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आज अमेरिका, ईराक, ईरान को भले आंख दिखाए, क्यूबा की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसलिए कि उनकी साक्षरता में देश भक्ति की भावना है। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली भी देशभक्ति का एक भी पाठ सिखा रही है। यदि ऐसा हुआ होता तो लाखों लोग विदेश न भागते। प्रतिभा पलायन अपने देश से अधिक किसी अन्य देश में नहीं है क्यों? क्या किसी की दृष्टि इन बिन्दुओं की ओर कभी जाती है।
अपने देश में आजादी के बाद जितना बड़ा मजाक शिक्षा के साथ हुआ उतना किसी अन्य व्यवस्था के साथ नहीं।
आजादी के पहले शहरी विद्यालयों में भले ही मैकाले के काले अंग्रेज तैयार होते रहे हों, ए.वी.एम. स्कूल रहे हों, परन्तु गांवों में हिन्दी मिडिल स्कूल होते रहे। शिक्षा का अधिकार कानून नहीं था। शिक्षा से लाभ का अर्थ होता था सरकारी नौकरी पाना।
उत्तीर्ण होने का कोई शार्ट कट नहीं था। पाठ याद करने पड़ते थे, परीक्षा अपने दम पर उत्तीर्ण करनी पड़ती थी, नकल चोरी से होती थी सीनाजोरी से नहीं। आजादी के बाद शिक्षा में इतने प्रयोग हुए कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ही गायब हो गया। शिक्षा देश का सबसे सुरक्षित व्यवसाय है, इस व्यवसाय में लगे लोगों का हर्र और फिटकरी तो बहुत कम लगता है परन्तु रंग बहुत चोखा आता है।
देश का मानक वही संस्थान बनता है जहां के छात्र देश के सच्चे नागरिक नहीं कुशल प्रशासक बनते हैं। के.टी.शाह बापू के प्रिय थे, शिक्षाविद् थे। बापू ने पूछा- आजाद भारत के लिए कैसी शिक्षा तैयार कर रहे हो। बापू के आगे कौन सुझव दे। के.टी. शाह ने कहा- आप बताइये न, कैसी शिक्षा हो। बापू ने कहा - के.टी.!
अगर मैं किसी कक्षा में जाकर यह पूंछू कि मैंने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक हजार में बेच दिया तो मुङो क्या मिलेगा? बापू ने कहा- अगर पूरी कक्षा के छात्र यह कहें कि आपको जेल की सजा मिलेगी तो मैं मानूंगा कि आजाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक यही शिक्षा सवरेत्तम है। बापू का आशय था कि किसी व्यापारी को यह अधिकार नहीं है कि चार आने की वस्तु को बारह आने का लाभ कमाये। यदि ऐसी नैतिक समझ छात्र में नहीं आई तो शिक्षा का क्या मतलब? क्या इस तरह की शिक्षा का कोई संस्थान अपने बापू के देश में हैं? शिक्षा का अधिकार कानून शत्-प्रतिशत उन कॉरपोरेटों के संस्थान में क्यों नहीं है। दस पांच प्रतिशत का लॉलीपॉप हीन भावना के सिवाय छात्रों को क्या देगा। नौकरशाह और अंग्रेज बनाने वाली शिक्षा के चलते पद और पैसे ही व्यक्ति की हैसियत तय करते हैं। शिक्षक बनने की होड़ खत्म हो चुकी है, पटवारी की नियुक्ति स्थाई और शिक्षक की नियुक्ति संविदा / कर्मी/ मित्र के रूप में होती है। शिक्षक राष्ट्र निर्माता हैं, जैसे शब्द बेमानी हो गए हैं। सेंट्रल एडवाजरी बोर्ड आफ एजुकेशन की 59वीं बैठक में मानव संसाधन मंत्री ने साफ कहा कि शिक्षक बिरादरी उतनी शिक्षित नहीं है जितनी कि इसे होना चाहिए। केन्द्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारें सबसे अच्छी प्रतिभाओं को शिक्षा से जोड़ने में नाकाम रही हैं। पता नहीं यह सुभाषित किसके लिए कहा जा रहा है और इस व्यवस्था को कौन अंजाम देता रहा है यह सिर्फ कपिल सिब्बल साहब जानते हैं। विदेशी शिक्षा संस्थानों से शिक्षा प्राप्त नेता भारत को इंडिया बनाने में लगे हैं।
संसार के सभी शिक्षा शाी प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में देने की बात करते हैं परन्तु भारत में प्राथमिक कक्षाओं में ही अंग्रेजी पढ़ाने की बात ज्ञान आयोग करता है और सरकारें उसको ‘सिरसा नमामि’ स्वीकार करती हैं। अंग्रेजी शिक्षा संस्थानों में आरटीई के तहत भर्ती छात्रों की पहचान अन्य छात्रों की तरह नहीं ‘आरटीई वाले बच्चों’ के रूप में करके उन्हें दलित, पिछड़े, गरीब और अंत्यज की परिभाषा का व्यावहारिक रुप दिया जाता है। सरकारी स्कूलों में रामानुजम्, कलाम और राधाकृष्णन बनने की कल्पना अब नहीं की जा सकती। पाठय़क्रमों के इतर छात्र को नौतिकता की शिक्षा कौन देगा।
देश भर के प्राथमिक और जूनियर विद्यालय मध्यान्ह भोजन के लिए चल रहे हैं, अध्ययन विद्यालयों में दोयम दज्रे पर है।
स्कूलों को गरीबी-अमीरी में बांच कर विषमता की खाई कौन खोद रहा है। प्रायवेट स्कूलों के परिणाम सरकारी स्कूलों से बेहतर क्यों आ रहे हैं। पढ़ने में सबसे कमजोर, जुगाडू किसी सरकारी या प्रायवेट काम लायक नहीं लेकिन नेता होकर शिक्षा नीति पर व्याख्यान दे रहा है। शिक्षकों पर तंज कसने वाले लोग हर जगह मिलेंगे। कर्ज लेकर पढ़ने पाले प्रतिभाशाली छात्र, विदेशों में प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं। मातृभूमि का कर्ज पटाने का कोई पाठ उन्हें पढ़ाया ही नहीं गया। अपमान सहते हुए भी वे विदेश के गुण गा रहे हैं। मां-बाप और देश की जीवन शैली ही भूल गए।
नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा दिलाने का कानून बने दो वर्ष हो गए परन्तु उसके कार्यान्वयन की स्थिति कुछ ऐसी है कि किसी भी स्कूल में पूरे शिक्षक नहीं हैं। कुछ वर्ष पहले स्कूलों में ओवर स्टाफ की समस्या रहती थी अब ऐसा क्यों हो रहा है, यह आम आदमी का प्रश्न है। शिक्षकों का प्रशिक्षण भी मात्र औपचारिकता बनकर रह गया है। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित राष्ट्रीय शिक्षक दक्षता जांच में शामिल तिरानवे प्रतिशत शिक्षक फेल हो गए। राज्यों की हालत इससे भी बदतर हैं।
जिन शिक्षकों के सिर पर संविदा की अनिश्चियी तलवार लटकती हो, उनसे राष्ट्र निर्माण की कल्पना कैसे की जा सकती है। शिक्षा का अधिकार कानून को संवैधानिक दर्जा देकर सरकार निश्चिंत है कि इस जादुई छड़ी से साक्षरता शत्-प्रतशित हो जाएगी। मध्यान्ह भोजन के कारण गांवों की सरकारी स्कूलों में संख्या वृद्धि अवश्य हुई है परंतु शहरों में दूसरे के घरों में बर्तन साफ करने वाली का लड़का सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ता। वह अपने लड़के को किसी अंग्रेजी प्रायवेट स्कूल में महंगी फीस देकर पढ़ाती है।
लैटिन अमेरिका का एक छोटा सा देश क्यूबा, जिसने संयुक्त राज्य अमेरिका की तमाम धमकियों के बावजूद अपना अस्तित्व पूरी शिद्दत से बना रखा है, शत्-प्रतशित साक्षर है। राष्ट्रपति फिदेल काो ने अनौपचारिक शिक्षा का अप्रतिम प्रयोग करते हुए, बच्चों में देशभक्ति की भावना कैसे उत्पन्न की। उन्होंने देश के बच्चों से पूछा- क्या आपको अच्छा लगेगा कि कोई आपके देश को अनपढ़ कहे। यदि आप अपने देश को पढ़ा लिखा देशभक्त देखना चाहते हों तो आप सबको शिक्षक बनना पड़ेगा।
कक्षा आठ पास सभी बच्चे स्कूल के बाद लालटेन, किताब-पट्टी लेकर पहाड़ी गांवों-नगरों में निकल पड़े बच्चों, प्रौढ़ों को पढ़ाते ये बच्चे अपने नियमित स्कूल भी जाते। तीन वर्ष में तेरह से पंद्रह साल के बच्चों में क्यूबा को शिक्षित कर दिया। आज अमेरिका, ईराक, ईरान को भले आंख दिखाए, क्यूबा की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसलिए कि उनकी साक्षरता में देश भक्ति की भावना है। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली भी देशभक्ति का एक भी पाठ सिखा रही है। यदि ऐसा हुआ होता तो लाखों लोग विदेश न भागते। प्रतिभा पलायन अपने देश से अधिक किसी अन्य देश में नहीं है क्यों? क्या किसी की दृष्टि इन बिन्दुओं की ओर कभी जाती है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. |
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