों की सूची उपलब्ध होती है जिनसे यह प्रतिपादित हो जाता है कि भारत में एक समुन्नत विज्ञान की परंपरा रही है जिन्हे हम आयुर्वेद एवं धर्मषास्त्र में स्वस्थवृत्त यानि यम धर्म कहकर स्वीकारते है। उनकी वैज्ञानिकता स्वास्थ्य रक्षणता   सांस्कृतिक निष्ठता एवं सामाजिक संघटनात्मकता के रहस्य भरे पडे़ है। जिन्हें हमने कर्मकाण्ड,आडम्बर,लोकविष्वास,एवं आस्था के नाम पर आज नकारने के लिए तत्पर है उनमें भी गूढ़ वैज्ञानिकता के दर्षन होते है। स्वतंत्र भारत के सातवे दषक में हमें अपने अतीत के ग्रन्थों का आलोडन करना हो और अपने इतिहास के नाम लेखों से भरी हुई,सजी हुई एवं समन्वित संस्कृत भाषा के विपुल वाड्.मय को ध्यानपूर्वक पढ़ना ही होगा । अनेको ऐसे ग्रन्थ है जिनके भारतीय भाषाओं में अनुवाद तक नहीं मिल पा रहे है। तथा कथित आधुनिकता के प्रभाव में बेवस होकर हम सब संस्कृत की परम्परा को भूलने
भी लगे है और उसे नहीं पढ़ रहे है। वास्तु के निघण्टु के रसविज्ञान के चिकित्सा के ज्योतिष के दर्षन के वैदिक वाड्.मय के आरण्यक,ब्राहम्ण,सूत्रग्रन्थों को योजना पूर्वक भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराना और प्रकाषन कराना ही पडे़गा। भारतवर्ष के गांवो,वनों और गिरियो  में रहने वाली अनेको जातियों के पास वंष परम्परा से सुरक्षित चिकित्सा की विविध पद्धतियों की वैज्ञानिकता को समझकर हमें प्रषिक्षित करना होगा जिससे असाध्य रोगों में काम आने वाली उन वनस्पतियों को पहचानकर बचाया जा सकेगा। ये जीवनरक्षक औषधियां संरक्षित एंव सुरक्षित कर इनके उपयोग से अधिकाधिक व्यय से भी बचा जा सकता है और भारतीय गौरव का उदाहरण भी दिया जा सकेगा। भारतीय मनीषा के इन मानकों के प्रति हमे सचेष्ट होकर प्रकाषित एवं प्रसारित करने हुतु समय आ गया है।
लेखक -पाणिनि विश्वविद्यालय के कुलपति हैं 

राष्ट्रवादी चेतना के प्रखर कवि ‘निराला’

चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’ 

भारतेन्दु ने देश की विवशता को देखते हुए इकट्ठा होकर रोने और ‘भारत दुर्दशा’ का आख्यान लिखकर जिस राष्ट्रीय चेतना 

की अलख जगाई, उसका परिष्कार ‘भारत-भारती’ ‘एक फूल की चाह’ ‘विप्लव गायन’ से लेकर ‘जागो फिर एक बार’ और ‘शिवाजी 
का पत्र’ के माध्यम से आम हिन्दी जन तक हुआ।  भारतेन्दु की अलख को अनेक कवियों ने स्वर दिया है। मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आदि अनेक कवियों के बीच छायावादी कविता में सबसे ऊँचा सुर और स्वर महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का था। जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटको के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को झंकृत किया, तो निराला ने ‘बस एक बार तू और नाच जा श्यामा’ का आहवान किया। भारतीय स्वतंत्रता का बोध अतीत के पन्नों को पलटते हुए निराला ने 
कराया- ‘जागो फिर एक बार’। आमतौर पर देशवासी यह मानने लगे हैं कि ‘सर्वाइवल आॅफ द फिटेस्ट’ का सिद्धांत दार्शनिक डार्विन 
का है। निराला इससे सहमत नहीं है। वे मानते हैं कि हजारों हजार वर्ष पहले कृष्ण की गीता में यह कहा गया है।  ‘निराला’ कहते हैं- 
‘योग्य जन जीता है’/पश्चिम की उक्ति नहीं/गीता है-गीता है/ स्मरण करो बार-बार/जागो फिर एक बार। भारतीय अतीत की 
गौरवशाली परंपरा का उन्हे जितना ज्ञान और बोध था उतना अन्य किसी कवि की रचनाओं में व्यक्त नहीं हुआ। श्यामा का आहवान 
करते हुए कहते हैं- कितने ही हैं असुुर चाहिए/कितने तुमको हार/लोगों को जागृत करते हुए कहते हैं - सिंही की गोदी से/छीनता रे 
शिशु कौन? मौन भी वह रहती क्या/रहते प्राण रे अजान/ ‘निराला’ दूसरा उदाहरण भी पेश करते हैं कि एक बकरी भी अपनी संतान 
के छिनने पर तप्त आंसू बहाती है इसीलिए ये बार-बार जागने का संदेश देते हैं, यह संदेश विवेकानन्द का था- उत्तिष्ठ जाग्रत......। 
संसार में ऐसे बहुत कम कवि एवं कलाकार हुए हैं जिनका जीवन और साहित्य (कला) दोनों महान हैं। ‘निराला’ जीवन और 
साहित्य दोनों में महान थे। असाधारण कायिक गठन (ग्रीक देवता की तरह) असाधारण स्वर और सुर, महान् रचना कर्म, देशभक्ति, 
अध्यात्म, दर्शन, चिन्तन और अजीब तरह के फक्कड़ पन का नाम है ‘निराला’। अपने जीवन में जितने दुख निराला ने झेले उतने दुःख 
किसी कलाकार कवि ने शायद ही झेले हो, परन्तु ‘निराला’ ने कभी ‘आँसू’ नहीं बहाए। ‘सरोज स्मृति’ उनका एक मात्र शोक गीत है 
और यह गीत संसार भर के शोकगीतों पर भारी है जिसमेें उन्होने आत्म भाव से स्वीकार किया है। - ‘ दुख ही जीवन की कथा रही/क्या 
कहूं आज जो नहीं कही। धन्ये! मै पिता निरर्थक था/कुछ भी तेरे हित कर न सका। उनकी प्रार्थनाओं में दैन्य नहीं, निराशा नहीं है। 
भारती की वंदना करते हुए ‘भारति, जय विजय करे’ की आकांक्षा करते हैं। वे वीणा वादिनी से प्रार्थना, अपने लिए नहीं भारत के लिए 
करते हैं - प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे। ‘निराला’ ने छंदो को तोड़ा, कविता को बंधन मुक्त किया लेकिन लय-ताल-
रव-छन्द को नये ढंग से व्यक्त करने का आग्रह किया। वे शब्द-शिल्प कथ्य की नवीनता के एक मात्र कवि है- नव गति, नवलय, ताल-
छंद नव/नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव/ नव नभ के नव विहंग वृंद को/ नव पर नव स्वर दो। इतनी नवीनता सिर्फ निराला ने ही हिन्दी 
कविता को दी। कविता, कहानी, उपन्यास, रेखाचित्र, संस्मरण, अनुवाद सभी विधाओं को निराला ने नया रूप दिया। मिर्जा राजा जय 
सिंह के नाम  शिवाजी का पत्र राष्ट्रीय गौरव का अमूल्य दस्तावेज है। जिसमें पारस्परिक वैमनस्य और क्षुद्र स्वार्थ के लिए जय सिंह की 
भांति भारत को पराधीन बनाने वालों से सहयोग करने वाले लोगों की आँखे खोलने के लिए यह पत्र पर्याप्त भर नहीं स्वाधीन भारत के 
लिए भी दिशा संकेत है। भाषा के कई स्तर इस पत्र कविता में मिलते है। ‘तुलसीदास और राम की शक्ति-पूजा’ उनके काव्य का चरमोत्कर्ष है। इन रचनाओं में उन्होने आत्म-मुक्ति की साधना को नारी शक्ति-पूजा के माध्यम से व्यक्त किया है। ‘निराला’ भारतीय संस्कृति के सर्वोत्तम अंश के कवि हैं, परन्तु उन्होने जमीन पर रहने वाले भिक्षुक, दीन, विधवा, पत्थर तोड़ने वाली, झींगुर, महगू, कुकुरमुत्ता को हासिए पर नहीं केन्द्र में रखा। जिस दलित चेतना का परचम लहराने की कवायद आज के दलित लेखक कर रहे हैं उनके बरक्श ‘निराला’ ने उन दलितों के साथ जीवन साझा किया था। 
एकमेव भाव से निराला कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा और चतुरी चमार से एकात्म थे। ‘निराला’ के काव्य में द्वैत नहीं है, जीवन में 
भी तमाम विसंगतियों के वावजूद वे द्विधा मुक्त थे। ‘निराला’ की जीवन पद्वति रवीन्द्रनाथ के समीप थी। वे अच्छे गायक, वादक,कवि 
सब एक साथ थे। वे रवीन्द्र संगीत की तरह निराला-संगीत की रचना कर सके थे। परन्तु जन्मना और कर्मना विपरीत पृष्ठ भूमि के
कारण वे रवीन्द्र की तरह सफल न हो सके। अपनों की दी हुई पीड़ा पर विफरे जरूर- वे कान्यकुब्ज कुल कुलांगार/ खा कर पत्तल में करें 
छेद/ परंन्तु हारे नहीं  इसलिए कि उनमें राष्ट्रीय चेतना के मूल भाव थे जो वैयक्तिक्ता से परे थे। छायावादी कविता में जहाँ निराशा,
करूणा और आत्म पीड़ा का साम्राज्य दिखता है उनके बीच निराला एक मात्र ऐसा कवि हैं जिनकी कविता में ओज, प्रसाद, और सौंदर्य 
के गुण मौजूद हैं। ‘निराला’ ने पात्र और विषय के अनुसार भाषा को चुना- संध्या सुन्दरी, विधवा, जुही की कली आदि रचनाओं में 
जहाँ भाषा का औदार्य और गठन दिखायी पड़ता है वही भिक्षुक तोड़ती पत्थर में खड़ी बोली का सौंदर्य दिखायी पड़ता है। तुलसी दास 
और राम की शक्ति पूजा में सामासिक और आभिजात्य भाषा का प्रयोग निराला को संस्कृत-साहित्य के करीब खड़ा कर देता है। आम 
बोल-चाल और गाली गलौज की भाषा से भी वे ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में परहेज नहीं करते- अबे, सुन बे, ओ गुलाब/खून चूसा खाद का 
तूने अशिष्ट/डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट/घड़ो पड़ता रहा पानी/तू हरामी खानदानी.‘निराला के काव्य पर वांग्ला साहित्य का प्रभाव है, वे रवीन्द्र, रामकृष्ण, विवेकानन्द और अरविन्द से प्रभावित हैं। उन्होने हिन्दी अपनी पत्नी मनोहरा से सीखी थी। तुलसी के राम कभी ब्रहम ध्यान में लीन होते नहीं दिखते, निराला के राम पूरी पद्वति से 
ध्यान योग से शक्ति की आराधना कर वरदान प्राप्त करते हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ के राम मनुष्य अधिक हैं ईश्वर कम। यह शाक्त 
परंपरा का वैष्णवी परंपरा से निराला-संयोग है। ‘निराला’ भाषा, तेवर और शैली में ही प्रखर नहीं, व्यक्तित्व में भी अभी तक हिन्दी 
का कोई कवि उनके आगे नहीं है अपनी बात तर्क और हठ पूर्वक मनवा लेने में उनका कोई सानी नहीं। 
मो0ः- 9407041430

Wednesday, January 21, 2015

भारत में बाघों की संख्या बढ़ने की असली वजह

वाल्मीक थापर

  • 4 घंटे पहले
भारतीय बाघ
भारत में बाघों की संख्या 30 फ़ीसदी बढ़ने के पीछे मुख्य कारण यह है कि बाघों का शिकार कम हुआ है.
इसके अलावा सारिस्का और पन्ना जैसे वन्य अभायरण्य पर बाघों को फिर से बसाया गया है.
बाघों की नई आबादी पैदा हुई है इसलिए इसमें जीरो से पच्चीस फ़ीसदी तक बढ़ोत्तरी हुई है.
मेरी नज़र में स्वंयसेवी संगठनों ने बहुत बढ़िया काम किया है इस मामले में.
ख़ासकर उन्होंने दक्षिण भारत में बहुत बढ़िया काम किया है.

ख़राब प्रबंधन

बाघों की संख्या बढ़ने के बावजूद मैं यह नहीं मानता कि अचानक से फॉरेस्ट सर्विस बहुत बढ़िया काम करने लगी है.
फॉरेस्ट सर्विस अभी और भी बहुत से बदलाव आने ज़रूरी है तब जाकर यह बदलाव संस्थागत होगा.

बाघ
बाघों की आबादी जितनी तेज़ी से 20-30 फ़ीसदी ऊपर जा सकती है उतनी ही तेज़ी से अचानक नीचे आ सकती है.
2005 में जब बाघों की संख्या कम हो रही थी तो उसका कारण था ख़राब प्रबंधन और शिकार.
वन विभाग की लापरवाही इसकी एक बड़ी वजह रही है. पन्ना और सारिस्का इसके उदाहरण हैं जहां शिकारियों को शिकार करने का मौका मिला.
बाघ
वन विभाग के अंदर और स्वंयसेवी संगठनों की ओर से जो आंदोलन हुए उससे साथ मिलकर काम करने को बढ़ावा मिला है और शिकार में कमी आई है.
आगे के पांच सालों में बाघ की संख्या में बढ़ोत्तरी के लिए स्वंयसेवी संगठनों और वन्य जीव वैज्ञानिकों के साथ वन विभाग के संबंध को और बढ़ाना पड़ेगा.
इसमें नई पार्टनरशिप लानी होगी. निर्णय लेने में हिस्सेदारी होनी चाहिए. जैसे पासपोर्ट बनाने में टाटा कंसेलटेंसी को लाया गया है वैसे ही फॉरेस्ट सर्विस में प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप(पीपीपी) लानी होगी.
(बीबीसी संवाददाता ज़ुबैर अहमद से बातचीत पर आधारित)

Thursday, January 1, 2015

हर पल मनाएं जिन्दगी का जश्न

peoples samachar me - संपादकीय लेख
समय की गति के हिसाब से हर नया विहान ही नया वर्ष है। हर क्षण अगले क्षण की पृष्ठभूमि बनता जाता है। सृष्टि के अस्तित्व में आने के बाद से समय की गति ऐसी ही है... ऐसी ही चलती रहेगी महाप्रलय तक। महाभारत का एक दृष्टान्त है- राजसूय यज्ञ के उपरान्त महाराज युधिष्ठिर ने प्रजा को दान देने के लिए राजसी खजाने को खोल दिया। जो भी याचक आया उसे धन धान्य देकर सम्पन्न किया। दान का सिलसिला देर रात्रि तक चलता रहा। महाराज युधिष्ठिर दान देते-देते थक गए व विश्राम गृह में चले गए इस निर्देश के साथ कि उनके शयन विश्राम में कोई बाधा न बने। रात के तीसरे पहर एक याचक आया दान प्राप्त करने की अभिलाषा के साथ। द्वारपाल बने भीम ने युधिष्ठिर के निर्देश की अवज्ञा करते हुए उनके शयन कक्ष में दस्तक दी व अनुनय किया- महाराज बाहर एक याचक खड़ा है, आपसे दान प्राप्त करने की प्रतीक्षा में। विघ्न से क्लान्त युधिष्ठिर बोले- याचक को कह दिया जाए कि वह प्रात:काल आए उसे उसकी अपेक्षा के अनुरूप धनधान्य दिया जाएगा।
भीम बाहर आए और ढोल-नगाड़े वालों को बुलाकर जश्न मनाने लगे- महाराज युधिष्ठिर की जय हो उन्होंने काल को जीत लिया है। काल अब उनके अधीन है। उनकी प्रज्ञा को यह भान हो गया है कि अगले क्षण क्या होने वाला है। ढोल-ढमाकों शंख ध्वनि के नाद को सुनकर युधिष्ठिर बाहर आए व भीम से पूछा क्या हुआ? इस उल्लास का कारण? भीम ने उत्तर दिया- कारण तो आप हैं महाराज। आपने काल पर भी विजय प्राप्त कर ली। आप त्रिकालदर्शी हो गए महाराज इसीलिए याचक को कल प्रात:काल आने का संदेश भिजवाया। युधिष्ठिर को अपनी भूल का भान हुआ। ठीक कहते हो भीम अगले क्षण क्या होगा... कौन जान सकता है? उन्होंने उसी क्षण याचक को दान देकर धन-धान्य से सम्पन्न किया और अनुज भीम से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। अगले क्षण क्या होने वाला है। कोई कैसे जान सकता है, पर दुनिया का हर व्यक्ति इसी भुलावे में जिन्दगी जीता है और अगले क्षण की परिकल्पना करते हुए भविष्य के जतन में जुटा रहता है। मृत्यु के ध्रुवसत्य को जानते हुए भी जिन्दगी भर खुद को भुलावे में रखता है। यही जिजीविषा उसे अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है। दुनिया भर के सभी प्रपंच इसी जिजीविषा के इर्द-गिर्द रचे जाते है। बाजार और उपभोक्तावाद भी इसी जिजीविषा का सहउत् पाद है और युद्ध व साम्राज्यवाद के विस्तार की आंकाक्षा भी। ‘नया वर्ष’ जैसे कर्मकाण्डी उपक्रम भी बाजार की देन हंै वरना देखा जाए तो नए वर्ष में नया क्या..? समय की वही गति-लय और समाज के वहीं सब प्रपंच। पर मिथ्याचारियों ने कैलेण्डर के एक पन्ने के पलटने को भी भौतिकवादी अर्थशास्त्र से जोड़ दिया। हर व्यवस्थाएं भुलावे के मायाजाल का वितान तानकर मनुष्य को ‘मूर्खों के स्वर्ग’ (फूल्स पैराडाइज) में जीने का प्रलोभन देने में जुटी हैं। सृष्टि में, समाज में जो कुछ भी बनता बिगड़ता है वह विधि के तय शुदा विधान के ही मुताबिक होता है। प्राय: हम यह मानकर चलते है कि परिवर्तन अग्रगामी ही होता है। जैसे पिछले नए वर्ष में हमने उम्मीदें पाली थीं कि दुनिया खुशहाल और विषमता से मुक्त होगी। हर क्षेत्र में ऐसे नवाचार होंगे जो मनुष्य की मुश्किलों का नया हल देंगे। मार-काट, युद्ध, आतंक, शोषण इन सबके अन्त की ठोस शुरूआत होगी। पर पाया क्या... दुनिया फिर बर्बर युग की ओर मुड़ चली है। आईएसएस मध्ययुगीन खलीफा सल्तनत को कायम करने के लिए मानव संहार में जुटा है। बच्चों-मासूमों को गाजर-मूली की तरह काट रहा है। पेशावर में फूल जैसे बच्चों को खुदा के बन्दों ने ही छलनी कर दिया। दुनिया में पारदर्शी शासन व उदात्त लोकतंत्र की ड़ींग हांकने वाला अमेरिका गोरे-कालों के नस्ली संघर्ष की ओर उन्मुख है। युद्ध और आतंक की ज्वालाएं अखण्ड हो चली हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तीसरे और अंतिम विश्व युद्ध का ताना-बाना बुना जा रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम् के जिस नए नारे के साथ नई सदी का आगाज किया गया था सब कुछ उसके उलट हो रहा है। हर क्षेत्र में एक विचित्र किस्म का धु्रवीकरण होता हुआ दिख रहा है। पीडकÞ और पीड़ित, शोषक और शोषित, धनी और गरीब, कुलीन और असभ्य। धु्रवीकरण की प्रक्रिया तेज और तेज होती जा रही है। अपने देश में भी यही सब कुछ होता हुआ दिख रहा है। अमीरी का सूचकांक तय करने वाली एजेन्सियां प्रतिवर्ष भारतीय धनकुबेरों की सम्पत्ति एवरेस्ट की ओर बढ़ती हुई दर्शाती हैं। उसी के मुकाबले गरीबी की सीमा भी रसातल की ओर चली जाती है। सूची में चार नए अमीर शामिल होते हैं तो चार लाख लोग गरीबी की ओर खिसक जाते हैं। संसाधनों का अन्यायपूर्ण बंटवारा इस विषमता की खाई को हर नए वर्ष में और गहरा कर देता है। सृष्टि के सनातनी नियम के अनुसार न कुछ पैदा होता है और न ही कुछ नष्ट होता है। बस रूप बदलता है। हिस्सेदारी बनती-बिगड़ती व कम ज्यादा होती है। हर साम्राज्य शोषण की बुनियाद पर खड़ा होता है। हर धनी की अर्जित सम्पत्ति किसी न किसी के हिस्से की होती है। फिल्म गीतकार शैलेन्द्र ने बड़े सहज शब्दों में इसकी अभिव्यक्ति दी है- तुम अमीर इसलिए कि हम गरीब हो गए। लोकतंत्र, संविधान, कानून, विधि-विधान, धर्म व पंथ की संहिताओं के बावजूद समूची दुनिया में ‘मत्स्य- न्याय’ ही चल रहा है। पिछले वर्ष भी ऐसा चला। इस नए वर्ष में भी इस चलन को रोकने वाली कोई व्यवस्था नहीं दिखती। एक खयाली दुनिया रची जा रही है विकल्प के रूप में भी वहीं सामने प्रस्तुत है। रिश्ते-नाते-सम्बन्ध सबके मायने बदल रहे हैं। समाज की सनातनी वर्जनाएं टूटती सी जा रही है विकृतियां सैलाब सी बनकर उमड़ रही है। हम सब आंखें फाडकÞर देख रहे हैं, नि:सहाय। शायद सृष्टि के नियम और विधि के विधान यही हैं। इन तमाम, विकृतियों-विरोधाभाषों, विषमताओं के बाद भी हममें जीने की जो जीजिविषा है वही हमारे मनुषत्व का उद्घोष है। वही हमें मनुष्य बनाती है। यह जीजिविषा बनी रहे लेकिन शर्त है कि आशाओं और उम्मीदों से भरी हुई। हम हर पल में सम्पूर्ण जीवन जिएं। हर क्षण उत्सवी रहे। मनुष्यता की जो भी परिभाषा या विशेषता है, उसे हम यथार्थ में उतारें। यदि हम वास्तव में मनुष्य बनकर जिएं तो दुनिया में कोई समस्या हो ही नहीं। आज के दौर का सबसे बड़ा संघर्ष मनुषत्व को बचाए रखने का है। हर समाज के मूल में एक तत्व है। इन तत्वों का आधार संवेदना है। यही संवेदना अच्छे-बुरे को चीन्ह पाती है। इस संवेदना की तीव्रता को सतत् बनाए रखना जरूरी है। संवेदना गई तो, तो समझो मनुष्य पशुवत् हुआ। नए वर्ष के बाजारू कर्मकाण्ड से हटकर हर विहान को नए वर्ष की भांति स्वागत् करें। काल गति-समय के विधान को जानते हुए। अगले पल क्या होने वाला है, युधिष्ठिर की भांति हम भी नहीं जानते सो इसलिए कल के लिए कुछ न छोड़ें। जिन्दगी के कल के एजेन्डे को आज ही निपटाएं, आज हीं क्यों... इसी क्षण। कवि ने कहा है- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होइगी बहुरि करेगा कब।। जिन्दगी के सफर की गाड़ी में रिवर्स गेयर का प्रावधान नहीं है। हम जिधर चल पड़े हैं वहां से लौटकर आने वाले नहीं। इस अनंत यात्रा में हम सब शामिल हैं। विश्व के जन-जन शामिल हैं। इसलिए जिन्दगी का उत्सव मनाने के लिए अगले नव वर्ष का इन्तजार करने की आदत छोड़ दें। यह उत्सव जीवन के पल प्रतिपल में मनाएं। गीतकार नीरज की नसीहत का स्मरण करते हुए - मित्रो, हर पल को जियो अंतिम पल ही मान। अंतिम पल है कौन सा कौन सका है जान।।