अब तो दशरथ भोग रहे बनवास कहा जाता है कि बुढ़ापा अपने आप में महारोग है और मौत के आगमन तक इसे भोगने की विवशता होती है, किन्तु अगर यह रोग है तो इसका निवारण भी होना चाहिए। चिकित्सा विज्ञान के पास केवल शारीरिक व्याधि की रोकथाम का इलाज है, लेकिन आज का बुढ़ापा मानसिक तथा भावनात्मक रोगों से पीड़ित है जिसका इलाज किसी भी पैथी में नहीं है। आज वृद्ध जन परालम्बन, एकाकीपन, संवेदनहीनता और अवमानना के शिकार हैं। इसे उनके ही खून ने उनके ही आत्मीयजनों ने दिया है। बुढ़ापा अपने ही लोगों की हृदयहीनता का दंश भोगने के लिए शापित है। भरे-पूरे परिवार में भी रह कर बूढ़े मां-बाप के पास बैठने और दो-घड़ी बातें करने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है। बुढ़ापे को यह एकान्त अपने नुकीले पंजों में दबोचे रेशा-रेशा नोंचता रहता है।
इस समय हमारे देश में करोड़ों बुजुर्ग ऐसे हैं, जो अपने परिवारों के रहमों-करम पर किसी तरह अपने जीवन का अवशेष समय काट रहे हैं। अपने ही घर में अपने बेटों, बहुओं से मिले तिरस्कार और अपमान को चुपचाप सहन कर रहे हैं। अभी हाल में ही एक सर्वेक्षण की रपट ने खुलासा किया है कि बहुओं की अपेक्षा बेटों के हाथों वृद्धजनों को ज्यादा प्रताड़ना मिल रही है। पिछले चार दशक से बुजुर्गो को परिवार की मुख्य धारा से बाहर धकेलने का काम तेज हुआ है। बच्चों से मिल रहे अपमान और अकेलेपन के बीच दीवारों तथा छत को घूरते रहने, बोझ समझे जाने, परिवार द्वारा बार-बार फालतू होने की मुनादी करने से बुजुर्ग मानसिक स्तर पर भी बीमार हो रहे हैं। परिवार द्वारा बूढ़ों के साथ अपराधी जैसा व्यवहार किए जाने से वे जिन्दगी और मौत के मध्य त्रिशंकु बना दिए गए हैं।
इन हालातों का जिम्मेवार जनरेशन गैप भी है, किन्तु यही इकलौता कारण नहीं है। यह बड़ी अजब बात है कि अपने ही जनमदाता को बोझ समझ जाए। जिस उम्र में वे अपने बेटों बहुओं तथा पोते-पोतियों के साथ जीवन काल की संध्या को गुजारना चाहते हैं, उन्हें इस खुशी से वंचित किया जा रहा है। उनसे संवाद के हालात ही नहीं हैं। बेटों ने अपने मां-बाप के साथ इक तरफा कुबोल का रिश्ता कायम कर लिया है।
हम दो और हमारे दो के स्वार्थ में बेटे भूल जाते हैं कि घर में एक वटवृक्ष भी हैं जिसकी छांव में उनका बचपन, जवानी में परिवर्तित हो सका है। कितना विचित्र है कि जिसने अपनी जरूरतों से विमुख हो कर अनेकों कष्ट सह कर घर बनाया, उसके लिए उस घर में हम एक कमरा भी नहीं दे रहे हैं। हमारे नौकरों, हमारे कुत्तों हमारे मेहमानों के लिए अलग कमरों की व्यवस्था है किन्तु बूढ़े मां-बाप घर के पिछवाड़े गैलरी में पटक दिए जाते हैं और महीनों उनके कलेजे के टुकड़े पुत्र-रत्न अपने जन्मदाता से मिलने, दो बातें करने को जरूरी कर्तव्य ही नहीं मानते हैं। नौकरों के माध्यम से दो वक्त का खाना, कपड़ा तथा दवाएं उपलब्ध करा देना बुढ़ापे की समस्या का समाधान नहीं हैं। इनकी समस्या है कि उन्हें गूंगा-बहरा बना कर तनहाई का दंड, दिया जाना और संवाद शून्यता का व्यवहार है। कैसी नीच-हीन और स्वार्थी मानसिकता उस देश में पैर जमा चुकी है जहां श्रवण कुमार जैसे पुत्र हुए हैं।
हर उम्र में अकेलापन बहुत कष्ट देता है किन्तु बुढ़ापे में तो तन्हाई किरिच-किरिच तोड़ती है और यह टूटन बहुत भीतर ऐसी धस जाती है कि बुढ़ापा नर्क जैसा लगने लगता है। कोढ़ में खाज वाली हालत उस समय ज्यादा कष्टकारी हो जाती है जब इन बूढ़ों की जोढ़ी में से एक संसार से विदा हो जाता है तब बातें करने और एक दूसरे को संभालने के लिए कोई नहीं होता है। बेटों,बहुओं तथा पोतों के पास मोबाइल पर लम्बी बातें करने, इन्टरनेट पर घन्टों चैटिंग के लिए वक्त होता है। बहुएं समाज सेवा, धार्मिक सत्संग में हाजरी दे रही हैं, बेटे राजनीति पर घन्टों बतिआ रहें हैं, किन्तु घर में लावारिस पड़े बूढ़ों के लिए न समय है और न भावना बची है। जब कभी किसी अन्य सूत्र से बूढ़ों को वक्त देने की बात आती है तो इनकी भृकुटी चढ़ जाती है। आज का दौर उपभोगतावादी तथा स्वार्थ की गोद में बैठा है। हमारे पुराने संस्कार और हमारी विरासत विदा हो गई है। अब तो आज के राम ही अपने पिता को वनवास दे रहे हैं। इस वनवास की कोई अवधि नहीं है। इसका अन्त तभी होता है जब बूढ़े की अंतिम विदाई होती है। यह देख-सुन कर दुख होता है कि अपने बूढ़ों के लिए खाए-अघाए परिवारों में चुटकी भर दया, ममता, अपनापन, दायित्व- बोध नहीं बचा है। ऐसे कई बेटों को मैं जानता हूं कि अपने जनम-दाता के साथ एक ही छत के नीचे रह कर भी महीनों अबोले बने रहते हैं। अभागे बूढ़े घर के किसी कोने में जो उनको एलाट कर दिया गया है, सहमें से टुकुर-टुकुर खिड़की से बेटे को आते-जाते देखते रहते हैं। यह राहत की बात है कि गरीब घरों में अभी बूढ़ों से संवाद का नाता टूटा नहीं है।
मेरे मुहल्ले में इंजीनियर के पिता का निधन हुआ, रात के आठ बजे उनकी पत्नी और विधवा मां भूतल में बने बैठका में शोक प्रगट करने वालों से मिलती रही और फिर बहू-बेटे ने उन्हें अपने कमरे में जाने को कह कर नौकरानी के हाथ कमरे में हमेशा की तरह खाना भिजवा दिया। मां का कमरा दूसरी मंजिल की छत पर था, जहां दोनों बूढ़े-बुढ़िया रहते थे। पति से बिछुड़ी बुढ़िया सारी रात अकेली छत के कमरे में रही, यह सिलसिला एक रात का नहीं था, हमेशा का है। किसी में मानवता का थोड़ा भी अंश नहीं था कि कम से कम कुछ दिन तो मां के साथ बेटा रह कर मां को दुख से उबारने में सहयोग करता। मुझे यह बात मेरे नौकर ने बताई वह इंजीनियर के भी घर में काम करता है। जिस महिला का पति आज ही उसे छोड़कर कभी वापस न आने के लिए चला गया हो, उसके अपने बेटे और बहू ने इस तरह बेसहारा और अकेला कैसे छोड़ दिया? जिन बेटों के अच्छे जीवन के लिए मां-बाप अपना खून-पसीना एक कर देते हैं, कितनी ही रातें आंखों में काट देते हैं। जीवन के अंतिम दौर में वही बेटे एक रात भी उनके पास रहने को राजी नहीं होते। लगता है कि संवेदनाओं का अन्त हो गया है। हम जेब से जरूर भारी होते जा रहें हैं, पर मन से बेहद हल्के हो गए हैं।
चिन्तामणि मिश्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
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