पिछले एक दशक से मैं कवि सम्मेलनों और काव्य गोष्ठियों में जाने से कतराता-बचता रहता हूं, क्योंकि मंचों में पढ़ी जाने वाली कविताएं सुनकर मन खिन्न हो जाता है। इन कवि सम्मेलनी मंचों पर सब कुछ होता है, केवल कविता नदारत रहती है। चुटकुलों का कविता में बदल जाना मंचीय कविता का चमत्कार भी होता है और फरेब भी। मौजूदा समय के तनाव को मंचीय कविता हंसोड़ किस्म के जुमलों में बदल कर बेशक उपस्थित भीड़ में हास्य पैदा करती हो किन्तु वह सरोकारों से वंचित सरोकारों का ही रचाव करती है। मंचीय कविता में हमेशा राष्ट्रवाद की दहाड़ सुनाई देती है। सारा खेल बाजार के डिमांड और सप्लाई के फार्मूले जैसा होता है। मंच पर कश्मीर, कारगिल, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, पाकिस्तान की अच्छी खपत होती है। कश्मीर हमारी राजनीति का ही नहीं, मंचीय कवियों के लिए भी कभी खतम न होने वाला मुद्दा है- "दूध मांगोंगे तो खीर देगें/ कश्मीर मांगोंगे तो चीर देगें" जैसी कविताएं मंचों पर छन कर आई और ट्रकों के पीछे लिखे नारों में बदल गई। ऐसी कविताएं भावनाओं के डरावने खेल खेलती हैं। आखिर क्या वजह है कि संवेदनशील साहित्यकारों से लेकर तमाम बुद्धिजीवियों ने परमाणु बमों का विरोध किया, लेकिन मंचीय कविता परमाणु विस्फोटों पर जयकारे लगाती है। मंचीय कवि व्यवस्था विरोध का नाटक रचते हैं और उसी मंच पर विराजे मंत्रियों, सांसदों विधायकों, नौकरशाहों के आगे अपनी मुंडी झुका कर दो रुपए वाली माला पहनते हैं, शाल और नारियल लपक कर धन्य होते हैं। इन्हीं का आर्शीवाद लेकर कविता पढ़ते हैं। मंचीय कविता का व्यवस्था विरोध खूबसूरत मसखरी का रूप धारण कर चुका है।
मंचीय कवियों ने वातावरण इतना दूषित, विकृत और हास्यास्पद बना दिया है कि कवि सम्मेलन भी भगवती जागरण की फोटो-स्टेट कॉपी बन कर रह गए हैं। फर्क करना ही कठिन है। एक में रात भर डीजे का शोर- शराबा, भक्ति रस में डूबे भक्त जन और अनिद्रा के शिकार आस-पास के निवासी तो दूसरी ओर चुटकुलों की मशीनें, झग जैसा वीर रस और गीतकारों की आंसू उगलती भावुकता। बहुत सारे मंचों पर बहुत सारे कवि-गीतकार एक ही कविता का पाठ करते नजर आते हैं- वतन के सिपाही वतन बेच देगें, कलम के सिपाही कलम बेच देगें। कवि महोदय को यह भी बताना चाहिए कि वे क्या बेच देगें? सबसे ज्यादा धंधा करने वाले तो मंचीय कवि ही हैं। दुकानदारी का आलम यह है कि मंच के पापुलर हास्य कवि, गीतकार, गजलकार लगभग सारा साल बुक रहते हैं। वे अपनी बार-बार सुनाई गई कविताओं के बार-बार सुनाने में परहेज नहीं करते। एक ही उत्पाद बार-बार बिकता रहे, क्या हर्ज है? संकोच कैसा? शर्म कैसी?
मंचीय कवियों की बुकिंग का गणित जटिल होता है। एक सीधा-सादा कवि जब मंचीय होने लगता है, तो शुरू-शुरू में उसके पास कुछ ठीक-ठाक सी कविताएं और गीत होते हैं, लेकिन वही कवि जब मंचीय गणित सीख लेता है, तो उसके पास गणित होता है, किन्तु कविता और गीत नहीं होते। जोड़- तोड़ और आयोजकों को पटाना, कवि सम्मेलनों के आमंत्रण हासिल करना, बारगिनिंग और मार्केटिंग के सब तत्व मंचीय कवि सम्मेलनी कवियों में शामिल होते हैं। जो इन गुणों में पारंगत होते हैं उन्हें कवि सम्मेलनों का मंच और लिफाफा मिलता है, जिनमें ये तत्व विकसित नहीं हो पाते वे धीरे-धीरे मंचीय तंत्र द्वारा खारिज कर दिए जाते हैं। मंचीय कवियों की बिरादरी के बीच ठेकेदार नाम का एक कवि भी होता है जो आयोजकों और कवियों के बीच सूत्रधार बनता है। वह आयोजकों द्वारा बताएं गए कवियों की लिस्ट में दो-तीन अपने ऐसे कवियों के नाम घुसेड़ देता है, जिन्हें कविता की कुडंली भी नहीं मालुम। आज कल मंचीय कवियों की ठेकेदारी ऐसी ही होती है। तू मेरी पीठ खुजला और मैं तेरी पीठ खुजलाता हूं वाली कहावत इस तरह चरितार्थ हो जाती है। लगभग साल भर व्यस्त रहने वाले मंचीय कवियों के समीकरण अलग तरह के होते हैं। ऐसे कवि एक अदद शिष्या पाल कर रखते हैं और अपने पारश्रमिक के साथ शिष्या का भी पारश्रमिक बता देते हैं।
मेरी बस्ती में आधा दजर्न ऐसे मंचीय कवि जो बा-कायदे अपना रेट कार्ड छपवाए हुए हैं, इसमें उनका परिचय राष्ट्रीय कवि के रूप में छपा हैं। वैसे-मुहल्लों में होने वाले कवि सम्मेलनों को राष्ट्रीय नाम का लेबल चस्पा करने की परिपाटी चल रही है। मंचीय कवि सम्मेलनों में उठा-पटक की कूटनीति भी खूब चलती हैं। एक दूसरे को नीचा दिखाना, दाद न देना, तालियां न बजाना, अश्लील फिकरे कसना आम बात है। इसके विपरीत भी होता है। मंचीय दोस्ती भी निबाही जाती है। अगर कवि अपने अखाड़े का हुआ तो उसकी निकृष्ट कविता पर दाद लुटाई जाती है। कवि सम्मेलनों में अजब-गजब प्रपंच भी रचे जाते हैं। मंचीय कवि सम्मेलनों में नारी प्रताड़ना बिकाऊ माल होता है, जिसमें नारी विमर्श का तड़का भी लगा होता है। देखिए अदभुत नजारा- रात का सन्नाटा, कवि सम्मेलनी रात, उपस्थित और शिक्षित श्रोता, मंच पर माइक के सामने युवा कवियत्री साड़ी का पल्लू संवारे, आदर्श भारतीय नारी की छवि, ओढ़ी हुई मुद्राएं, मंजी हुई अदाकारी, सधा हुआ स्वर, आवाज में उतार-चढ़ाव। श्रोताओं के आगे नारी प्रताड़ना का नाटक जारी है- मां तूने दहेज में सभी उपयोगी वस्तुएं दे दी- तेरा आभार मां! कृतज्ञ हूं मै तेरी, कि तूने सारा साजो-सामान दिया। लेकिन एक चीज देना भूल गई मां! एक अदद कैरोसिन की बोतल कि वक्त जरूरत उसका उपयोग कर सकूं! फिर सन्नाटे को तोड़ती तालियां। कवियत्री, जिस चिथड़ा कविता के जरिये भावुक प्रपंच रचती हैं वह सफल होता है।
मंचीय कविता का निरन्तर पतन हुआ है और यह सिलसिला अभी भी चल रहा है। कविता और गीत के पिटने के लिए मंचीय कविता जिम्मेवार है। मंच ने कविता और गीत को इतना विकृत किया है कि वे कहीं के नहीं रहे। एक जमाना था जा पंत, निराला, बच्चन, नेपाली, नीरज, दिनकर आदि मंच पर गीत-कविता पढ़ते तो गरिमामय अनुशासित वातावरण बनता था और आज नौटंकी के आंगन में भड़ैती हो रही है। मेरी बस्ती में तो नव दौलतियों ने तेरहवीं-बरसी में, लल्ला के मुडंन, वर्षगांठ पर कवि सम्मेलनों का शौक शुरू कर दिया है और कविगण इनमें सशरीर उपस्थित होकर भडांरा भोज तथा गांधी बाबा के दो-चार फोटो वाले सरकारी कागज रखते हुए कविता का पिंडदान कर रहे हैं।
चिन्तामणि मिश्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
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