मध्यप्रदेश के कटनी जिले के डोकरिया-बुजबुजा गांव में लहलहाते खेतों के बीच सजी चिताएं इस सूबे के भविष्य की मुकम्मिल तस्वीर पेश करती हैं। साथ ही इस बयान को भी तस्दीक करती हैं कि पूंजी निवेश की होड़ में जरूरत पड़े तो हमारी सरकारें किसानों की चिताओं पर कारपोरेट के लिए कारपेट दसाने में भी कोई हर्ज नहीं मानती। जहां तक रहा प्रदेश में औद्योगिक पूंजी निवेश, भू- अधिग्रहण और विस्थापन का मामला तो भाजपा और कांग्रेस के चरित्र और सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। जेपी की जेब में कांग्रेसी व भाजपाई दोनों हैं, तो अम्बानी के पेरोल पर दोनों पार्टियों के नेताओं के बेटे, दामाद और रिश्तेदार कमा- खा रहे हैं। ऐतिहासिक संदर्भाें व तथ्यों पर जाएं तो मौजूदा भाजपा की सरकार कांग्रेस के किए-कराए का ही विस्तार दे रही है और समूचे देश के परिदृश्य में देखा जाए तो यही काम यूपी में बसपा ने किया तो सपा आगे बढ़ा रही है, उड़ीसा में बीजद, तो हरियाणा में कांग्रेस। कुल मिलाकर जो सरकारें जहां हैं, वहीं उद्योगपतियों की गोदी पर बैठकर, जल-जंगल-जमीन को लूटने और जन को पीटकर उनकी खेती-बारी, स्वत्व व मिल्कियत से बेदखल कर रही हैं। इस काम में पार्टी लाइन और विचारधारा कहीं आड़े नहीं आती। सिर्फ कर्मकाण्ड बदल जाते हैं। दरअसल विस्थापन एक ऐसा शब्द है जिसे कानूनी और कागजी तौर पर परिभाषित तो किया जा सकता है, किन्तु उसके दंश और पीड़ा की तीव्रता को वही महसूस कर सकता है, जो खुद विस्थापित हुआ है। मेरा मानना है कि विस्थापन मृत्युदण्ड से भी भीषण सजा है जिसमें विस्थापित जीते-जी किश्तों में मरता है। सिंगरौली और हरसूद के विस्थापितों के बीच एक दिन गुजारिए पता चल जाएगा। विस्थापन के साथ सिर्फ जमीन भर नहीं छिनती जिसमें उसकी वंशनाल गड़ी होती है, अपितु स्मृतियां, संस्कार, संस्कृति, परम्परा, आबोहवा सबकुछ छिन जाता है। सभी का अस्तित्व या तो बड़े बांधों की अथाह जलराशि में डूब जाता है या खदानों से निकलने वाले धूहे में दब जाता है, या फिर सीमेंट या थर्मल पॉवर की चिमनियों से धुंआ बनकर बादलों में समा जाता है, अस्तित्व के नाम पर शेष बचती है तो सिर्फ राख। इसलिए जब शासन- प्रशासन या उद्योगपति कोई भी, विस्थापितों के साथ जोर- जबरदस्ती या मजाक करता है तो ऐसा लगता है जैसे किसी के पार्थिव शरीर पर पद प्रहार किया जा रहा हो। देश में विस्थापन की स्थितियां भयावह हैं। असम के समाजशास्त्री वाल्टर फर्नाडीस ने विस्थापितों और पुनर्वास के बारे में महत्वपूर्ण अध्ययन किया है। फर्नाडीस के मुताबिक आजादी के बाद विभिन्न विकास परियोजनाओं ने 6 करोड़ लोगों को विस्थापित किया है। इनमें से महज 20 फीसदी लोगों का ही पुनर्वास हो पाया है वह भी आंशिक। यानी कि पांच में से एक विस्थापित परिवार का घर बसा है। सबसे ज्यादा मरन तो आदिवासियों-जनजातियों की है। देश के कुल कोयले भंडार का 80 फीसदी और खनिज संपदा का तकरीबन 50 फीसदी हिस्सा आदिवासी बहुल इलाके में है, औद्योगिक विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए जाहिर है इन्हें हटाया जाएगा। कहने को 11 अक्टूबर 2007 को केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय पुनर्वास नीति 2007 घोषित की। इस नीति ने परियोजना प्रभावित परिवारों के पुनर्वास की राष्ट्रीय नीति-2003 की जगह ली। नई नीति के विस्थापन की प्रक्रिया के परीक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। इसमें मानकर चला गया है कि विस्थापन तो होना ही है। भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में जो संशोधन किए भी गए हैं उसमें अंग्रेजों के जमाने की नीयति अभी भी साफ झलकती है। इसमें ..सार्वजनिक उद्देश्य.. को फिर से परिभाषित करने की कोशिश असल में गरीबों और हाशिए पर लोगों के ऊपर निजी और बड़ी कंपनियों के हितों को तरजीह देने का हिस्सा है। सार्वजनिक उद्देश्य की फिर से परिभाषा इस तरह की गई है कि राज्य सरकारों के लिए किसी निजी कम्पनी, व्यक्तियों के संघ या संस्था के लिए जमीन के अधिग्रहण की इजाजत मिल जाती है बशर्ते वह ..आम जनहित.. में है। किसी कम्पनी के निजी मुनाफे को ..आम जनहित.. के साथ जोड़कर काश्त की जमीन छीनने का काम प्रदेश में बेशर्मी से चल रहा है। डोकरिया-बुजबुजा में वेलस्पन पॉवर प्लांट के लिए जमीन का अधिग्रहण ताजा व ज्वलंत उदाहरण है। प्रदेश के लिए जो चिन्ता का विषय है वह यही है कि काश्त की जमीन का पूंजीपतियों के लिए छीना जाना और दूसरी गंभीर बात यह है कि यदि उद्योग को 100 एकड़ जमीन की वास्तविक जरूरत है तो 1 हजार एकड़ की मांग करना और सरकार का आंख मूदकर इस मांग को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गुजर जाना है। अब एक नजर डालें मध्यप्रदेश में पूंजी निवेश और औद्योगिकीकरण की हवश के आंकड़ों पर। सूचना के अधिकार के आधार पर विकास संवाद केन्द्र ने इन्दौर इनवेस्टर मीट के पहले एक ब्योरा जारी किया था। इसके अनुसार 2007 से इन्दौर की इनवेस्टर मीट के पहले तक म.प्र. सरकार ने 376 कम्पनियों के साथ 6 लाख 33 करोड़ रुपये से ज्यादा के निवेश का अनुबंध किया है। इनमें से 130 कम्पनियों को करीब चार लाख 50 हजार हेक्टेयर जमीन दी है जिसमें से 1 लाख 25 हजार हेक्टेयर वनभूमि है। कम्पनियों ने करीब 4 लाख हेक्टेयर निजी जमीन भी प्राप्त की है। सार्वजनिक प्रयोजन के नाम पर ली गई इन जमीनों का लैण्ड यूज बदलकर उद्योगों को दे दिया गया। जमीनों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के सबसे ज्यादा शिकार हुए महाकौशल व विन्ध्य क्षेत्र। महाकौशल में 1 लाख 72 हजार हेक्टेयर भूमि गई जबकि विन्ध्य (बघेलखण्ड) से 1 लाख 12 हजार हेक्टेयर। इन क्षेत्रों की तीन चौथाई जमीन काश्त की, व उपजाऊ हैं। एक ओर जहां प्रदेश सरकार किसानों की जमीन छीनकर उद्योगपतियों को जमीदार बना रही है वहीं जब भूमिहीनों को बसाने की बात आती है तो उतनी ही कृपण बन जाती है। सिकुड़ती हुई खेती का असर भी साफ नजर आने लगा है। प्रदेश में कुल सालाना आय में खेती का हिस्सा जहां 94.95 में 43.19 प्रतिशत था वहीं 2005-06 में घटकर 32.09 रह गया। किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े भी कम भयावह नहीं हैं। पिछले 11 वर्षो में प्रदेश के करीब 17 हजार किसानों ने आत्महत्या की। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2011 में देश भर में जान देने वाले 14024 किसानों में मध्यप्रदेश के 1326 किसान हैं, यानी कि 4 किसान रोज प्रदेश के किसी कोने में मौत को गले लगा रहे हैं। किसानों की हितचिंतक बनने वाली प्रदेश सरकार की छाया में जो आज डोकरिया में हुआ है, वो कल चुटका (मंडला) में होगा, तो परसों छिन्दवाड़ा में सिंगरौली-सीधी और सतना में। तो क्या? हालातों के मारे किसानों के आगे दो ही रास्ते बचते हैं, मरे या मारे। पर मुश्किल यह कि मरता है तो बुजदिल और मारता है तो नक्सली। कहां-जाए-क्या करे..। फिलहाल महान राजनीतिक दार्शनिक प्लेटो को याद करते हुए मसला सरकारों पर छोड़ते हैं। ...विकास का सवरेत्तम रास्ता है कि सब कुछ राज्य पर (राष्ट्र के हित-अनहित) पर निर्भर हो। यदि राज्य की सुरक्षा हुई तो बाकी सब सुरक्षित रहेगा और यदि राज्य को नष्ट किया गया तो शेष सभी नष्ट हो जाएगा।... लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208 |
Tuesday, November 20, 2012
कबिरा हाय गरीब की..
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alekh
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