Saturday, November 3, 2012

बेटिया पुरुष सत्ता की थोपी गई मान्यताओं की शिकार


चिंतामणि मिश्र
नवरात्रि में देवी के नौ स्वरूपों का पूजन भक्ति और श्रद्धा से सम्पन्न करके भक्तजनों ने माता-रानी के आशीर्वाद तथा उनकी कृपा पाने की आकांक्षा हेतु जप-तप, भजन-पूजन किया और कन्याओं को देवी मानकर घर में आमंत्रित करके उनके चरण पखारे, उन्हें भोजन कराया, वस्त्र और दक्षिणा देकर विदा किया। किन्तु कभी विचार किया कि क्या हमें देवी माता की कृपा- आशीर्वाद मिलेगा? क्या हम अजन्मी कन्याओं की गर्भ में ही हत्या के सहभागी बन कर असुर-संहारिनी की दया पाने के अधिकारी हैं? असलियत तो यह है कि लोग मौका पाते ही अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए समय के अनुकूल मुखौटे पहन लेते हैं। सच यह है, हमारे समाज की मानसिक बुनावट दुहरी है। गर्भ में ही कन्या का बध आसुरी सोच का नतीजा है। देवी ने तो असुरों का संहार करने के लिए ही शक्ति-स्वरूपा अवतार लिया था अजन्मी कन्याओं के बधिक माता रानी का आशीर्वाद तथा कृपा कैसै पा सकते हैं? बेटे की चाहत ने समाज की मानसिकता को किस हद तक विकृत कर दिया है उसकी भयावह तस्वीर चिकित्सा जगत की अंतरराष्ट्रीय स्तर की पत्रिका "लौसेट" ने अपने अध्ययन में बताया है कि पिछले तीन दशक के दौरान लगभग एक करोड़ इक्कीस लाख कन्याओं को गर्भ में ही मार डाला गया। कैसी विडम्बना है कि हम उस महान देश के निवासी हैं जहां कन्याओं को देवी माना जा कर उनकी पूजा की जाती है किन्तु वंश चलाने से लेकर हर हाल में दूसरी सामाजिक परम्पराओं के निर्वाह हेतु बेटा हासिल करने के लिए बेटी की बलि चढ़ाई जाती है। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते का मंत्र जाप, देवी भागवत पुराण के साथ दुर्गा सप्तसदी का पारायण किया जाता है, यह ढोंग नहीं तो आखिर क्या है?
देश में कन्या भ्रूण हत्या की समस्या विकराल होती जा रही है। भारतीय समाज में बेटिया शुरू से ही पुरुष सत्ता की थोपी गई मान्यताओं की शिकार हैं। बेटियों को पराया धन समझने के संस्कार अभी भी बरकरार हैं। चांद और मंगल पर पहुंचने वाला समाज अभी भी बेटियों को बोझ मान रहा है। आर्थिक समपन्नता और शिक्षा आने पर भी बेटियों को हेय मानने की गांठ अभी भी बनी है। यही मनोवृति बेटियों को गर्भ में ही मार डालने के अपराध और पाप तक ले जाती है। तकनीक का दुरुपयोग किस बेशर्मी से हमारा समाज कर रहा है, उसका उदाहरण कोख में ही कन्या भ्रूण की हत्या है। इसकी रोकथाम के लिए कानून बना है किन्तु कानून को धता बता कर लिंग परीक्षण और अवैध गर्भपात का व्यापार खुले आम हो रहा है। यह धंधा अब शहरों की सीमा को पार करके कस्बों तक फैल गया है। कन्या भ्रूण हत्या जिन्दा रहने के अधिकार का हनन है। कानून अक्षम तो नहीं है किन्तु लाचार है। चार दशक पहले तक दाई-दादी और मां नवजात, अवांछनीय कन्या की हत्या सोबर में ही कर देती थी। अब लालची चिकित्सक से अपनी अजन्मी बेटियों की गर्भ में ही कब्र बनवाई जाने लगी है।
यह जितना मानवता, समाज और कानून के खिलाफ है, उससे बड़ी समस्या यह है कि लोगों की मानसिकता में यह इतने विकृत रूप में गहरे पैठ चुकी है कि इसका मुकाबला केवल कानूनी स्तर पर नहीं हो सकता है। इस महा पाप का अब भयावह असर भी दिखने लगा है। देश के कई प्रदेशों में शादी के लिए लड़कियों का मिलना कठिन हो गया है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान गुजरात सहित बुन्देलखंड में उड़ीसा, बंगाल, झरखंड के गरीब परिवारों से लड़कियां खरीद कर लाई जा रही हैं। पैसों की दम पर कम उम्र की गरीब-बेबस लड़कियों को किसी भी उम्र के आदमी के साथ विवाह का नाटक करके सौंप दिया जाता है। अब तो कुछ चालाक, चतुर लोगों ने इसे धंधा बना लिया है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ढांचा भी इसके लिए जिम्मेवार है। सामाजिक मान्यता के अनुसार पुत्र ही पितरों को पिंडदान दे सकता है और वही पितरों को मोक्ष दिलावाने वाला होता है। बेटे के बिना परिवार पूरा नहीं माना जाता है। अमीर- गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, ग्रामीण-शहरी सभी वर्ग में बेटों की चाह सर्वोपरि है। सम्पति में हिस्सा, विवाह के समय दहेज की मांग, ससुराल में उत्पीड़न, छेड़छाड़-बलात्कार का भय, पराई समझी जाने वाली लड़कियों की शिक्षा पर व्यय की सोच के चलते लड़कियों के प्रति उपेक्षा का पहाड़ लोगों की छाती पर खड़ा कर दिया है। माना जाता है कि पढ़े-लिखे सामाजिक समूहों में चेतना का विकास अधिक होता है। मगर कन्या भ्रूण हत्या के मामले में ऐसी धारणा खंडित हुई है। पिछली जनगणना के अनुसार पिछड़े अशिक्षित, गरीब और सबसे निचले तबकों के बीच कन्या शिशुओं की संख्या में खासी बढ़ोतरी हुई है, जबकि सम्पन्न इलाकों और शिक्षितों के बीच कन्या भ्रूण हत्या गम्भीर शक्ल में उपस्थिति है। यह हमारे विकास की उस समूची अवधारणा को दिग्भ्रमित करती है जिसमें आर्थिक समपन्नता और शैक्षणिक उपलधियों के बीच परम्परा से चले आ रहे पूर्वग्रहों के बने रहने में कोई परेशानी महसूस नहीं की जाती।
बेटियों को समाज में उनकी वाजिब जगह न मिल पाने के लिए हमारी पितृ-सत्तात्मक मानसिकता जिम्मेवार है। समस्या कितनी गम्भीर है, इसकी परवाह न परिवार को है और न ही समाज को। इसका समाधान सरकारी स्तर पर नहीं हो सकता। इस अवैध और समाज-विरोधी महापाप का उन्मूलन स्वंयसेवी संस्थाओं और सामाजिक तथा जातीय सगठनों के ईमानदार प्रयास से ही हो सकता है। इस दिशा में अंतिम उम्मीद मां से भी की जा सकती है। उसकी चेतना का द्वार खटखटाया जाए तो वह अवश्य अपनी अजन्मी बेटी को बचाएगी। दरअसल, समाज सुधार आन्दोलन गांधी वध के बाद हमारे यहां बन्द हो गए, अब तो समाज राजनैतिक ताकत जुटाने के लिए बोट बैंक का ही धतकरम कर रहे हैं। भ्रूण हत्या का महापाप महाभारत युद्ध के बाद अभिमन्यु की पत्‍नी उत्तरा की कोख में पल रहे परीक्षित पर गुरू द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने ब्रम्हास्त्र चला कर किया था किन्तु श्री कृष्ण ने अपने सुर्दशन चक्र से गर्भ की रक्षा की थी। यह सही है कि इसके पीछे शत्रुतापूर्ण बदले की कायर भावना थी। आज सन्दर्भ जरूर बदला है, किन्तु मानसिकता तो वही है। हम अपने नपुसंक घमंड के चलते कन्याओं के साथ शत्रुता ही तो भुना रहे हैं। हम भी अश्वत्थामा की भूमिका में हैं। उत्तरा के गर्भ को तो श्री कृष्ण ने बचा लिया था किन्तु आज इन अजन्मी कन्याओं को बचाने वाला कोई नहीं है। श्री कृष्ण तो नहीं आयेंगे, हमें ही उनके पथ पर चलना होगा।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं एवं चिंतक हैं।)

1 comment:

  1. श्रीकृष्‍ण तो आएंगे नहीं ..
    हमें ही सब करना है ..
    सटीक कहा

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