कवि: रामधारी सिंह "दिनकर" | ||
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे कहो कहाँ कब हारा? | ||
क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम तुम हुये विनीत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही | ||
अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है | ||
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है उसका क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल है | ||
तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिंधु किनारे बैठे पढते रहे छन्द अनुनय के प्यारे प्यारे | ||
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नही सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से | ||
सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज दासता गृहण की बंधा मूढ़ बन्धन में | ||
सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की संधिवचन सम्पूज्य उसीका जिसमे शक्ति विजय की | ||
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है |
Friday, November 23, 2012
क्षमा सोभती उस भुजंग को
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