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मित्रता (दोस्ती) संसार का सबसे प्यारा और खूबसूरत सम्बन्ध है। व्यक्ति का मित्रहीन बनकर रहना असम्भव है। मित्रहीन जिन्दगी कोई जिन्दगी नहीं है, इसीलिए प्रत्येक प्राणी मित्र की आवश्यकता महसूस करता है। मित्रता में किंचित स्वार्थ तो है, अपेक्षाएं भी हैं, परंतु रिश्तों से कम। रिश्तों से हम अधिक अपेक्षाओं की आशा करते हैं इसीलिए उनके टूटने पर हाय तौबा मचाते हैं, परंतु मित्र से सम्बन्ध विच्छेद होने पर हम चुप रहते हैं, घुटते हैं, किसी से कह नहीं पाते क्योंकि यह अपनी सृष्टि का कच्चा माल है जो समझ के आंव में पकता है, टूटता है और फिर बनता है। प्यार की तरह मित्रता भी,की नहीं जाती, हो जाती है। जिस तरह योजना बनाकर प्यार नहीं किया जाता, उसी तरह मित्रता भी सोच समझकर नहीं की जाती। मित्रता मनुष्य की जागृत अवस्था है, जबकि प्रेम स्वप्नवस्था। फिर भी मित्र और प्रेम को किसी फ्रेम में बांधकर परिभाषित नहीं किया जा सकता। भगवत रावत निजी सम्बन्धों (मित्रता) के बड़े कवि हैं, उन्होंने कहा है- ‘अगर कभी ऐसा समय पड़े मुझ पर/ कि कविता और दोस्ती के बीच/ किसी एक को चुनना पड़ जाए/ तो मैं खामोशी से/ बिन कुछ कहे चुपचाप/ विदा मांग लूंगा कविता से/और गुम हो जाऊंगा/’ मित्रता प्रकृति का वरदान है, जिसे यह वरदान मिलता है उनके लिए कबीर ने भी जग से जाने पर रोने की बात कही है। मित्रता समान स्वभाव, लक्ष्य कर्म के कारण होती है। इसकी शुरुआत में कुछ तो तपाक से गले लगकर मिलते हैं, कुछ धीरे-धीरे सूर्य के सुबह और शाम को पड़ने वाली छाया की तरह समय के साथ विकसित होते हैं। बचपन से लेकर वृद्ध होने तक मित्रता का अबाध सिलसिला चाहे अनचाहे चलता रहता है। जिस मित्र ने मित्रता को वृद्धावस्था में सहेज लिया वह देहत्याग के बाद भी जीवित रहता है। मित्रता जीवन का सहारा है,भाव है। जीवन संगीत में यह भाव संवादी और विवादी सुरों के बावजूद आनंदमयी है। मित्रता मिथक भी है, यूटोपिया भी। इतिहास, पुराणों एवं उपनिषदों तक में अनेक कहानियां इसके इर्द-गिर्द रची गई हैं। जिन्दगी के क्रम में उनका पुनर्पाठ होता रहता है। आमतौर से भारतीय जीवन में मित्रता के उदाहरण रामायण-महाभारत के संदर्भ से दिये जाते हैं। राम काव्य में मित्रता का प्रारंभ केवट प्रसंग से शुरु होता है। राम के बाल्यकाल में कोई मित्र नहीं है। चारो भाई ही आपस में ही मित्र हैं। घर और राज्य में मित्र नहीं, वन में मित्रता की शुरुआत होती है, कार्य कारण और स्वार्थ वश। वंचितों का समूह राम में सहारा पाता है। दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। बिना बालि की बात सुने सुग्रीव पर राम का विश्वास डगमगाता दिखता है जब राम कहते हैं- ‘अचल करौं तन राखहुं प्राना’विभीषण की मित्रता भले ही राम को सिद्धि दिलाए, लोक विभीषण को न मित्र मान सका न भक्त, अलबत्ता ‘मानस’ को धर्मग्रंथ मान बैठा। हनुमान को राम मित्र बनाना चाहते हैं, लेकिन वे दास बनना बेहतर मानते हैं। बिना किसी अपेक्षा, निष्काम भाव से, हालांकि राम का स्वार्थ था। मित्रों के अभाव में व्यक्ति अहंकारी एवं दमनी हो जाता है। रावण न भाई कुम्भकर्ण की बात मानता है न मंदोदरी की। तुलसीबाबा ने मित्र के बारे में कहा है- ‘कुमति निबारि सुयंश चलाबा/गुन प्रकटै अवगुनहिं दुराबा।’ देवताओं के पास मित्र भाव सिर्फ स्वार्थ वश ही हुआ करता था या संकटग्रस्त होने पर, वह भोगवादी जाति थी। महाभारत में कृष्ण और अजरुन की मित्रता रिश्तों पर ज्यादा केन्द्रित थी। कृष्ण और श्रीदामा की मित्रता सहपाठी की मित्रता थी। श्रीदामा की मित्रता धारदार थी। खेल में दांव न देने पर वह कृष्ण से भिड़ जाता है- ‘या अधिकार जनाबत मोंसो, अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयां।’श्रीदामा का पता लगाने कभी कृष्ण गए होते तो मित्रता निहाल होती? मित्रता गर्व का भाव है। द्रुपद और द्रोण भी सहपाठी थे। द्रुपद राजा हुए, द्रोण आचार्य और अभावग्रस्त। द्रुपद के राजदरबार गए, उन्होंने द्रोण को पहचाना अवश्य लेकिन मित्रता की परिभाषा बता दी, मित्रता समान लोगों की होती है, राजा की भिखारी से कैसी मित्रता? पूरे महाभारत में एक ही मित्रता के सामने सारे मित्र छोटे पड़ जाते हैं कर्ण और दुर्योधन की मैत्री। दोनों के स्वभाव, चरित्र में कहीं भी मेल नहीं। एक अहंकारी, दम्भी, दूसरा विनीत, मितभाषी एवं व्यवहारी, तमाम दुरभिसंधियों से असहमत होते हुए भी दुर्योधन के लिए जीवन देने के लिए सदैव कर्ण उद्धत रहता है। कृष्ण से कहता है कि ‘मित्रता बड़ा अनमोल रतन/कब इसे तोल सकता है दान/ धरती की तो है क्या बिसात/ आ जाय अगर बैकुंठ हाथ/ उसको भी न्यौछावर कर दूं/ कुरुपति के चरणों पर धर दूं/ यदि चले बज्र दुर्योधन पर/ ले लूं बढ़कर अपने ऊपर/ कृष्ण के किसी प्रलोभन का कर्ण के ऊपर कोई असर नहीं पड़ता। रश्मि रथी के कृष्ण स्वयं कहते हैं’ बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था। युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था।मित्रता को काल ही कसौटी पर कसता है। ब्रूट्स पर अनन्य विश्वास करने वाला जूलियस सीजर अब अपने विरुद्ध युद्ध में उसे देखता है तो आश्चर्य से कहता है- ‘बूट्रस यू टू’ मित्र के धोखे से हार के अतिरिक्त क्या? उद्देश्य पूर्ति के लिए बनाए जाने वाले समय सापेक्ष मित्र कालातीत और समय पर हस्ताक्षर नहीं करते। बाल और युवावस्था में मित्रों की भीड़ मिलती है। टूटने, रूठने मनाने और मुंह फुलाने के दिन बड़े मनोरंजक होते हैं। काम काज के दिनों के मित्र कार्य की निवृत्ति के बाद निरपेक्ष हो जाते हैं। वृद्धावस्था में जब मित्रों की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, मित्र कम होने लगते हैं, अत: लोग धर्म, प्रवचन, सत्संग के स्थल तलाशते हैं और एकांत में बैठ दूसरों की निंदा में अपनी ऊर्जा लगाते हैं। तीसरी चौथी कक्षा का मेरा अभिन्न मित्र जो आगे नहीं पढ़ सका था। शहर से जब भी गांव जाता उससे मिलने अक्सर जाता। उसने एक दिन छुट्टी के बाद घर पहुंचने के पहले हुई भारी ओलावृष्टि पर पेड़ के तने से मुङो चिपकाकर मेरा रक्षा कवच बन जिन्दगी बचाई थी। पांच वर्ष पहले जब उससे मिलने गांव जा रहा था, पूछने पर एक ने बताया, वे अब नहीं हैं- मैंने पूछा कब? बोला- सात महीने हो गए। संयोग से वही पेड़ था जहां उसने मेरे प्राण बचाए थे, मैं देर तक बैठा रहा उसी की यादों में खोया। उसी तने से उढ़का उसका ताप महसूस करता रहा। देखता हूं, हमारे ही बच्चों के अब कोई मित्र नहीं हैं, हैं भी तो सिर्फ स्वार्थ वश या पेशे के। अब क्या कोई कभी, किसी से ऐसा पूछता दिखता है जैसा भगवत रावत पूछते हैं- ‘सुनिये! आप बता सकते हैं/मैं/उसके बचपन का साथी/मुङो उससे कोई काम नहीं/इस तरफ निकला/तो सोचा/पता लेता चलूं/बिना किसी काम के यदि कोई किसी मित्र को पूछे तो बताइएगा, वह हमारा मित्र होगा। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क - 09407041430. |
Saturday, November 3, 2012
मतलबी दुनिया में मित्रता के अवशेष
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