Monday, October 22, 2012


किसको कहें मसीहा किस पर यकीं करें
सलमान खुर्शीद और अरविन्द केजरीवाल के आरोप- प्रत्यारोप, तू-तड़ाक का कोई नतीजा निकले या नहीं लेकिन एक बात साफ हो गई है कि देश के आर्थिक संसाधनों पर गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) का मकड़जाल किस कदर फैला है और गरीबों की योजनाओं के लिए खर्च होने वाले धन को दीमक की तरह चट कर रहा है। केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद व उनकी पत्‍नी लुईस खुर्शीद कोई अकेले उदाहरण नहीं है।
राजनेता चाहे केन्द्र का हो या राज्य का, सत्ता का हो या विपक्ष का, इनमें से अधिसंख्य ऐसे हैं जो चैरिटी फाउन्डेशन, समाजसेवी संगठन और एनजीओ की भरी पूरी दुकान और उसकी शाखाएं लिए चलते हैं। यह गंभीर जांच का विषय है कि ऐसे संगठनों को सांसद या विधायक निधि से कितना धन दिया जा चुका है। बात अकेले नेताओं भर की नहीं है। नौकरशाह इनसे भी एक कदम आगे हैं। कई ऐसे हैं जिनकी प8ियां एनजीओ को किटी पार्टी की भांति चलाती हैं और भूखे नंगे लोगों को उतारे हुए कपड़े और बची हुई रोटियां देकर मुस्कराते हुए आए दिन अखबारों की तस्वीरों में नजर आती हैं। एनजीओ के नाम पर कहां से धन मिल सकता है और उसे कैसे चट किया जा सकता है, अफसरों से बेहतर कोई नहीं जानता और यदि इस रोग का संक्रमण नेताओं तक पहुंचा है तो यकीन मानिए इनके पीछे यही लोग हैं।
केजरीवाल साहब का भी मायाजाल एनजीओ से ही शुरू होता है। दिग्विजय सिंह ने जो सवाल उठाए हैं उन्हें यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता। उन्हें देश के सामने यह ब्योरा पेश करना चाहिए कि फोर्ड फाउन्डेशन जैसे विदेशी संगठनों से उनके एनजीओ को कितने रुपए मिले हैं। केजरीवाल के अभियान को बारीकी से देखें तो कई परतें खुलती नजर आने लगेंगी। उनकी मंडली का प्रमुख ध्येय निर्वाचित प्रतिनिधियों की विश्वसनीयता को मिट्टी में मिलाना और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति जनता का भरोसा खत्म करना है। उनके एजेंडे में एफडीआई, जल-जंगल, जमीन को लेकर आम आदमी का हक, कारपोरेट सेक्टर का भ्रष्टाचार क्यों नहीं है? केजरीवाल ने कभी एनजीओ के काले बाजार और उसके कारोबार की भी बात नहीं की और न ही इसकी जांच या इन्हें जनलोकपाल के दायरे में लाने का सार्वजनिक तौर पर कोई जिक्र किया। अलबत्ता अपनी पार्टी का अलग जनलोकपाल गठित करके उन्हें खुद को ऐसे आधुनिक विश्वामित्र बनने की चेष्ठा की जो विधि की रचना से अलग दुनिया को रचने का सामथ्र्य रखते हैं। देश का लोकतंत्र मरा नहीं है और अशोक खेमका जैसे ईमानदार अफसरों की जमात अपने व्यवस्था तंत्र में है। यदि अंजली दामानिया, प्रशान्त भूषण पर लगे आरोपों की जांच कराना ही चाहते हैं तो वे सांविधानिक और कानूनी अधिकार सम्पन्न संस्थाओं से करने का प्रस्ताव क्यों नहीं देते? दरअसल अरविन्द केजरीवाल जैसे लोग आर्थिक विकास की खगोलीय अवधारणा के पैरोकारों द्वारा जन आन्दोलनों के विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किए गए गैर सरकारी संगठनों की उपज हैं।
मल्टीनेशनल्स और कारपोरेट सेक्टर ने समाज सेवा के क्षेत्र में भी शातिराना अंदाज में पूंजी निवेश किया है और जनवादी आंदोलनों के विकल्प में गैर सरकारी संगठनों की विशाल जमात खड़ी कर दी है। ये वही गैर सरकारी संगठन हैं जो सड़क पर जिन्दगी बसर करते लोगों के बेघर होने के कारण के सवाल को, बेघरों के लिए टेंट व चादर जुटाने के सवाल में बदल देते हैं। आर्थिक उदारीकरण की बयार के चलते देश में गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की पैदावार ठीक वैसे ही बढ़ी है जैसे कि अनुकूल मौसम के आते संक्रामक बीमारियों के वायरस पैदा होने लगते हैं। क्या आप जानते हैं कि भारत संभवत: दुनिया में सबसे अधिक गैर सरकारी संगठनों वाला देश है। इसके प्रत्येक गांव के हिस्से में पांच पंजीकृत एनजीओ हैं और इस हिसाब से देख जाए तो हर 400 व्यक्तियों के पीछे एक एनजीओ खड़ा है। गैर पंजीकृत संगठनों की संख्या को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या कई गुना बढ़ जाएगी। वर्ष 2010 में जारी अधिकृत आंकड़ों के आधार पर देश में 33 लाख एनजीओ किसी न किसी रूप में सक्रिय हैं।
मीडिया के प्रभावी वर्ग के पीछे भी ऐसे उद्योगपतियों का संरक्षण है जो अपने धंधे के हित में हर वक्त देश की जनता का ध्यान जरूरी मुद्दों से हटाने की चेष्ठा या साजिश में जुटे रहते हैं। क्या यह महज संयोग है कि जिन दिनों एकता परिषद के अगुआ पीव्ही राजगोपाल जल-जंगल और जमीन के हक के लिए गरीबों-मजलूमों का जनसमुद्र लेकर दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे, उन्हीं दिनों अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम राबर्ट बाड्रा और डीएलएफ के व्यवसायिक रिश्तों के खुलासे में जुटी थी। अरविन्द प्रचार की महत्ता और मीडिया के चरित्र को भलीभांति जानते हैं। इस दरम्यान चैनलों का प्राइम टाइम और अखबारों की सुर्खियां बाड्रा-डीलएफ के लिए आरक्षित थीं। एकता परिषद का लांग मार्च हासिए पर था।
क्या यह बेहतर नहीं होता कि केजरीवाल और उनकी टीम अपने कला-कौशल का जरा सा इस्तेमाल पीव्ही राजगोपाल के आन्दोलन को जन-जन तक फैलाने में करते! वे ऐसा इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि वे इन्डिया के विरोधाभासों के प्रवक्ता हैं न कि भारत के। वे जनवादी जनआन्दोलनों के गैर सरकारी विकल्प हैं।
भ्रष्टाचार नि:संदेह देश के लिए नासूर की तरह है, जनता उससे त्रस्त है। इसलिए जब भी कोई इस मुद्दे को लेकर लड़ता हुआ दिखता है तो उसकी शुभेच्छाएं और समर्थन उसी के साथ हो जाता है। मैं शरद यादव के इस बात से सौ फीसदी सहमत हूं कि भ्रष्टाचार की लड़ाई भी राजनीतिक प्रक्रिया से लड़ी जानी चाहिए और ऐसी कोशिशों को मिलकर खारिज करना चाहिए जो हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अनास्था पैदा करती हों। स्वस्थ लोकतंत्र में हर सामाजिक बीमारियों का इलाज है। आज भ्रष्टाचार को लेकर जितने भी तथ्य सामने आ रहे हैं उसमें सूचना के अधिकार के कानून का सबसे बड़ा योगदान है और इस कानून को उसी संसद ने पास किया है जिसके बारे में रामलीला मैदान या जंतर-मंतर से तकरीरें दी जाती हैं कि यहां चोर-डाकू और लुटेरे बैठे हैं।
देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हुईं तो वही स्थितियां निर्मित होंगी जो हिटलर के पूर्वकाल में जर्मनी में थी।
भावनाओं का आवेग देश को कहां बहाकर ले जाएगा, फिर वह किसी के नियंत्रण में नहीं होगा। यदि अपने देश का लोकतंत्र रुग्ण है तो उसकी संजीवनी औषधि जनता के पास है। देश की जनता किसी भी नामचीन से ज्यादा होशियार, जिम्मेदार और चतुर है।
पचहत्तर में लादी गई इमरजेंसी का जवाब सतहत्तर में तरीके से दिया और जब जनता सरकार की अराजकता को देखा तो उसे भी ठिकाने लगाने में वक्त नहीं लगाया। जिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के शिगूफों में फंसकर उन्हें राजा से फकीर और देश की तगदीर तक मान लिया था उनका राजनीतिक समापन ऐसे किया कि आज कोई दु:स्वप्न में भी उन्हें नहीं याद करना चाहता। आज जिस बात की सख्त जरूरत है वह है, पाखण्डों के खण्डन की। यह पाखण्ड सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में स्थायी भाव में मौजूद है। देश को कबीर जैसा युगान्तकारी अध्येता चाहिए, फोर्ड फाउन्डेशन के धन से चैनलों पर सदाचार का प्रवचन देने वाला नहीं।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

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