Thursday, November 29, 2012

कौन आजाद हुआ


@[100001906812341:2048:Digamber Ashu]r जी के पोस्ट से पता चला कि आज अली सरदार जाफरी जी का जन्म-दिन है ... उनकी नज्में अक्सर मुझे अपनी तरफ खींच लेती हैं ...उनके जन्मदिन के अवसर पर एक उनकी नज़्म 
 
कौन आज़ाद हुआ ?


किसके माथे से सियाही छुटी ?
मेरे सीने मे दर्द है महकुमी का 
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही 
कौन आज़ाद हुआ ?

खंजर आज़ाद है सीने मे उतरने के लिए 
वर्दी आज़ाद है वेगुनाहो पर जुल्मो सितम के लिए 
मौत आज़ाद है लाशो पर गुजरने के लिए 
कौन आज़ाद हुआ ?

काले बाज़ार मे बदशक्ल चुदैलों की तरह 
कीमते काली दुकानों पर खड़ी रहती है 
हर खरीदार की जेबो को कतरने के लिए 
कौन आज़ाद हुआ ?

कारखानों मे लगा रहता है 
साँस लेती हुयी लाशो का हुजूम 
बीच मे उनके फिरा करती है बेकारी भी 
अपने खूंखार दहन खोले हुए 
कौन आज़ाद हुआ ?

रोटियाँ चकलो की कहवाये है 
जिनको सरमाये के द्ल्लालो ने 
नफाखोरी के झरोखों मे सजा रखा है 
बालियाँ धान की गेंहूँ के सुनहरे गोशे 
मिस्रो यूनान के मजबूर गुलामो की तरह 
अजबनी देश के बाजारों मे बिक जाते है 
और बदबख्त किसानो की तडपती हुयी रूह 
अपने अल्फाज मे मुंह ढांप के सो जाती है 


कौन आजाद हुआ ?
                                                                                                                       
सरदार ज़ाफरी को सलाम के साथ
..........................................

 
कौन आज़ाद हुआ ?

किसके माथे से सियाही छुटी ?

मेरे सीने मे दर्द है महकुमी का

मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही

कौन आज़ाद हुआ ?

खंजर आज़ाद है सीने मे उतरने के लिए

वर्दी आज़ाद है वेगुनाहो पर जुल्मो सितम के लिए

मौत आज़ाद है लाशो पर गुजरने के लिए

कौन आज़ाद हुआ ?

काले बाज़ार मे बदशक्ल चुदैलों की तरह\

कीमते काली दुकानों पर खड़ी रहती है

हर खरीदार की जेबो को कतरने के लिए

कौन आज़ाद हुआ ?

कारखानों मे लगा रहता है

साँस लेती हुयी लाशो का हुजूम

बीच मे उनके फिरा करती है बेकारी भी

अपने खूंखार दहन खोले हुए

कौन आज़ाद हुआ ?


रोटियाँ चकलो की कहवाये है

जिनको सरमाये के द्ल्लालो ने

नफाखोरी के झरोखों मे सजा रखा है

बालियाँ धान की गेंहूँ के सुनहरे गोशे

मिस्रो यूनान के मजबूर गुलामो की तरह

अजबनी देश के बाजारों मे बिक जाते है

और बदबख्त किसानो की तडपती हुयी रूह

अपने अल्फाज मे मुंह ढांप के सो जाती है

कौन आजाद हुआ

शास्त्र-लोक में देवर्षि की नारदगीरी

चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
भारतीय वांग्मय को कथारस की स्थिति में लाने का श्रेय जिस किसी एक ऋषि को दिया जा सकता है, वे हैं देवर्षि नारद। वे देव पुत्र हैं, ऋषि मात्र नहीं। एक मात्र देवर्षि हैं। महर्षि, राजर्षि, ब्रrार्षि की होड़ में भले ही अनेक हों, नारद अकेले छत्तीस करोड़ देवताओं के ऋषि हैं। अत: उनकी उपस्थिति प्रत्येक जगह अपरिहार्य है, सारे देवों एवं तीन लोकों के हित की उन्हें चिन्ता है। वे वक्त बेवक्त कहीं, किसी देवता के शयनागार तक साधिकार पहुंचकर राय-सलाह कर सकते हैं। पुराणों में हर समस्या में कहीं न कहीं सूत्रधार या संवाददाता के रूप में वे उपस्थित हैं। देव तो देव, नारद को दैत्य, दानव, राक्षस, गंधर्व भी ससम्मान आसन देते हैं। आकाश-पाताल और पृथ्वी लोक तक उनकी आवाजाही है, कहीं कोई रोक-टोक नहीं। सतयुग, त्रेता, द्वापर की पौराणिक कथाओं मे तो हैं ही, कलियुग में भी उनका बराबर हस्तक्षेप रहा है। रामायण और भगवत कथा के प्रेरक होकर उन्होंने वैष्णवी और भागवत-भक्ति का प्रचार भी किया।
नारद भक्ति के सूत्रधार है। नारदीय भक्ति योग उनकी वीणा कर एकमात्र स्वर है जिसमें हमेशा ..˜श्री मन्नारायण नारायण हरि हरि.. का निनाद ध्वनित होता रहता है। लोक भाषा के आदिकाव्य का नायक देवता नहीं हो सकता। वाल्मीकि संशय में हैं, मानवगुणों से युक्त किसी पुरुष के बारे में जानने के लिए नारद के पास जाते हैं, पूछते हैं- इस समय संसार में गुणवान, वीर्यवान,धर्मज्ञ, कृतज्ञ व्यक्ति कौन है, समस्त प्रजाओं का हितैषी कौन है। नारद राम के गुणों का वर्णन करते हुए कहते हैं- वह वीरता में विष्णु के समान, देखने में चन्द्रमा के समान प्रिय, क्रोध में कालाग्नि, क्षमा में पृथ्वी के समान हैं। प्रजा के हित में लगे रहते हैं। कथा का आदि सूत्र वाल्मीकि को बताते हैं। र8ाकर के वाल्मीकी और आदिकवि की भूमिका में सिर्फ नारद हैं। तमाम पुराणों को लिखने के बाद भी व्यास को चैन और शांति नहीं मिली। नारद ने उन्हें श्रीमद्भागवद लिखने की प्रेरणा दी। रास पंचाध्यायी में जीव और बrा के तादात्म्य की कथा नारदीय भक्ति का सम्यक योग है।
किसी का गर्व चूर करना, सर्वशक्तिशाली को भी पटखनी देना, सुखा-दुख में लोगों के साथ होना नारद का स्वभाव है। वे जितेंद्रिय हैं। काम के वाण भी उनको बिद्ध नहीं कर सके। भक्ति साधना से उन्होंने यह सम्भव कर दिखाया। जितेंद्रिय होने का दर्प उन्होंने सभी से बताया। शिव ने उन्हें सलाह दी कि विष्णु से कभी इस घटना की चर्चा न करना। नारद भला अपनी उपलब्धि को कैसे रोकें। विष्णु से सगर्व कामजित होने की बात दी। फिर नारद की जो गति हुई वह आप सबको पता है। नारद ने विष्णु को क्या नहीं कहा- परम सुतंत्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करौं तुम सोई। पर सम्पदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरे इरषा कपट विशेखी।
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि विष पानि करायहु।सीता विरह में व्याकुल राम को वन में देख अपने शाय से दुखी भी होते हैं। नारद की वीणा आदिकाल से आज तक बजती रही है, बजती रहेगी। वे हर काल में हैं। हिमवान की कन्या पार्वती की हाथ- रेखा का फल बताते हैं। रानी के दुख का शमन भी करते हैं फिर भी कहने से नहीं कोई चूका ..˜नारद का मैं काह बिगाड़ा..कि उन्होंने ऐसा भविष्य बताया। भविष्य जानने की चाहत रखने वालों के लिए नारद जैसा ज्योतिषी ही चाहिए।
शास्त्र और पुराणों के नारद ज्ञान, भक्ति और कर्म के समन्वयक हैं। वे सम्वदिया भी हैं, लेकिन पेड़ नहीं है। हर सम्वाद तीसरे चौथे व्यक्ति तक जाते-जाते मूल सम्वाद से अलग हो जाता है, यह व्यक्ति की रूचि और प्रकृति पर निर्भर करता है। नारद को लोक ने शास्त्र से भिन्न समझ। नारद लोक का मुहावरा है। उनको इधर का इधर और उधर का इधर करने वाला परस्पर लड़ाने वाले के रूप में जाना। लोक की मान्यता है कि नारद स्वभावत: कलह प्रिय पात्र हैं- जा दिन नारद कछू न पामा। हाड़ फेंकि दुइ कुकुर लड़ामा।वे कंस को देवकी के आठवें गर्भ का गणित इस तरह पढ़ाते हैं कि कंस आठवें संतान तक प्रतीक्षा नहीं करता।
पहले गर्भ से ही हत्या करना शुरू कर देता है। नारद से संबंधित शास्त्रों और लोक में अनेक कथाएं हैं। वे निरंतर चलने वाले ऋषि है। अपना अभीप्सित कहने के बाद वे क्षण भी समय बर्बाद नहीं करते। नारद राय देते भी हैं, राय स्वीकारते भी हैं। यूं उनके आराध्य नारायण (विष्णु) हैं लेकिन ब्रrा और शिव भी उनको आदर देते हैं। शास्त्र के राय से हटकर लोक में भी उनके राय के अनेक रोचक प्रसंग हैं। नारद दस पन्द्रह पल (मिनट) से अधिक कहीं नहीं रुकते, उनके शापित होने की कथा को लोक कुछ इस प्रकार कहता है- कैलाश पर्वत पर निवास करते शिव अपने परिवार के साथ मस्त हैं। मनोरंजन के लिए पांसे का खेल है। वही पांसा जिसकी एक चाल ने महाभारत की भूमिका रची।
शिव की टीम में चार व्यक्ति है, पार्वती, कार्तिकेय, गणोश और वे स्वयं। शिव के साथ कार्तिकेय और पार्वती के साथ गणोश की जोड़ी बनी। खेल में शिव हारते रहे और हर बार उनका बैल कार्तिकेय का मोर पार्वती जीत लेतीं। कैलास भी जीत लेतीं। शिव भोले थे, पर दुखी थे। एक दिन विष्णु के पास पहुंचे। त्रैलोक्यनाथ ने शिव का उदास चेहरा देखा। नारद भी बैठे थे, भ्रमण से लौटे थे। विष्णु ने कहा क्या बात है भोलेनाथ! आप कुछ उदास क्यों हैं। शिव ने बताया कि मैं पार्वती से लगातार हार रहा हूं। मेरा अहं आहत है क्या करूं। विष्णु और नारद दोनों हंस पड़े बोले दुखी न हो हम दोनों मदद करेंगे। यह पुरुष-अस्मिता का सवाल है- चलें मैं पासा बन जाता हूं, नारद गोट बन जायेंगे। जो भी दांव मांगकर आप पांसा फेंकेगे मैं उलटकर वहीं हो जाऊंगा। नारद ने कहा यदि एक दो घर आगे पीछे भी बात होगी मैं सरक कर मार के स्थान पर पहुंच जाऊंगा। जल्दी-जल्दी बिसात बिछी। गणोश नहीं थे। पार्वती ने प्रतीक्षा करने की बात कहीं। शिव ने कहा आप गणोश का दांव भी फेंकती चलना। खेल शुरु हुआ, नारद और विष्णु ने अपना बचन निभाया। कुछ ही क्षण में पार्वती सब कुछ हार गयी। तभी गणोश आ गए, उन्होंने ध्यान से देखा, स्थिति समझकर बोले-मां। तुमसे छल किया गया। मारे डर के विष्णु और नारद हाथ जोड़कर पार्वती से क्षमा मांगने लगे। पार्वती ने शाप दिया- विष्णु से कहा जिस पत्‍नी को हराने के लिए आपने यह किया अपनी पत्‍नी के लिए आप वन-वन भटकेंगे। नारद को कहा कि पांसे की गोट कभी स्थिर नहीं रहती आप भी निरंतर भागते रहेंगे। कहीं ठिकाना नहीं होगा। शिव को भी पार्वती ने नहीं बख्शा बोली जिस स्त्री को हराने के लिए आपने इतना प्रपंच रचा। उससे आप कभी जीत नहीं पायेंगे, वह सदा आपके सिर पर सवार रहेगी। गंगा शिव के सिर पर बैठी है।
     
 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।                      सम्पर्क - 09407041430.

Tuesday, November 27, 2012

गुरू नानक शाह फकीर


 जाति और वर्ण का भेदभाव मिटाने और मानवता को प्रेम का संदेश देने के लिए गुरू नानक का योगदान अमूल्य है। बुद्ध और तीर्थकंर से लेकर मध्य काल में जो रामानन्द, नामदेव, कबीर से होते हुए गांधी तक जो श्रंखला चली , उसमें गुरू नानक का कर्म और धर्म अद्रभुत है। भारतीय वेदान्त और ईरानी तसव्बुक के मिलने से जो धार्मिक जाग्रति हुई, कबीर कह तरह नानक भी उस जागृति के नक्षत्र हैं। गुरू नानक ने जो पंथ चलाया पह आगे जाकर सिक्ख पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वे जातपांत, अवतारवाद और मूर्ति-पूजा को नहीं मानते थे। गुरू नानक ने जिस सिक्ख पंथ को प्रारम्भ किया वह प्रारम्भ से ही प्रगतिशील रहा है। जात-पात, मूर्ति-पूजा और तीर्थ के साथ वह सती-प्रथा, शराब और तबांकू का भी वर्जन करता है।
गुरू नानक में भेद-भाव का नामों-निशान भी नहीं था। हिन्दू और मुसलमान को वे समान नजर से देखते थे और स्नेह करते थे। गुरू नानक ने कभी अपने आप को किसी से अलग नहीं माना, उन्होंने कहा कि - ऐ ज्याति से संसार उत्पन्न किया गया है।
इसमें कौन अच्छा, कौन बुरा है- एक ज्याति से जग उपजा, कौन भले कौन मन्दे! उस काल में अनेक देवी-देवताओं की कल्पना और पूजन के कारण अनेक प्रकार के विभेद खड़े हो गए थे, प्रत्येक वर्ग अपने प्रथक देव देवी को मान रहा था। इस कारण सामाजिक समरसता खडिंत हो रही थी और जाति-भेद चरम पर था। इस समय गुरू नानक ने एक ओंकार की बात कह कर परम सत्ता के एक होने की बात सामाजिक एकता के एक होने के नए आयाम प्रस्तुत किए। गुरू नानक के नौ सौ चौहत्तर पदों को गुरू ग्रन्थ साहिब में समावेश किया गया है। उनकी रचनाओं में जपुजी साहब की मान्यता सर्वाधिक है। एक प्रकार से सिक्ख पंथ की विचारधारा का यह मूलाधार है। इसका प्रारम्भ एक ओंकार के मूलमंत्र से किया गया है। यह एक प्रकार का मंगलाचरण है। गुरू नानक ने भारतीय जीवन मूल्यों के सरंक्षण का अभूतपूर्व कार्य किया और समाज पर्वितन के लिए व्यापक आन्दोलन चलाए गुरू नानक का समय इस्लाम के फैलाव का समय था। उनके समय में तीन लोदी शासक और दो मुगल शासक हुए। सिकन्दर लोदी ने मंदिर तोड़े और बड़ी संख्या में जनता पर अत्याचार किए। बाबर ने तो अत्याचार की सभी सीमाएं तोड़ दी। बाबर के अत्याचार के तो वे प्रत्यक्ष साक्षी थे। इन अत्याचारों को उन्होंने चार पदों में लिखा जिसे बाबर-वाणी कहा जाता है- पाप की जज्ज लै काबलहु धाइया मंगे दानु वे लालो, सरमु धरम दुई छवि खलोए कूडु फिरै परधानु वे लालो।पे बलात धर्म पर्वितन के विरोधी थे। अनेक प्रकार के सामाजिक तथा राजनैतिक पर्वितनों के कारण समाज में विघटन और विभाजन ने जड़ जमा ली, इसी के चलते जातियों और उप जातियों की संख्या में वृद्धि होती गई। वर्ण स्वंय जातियों में बदलता जा रहा था। इनमें विवाह सम्बंध रोटी-बेटी का व्यवहार बंद हो गया। प्रत्येक जाति का अपना एक आवरण बन गया और जाति इस आवरण में कठोरता के साथ बंद हो गई। इस भावना के कारण एक जाति अपने जातिगत अंहकार के कारण दूसरी जाति को हेय समझने लगी।
हिन्दू समाज का दार्शनिक पक्ष श्रेष्ठ होते हुए भी जातिगत विषमता और भेदभाव इसमें गहराई तक समा गए। ऐसे समय धर्म और भक्ति का सहारा लेकर गुरू नानक खड़े हुए और जातिगत विषमता के विरुद्ध समाज को जगाया तथा संगठित किया और एक पंगत तथा एक संगत की अपने अनुयायियों के लिए व्यवस्था दी। इसके साथ उन्होंने ठहरने के लिए सामूहिक व्यवस्था का क्रन्तिकारी निर्दश दिया। जो लोग गुरू नानक का उपदेश सुनने आते थे, उनका सामूहिक भेाज वही होता था इसी को आगे चल कर लंगर का नाम मिला। दूर-दूर से आने वालों के लिए उनके ठहरने की व्यवस्था धर्मशालाअों में होती थी ये गुरुद्वारों का रूप लेने लगी। गुरू नानक का यह प्रयास जातिगत भेद-भाव को समाप्त करने के लिए बड़ा करगर साबित हुआ। समाज की सामाजिक व्यवस्थाओं में यह महत्वपूर्ण पर्वितन था। आगे चल कर सिक्ख पंथ में जाति-सूचक संज्ञा के लोप होने की जो परम्परा चली, उसके लिए गुरू नानक का ही चिन्तन और विचार था। सिख पंथ में पुरुष को सिंह और महिला को कौर के विभूषण से पहचान मिली। गुरू नानक ने जो उपदेश के रूप में कहा उसका खुद भी पालन किया। जब गुरू पद सौंपने का प्रश्न आया तब गुरू नानक ने अपने पुत्र को गद्दी नहीं सौंपी, उन्होंने अपनी खत्री जाति के भी किसी सदस्य को गुरू पद न देकर लहिना जी को गुरू की गद्दी पर विराजमान किया। कितना सादगीपूर्ण किन्तु सार्थक गुरू पद का हस्तातरण गुरू नानक ने किया जिसकी कहीं मिसाल नहीं मिलती। उन्होंने लहिना जी के सामने पांच पैसे तथा एक नरियल रख कर उनकी परिक्रमा की तथा उनको साष्टांग प्रणाम किया और अपने गले की माला उन्हें पहना दी। इस अवसर वर गुरू नानक ने कहा- मेरे शरीर से उत्पन्न हुआ है, तू अंगद है। आगे से लहिना जी को गुरू अंगद देव का नाम प्राप्त हो गया।
गुरू नानक देव की कथनी और करनी एक थी। जातियों के विघटन के लिए वे कोरे उपदेशक नहीं थे उन्होंने जातियों के मकड़-जाल को तोड़ने के लिए अद्रभुत कार्य किया। वे समतावादी सन्त थे। जातिगद भेदभाव का विचार किए बिना वे अपना शिष्य बनाते थे। वे कहते हैं कि प्रत्येक आदमी महान है, किसे नीचा अथवा पतित कहूं? वे समझते हैं- जाणहु जोति न पूछहु जाती आगै जाति न हें। उन्होंने कहा कि आदमी किसी जाति में जन्म लेने से ऊंचा या नीचा नहीं होता, वह तो अपने कर्मो से उपर उठता या नीचे गिरता है। जहां तक मेरी बात है तो मैं तो किसी को नीचा मानता ही नहीं- नीचां अंदरि नीच जाति नीची हुं अति नीच, नानक तिनके संगि-साथ वडिआं सिउ किया रीस, जिथै नीच संभाली अनि तिथै नदरि बखसीस।
गुरू नानक ने जिस मजबूती और साहस के साथ समाज में फैली जाति प्रथा पर प्रहार किए तथा संसार को सिख पंथ के नाम से जो समरसता तथा सेवा का अमृत-घट सौंपा वह महत्वपूर्ण धरोहर है। उनकी विषय प्रतिपादन की शैली ठीक वही थी जिसका आश्रय बुद्ध और महावीर ने लिया था जो परम्परा से भारतीय सन्तों के उपदेश की पद्धति रही है। वे तर्क का सहारा कम लेते थे जो समझना होता उसे उपमाओं से समझते थे।
बौद्धिक कठोरता की जगह गुरू नानक ने सीधे-सरल और समझ में आ जाने वाले शब्दों तथा लोगों के जीवन से जुड़े उदाहरणों के माध्यम से लोगों का जगाया जिससे समाज और मनुज का विघटन गति नहीं ले सका।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Monday, November 26, 2012

दो मुल्क, दो हमले, बदला भारत-अमरीका?


ज़ुबैर अहमद
 सोमवार, 26 नवंबर, 2012 को 17:14 IST तक के समाचार
मुंबई
मुंबई पुलिस को बेहतर हथियार दिए जाने के साथ-साथ कई दूसरी सुरक्षा एजेंसियों की स्थापना हुई है.
अमरीका में आम धारणा है कि 9/11 के हमलों के बाद देश और समाज हमेशा के लिए बदल गया.
चार साल पहले आज के दिन जब मुंबई पर तीन दिनों तक चरमपंथी हमले हुए थे, जिस दौरान लोगों ने टीवी पर हमला करने वालों को सीधे-सीधे देखा, तो कुछ विशेषज्ञों ने उस समय भी कहा था कि भारत अब हमेशा के लिए बदल जाएगा.
मैं अमरीका में हाल में पूरे साल भर रहा. मुंबई हमलों के दौरान मैं मुंबई में था और अभी भी मुबंई में रहता हूं. इन हमलों के बाद क्या बदलाव महसूस किया है मैं दोनों देशों में?
मुंबई हमलों में दौरान तीन दिनों तक टीवी पर लाइव हमलों की कवरेज ने देश के लोगों को झिंझोड़ दिया था. इसके एक हफ्ते बाद मुंबई और अन्य शहरों में आम लोग सड़कों पर उमड़ आए और सरकार के ख़िलाफ़ नारे लगाए.
लोगों ने कहा अब भारत हमेशा के लिए बदल जाएगा है. लेकिन क्या ऐसा हुआ है?

अमरीका में बने नए क़ानून

अमरीका में 9/11 के बाद कुछ बाहरी बदलाव आया जैसेकि अमरीकी हवाई अड्डों पर सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम. भारत में भी सुरक्षा का प्रबंध बढ़ा लेकिन उस तरह से नहीं जैसा कि अमरीका में हुआ है.
मुंबई
मुंबई के हमलों मे जान के साथ-साथ अरबों रूपए का नुक़सान भी हुआ.
अमरीका ने पेट्रियट एक्ट जैसे कई नए कानून बनाए और होमलैंड सिक्यूरिटी जैसे कई नए विभाग वहां खोले गए. भारत ने कोई नया कानून तो नहीं बनाया गया मगर जांच एजेंसी नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी का गठन ज़रूर हुआ.
वाशिंगटन पोस्ट अख़बार के अनुसार 9/11 के बाद अमरीकी प्रशासन ने 260 से अधिक नए विभाग खोले या पुराने विभागों को फिर से संगठित किया. आतंक निरोधी काम में 1200 सरकारी महकमें और 1900 निजी कंपनियां जुडी हैं.
भारत में इतना बड़ा परिवर्तन अब तक नहीं देखने को मिला है.
मुंबई में एनएसजी की शाखा स्थापित की गई और मुंबई पुलिस को आधुनिक हथियार दिए गए हैं.
इसके इलावा भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों और अमरीकी ख़ुफ़िया संस्थाओं के बीच ताल मेल बढा जिससे चरमपंथियों पर नज़र रखने की क्षमता में कई गुणा इज़ाफ़ा हुआ है.
मुंबई पुलिस का दावा है कि चार साल के अरसे में मुंबई हमलों की तरह या दूसरा कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ जो इस बात का संकेत है कि अब चरमपंथियों पर सुरक्षा एजेंसियों की निगरानी बढ़ी है.

समाज विभाजित

अमरीका
अमरीका में एयरपोर्ट पर सुरक्षा बहुत कड़ी हो गई है.
लेकिन अमरीका में असल बदलाव महसूस होता है वहां रहने के बाद.
कहते हैं 9/11 के बाद समाज दो हिस्सों में विभाजित हो गया - एक हिस्सा मुस्लिम विरोधी समझा जाने लगा और दूसरा हिस्सा वो जो मुस्लिम विरोधी नहीं माना गया.
मुसलमानों के खिलाफ़ हमले 9/11 के बाद कई गुना बढे़ हैं.
भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ.
मुंबई हमलों के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराया गया. भारतीय मुसलमानों के खिलाफ जज़बात नहीं भड़काए गए. न हीं भारत का समाज उस तरह से विभाजित हुआ.
मैं 9/11 के पहले भी कई बार अमरीका जा चूका हूं. पहले की तुलना में 9/11 के बाद वाले अमरीका में व्यक्तिगत स्वतंत्र कम हुई है.
रिपब्लिकन पार्टी की धारणा ये है कि एक व्यक्ति की निजी ज़िन्दगी में सरकरी दखल कम से कम हो लेकिन लोगों की निजी जिंदगी में दख़ल देने का काम भी रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के काल में शुरू हुआ.

सरकार का दख़ल

मैं कुछ दिन पहले अमरीका में था. वहां मैंने कई अमरीकियों से पूछा कि क्या अब वो उस तरह से आज़ाद महसूस करते हैं तो लगभग सभी की राय थी कि अमरीकी हुकुमत का निजी जीवन में अब पहले से काफी ज़्यादा दखल है.
अमरीका
अमरीका में समाज में विभाजन और बढ़ा है.
भारत में कोई ऐसा कानून नहीं बनाया गया जिससे व्यक्तिगत स्वतंत्रा को ठेस पहुंचे.
आतंकवाद के बारे में लिखने वाले एक वरिष्ठ अमरीकी पत्रकार सेबेस्टियन रोटेला कहते हैं 9/11 के बाद आम अमरीकी बाहर की दुनिया के बारे में अधिक जानकारी हासिल करने की कोशिश करने लगा.
रोटेला ने बीबीसी को बताया, "एक आम अमरीकी पहले अपने घरेलू मामलों में अधिक उलझा हुआ था. वो बाहर की दुनिया से कटा हुआ था. वो पूछने लगा दुनियां अमरीकियों से नफरत क्यों करती है?"
विशेषज्ञों का कहना है कि 9/11 के बाद खुफिया एजेंसी एफ़बीआई और सीआईए के काम करने का तरीका बदल गया है.
एफबीआई ने संदिग्ध संगठनों और व्यक्तियों के बीच खुफिया तरीके से घुसना शुरू किया और उनके नापाक इरादों पर से पर्दाफाश किया है जिसके नतीजे में कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं हैं.
मुंबई हमलों के चार साल बाद सुरक्षा के दृष्टिकोण से कुछ बदलाव तो आया है लेकिन ये कहना सही नहीं होगा की देश हमेशा के लिए बदल गया है

Sunday, November 25, 2012

क्षमा शोभती उस भुजंग को

 कसाब को फांसी पर चढ़ाने के बाद पाक पोषित तालिबान और लश्कर-ए-तैयबा ने हिन्दुस्तानियों को जहां मिले वहीं मारने का चेतावनी भरा बयान दिया है। तैयबा के संस्थापक और मुंबई हमले के मोस्ट वान्टेड हाफिज सईद ने कसाब के नाम फातिहा पढ़ा। मैं सोचता हूं कि यही सब यदि इजराइल के साथ होता तो इजराइल जवाब में उनके ठिकाने पर मिसाइलें दागने में जरा भी वक्त नहीं लगाता। अमेरिका तो अपने सील कमान्डो को आतंकवादियों की मांद में भेजकर बयान देने वालों की जीभ खिंचवा लेता। यही नहीं नार्थ कोरिया जैसा देश धमाकों की झड़ी लगा देता। हमने एक ङींगुर जैसे आतंकवादी को फांसी पर चढ़ाकर राष्ट्र गौरव का जश्न मना लिया। मुख्यधारा के अखबारों के सुधी संपादक पहले पóो पर वन्देमातरम गाते-नाचते दिखे और टीवी मीडिया का कहना ही क्या? क्या हमारे राष्ट्र गौरव की ख्वाहिश इतनी छोटी है कि घर में आतंकवादी गुन्डों का रूप धरकर घुसे पाकी सैनिकों को मुश्किल से भगाकर कारगिल विजय का डंका पीट दिया। यहां विजय कहां है? पाक पोषित आतंकवादियों ने अक्षरधाम को लहूलुहान किया। कश्मीर की असंबली में घुसकर धमाका किया और हद तो तब कि देश के लोकतंत्र की प्राण और त्राण संसद पर हमला बोल दिया। उस समय हमारे प्रधानमंत्री बाजपेयी जी के सब्र का बांध छलकता ही रहा - फूटा नहीं। रक्षामंत्री फर्नाडीस की भुजाएं फड़कीं फिर लकवा मार गईं। मुशर्रफ को ताजमहल में बुलाकर मटन-बिरियानी खिलाई और देश की नाक कटवाई।
हमारे हुक्मरान शांति के लिए सद्भावना बस और समझोता एक्सप्रेस चलवाकर विनयशीलता दिखाते रहे। तब चर्चा थी कि बाजपेयी जी की इस विनयशीलता के पीछे शांति के नोबल पुरस्कार की लालसा है। पर शांति का नोबल पुरस्कार तो बराक ओबामा को मिला, जिसके अमेरिका ने ईराक को तबाह कर दिया, जिसके अमेरिका ने अफगानिस्तान को दुनिया के सबसे बड़े कत्लगाह में बदल दिया। शांति का नोबल पुरस्कार मिला यूरोपियन यूनियन को जो पूरी दुनिया को बारूद, बम-गोले, मिसाइल और बमवर्षक बेचता है। शक्ति और ताकत की पूजा एक जमाने से होती रही है तथा विनयशीलता को कायरता रामायण और महाभारत के युग से माना जाता रहा है। राम हमारे रोम-रोम में इसलिए बसे हैं क्योंकि उन्होंने स्वाभिमान और विजय के गौरव की स्थापना की। विजय को लोकमंगल के उत्सव में बदल दिया। राष्ट्रपति रहते हुए मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने यही सवाल उठाया था। भारत ने क्या कभी अपने किसी दुश्मन को दण्ड देने के लिए उसके घर में चढ़ाई की? पौराणिक दृष्टान्त को ही कल्पनाओं में इतिहास मानकर चलें तो श्रीराम ने लंका में चढ़ाई कर आतताई रावण व उसके वंश का नाश किया इसके बाद न तो किसी पौराणिक कथा और न ही इतिहास के पóो में यह लिखा मिलता कि हमने दुश्मन को उसके देश में जाकर परास्त किया। आजाद भारत में पण्डित नेहरू की रूमानियत और कथित वैश्विक दृष्टि ने चीन को हमले का मौका दिया। आज हजारों मील की भूमि उसके कब्जे में है। लाल बहादुर शास्त्री को विवशता ही विरासत में मिली फिर भी घुसपैठी पाकी सेना को भगाकर जय जवान-जय किसान का नारा लगाकर संतोष कर लिया। गौरव के क्षण इन्दिरा गांधी ने अवश्य दिया जब 1971 में पाक के 96 हजार फौजियों ने हमारे कमान्डरों के चरणों पर अपने हथियार धर दिए। पर वह दूजे किस्म का मामला था, पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान के बीच कलह में हमारा हस्ताक्षेप था।
इतिहास में युगों से हम अपनी खाल बचाने वालों में से गिने जाते रहे हैं, खाल खींचने वालों में नहीं। यवन-शक-हूण, मंगोल, मुगल से लेकर अंग्रेज तक सभी हमारे देश में हमारी खाल खींचने के लिए आए, लूटा और शासन किया और हम गाते रहे कि ..˜कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों से दुश्मन रहा है दौरे जहां हमारा।...हमने अपनी हस्ती को विनयशीलता (याचना) और कम्प्रोमाइज करके बचाए रखा।
जरूरत पड़ी तो मान सिंह ने अकबर को अपनी बहन ब्याह दी।
रामायण-महाभारत और गीता का हम सिर्फ पाठ करते रहे।
भजन गाते रहे, प्रवचन देते रहे कहीं कोई सीख नहीं ली। न राम से न कृष्ण से। हमने सिर्फ उनके मंदिर बनवाए और धर्म धुरंधरों ने दान-चंदे से आश्रम और अपने लिए सोने के सिंहासन गढ़वाए। महात्मा गांधी, जो भगवान राम और रामराज्य से सबसे ज्यादा प्रेरित रहे, ने रामकथा के उत्तरार्ध के राम का प्रचार किया। राम के पौरुष-पराक्रम व प्रजा के प्रति निष्ठा के संदर्भो को उस हिसाब से प्रचारित प्रसारित नहीं किया। आतंकवादियों-राक्षसों को दण्ड देने का काम तो राम ने बालपन से शुरू किया। विश्वामित्र के साथ गए तो सुबाहु, ताड़का को मारा। मारीच को दण्ड दिया। फिर वनवास के बहाने राक्षसों (अब के आतंकवादियों) को दण्ड देने निकले। चित्रकूट में विराध जैसे राक्षसों को मारा, तो दण्डकारण्य तो आतंकवादियों का ही अभयारण्य था। खरदूषन-त्रिसरा, जैसे अधर्मियों के हिसाब को चुकता किया। उस समय सोने की लंका पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की प्रतीक थी। रावण स्वेच्छाधारी और आतंकवाद को पोषित करने वाला सम्राट था, जैसा कि हाल ही में पाकिस्तान के तानाशाह होते हैं। सीता शान्ति की प्रतीक थीं। रावण ने हरण कर रखा था। राम ने लंका पर चढ़ाई की रावण का वंशनाश किया। हम भगवान राम के भजन तो युगों से गाते आ रहे हैं क्या उनके पराक्रमी रूप और दुश्मन को दण्ड देने के संदेश की सीख ली। नहीं ली। द्वापर में श्रीकृष्ण ने राम के इसी रूप का दृष्टान्त देकर युधिष्ठिर को दुर्योधन से लड़ने के लिए मनाया। हमारे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर एक लोकप्रिय व प्रेरणादायी कविता है। कुरुक्षेत्र महाकाव्य के संदर्भ में। उस कविता की कुछ पंक्तियों के साथ लेख का समापन करते हैं -
 अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है, पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से, उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में, चरण पूज दासता ग्रहण की बंध मूढ़ बंधन में।
सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की, सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

Saturday, November 24, 2012

चित्रकूट की राम कहानी

जयराम शुक्ल 
चित्रकूट राम कहानी का ही पर्याय है। इसके भूगोल, संस्कृति और अस्तित्व में राम कथा ही रची बसी है। किन्तु चित्रकूट की गौरवगाथा राम के जन्म से पहले ही देश-देशांतरों में व्याप्त हो चुकी थी। यहां अत्रि के आश्रम का उल्लेख पुराणों में है। उनसे भगवान कपिल की बहन और कर्दम ऋषि की पुत्री अनुसुइया का विवाह हुआ था। गंगा की धारा को चित्रकूट की धरती पर खींचकर लाने वाली अनुसुइया ही हैं, जिसे लोक मंदाकिनी के नाम से जानता है। यहीं पर त्रिदेव महासती के सामने पुत्र बनने के लिए मजबूर हुए और बाद में उन्होंने अपने अंशों का प्रतिदान किया। भगवान दत्तात्रेय का जन्म इन्हीं अंशों का साक्षी है। भगवान शिव के क्रोध रूप दुर्वासा का जन्म भी यहीं हुआ। भगवान राम के आगमन से पहले ही सरभंग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्य जैसे अनेक ऋषि चित्रकूट की चौरासी कोस की परिक्रमा के इर्द-गिर्द आश्रय लेकर बैठ गए थे। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने देवताओं से कहा था कि वे भगवान राम का सत्कार करने के लिए विभिन्न रूपों में बिखर जाएं। चूंकि चित्रकूट उनकी आश्रय स्थली बनने वाला था इसलिए देवता तमाम ऋषियों के वेष में चित्रकूट क्षेत्र में ही विराजमान हो गए थे। मत्यगयेन्द्रनाथ आज भी चित्रकूट के उसी तरह राजा माने जाते हैं जैसे उज्जैन में महाकालेश्वर। सत्य यह है कि भगवान शिव ने यहां अपनी लिंग स्थापना भगवान राम के लिए ही की थी। इसलिए यह कहने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए कि चित्रकूट की कहानी ही राम की कहानी है। 
रामायण के अनुसार भगवान राम ने प्रयाग में महर्षि भारद्वाज से पूछा था कि ऐसा कोई स्थल बताएं जहां मैं अपने वनवास का समय व्यतीत कर सकूं। महर्षि ने उन्हें चित्रकूट में रहने का आदेश दिया था। इस बात को रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने इस चौपाई के माध्यम से कहा है-‘चित्रकूट गिरि करहु निवासू, जहं तुम्हार हर भांति सुपासू।’ महर्षि वाल्मीकि ने भी उन्हें यही राय दी और मत्यगयेन्द्रनाथ की आराधना के बाद भगवान राम चित्रकूट के निवासी बन गए। दरअसल कामदगिरि की महिमा का वर्णन करना आलेख की परिधि से काफी आगे निकल जाना है। इसलिए इतना ही कह देना काफी है कि ‘कामदगिरि भे राम प्रसादा, अवलोकत अपहरत विषादा।’ अर्थात कामदगिरि स्वयं राम के प्रसाद बन गए और उनके दर्शन मात्र से ही विषाद तिरोहित हो जाते हैं। इतना ही नहीं-‘चित्रकूट चिंतामनि चारू, समन सकल भव रुज परिवारू’, ‘चित्रकूट के विहग मृग, तृण अरु जाति सुजाति। धन्य धन्य सब धन्य अस, कहहिं देव दिन राति।’ चित्रकूट के आवास की  बारह साल की अवधि में भगवान राम ने ऐसे चरित्र दिए जो ‘सो इमि रामकथा उरगारी, दनुज विमोहनि जन सुखकारी’ हैं। भगवान राम से व्यथित भ्राता भरत का मिलन इसी चित्रकूट में होता है। यह चित्रकूट साक्षी है मानव के आचरण की उस पराकाष्ठा का जहां लोभ, मोह और किसी तरह की ईर्ष्या हृदय को प्रभावित ही नहीं करती। भरत अयोध्या के राजतिलक की तैयारी करके चित्रकूट आए थे और भगवान राम को सम्राट घोषित करने पर आमादा थे। किन्तु सत्ता यहां कंदुक बन गई। एक लात भरत का पड़ता तो राम की ओर दौड़ती और राम के प्रहार से भरत की ओर आती। अंतत: सिंहासन पर आसीन हुर्इं चरणपादुकाएं। देवत्व के अभिमान को दंडित करने वाला इसी चित्रकूट का स्फटिक शिला क्षेत्र है। पौराणिक प्रसंग के अनुसार ‘एक बार चुनि कुसुम सुहाए, निज कर भूषन राम बनाए’, ‘सीतहि पहिराए प्रभु नागर, बैठे फटिक शिला परमादर।’ दरअसल यह दृश्य सौंदर्य को आदर देने का था। परन्तु इंद्र का पुत्र जयंत अपने घमंड में आया और अनादर कर चला गया। भगवान राम को तो तब पता चला ‘चला रुधिर रघुनायक जाना, निज कर सींक बान संधाना।’ आखिरकार यह सींक का बाण तब शांत हुआ जब उसने शरण में आए हुए जयंत की एक आंख का हरण कर लिया। चित्रकूट में यदि ऋषि थे तो निशाचरों की संख्या भी कम न थी। विराध जैसे अनेक राक्षसों के वध के प्रसंग रामायण में है। चित्रकूट ही वह स्थल है जो भगवान राम की प्रतिज्ञा का केंद्र बना। जब सरभंग ऋषि ने उन्हीं के सामने स्वयं की काया अग्नि को समर्पित कर दी और वह आगे बढ़े तो आज के सिद्धा पहाड़ में उन्हें हड्डियों का ढेर दिखा। उन्होंने पूछा तो पता चला कि निशाचरों ने मानवों का खाकर यह ढेर लगाया है। उन्होंने यहीं संकल्प लिया-‘निसिचर हीन करौं महिं, भुज उठाइ प्रन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रम जाइ जाइ सुख दीन्ह।’ भगवान राम इसी चित्रकूट अंचल में सुतीक्ष्ण से मिलते हैं और अंत में अगस्त्य से। रामकथा के अनुसार अनेक अस्त्र-शस्त्र उन्हें अगस्त्य मुनि ने ही सौंपे थे। जिनमें वह बाण भी शामिल था जिससे रावण मारा गया। रामकथा के महान चिंतक रामकिंकर महाराज के अनुसार चित्रकूट में अकेले गंगा की धारा मंदाकिनी ही नहीं आई थी, अपितु राम के चरण प्रक्षालन के लिए गुप्त रूप से गोदावरी और सरयू जैसी नदियां भी किसी न किसी अंश में यहां अवतरित हुई थीं। 
परन्तु अब सरयू का कोई अस्तित्व नहीं बचा। जिसे सरयू कहा जाता है वह एक नाला है जिसका वर्णन रामचरितमानस में यूं है-‘लखन दीख पय उतरि करारा, चहुंच दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।’ सरयू कहे जाने वाले अब इस धनुषाकार नाले का भूगोल विलोपित हो चुका है और उसके प्रवाह क्षेत्र में बन गए हैं अनेक भव्य भवन। उस चित्रकूट का अब अता-पता तक नहीं है   जहां प्रकृति अपने संपूर्ण श्रृंगार के साथ विराजती थी। न तो पेड़-पौधे बचे और न ही जंगल। उनकी जगह उग आए हैं कंक्रीट के बियावान वन। वैसे चित्रकूट ने बड़ी प्रगति की है। यहां अनेक शिक्षण संस्थान हैं, भव्य आश्रम हैं और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करने के अनगिनत आयाम भी। अगर नहीं है तो भगवान राम का वह चित्रकूट जहां शेर, मृग और हाथी के एक साथ विचरण करने कथाएं पुराणों में हैं। कहते हैं कि तुलसीदास से मिलने कभी यहां मीरा बाई आर्इं थीं और उन्होंने ही उन्हें रैदास के पास भेजा था। यहां रहीम का रमना उनके साहित्य में ही वर्णित है। रहीम देश के सम्राट अकबर के मामा और देश के कोषाधिपति थे। लेकिन उन्हें सबसे प्रिय चित्रकूट ही लगा। तभी तो उन्होंने कहा-‘चित्रकूट में बसि रहे रहिमन अवध नरेश, जा पर विपदा परत है सो आवत यहि देश।’ मूर्तिभंजक के रूप में विख्यात औरंगजेब जैसे शासक भी चित्रकूट आकर नतमस्तक हो गए थे और उन्होंने बालाजी मंदिर के लिए कई गांव दान में दिए थे। जिसके दस्तावेज आज भी मंदिर में रखे हुए हैं। परन्तु क्षोभ है कि जिस चित्रकूट को औरंगजेब जैसे सम्राट खंडित नहीं कर पाए उसे वर्तमान विकास के झंडाबरदारों ने तहस-नहस कर दिया। हद तो यह है कि कामदगिरि का परिक्रमा क्षेत्र ही अतिक्रमण के दायरे में है, यह बात अलग है कि उसे कानूनी जामा पहनाकर नकारने की कोशिश की जा रही है। लगातार जंगल कट रहे हैं और बड़े-बड़े भवन तन रहे हैं। पर्वत श्रृंखलाओं में चलने वाली खदानों ने चित्रकूट का नक्शा ही बदल दिया है। न तो सरभंगा का संभार पर्वत बचा और न सिद्धा पहाड़। कामदगिरि के आसपास भी अनेक खदानें इस अंचल के स्वरूप को कुरूपता प्रदान कर चुकी हैं। अब तो ‘सुरसिर धार नाऊं मंदाकिनि’ के वजूद पर ही बन आई है। पर्यावरण वैज्ञानिकों के सर्वेक्षण के मुताबिक वह पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है। रामघाट के आगे तो गंगा की इस धारा का अस्तित्व गंदे नाले के अतिरिक्त कुछ रह ही नहीं जाता।

Friday, November 23, 2012

चंद कंपनियों के हाथ में विश्व की 40 % इकोनॉम

आमतौर पर माना जाता है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को चलाने में रसूखदार और शक्तिशाली देशों का हाथ रहता है। लेकिन आपको यकीन नहीं होगा कि 40 फीसदी को अर्थव्यवस्था शक्तिशाली देश नहीं बल्कि कुछ कंपनियां चला रही हैं। एक नए शोध में इस बात का खुलासा किया गया है कि 147 कंपनियों के हाथ में दुनिया की 40 फीसदी अर्थव्यवस्था है। यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख के एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया है जिसमें कहा गया है कि विश्व की कुल अर्थव्यवस्था में से 40 फीसदी की कमान महज 147 कंपनियों के हाथ में है। खास बात ये है कि इन 147 में अधिकतर वित्तीय संस्थाएं यानी कि बैंक और फाइनेंस कंपनियां है। शोध में कहा गया है कि 147 कंपनियों में से 20 कंपनियां वित्तीय सेक्टर से ताल्लुक रखती हैं। इनमें जिनमें गोल्डमैन सैक्स और बार्कले जैसी कंपनियां प्रमुख हैं।यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख ने अपने अध्ययन में 43,060 कंपनियों को शामिल किया। इनमें1318 उद्योगों को सबसे ज्यादा ताकतवर माना गया है जबकि 20 सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाएं (बैंक) शामिल हैं। इस सूची के अनुसार 40 फीसदी अर्थव्यवस्था 147 कंपनियों के निमंत्रण में संचालित हो रही है। ये 147 कंपनियां भी एक गठजोड़ की तरह काम कर रही है और 40 फीसदी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रही हैं। हालांकि ये गठजोड़ अब खत्म होने के कगार पर आ गया है लेकिन फिर भी ये काफी प्रभावी है।

शिक्षा का तदर्थवाद

कहते हैं कि आगरा के लाल किले के एक कमरे में कैद शाहजहां से औरंगजेब ने पूछा कि खाने के लिए आपको क्या चाहिए और कौन सा काम आप इस एकांत में करना चाहेंगे। शाहजहां एक विवश बादशाह थे। मुगल साम्राज्य के सबसे कलाप्रिय और कल्पनाशील भावुक बादशाह शाहजहां ने किंचित विचार कर कहा कि यदि दे सको तो खाने के लिए चना और काम के लिए कुछ छात्र दे दो जिन्हें हम शिक्षित कर सकें। औरंगजेब बुद्धिमान था, दूरदर्शी परंतु क्रूर बादशाह था, उसने शाहजहां से कहा-पिताश्री आपसे बादशाहत छिन गई राजपाठ छूट गया परंतु बादशाहत की बू अभी भी नहीं गई। शाहजहां के शब्दों का निहितार्थ औरंगजेब ने समझ लिया और दोनों चीजों को देने से इंकार कर दिया।
वह जानता था कि चना सबसे ताकतवर अन्न है जिससे विविध व्यंजन बनाये जा सकते हैं सबसे श्रेष्ठ अन्न की चाहत अभी भी पिताजी के दिमाग में स्थिर है। और छात्रों को शिक्षित कर सत्ता पलट का काम आसानी से किया जा सकता है। बिना हर्र फिटकरी लगे चोखा रंग लाना अभी भी वे भूले नहीं। औरंगजेब तुर्को-मुगलों का इतिहास जानता ही था, यवनों के इतिहास की भी उसे जानकारी थी। उसे पता था कि शस्त्र का ककहरा न जानने वाले चाणक्य ने चंद्रगुप्त जैसे छात्र के बल पर महानंद और सिल्यूकस को ठिकाने लगा दिया। शिक्षा के माध्यम से ही अपने और देश को समर्थ और सार्थक बनाने की विशाल परम्परा से परिचित औरंगजेब ने पिता की अंतिम इच्छा पूरी नहीं की। कमरे के एक कोने में लगे शीशे से ताजमहल की मीनारें देखते शाहजहां ने अपनी जीवन यात्रा पूरी की।
प्रत्येक युग की शिक्षा के अलग-अलग प्रारूप थे। आश्रम की शिक्षा व्यवस्था से लेकर आधुनिक शिक्षा व्यवस्था तक शिक्षा ने प्रत्येक आयाम तय किये हैं। यूनान की शिक्षा ने जहां विश्व को श्रेष्ठ दार्शनिक दिये, वहीं विश्व विजयी महत्वाकांक्षी सिकन्दर महान को भी पैदा किया। स्पार्टा के योद्धाओं और एथेन्स के गुरुओं का विश्व ऋणी हैं। जिस शिक्षा में देश के प्रति स्वाभिमान और विभिन्न लोगों के प्रति समरूपता का भाव पैदा न हो उस शिक्षा का क्या औचित्य? अपने देश की शिक्षा कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रही है। शिक्षा पर अपढ़ या कुपढ़ व्यवसायिक का अंकुश है जिससे हर छात्र की दृष्टि में सिर्फ वह और उसका परिवार है। देश कहीं भी नहीं है, समाज भी कहीं नहीं। एक तटस्थ सार्वकालिक दृष्टि का अभाव इन पाठय़क्रमों में स्पष्ट दिखता है। जो मुद्दे भविष्य के प्रश्न चिन्ह हैं उनको सुन-जानकर चुप्पी साध लेना न आदर्श शिक्षक के लक्षण हैं, न छात्र के। इनका चुप रहना अन्याय को मौन समर्थन देना और स्वयं को आत्महन्ता से कमतर नहीं है, अपने को समाप्त करने की शुरुआत है। राजनीति की समझ और उसमें भागीदारी न करने की सजा समाज को तब भोगनी पड़ती है। जब कमतर लोगों द्वारा उसे शासित होना पड़ता है।
शिक्षा के तमाम संसाधनों के बावजूद राष्ट्रीय चेतना का इतना अभाव क्यों है? अरविन्द और सुभाषचन्द्र आई.सी.एस. की नौकरी को लात मार सकते हैं और कितने ही लोग आई.ए.एस. बनकर करोड़ों कमाने की पंक्ति में खड़े हैं। इन प्रशासकों के दिमाग में सिर्फ अंग्रेजियत की बू है, शासन करने की प्रवृत्ति सेवा मात्र शब्द की है, जिसके कोई मायने नहीं। इतिहास की ओर लौटना कोई "नास्टेल्जिया" या अतीत मोह नहीं है, जब सामने कोई प्रकाश-किरन न दिखे तब अतीत से ही शक्ति ग्रहण करनी होती है।
विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री, शिक्षा की गुणवत्ता पर दुख जाहिर करते हैं, स्वयं कितने दायित्व के प्रति प्रश्नचिन्ह खड़ा करके किससे समाधान की अपेक्षा करते हैं। प्रवेश में इनके कोटे की सीट है। जो उत्तीर्ण नहीं होते वे इनकी मदद से प्रवेश पाकर गुणवत्ता हासिल करते हैं। शिक्षा के प्रशासन पर बैठे आई.ए.एस. कोई शिक्षाविद तो हैं नहीं। शासन किसी शिक्षाविद् से शीघ्र सहमति नहीं बना पाता जितना प्रशासनिक अधिकारी से बना लेता है। इसी कारण शिक्षा की शीर्ष कुर्सी पर कोई शिक्षाशास्त्री नहीं। म.प्र. में एक समय तदर्थवाद था अब अतिथि विद्वान हैं। सभी महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में हजारों पद खाली हैं और नए-नए पाठय़क्रम खुल रहे हैं। जो सहायक शिक्षक नहीं बन सके थे, वे ही तदर्थ का सहारा लेकर कॉलेज में प्राध्यापक बने। एक बार पी.एस.सी. ने उनकी परीक्षा ली। अधिसंख्य फेल हो गए। हड़ताल हुई और प्राथमिक परीक्षा फेल तदर्थ प्राध्यापक आज म.प्र. के अनेक कॉलेज के प्रोफेसर और प्राचार्य हैं। रही सही कसर शासनाधीन हुए प्राइवेट कॉलेजों ने पूरी कर दी। जो अरब सागर से नर्मदा निकालते और बंगाल की खाड़ी में गिराते थे, वे आज भूगोल पढ़ा रहे हैं। एक समय था कि आठवीं का छात्र विश्व का मानचित्र अपने हाथ से बनाता था। सारे देशों की जलवायु जानता था। यूजीसी ने कॉलेज और विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों, अधिकारियों को रिजर्व बैंक की चाभी दे दी कि जितनी इच्छा हो, वेतन निकाल लो।
पत्र पत्रिकाओं से विरत ये प्राध्यापक इक्कीसवीं सदी का भारत निर्माण कर रहे हैं। इस देश में भी समान काम और समान वेतन की बात कही जाती है। कुछ प्राध्यापकों को छोड़ दें, तो पंचान्वे प्रतिशत प्राध्यापक सेशनल के नाम पर ज्ञान का नहीं भय का खेल खेलते हैं। कुछ तो सिर्फ शोध कराते हैं, जिनकी थीसिस के शोषण के मुकदमे देश देखता है, वही प्राथमिक शिक्षा देने वाला शिक्षक जिसने व्यवसायिक मण्डल की परीक्षा पास की है। मनरेगा की दैनिक मजदूरी से कम वेतन पाता है। जो कुछ भी न पढ़ाए वह प्रोफेसर और एक लाख मासिक वेतन, और जो पढ़ाए, खाना (मध्यान्ह) खिलाए, जनगणना, पशुगणना, चुनाव के झमेले-झेले, उसे ढाई हजार। ऐसी विसंगति वाली शिक्षा प्रणाली कलानिधि, दयानिधि, रामलिंगम राज जैसे भ्रष्टाचारी व्यवस्था के अराजक नेता ही पैदा करेगी, उनसे किसी राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन, अम्बेडकर, जयप्रकाश, कपरूरी ठाकुर की कल्पना नहीं की जा सकती।
कुछ वर्ष पहले सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों के छात्र बेहतर परिणाम देते थे। साठ प्रतिशत वाले छात्र को लोग गर्व से देखते थे। अब नब्बे, पंचान्वे, प्रतिशत वाले के प्रति भी वह भाव पैदा नहीं होता, क्यों? सब कुछ दिग्विजयी मैनेजमेन्ट से संभव है, इस आमधारणा को कौन दूर करेगा? शिक्षा जब तक व्यवस्था की पिछलग्गू रहेगी, वह सेवक और नौकर तैयार करेगी। देशभक्ति जन सेवा पुलिस थाने में लिखा रहेगा, जिसका न तो सेवा से सम्बन्ध है, न देशभक्ति से। हो भी क्यों, जब थानों की बोली चढ़ती हो तो मित्र की कविता याद आती है-"राजा है जब चोर, सिपाही क्या कर लेगा।" ऐसे छात्रों, शिक्षकों से राष्ट्र निर्माण की कल्पना दिवास्वप्न के अतिरिक्त कुछ नहीं।
चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।

साझे -चूल्हे में सरकारी सेंध


हमारा संयुक्त परिवार है। तीन बेटे, उनकी पत्नियाँ, चार पोते और हम मियां-बीबी। इस तरह बारह लोगों का भोजन हमारे घर की रसोई में गैस के चूल्हे पर बनता है। अक्सर अतिथि भी आ जाते हैं। इस तरह औसतन बारह से पन्द्ररह गैस सिलेंडर प्रति वर्ष लग जाते हैं। सिलेंडरों की बुकिंग में बीस दिनों के बाद का बैरियर गैस कम्पनियों ने लगा रखा है इसलिए हमने चार गैस सिलेंडरों का कनेक्शन ले रखा है। तीन कनेक्शन बेटों के नाम और चौथा मेरे नाम है। पता एक ही है क्योंकि हम एक ही घर में, एक ही मोहल्ले में एक ही सड़क पर रहते हैं। अभी तक सब ठीक-ठाक चल रहा था। लेकिन अब हमारा संयुक्त परिवार टूटने की कगार पर है और आगे इसे कायम रख पाना सम्भव नहीं लग रहा है। इसके पीछे ऐसा नहीं है कि बहुओं और सास के मध्य कलह या बेटों की बेफाई। कारण हमारा परिवार अपना-अपना दाल-दलिया अलग-अलग बनाने की सोच रहा है। इसका इकलौता कारण सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर हैं जो साल में अब केवल छह मिलने हैं। एक ही भवन में एक ही पते पर लिए गए गैस कनेक्शन अमान्य हो जाएगें। हमने इस फरमान से बचने के लिए बहुत माथा-पच्ची की, लेकिन एक ही रास्ता दिखा कि हम संयुक्त परिवार की बिदाई की घोषणा करके चारों गृहस्थी अलग-अलग कर लें। इस तरह सब्सिडी वाला सिलेंडर लेकर अपना-अपना चूल्हा जलाए रखें। बिना सब्सिडी वाला गैस सिलेंडर दुगनी से ज्यादा कीमत पर लेने की हमारी आर्थिक हालत न होने से पुरखों से चले आ रहे संयुक्त परिवार से बिदा लेना ही हितकर है।
आज यह भी नहीं हो सकता कि हम लोग अपने पूर्वजों की तरह कन्द-मूल खाकर जिन्दगी की गाड़ी को धकेले, क्योंकि हमें पता ही नहीं कि कन्द-मूल कैसे होते हैं, कहां मिलते हैं और कितनी कीमत हैं इनकी। अखबारों और टीवी में इनका कभी विज्ञापन भी नहीं देखा। वैसे शकरकन्द, जिमीकन्द जरूर कभी- कभी सब्जी मंडी में दिख जाते हैं किन्तु नियमित रूप से कच्चा तो इनको खाया नहीं जा सकता है। मूल अगर मूली है तो उसे भी रोज मुख्य भोजन नहीं बनाया जा सकता है। पता नहीं हमारे ऋषि-मुनि कन्द-मूल कहां से लाते थे और रोज कैसे खाते थे। मैं अपना संयुक्त परिवार टूटने नहीं देना चाहता, किन्तु सरकार सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों का राशन करके हमें मिलजुल कर नहीं रहने देगी। जो काम हमारे भूतपूर्व शासक अंग्रेज बहादुर नहीं कर सके उसे हमारे वर्तमान मालिकों ने कर दिया पता नहीं कितनी पीढ़ियों से जो चूल्हा-चौका खंडित नहीं हो पाया उसे ईंधन ने तोड़ दिया। मिला-जुला परिवार बचा पाना अब तो हमारे जैसे चिरकुटों के सार्मथ्य के बाहर है। पुराने ढंग के मिट्टी के चूल्हों की वापसी हो नहीं सकती क्योंकि जलाने के लिए लकड़िया ही सुलभ नहीं है। जंगल तो हैं किन्तु उन्हें सरकार ने संरक्षित कर रखा है। लकड़ियां लाना तो दूर की बात है इनमें प्रवेश करने का प्रयास करना खुद को मुसीबत में फंसाना है। साधू-बाबा और सन्यासी इसीलिए शहरों में रहते हैं। अच्छा है आज के दौर में भगवान श्री राम नहीं हुए, वरना वे चौदह वर्ष के लिए दिए गए वनवास में किसी भी जंगल में प्रवेश ही न कर पाते। फिर न सीता हरण होता न रावण वध। न रामायण लिखी जाती और न रामलीलाएं ही होती। राम मन्दिर भी न टूटता तथा कोई बबाल भी न होता।
हमारे देश के और हम सब के महा प्रभु दिल्ली में विराज कर ऐसे-ऐसे हलाकान और प्राण-नुचवा फरमान जारी करते रहते हैं कि करोड़ों प्रजा-जनों का जीवन नरक होता जा रहा है। लगता है कि सल्तनत पर बैठते ही बाबा साहब का संविधान पढ़ने की जगह देश के हुक्मरान गरुण-पुराण का नित्य पाठ करते हैं तभी हमें सता-सता कर नरक और दोजख में धकेला जा रहा है। ऐसा अब आभास ही नहीं होता कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं। हमारी जिन्दगी और हमारी मौत भी देश पर काबिज इन सामन्तों के हाथों में गिरवी हो गई है। इनकी सनक और पगलौटी ने तो हमारा दाना-पानी भी छीनना शुरू कर दिया है। अब हमारी सदियों पुरानी परम्परा और घरों को तोड़ने की शुरूआत कर दी गई है। बेशर्मी से कहते हैं कि अब गैस सिलेंडरों पर सब्सिडी नहीं दी जाएगी। सब्सिडी के घाटे से सरकार दिवालिया हो रही है। उधर कॉरपोरेट घरानों, उद्योगपतियों को करोड़ों-अरबों रुपयों की सब्सिडी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में बड़ी उदारता से उपहार में दी जा रही है। इस दान-पुण्य पर सरकारों को अपने खजाने की फिक्र नहीं सताती।
गरीब की छाती पर सरकारें और उनसे देश को लूटने का अधिकार-पत्र पाने वाले गिरोह विकास की कव्वाली गा रहे हैं। इन कुबेरों को बिजली, पानी और जमीने फोकट में और टैक्सों में दीर्घकालीन छूट देने की केन्द्र तथा प्रदेश सरकारों में होड़ा-होड़ी चल रही है। कौन नहीं जानता कि सब्सिडी का पैसा जनता का पैसा है। यह जनता से वसूला टैक्स है। गरीब आदमी का भी इसमें योगदान है और अगर गरीब आदमी को भी कुछ जरूरी वस्तुओं में सब्सिडी दी जा रही है तो इसे बन्द करने के ऐसे तुगलगी फरमानों को इंसाफ नहीं कहा जा सकता है। गरीब को दी जाने वाली सब्सिडी को सरकारें इस तरह से बखान करती है कि सब्सिडी भीख है, जिसे मालिक लोग चाहे जब बन्द कर दें।
हकीकत तो यह है कि जनता का पैसा जनता के लिए होता है अगर सरकार चलाने का ढोंग कर रहे महा-प्रभुओं को सब्सिडी गरीबों को देने में कर्ज होता है तो सब की सब्सिडी बन्द करने में धुकुर-पुकुर क्यों हो रही है? असल में हम सभी को वैश्वीकरण के ठेकेदारों ने भेड़ों की तरह हांकना शुरू करके बाजार नाम के बाड़े में धकेल दिया है, ताकि हमारी चमड़ी उतारी जा सके। यह बाजार पुराने वक्त का हाट-बाजार नहीं है जहां केवल खरीदने- बेचने का काम होता था। आज का, यह बाजार देश-समाज को उसकी संस्कृति, परम्परा से वंचित करने का भी उपक्रम है। अब इसी बाजार से सत्ताएं भी संचालित होती है। कॉरपोरेट जगत की कई कम्पनियां जीरो टैक्स कम्पनिया होती है, अर्थात सरकार से तमाम फायदे हासिल करने के बावजूद एक रुपया भी टैक्स के रूप में अदा नहीं करती। कॉरपोरेट घराने साधारण दामाद नहीं होते, वे तो देश के दामाद होते हैं। वे राष्ट्रीय दामाद हैं और राष्ट्र का खजाना इनको सुविधाए देने में अगर आम आदमी की जेबों से घाटे की भरपाई कर रहा तो सभी को चुपचाप इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। हमने भी स्वीकार कर लिया है और हमारे यहा चार किचन हो गए। हमने अपने बर्तन-भाड़े बांट लिए हैं।

चिन्तामणि मिश्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

क्षमा सोभती उस भुजंग को

कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे
कहो कहाँ कब हारा?


क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम
तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत सरल है


तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे प्यारे


उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से


सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की
बंधा मूढ़ बन्धन में

सच पूछो तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका
जिसमे शक्ति विजय की


सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है

Thursday, November 22, 2012

प्यार और युद्ध / शलभ श्रीराम सिंह



नहीं किया जिसने प्यार
युद्ध नहीं कर सकता है वह

युद्ध में जाती है जान
जान देने की तमीज़ सिखाता है प्यार

युद्ध में घायल होता है शरीर
घाव की गहराई बताता है प्यार

युद्ध में जन्म लेता है जीत का विचार
विचार को ज़िन्दा रखता है प्यार

युद्ध है उत्सर्ग का आख़िरी त्यौहार
त्यौहार का आयोजन करता है प्यार

प्यार नहीं कर सकता है जो
युद्ध नहीं कर सकता है वह।


रचनाकाल : 1992 विदिशा

Tuesday, November 20, 2012

कबिरा हाय गरीब की..


मध्यप्रदेश के कटनी जिले के डोकरिया-बुजबुजा गांव में लहलहाते खेतों के बीच सजी चिताएं इस सूबे के भविष्य की मुकम्मिल तस्वीर पेश करती हैं। साथ ही इस बयान को भी तस्दीक करती हैं कि पूंजी निवेश की होड़ में जरूरत पड़े तो हमारी सरकारें किसानों की चिताओं पर कारपोरेट के लिए कारपेट दसाने में भी कोई हर्ज नहीं मानती।
जहां तक रहा प्रदेश में औद्योगिक पूंजी निवेश, भू- अधिग्रहण और विस्थापन का मामला तो भाजपा और कांग्रेस के चरित्र और सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। जेपी की जेब में कांग्रेसी व भाजपाई दोनों हैं, तो अम्बानी के पेरोल पर दोनों पार्टियों के नेताओं के बेटे, दामाद और रिश्तेदार कमा- खा रहे हैं। ऐतिहासिक संदर्भाें व तथ्यों पर जाएं तो मौजूदा भाजपा की सरकार कांग्रेस के किए-कराए का ही विस्तार दे रही है और समूचे देश के परिदृश्य में देखा जाए तो यही काम यूपी में बसपा ने किया तो सपा आगे बढ़ा रही है, उड़ीसा में बीजद, तो हरियाणा में कांग्रेस। कुल मिलाकर जो सरकारें जहां हैं, वहीं उद्योगपतियों की गोदी पर बैठकर, जल-जंगल-जमीन को लूटने और जन को पीटकर उनकी खेती-बारी, स्वत्व व मिल्कियत से बेदखल कर रही हैं। इस काम में पार्टी लाइन और विचारधारा कहीं आड़े नहीं आती। सिर्फ कर्मकाण्ड बदल जाते हैं। दरअसल विस्थापन एक ऐसा शब्द है जिसे कानूनी और कागजी तौर पर परिभाषित तो किया जा सकता है, किन्तु उसके दंश और पीड़ा की तीव्रता को वही महसूस कर सकता है, जो खुद विस्थापित हुआ है। मेरा मानना है कि विस्थापन मृत्युदण्ड से भी भीषण सजा है जिसमें विस्थापित जीते-जी किश्तों में मरता है। सिंगरौली और हरसूद के विस्थापितों के बीच एक दिन गुजारिए पता चल जाएगा। विस्थापन के साथ सिर्फ जमीन भर नहीं छिनती जिसमें उसकी वंशनाल गड़ी होती है, अपितु स्मृतियां, संस्कार, संस्कृति, परम्परा, आबोहवा सबकुछ छिन जाता है। सभी का अस्तित्व या तो बड़े बांधों की अथाह जलराशि में डूब जाता है या खदानों से निकलने वाले धूहे में दब जाता है, या फिर सीमेंट या थर्मल पॉवर की चिमनियों से धुंआ बनकर बादलों में समा जाता है, अस्तित्व के नाम पर शेष बचती है तो सिर्फ राख। इसलिए जब शासन- प्रशासन या उद्योगपति कोई भी, विस्थापितों के साथ जोर- जबरदस्ती या मजाक करता है तो ऐसा लगता है जैसे किसी के पार्थिव शरीर पर पद प्रहार किया जा रहा हो।
देश में विस्थापन की स्थितियां भयावह हैं। असम के समाजशास्त्री वाल्टर फर्नाडीस ने विस्थापितों और पुनर्वास के बारे में महत्वपूर्ण अध्ययन किया है। फर्नाडीस के मुताबिक आजादी के बाद विभिन्न विकास परियोजनाओं ने 6 करोड़ लोगों को विस्थापित किया है। इनमें से महज 20 फीसदी लोगों का ही पुनर्वास हो पाया है वह भी आंशिक। यानी कि पांच में से एक विस्थापित परिवार का घर बसा है। सबसे ज्यादा मरन तो आदिवासियों-जनजातियों की है। देश के कुल कोयले भंडार का 80 फीसदी और खनिज संपदा का तकरीबन 50 फीसदी हिस्सा आदिवासी बहुल इलाके में है, औद्योगिक विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए जाहिर है इन्हें हटाया जाएगा। कहने को 11 अक्टूबर 2007 को केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय पुनर्वास नीति 2007 घोषित की। इस नीति ने परियोजना प्रभावित परिवारों के पुनर्वास की राष्ट्रीय नीति-2003 की जगह ली। नई नीति के विस्थापन की प्रक्रिया के परीक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। इसमें मानकर चला गया है कि विस्थापन तो होना ही है। भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में जो संशोधन किए भी गए हैं उसमें अंग्रेजों के जमाने की नीयति अभी भी साफ झलकती है। इसमें ..सार्वजनिक उद्देश्य.. को फिर से परिभाषित करने की कोशिश असल में गरीबों और हाशिए पर लोगों के ऊपर निजी और बड़ी कंपनियों के हितों को तरजीह देने का हिस्सा है। सार्वजनिक उद्देश्य की फिर से परिभाषा इस तरह की गई है कि राज्य सरकारों के लिए किसी निजी कम्पनी, व्यक्तियों के संघ या संस्था के लिए जमीन के अधिग्रहण की इजाजत मिल जाती है बशर्ते वह ..आम जनहित.. में है। किसी कम्पनी के निजी मुनाफे को ..आम जनहित.. के साथ जोड़कर काश्त की जमीन छीनने का काम प्रदेश में बेशर्मी से चल रहा है। डोकरिया-बुजबुजा में वेलस्पन पॉवर प्लांट के लिए जमीन का अधिग्रहण ताजा व ज्वलंत उदाहरण है। प्रदेश के लिए जो चिन्ता का विषय है वह यही है कि काश्त की जमीन का पूंजीपतियों के लिए छीना जाना और दूसरी गंभीर बात यह है कि यदि उद्योग को 100 एकड़ जमीन की वास्तविक जरूरत है तो 1 हजार एकड़ की मांग करना और सरकार का आंख मूदकर इस मांग को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गुजर जाना है। अब एक नजर डालें मध्यप्रदेश में पूंजी निवेश और औद्योगिकीकरण की हवश के आंकड़ों पर। सूचना के अधिकार के आधार पर विकास संवाद केन्द्र ने इन्दौर इनवेस्टर मीट के पहले एक ब्योरा जारी किया था। इसके अनुसार 2007 से इन्दौर की इनवेस्टर मीट के पहले तक म.प्र. सरकार ने 376 कम्पनियों के साथ 6 लाख 33 करोड़ रुपये से ज्यादा के निवेश का अनुबंध किया है।
इनमें से 130 कम्पनियों को करीब चार लाख 50 हजार हेक्टेयर जमीन दी है जिसमें से 1 लाख 25 हजार हेक्टेयर वनभूमि है।
कम्पनियों ने करीब 4 लाख हेक्टेयर निजी जमीन भी प्राप्त की है।
सार्वजनिक प्रयोजन के नाम पर ली गई इन जमीनों का लैण्ड यूज बदलकर उद्योगों को दे दिया गया। जमीनों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के सबसे ज्यादा शिकार हुए महाकौशल व विन्ध्य क्षेत्र।
महाकौशल में 1 लाख 72 हजार हेक्टेयर भूमि गई जबकि विन्ध्य (बघेलखण्ड) से 1 लाख 12 हजार हेक्टेयर। इन क्षेत्रों की तीन चौथाई जमीन काश्त की, व उपजाऊ हैं। एक ओर जहां प्रदेश सरकार किसानों की जमीन छीनकर उद्योगपतियों को जमीदार बना रही है वहीं जब भूमिहीनों को बसाने की बात आती है तो उतनी ही कृपण बन जाती है। सिकुड़ती हुई खेती का असर भी साफ नजर आने लगा है। प्रदेश में कुल सालाना आय में खेती का हिस्सा जहां 94.95 में 43.19 प्रतिशत था वहीं 2005-06 में घटकर 32.09 रह गया। किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े भी कम भयावह नहीं हैं। पिछले 11 वर्षो में प्रदेश के करीब 17 हजार किसानों ने आत्महत्या की। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2011 में देश भर में जान देने वाले 14024 किसानों में मध्यप्रदेश के 1326 किसान हैं, यानी कि 4 किसान रोज प्रदेश के किसी कोने में मौत को गले लगा रहे हैं।
किसानों की हितचिंतक बनने वाली प्रदेश सरकार की छाया में जो आज डोकरिया में हुआ है, वो कल चुटका (मंडला) में होगा, तो परसों छिन्दवाड़ा में सिंगरौली-सीधी और सतना में। तो क्या? हालातों के मारे किसानों के आगे दो ही रास्ते बचते हैं, मरे या मारे। पर मुश्किल यह कि मरता है तो बुजदिल और मारता है तो नक्सली। कहां-जाए-क्या करे..। फिलहाल महान राजनीतिक दार्शनिक प्लेटो को याद करते हुए मसला सरकारों पर छोड़ते हैं। ...विकास का सवरेत्तम रास्ता है कि सब कुछ राज्य पर (राष्ट्र के हित-अनहित) पर निर्भर हो। यदि राज्य की सुरक्षा हुई तो बाकी सब सुरक्षित रहेगा और यदि राज्य को नष्ट किया गया तो शेष सभी नष्ट हो जाएगा।... लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

Thursday, November 15, 2012

उल्लू का पट्ठा और हमारी लक्ष्मी बहू

 उल्लू का पट्ठा जवान होता है तो उसे एक लक्ष्मी की जरूरत होती है, जो रूपवती हो, गुणवती हो, शीलवती हो, ऐश्वर्या जैसी सुन्दर हो, सावित्री जैसी पतिव्रता भी हो, मल्लिका शेरावत जितनी सेक्सी हो और सीता जैसी आज्ञाकारी भी हो। उल्लू को इसके साथ एक ऐसी बहू चाहिए, जिसका बाप कुबेर हो और बेटी साक्षात लक्ष्मी हो। उल्लू कहता है कि उल्लू के पट्ठे को आदमी बनाने में कोई कम खर्च नहीं हुआ है, पूरा का पूरा इंफ्रा-स्ट्रक्चर तैयार कर हम आपको सौप रहें हैं, बस उत्पादन भर की देर है। सरकारी विभाग में इंजीनियर लग गया है। देखते जाइए, दोनो हाथों से कमाता चला जाएगा
दीपावली के अवसर पर प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं और कलेंडरों में आज तक एक भी ऐसा चित्र नहीं देखा है जिसमें कोई पुरुष दीपक जला रहा हो। औरत ही दीपक जलाती है। औरत ही दीपक का थाल सजाती है। माडलिंग करने वाली जीन्स और टाप से हमेशा सज्जित औरत कितनी भी आधुनिका हो, इस घड़ी वह पारम्परिक वेश में ही दिखती है। वह कांजीवरम या बनारसी साड़ी में ही होती है। सिर पर आंचल होता है, माथे में बिन्दी होती है, कलाइयों में चूड़ियां और शरीर पर परम्परागत जेवर होते हैं। इस सज-धज में वह साक्षात लक्ष्मी दिखती है। तलवार और शिवाजी, फूल और शाहजहां, घोड़ा और लक्ष्मीबाई, बंडी और जवाहर लाल, नेता और हेराफेरी की तरह दीपक और औरत भी एक दूजे के लिए बने होते हैं।
जिस किसी ने दुनिया के पहले दीपक का अविष्कार किया होगा वह इसमें छिपी सम्भावनाओं को देख कर चमत्कृत हुआ होगा और उसने उस दीपक को अपने पास खड़ी औरत को थमा दिया होगा। शायद यही आदिम सच्चाई है कि सदियों से औरत हाथ में दीपक लिए खड़ी है और उसके चारों ओर घुप्प अंधेरा- ही-अंधेरा है। चित्रों में मैंने औरत को फुलझड़ी भी जलाते देखा है। पुरुष आमतौर पर फुलझड़िया जलाना पसन्द नहीं करता। वे पटाखा और बम फोड़ते हैं। पुरुष जिस आग से खेलते हैं उससे दूसरे जख्मी होते हैं। औरत जिस दीपक को पकड़े होती है, उसकी लौ उसके ही आंचल की ओर लपकती है, फिर भी वह अपने आँचल में इस जलते हुए दीपक को छुपाती-बचाती चलती है ताकि चारों ओर उजास फैल जाए। यही संस्कार उसे मिले हैं। लेकिन यह उजास उसके जीवन में कभी प्रवेश नहीं करती है। औरत को हमारे यहां लक्ष्मी के नाम से भी पुकारा जाता है। लक्ष्मी के आसपास एक उल्लू भी होता है। इसमें मुझे कुछ अटपटा नहीं लगता है। दूसरे देशों की तरह हमारे देश में भी उल्लुओं की सदैव उपस्थिति रही है। पश्चिम में उल्लू बुद्धिमान पक्षी समझ जाता है, लेकिन हमारे यहां उल्लू मूर्ख माना जाता है। शायद पश्चिम में उल्लू अंग्रेजी ज्ञान के कारण अक्लमन्द हो गए और हमारे देश के उल्लू मूर्ख रह गए। इसीलिए आज हमारे यहां भी अंग्रेजी जानने और बोलने के लिए होड़ मची है। परन्तु मुझे नहीं लगता कि हमारे यहां के उल्लू मूर्ख हैं हां वे धूर्त हैं, बस लक्ष्मी भर मिल जाए तो हमारे उल्लू उसे खुशी-खुशी अपने कन्धों पर चढ़ा लेंगे। अशोक-कालीन बौद्धों के भरहुत स्तूप में देवताओं के खजांची कुबेर की पत्‍नी की आदमकद प्रतिमा खुदाई में मिली थी, एक रामवन के संग्रहालय में तो दूसरी भटनवारा ग्राम के काली मंदिर में स्थापित हैं। इन प्रतिमाओं में कुबेर पत्‍नी को पुरुष अपने दोनो हाथों की हथेलिओं पर उठाए चित्रित किया गया है। इससे जाहिर होता है कि हमारे यहां लक्ष्मी सिर या हाथों में उठाने की परम्परा बहुत पुरानी है। हमारे यहां उल्लू पर लक्ष्मी की सवारी होने का मिथक है। भरहुत की इन दोनों प्रतिमाओं से स्पष्ट भी हो जाता है कि उल्लू पर लक्ष्मी सवार होती है।
पता नहीं हमारे देश में यह कैसी मान्यता बन गई है कि उल्लू मूर्ख होते हैं। इसके चलते कई गालियां और मुहावरे भी प्रचलन में हैं। चुटकुलों और लतीफों में पति प्राय: मूर्ख और जोरू के गुलाम के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। इन चुटकुलों को गढ़ने वाले पुरुष ही हैं और वे इतने मूर्ख नहीं हैं कि अपने को ही मूर्ख बताते चलें। यह भी इनकी धूर्तता का एक प्रमाण है कि वे पति होते हैं जिसका अर्थ मालिक होता है किन्तु पत्‍नी मालकिन नहीं होती है। हालांकि पुरुष मौके-बेमौके उसे मालकिन की पदवी से अलंकित करता रहता है, क्योंकि वह जानता है कि कहने भर से कोई मालकिन नहीं हो सकती है। शादी के बाद वह न औरत रह जाती है और न मालकिन बन पाती है। सात फेरों के बाद वह पति की जायजाद बना दी जाती है। वह सीता-सावित्री-द्रोपदी-मंदोदरी-गांधारी तो हो सकती है, किन्तु मालकिन नहीं हो सकती। हमारे देश में औरत को लक्ष्मी कहा गया है। उसके भी हाथ में एक दीपक होता है, उसे वह हर शाम तुलसी-चौरा और घर में विराजे भगवान के आगे संध्या-बाती करके प्रार्थना करती है, मनुहार करती है कि लक्ष्मी के गर्भ से लक्ष्मी पैदा न हो जाए।
लक्ष्मी का आना उसके उल्लू को पसन्द नहीं है। उसके उल्लू को लक्ष्मी नहीं, एक उल्लू का पट्ठा चाहिए। पहले किसी जमाने में नवजात लक्ष्मी को नदी में बहा दिया जाता था ताकि उल्लुओं के सिर और उनकी मूंछे तनी रह जाएं। विज्ञान की अनुकम्पा से आजकल लक्ष्मी की भ्रूण हत्या कर दी जाती है। नदी की बजाए आज उसे नाली में बहा दिया जाता है। उल्लू का पट्ठा जवान होता है तो उसे एक लक्ष्मी की जरूरत होती है, जो रूपवती हो, गुणवती हो, शीलवती हो, ऐश्वर्या जैसी सुन्दर हो, सावित्री जैसी पतिव्रता भी हो, मल्लिका शेरावत जितनी सेक्सी हो और सीता जैसी आज्ञाकारी भी हो। उल्लू को इसके साथ एक ऐसी बहू चाहिए, जिसका बाप कुबेर हो और बेटी साक्षात लक्ष्मी हो। उल्लू कहता है कि उल्लू के पट्ठे को आदमी बनाने में कोई कम खर्च नहीं हुआ है, पूरा का पूरा इंफ्रा-स्ट्रक्चर तैयार कर हम आपको सौप रहें हैं, बस उत्पादन भर की देर है। सरकारी विभाग में इंजीनियर लग गया है। देखते जाइए, दोनो हाथों से कमाता चला जाएगा।
दूसरा उल्लू कहता है, उल्लू के पट्ठे को आदमी बनना है। बिजनेस-उजनेस करने का इरादा है, पूंजी तो चाहिए होगी न? आप भी नहीं चाहेंगे कि आपका दामाद उल्लू का पट्ठा भर रह जाए। लक्ष्मी आ जाती है और उसके हाथ में दीपक थमा दिया जाता है। उल्लू परिवार, तराजू और बही-खाता लेकर बैठ जाता है। वह तराजू पर लक्ष्मी को तौलता है, लड़की वालों ने डंडी तो नहीं मार दी, घटतौली तो नहीं कर दी? खोटा सिक्का तो नहीं थमा गए? बही-खाता मिलाया जाता है। लक्ष्मी के हाथ सिर्फ एक दीपक है। वह अलादीन का चिराग नहीं है। उसमें सिर्फ आग है। अगर लक्ष्मी समझदार हुई तो आग ही उसकी समस्या का समाधान है। उल्लू का पट्ठा भगवान को प्यारा हो जाता है। अर्थी उठ जाने के बाद मिट्टी के बरतन बाहर फेंक दिए जाने हैं। बहू, तूने क्या तय किया है? टूटे बरतन की तरह एक कोने में पड़ी रहेगी, या बाहर फिक जाएगी? तेरे हाथ में दीपक है, सती क्यों नहीं हो जाती? हम मंदिर बनवा देंगे, सती-चौरा बनवा देंगे। सती होना गैर कानूनी घोषित है, इसकी तू फिक्र मत कर, तू तो सती- लोक चली जाएगी और हम लोग चांदी-सोने की नौका से सरकारी बैतरणी मजे से पार हो जाएंगे। तेरी पूजा होती रहेगी और इस उल्लू परिवार की रोजी-रोटी की समस्या भी कई पीढ़ियों के लिए हल हो जाएगी। तू तो हमारी लक्ष्मी है न बहू !
चिन्तामणि मिश्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Friday, November 9, 2012

लगता है कि संवेदनाओं का अन्त हो गया है

अब तो दशरथ भोग रहे बनवास कहा जाता है कि बुढ़ापा अपने आप में महारोग है और मौत के आगमन तक इसे भोगने की विवशता होती है, किन्तु अगर यह रोग है तो इसका निवारण भी होना चाहिए। चिकित्सा विज्ञान के पास केवल शारीरिक व्याधि की रोकथाम का इलाज है, लेकिन आज का बुढ़ापा मानसिक तथा भावनात्मक रोगों से पीड़ित है जिसका इलाज किसी भी पैथी में नहीं है। आज वृद्ध जन परालम्बन, एकाकीपन, संवेदनहीनता और अवमानना के शिकार हैं। इसे उनके ही खून ने उनके ही आत्मीयजनों ने दिया है। बुढ़ापा अपने ही लोगों की हृदयहीनता का दंश भोगने के लिए शापित है। भरे-पूरे परिवार में भी रह कर बूढ़े मां-बाप के पास बैठने और दो-घड़ी बातें करने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है। बुढ़ापे को यह एकान्त अपने नुकीले पंजों में दबोचे रेशा-रेशा नोंचता रहता है।
इस समय हमारे देश में करोड़ों बुजुर्ग ऐसे हैं, जो अपने परिवारों के रहमों-करम पर किसी तरह अपने जीवन का अवशेष समय काट रहे हैं। अपने ही घर में अपने बेटों, बहुओं से मिले तिरस्कार और अपमान को चुपचाप सहन कर रहे हैं। अभी हाल में ही एक सर्वेक्षण की रपट ने खुलासा किया है कि बहुओं की अपेक्षा बेटों के हाथों वृद्धजनों को ज्यादा प्रताड़ना मिल रही है। पिछले चार दशक से बुजुर्गो को परिवार की मुख्य धारा से बाहर धकेलने का काम तेज हुआ है। बच्चों से मिल रहे अपमान और अकेलेपन के बीच दीवारों तथा छत को घूरते रहने, बोझ समझे जाने, परिवार द्वारा बार-बार फालतू होने की मुनादी करने से बुजुर्ग मानसिक स्तर पर भी बीमार हो रहे हैं। परिवार द्वारा बूढ़ों के साथ अपराधी जैसा व्यवहार किए जाने से वे जिन्दगी और मौत के मध्य त्रिशंकु बना दिए गए हैं।
इन हालातों का जिम्मेवार जनरेशन गैप भी है, किन्तु यही इकलौता कारण नहीं है। यह बड़ी अजब बात है कि अपने ही जनमदाता को बोझ समझ जाए। जिस उम्र में वे अपने बेटों बहुओं तथा पोते-पोतियों के साथ जीवन काल की संध्या को गुजारना चाहते हैं, उन्हें इस खुशी से वंचित किया जा रहा है। उनसे संवाद के हालात ही नहीं हैं। बेटों ने अपने मां-बाप के साथ इक तरफा कुबोल का रिश्ता कायम कर लिया है।
हम दो और हमारे दो के स्वार्थ में बेटे भूल जाते हैं कि घर में एक वटवृक्ष भी हैं जिसकी छांव में उनका बचपन, जवानी में परिवर्तित हो सका है। कितना विचित्र है कि जिसने अपनी जरूरतों से विमुख हो कर अनेकों कष्ट सह कर घर बनाया, उसके लिए उस घर में हम एक कमरा भी नहीं दे रहे हैं। हमारे नौकरों, हमारे कुत्तों हमारे मेहमानों के लिए अलग कमरों की व्यवस्था है किन्तु बूढ़े मां-बाप घर के पिछवाड़े गैलरी में पटक दिए जाते हैं और महीनों उनके कलेजे के टुकड़े पुत्र-रत्न अपने जन्मदाता से मिलने, दो बातें करने को जरूरी कर्तव्य ही नहीं मानते हैं। नौकरों के माध्यम से दो वक्त का खाना, कपड़ा तथा दवाएं उपलब्ध करा देना बुढ़ापे की समस्या का समाधान नहीं हैं। इनकी समस्या है कि उन्हें गूंगा-बहरा बना कर तनहाई का दंड, दिया जाना और संवाद शून्यता का व्यवहार है। कैसी नीच-हीन और स्वार्थी मानसिकता उस देश में पैर जमा चुकी है जहां श्रवण कुमार जैसे पुत्र हुए हैं।
हर उम्र में अकेलापन बहुत कष्ट देता है किन्तु बुढ़ापे में तो तन्हाई किरिच-किरिच तोड़ती है और यह टूटन बहुत भीतर ऐसी धस जाती है कि बुढ़ापा नर्क जैसा लगने लगता है। कोढ़ में खाज वाली हालत उस समय ज्यादा कष्टकारी हो जाती है जब इन बूढ़ों की जोढ़ी में से एक संसार से विदा हो जाता है तब बातें करने और एक दूसरे को संभालने के लिए कोई नहीं होता है। बेटों,बहुओं तथा पोतों के पास मोबाइल पर लम्बी बातें करने, इन्टरनेट पर घन्टों चैटिंग के लिए वक्त होता है। बहुएं समाज सेवा, धार्मिक सत्संग में हाजरी दे रही हैं, बेटे राजनीति पर घन्टों बतिआ रहें हैं, किन्तु घर में लावारिस पड़े बूढ़ों के लिए न समय है और न भावना बची है। जब कभी किसी अन्य सूत्र से बूढ़ों को वक्त देने की बात आती है तो इनकी भृकुटी चढ़ जाती है। आज का दौर उपभोगतावादी तथा स्वार्थ की गोद में बैठा है। हमारे पुराने संस्कार और हमारी विरासत विदा हो गई है। अब तो आज के राम ही अपने पिता को वनवास दे रहे हैं। इस वनवास की कोई अवधि नहीं है। इसका अन्त तभी होता है जब बूढ़े की अंतिम विदाई होती है। यह देख-सुन कर दुख होता है कि अपने बूढ़ों के लिए खाए-अघाए परिवारों में चुटकी भर दया, ममता, अपनापन, दायित्व- बोध नहीं बचा है। ऐसे कई बेटों को मैं जानता हूं कि अपने जनम-दाता के साथ एक ही छत के नीचे रह कर भी महीनों अबोले बने रहते हैं। अभागे बूढ़े घर के किसी कोने में जो उनको एलाट कर दिया गया है, सहमें से टुकुर-टुकुर खिड़की से बेटे को आते-जाते देखते रहते हैं। यह राहत की बात है कि गरीब घरों में अभी बूढ़ों से संवाद का नाता टूटा नहीं है।
मेरे मुहल्ले में इंजीनियर के पिता का निधन हुआ, रात के आठ बजे उनकी पत्‍नी और विधवा मां भूतल में बने बैठका में शोक प्रगट करने वालों से मिलती रही और फिर बहू-बेटे ने उन्हें अपने कमरे में जाने को कह कर नौकरानी के हाथ कमरे में हमेशा की तरह खाना भिजवा दिया। मां का कमरा दूसरी मंजिल की छत पर था, जहां दोनों बूढ़े-बुढ़िया रहते थे। पति से बिछुड़ी बुढ़िया सारी रात अकेली छत के कमरे में रही, यह सिलसिला एक रात का नहीं था, हमेशा का है। किसी में मानवता का थोड़ा भी अंश नहीं था कि कम से कम कुछ दिन तो मां के साथ बेटा रह कर मां को दुख से उबारने में सहयोग करता। मुझे यह बात मेरे नौकर ने बताई वह इंजीनियर के भी घर में काम करता है। जिस महिला का पति आज ही उसे छोड़कर कभी वापस न आने के लिए चला गया हो, उसके अपने बेटे और बहू ने इस तरह बेसहारा और अकेला कैसे छोड़ दिया? जिन बेटों के अच्छे जीवन के लिए मां-बाप अपना खून-पसीना एक कर देते हैं, कितनी ही रातें आंखों में काट देते हैं। जीवन के अंतिम दौर में वही बेटे एक रात भी उनके पास रहने को राजी नहीं होते। लगता है कि संवेदनाओं का अन्त हो गया है। हम जेब से जरूर भारी होते जा रहें हैं, पर मन से बेहद हल्के हो गए हैं।
चिन्तामणि मिश्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Thursday, November 8, 2012

इस शिक्षा से कैसी अपेक्षा

आज अमेरिका, ईराक, ईरान को भले आंख दिखाए, क्यूबा की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसलिए कि उनकी साक्षरता में देश भक्ति की भावना है। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली भी देशभक्ति का एक भी पाठ सिखा रही है। यदि ऐसा हुआ होता तो लाखों लोग विदेश न भागते। प्रतिभा पलायन अपने देश से अधिक किसी अन्य देश में नहीं है क्यों? क्या किसी की दृष्टि इन बिन्दुओं की ओर कभी जाती है।
 अपने देश में आजादी के बाद जितना बड़ा मजाक शिक्षा के साथ हुआ उतना किसी अन्य व्यवस्था के साथ नहीं।
आजादी के पहले शहरी विद्यालयों में भले ही मैकाले के काले अंग्रेज तैयार होते रहे हों, ए.वी.एम. स्कूल रहे हों, परन्तु गांवों में हिन्दी मिडिल स्कूल होते रहे। शिक्षा का अधिकार कानून नहीं था। शिक्षा से लाभ का अर्थ होता था सरकारी नौकरी पाना।
उत्तीर्ण होने का कोई शार्ट कट नहीं था। पाठ याद करने पड़ते थे, परीक्षा अपने दम पर उत्तीर्ण करनी पड़ती थी, नकल चोरी से होती थी सीनाजोरी से नहीं। आजादी के बाद शिक्षा में इतने प्रयोग हुए कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ही गायब हो गया। शिक्षा देश का सबसे सुरक्षित व्यवसाय है, इस व्यवसाय में लगे लोगों का हर्र और फिटकरी तो बहुत कम लगता है परन्तु रंग बहुत चोखा आता है।
देश का मानक वही संस्थान बनता है जहां के छात्र देश के सच्चे नागरिक नहीं कुशल प्रशासक बनते हैं। के.टी.शाह बापू के प्रिय थे, शिक्षाविद् थे। बापू ने पूछा- आजाद भारत के लिए कैसी शिक्षा तैयार कर रहे हो। बापू के आगे कौन सुझव दे। के.टी. शाह ने कहा- आप बताइये न, कैसी शिक्षा हो। बापू ने कहा - के.टी.!
अगर मैं किसी कक्षा में जाकर यह पूंछू कि मैंने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक हजार में बेच दिया तो मुङो क्या मिलेगा? बापू ने कहा- अगर पूरी कक्षा के छात्र यह कहें कि आपको जेल की सजा मिलेगी तो मैं मानूंगा कि आजाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक यही शिक्षा सवरेत्तम है। बापू का आशय था कि किसी व्यापारी को यह अधिकार नहीं है कि चार आने की वस्तु को बारह आने का लाभ कमाये। यदि ऐसी नैतिक समझ छात्र में नहीं आई तो शिक्षा का क्या मतलब? क्या इस तरह की शिक्षा का कोई संस्थान अपने बापू के देश में हैं? शिक्षा का अधिकार कानून शत्-प्रतिशत उन कॉरपोरेटों के संस्थान में क्यों नहीं है। दस पांच प्रतिशत का लॉलीपॉप हीन भावना के सिवाय छात्रों को क्या देगा। नौकरशाह और अंग्रेज बनाने वाली शिक्षा के चलते पद और पैसे ही व्यक्ति की हैसियत तय करते हैं। शिक्षक बनने की होड़ खत्म हो चुकी है, पटवारी की नियुक्ति स्थाई और शिक्षक की नियुक्ति संविदा / कर्मी/ मित्र के रूप में होती है। शिक्षक राष्ट्र निर्माता हैं, जैसे शब्द बेमानी हो गए हैं। सेंट्रल एडवाजरी बोर्ड आफ एजुकेशन की 59वीं बैठक में मानव संसाधन मंत्री ने साफ कहा कि शिक्षक बिरादरी उतनी शिक्षित नहीं है जितनी कि इसे होना चाहिए। केन्द्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारें सबसे अच्छी प्रतिभाओं को शिक्षा से जोड़ने में नाकाम रही हैं। पता नहीं यह सुभाषित किसके लिए कहा जा रहा है और इस व्यवस्था को कौन अंजाम देता रहा है यह सिर्फ कपिल सिब्बल साहब जानते हैं। विदेशी शिक्षा संस्थानों से शिक्षा प्राप्त नेता भारत को इंडिया बनाने में लगे हैं।
संसार के सभी शिक्षा शाी प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में देने की बात करते हैं परन्तु भारत में प्राथमिक कक्षाओं में ही अंग्रेजी पढ़ाने की बात ज्ञान आयोग करता है और सरकारें उसको ‘सिरसा नमामि’ स्वीकार करती हैं। अंग्रेजी शिक्षा संस्थानों में आरटीई के तहत भर्ती छात्रों की पहचान अन्य छात्रों की तरह नहीं ‘आरटीई वाले बच्चों’ के रूप में करके उन्हें दलित, पिछड़े, गरीब और अंत्यज की परिभाषा का व्यावहारिक रुप दिया जाता है। सरकारी स्कूलों में रामानुजम्, कलाम और राधाकृष्णन बनने की कल्पना अब नहीं की जा सकती। पाठय़क्रमों के इतर छात्र को नौतिकता की शिक्षा कौन देगा।
देश भर के प्राथमिक और जूनियर विद्यालय मध्यान्ह भोजन के लिए चल रहे हैं, अध्ययन विद्यालयों में दोयम दज्रे पर है।
स्कूलों को गरीबी-अमीरी में बांच कर विषमता की खाई कौन खोद रहा है। प्रायवेट स्कूलों के परिणाम सरकारी स्कूलों से बेहतर क्यों आ रहे हैं। पढ़ने में सबसे कमजोर, जुगाडू किसी सरकारी या प्रायवेट काम लायक नहीं लेकिन नेता होकर शिक्षा नीति पर व्याख्यान दे रहा है। शिक्षकों पर तंज कसने वाले लोग हर जगह मिलेंगे। कर्ज लेकर पढ़ने पाले प्रतिभाशाली छात्र, विदेशों में प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं। मातृभूमि का कर्ज पटाने का कोई पाठ उन्हें पढ़ाया ही नहीं गया। अपमान सहते हुए भी वे विदेश के गुण गा रहे हैं। मां-बाप और देश की जीवन शैली ही भूल गए।
नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा दिलाने का कानून बने दो वर्ष हो गए परन्तु उसके कार्यान्वयन की स्थिति कुछ ऐसी है कि किसी भी स्कूल में पूरे शिक्षक नहीं हैं। कुछ वर्ष पहले स्कूलों में ओवर स्टाफ की समस्या रहती थी अब ऐसा क्यों हो रहा है, यह आम आदमी का प्रश्न है। शिक्षकों का प्रशिक्षण भी मात्र औपचारिकता बनकर रह गया है। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित राष्ट्रीय शिक्षक दक्षता जांच में शामिल तिरानवे प्रतिशत शिक्षक फेल हो गए। राज्यों की हालत इससे भी बदतर हैं।
जिन शिक्षकों के सिर पर संविदा की अनिश्चियी तलवार लटकती हो, उनसे राष्ट्र निर्माण की कल्पना कैसे की जा सकती है। शिक्षा का अधिकार कानून को संवैधानिक दर्जा देकर सरकार निश्चिंत है कि इस जादुई छड़ी से साक्षरता शत्-प्रतशित हो जाएगी। मध्यान्ह भोजन के कारण गांवों की सरकारी स्कूलों में संख्या वृद्धि अवश्य हुई है परंतु शहरों में दूसरे के घरों में बर्तन साफ करने वाली का लड़का सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ता। वह अपने लड़के को किसी अंग्रेजी प्रायवेट स्कूल में महंगी फीस देकर पढ़ाती है।
लैटिन अमेरिका का एक छोटा सा देश क्यूबा, जिसने संयुक्त राज्य अमेरिका की तमाम धमकियों के बावजूद अपना अस्तित्व पूरी शिद्दत से बना रखा है, शत्-प्रतशित साक्षर है। राष्ट्रपति फिदेल काो ने अनौपचारिक शिक्षा का अप्रतिम प्रयोग करते हुए, बच्चों में देशभक्ति की भावना कैसे उत्पन्न की। उन्होंने देश के बच्चों से पूछा- क्या आपको अच्छा लगेगा कि कोई आपके देश को अनपढ़ कहे। यदि आप अपने देश को पढ़ा लिखा देशभक्त देखना चाहते हों तो आप सबको शिक्षक बनना पड़ेगा।
कक्षा आठ पास सभी बच्चे स्कूल के बाद लालटेन, किताब-पट्टी लेकर पहाड़ी गांवों-नगरों में निकल पड़े बच्चों, प्रौढ़ों को पढ़ाते ये बच्चे अपने नियमित स्कूल भी जाते। तीन वर्ष में तेरह से पंद्रह साल के बच्चों में क्यूबा को शिक्षित कर दिया। आज अमेरिका, ईराक, ईरान को भले आंख दिखाए, क्यूबा की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसलिए कि उनकी साक्षरता में देश भक्ति की भावना है। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली भी देशभक्ति का एक भी पाठ सिखा रही है। यदि ऐसा हुआ होता तो लाखों लोग विदेश न भागते। प्रतिभा पलायन अपने देश से अधिक किसी अन्य देश में नहीं है क्यों? क्या किसी की दृष्टि इन बिन्दुओं की ओर कभी जाती है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430.