चंद्रिका प्रसाद चंद्र
शास्त्रकारों ने इस बात की पूर्ण स्वीकृति दी है कि सत्य बोलो। अप्रिय सत्य उपद्रव और मनभेद को जन्म देता है, फलत: समरसता की सद्भावना बाधित होती है। शास्त्र, एक नियमन की प्रक्रिया है जिसमें अनेक तरह के नियंत्रण भी हैं। लोक हितार्थ लिखे गए शास्त्रों ने खुले मन से माना है कि भले ही शुद्ध और सही हो लेकिन यदि लोक के विरुद्ध है, उसे नहीं करना चाहिए, यह लोक की मांग नहीं है, उसके हृदय की अनुगूंज है जिसे शास्त्र ने महसूस कर उपर्युक्त टिप्पणियां की हैं। यह लोक के शास्त्र पर हस्ताक्षर हैं संशोधन के साथ। क्योंकि सत्य कहने और करने में वह सच्चिदानन्द के करीब होता है। दूसरे को दुख देकर आनंद प्राप्त करना लोक को स्वीकार्य नहीं है, और जो लोक को स्वीकार्य नहीं है, वह ईश्वर को स्वीकार नहीं हो सकता, क्योंकि लोक भी ईश्वर की ही अनुकृति है। विचार, भाषा में व्यक्त होते हैं। अनुभव को भाषा से ही व्यक्त किया जाता है। हिन्दी क्षेत्र की सम्पूर्णता को जितनी गंभीरता और सहजता से कबीर और तुलसी ने समझा है, शायद ही किसी अन्य ने कोशिश की हो। इसीलिए उन्हें लोकनायक कवि, दार्शनिक माना गया। लोक के हर तरह के अनुभव उनकी रचनाओं में भरे पड़े हैं जो हमें शिक्षा निर्देश देते रहते हैं। कबीर कहते हैं- ‘शब्द संभारै बोलिए, शब्द के हाथ न पांव। एक शब्द मरहम करै, एक शब्द करे घाव।’
बिना हाथ पांव के शब्दों की शक्ति भारतीय पुराणों और इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। शब्दों ने हमें संवाद करना सिखाया, विस्तृत समाज का आधार ये ही शब्द हैं, तो संसार भर के उपद्रव और अशांति का कारण भी शब्द ही हैं। हृदय में जितनी तीव्रता से शब्द प्रवेश करते हैं उतना वेगमान बर्वरीक का फूंक भी नहीं है, जिसके फूंकने मात्र से योगेश्वर कृष्ण का सारा संसार लय हो सकता था। कबीर को इस शब्द की ताकत का अंदाज कितने अर्थों में है, कि जीवन के पृष्ठ-दर-पृष्ठ खोलते जाइए, शब्दों की अर्थ-छवियां खुलती जाएंगी। कबीर की चिंता में समाज सर्वोपरि है। वे जानते थे कि संभलकर, सोचकर बोलना लोक और समाज के हित में है। समाज और लोक की मंगलकामना के लिए उन्होंने मनीषियों को भी समझाइश दी थी कि ‘साधो सबद-साधना कीजै।’ शब्दों की साधना मौन से हुई, इसलिए वे साधक मुनि कहलाए। कबीर के इस कथन की साधना आज विश्व को करनी होगी। लोग प्रतिदिन प्रत्येक स्तर पर बिना विचारे बोले जा रहे हंै, शब्द दूरियां बढ़ाते हैं। शब्दों से बेहतर कोई मलहम और उससे धारदार कोई तीर आज तक नहीं बन सका। शब्द हमारा संस्कार है, व्यवहार है, अस्मिता है, और विश्व भर में हमारी पहचान है। विश्व-मंच पर विवेकानंद के ही शब्द ‘भाइयों और बहनों’ ने उन्हें सर्वप्रिय बना दिया। शब्द ब्रह्म हैं, शब्द की सत्ता से नकार अपने से नकार है शब्द का अक्षर है, कालेत्तर है।
द्रौपदी के एक शब्द पर महाभारत हुआ। पुराणोतिहास का सबसे नंगा दृश्य उस महाभारत में है जिसके बारे में कहा जाता है कि जो कहीं नहीं है वह महाभारत में है और जो महाभारत में नहीं है वह कहीं नहीं है। लोक में आज भी शिद्दत से उपस्थित है। जल-थल के विभ्रम में पड़े दुर्योधन पर द्रौपदी का कटाक्ष ‘अंधे की औलाद अंधी ही होती है।’ द्रौपदी पर कितनी भारी पडा कि सभा में नग्न करते हुए दुर्योधन का यह कहना कि ‘यहां सब अंधे बैठे हैं अंधों के सामने नंगे होने में क्या रोना-चिल्लाना’ शब्द का क्रियात्मक प्रतिकार था। तुलसी के ‘मानस’ में जहां पर जाति वर्ग के पात्रों का सम्मान राम द्वारा होता है। परीक्षा लेने आई सती को मां कहकर संबोधन, तारा की संवेदना अनुभूति करने वाले राम सूर्पणखा के साथ अभद्र और अमर्यादित कैसे हो गए? यहां तक तो रावण उनके केन्द्र में कहीं था ही नहीं। ‘अहै कुमार मोर लघु भ्राता’ कहने की कौन सी मजबूरी थी। कथा को आगे बढ़ाने का क्रम ‘मनहुं चुनौती दीन’ एक शब्द-भाव मिश्रित संकेत ही था, जिसके आग में सुवर्ण लंका राख हो गई, कमोवेश जीवित है। ‘माई हसबैंड माई वाइफ’ आज भी लोक के शब्द नहीं हैं। मुन्ने/मुन्नी के पिता/किसी देवर का नाम लेकर रिश्तों को बताने का चलन अभी खत्म नहीं हुआ। ‘तिरछे करि नैन दै सैन तिन्है, समुझाय कछु मुसकाय चली’ का भाव और अर्थ संकेत देकर भारतीय जीवन की मर्यादा का पालन कालान्तर के कवि ‘गोरे देवर’ श्याम उन्हीं के ज्येष्ठ हैं, के कथनों से कई गुना बेहतर हैं।
युद्धों के प्रारंभ में भी सबसे पहले शब्द बाण ही चलते हैं, तब भी और आज भी। शब्दों को वापस लेने की बातें कही जाती हैं। लेकिन ये हवा के बाण कभी भी वापस अपने तरकश में नहीं आते। आमेर के राजा मानसिंह को अपने घर की तरफ आते देख सिरदर्द का बहाना कर राणाप्रताप ने द्वार पर उनका स्वागत करने के लिए पुत्र को भेजा। मानसिंह ने पूछा-‘राणा कहां हैं।’ पुत्र ने उत्तर दिया-‘सिर में दर्द है।’ मानसिंह को इसमें अपमान की गंध दिखी, उन्होंने कहा- राणा के सिरदर्द की दवा लेकर जल्दी ही आऊंगा। इतिहास जानता है कि हल्दी घाटी का युद्ध इसी की परिणति थी।
शब्द के अर्थ संकेतों पर भी विश्व खड़ा है। प्रत्येक की यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि सोच-समझकर बोले क्योंकि शब्दों के निहितार्थ बहुत व्यापक और कालजयी होते हैं। शब्द पास खींचते हंै, शब्द दूर करते हैं, दोनों परिणाम देते हैं। सुख और दुख मात्र शब्द हैं, अनुभूति के अर्थ में ही वे सार्थक और निरर्थक होते हैं। संकल्प-विकल्प, उत्तर-प्रत्युत्तर के लिए समय देना शब्दों के परिणाम को सोचने समझने का समय देना है। बिना यह सोचे कि इसका परिणाम क्या होगा? परिणाम सामने आने पर शब्द वापस करने की बात करते हैं। लेकिन शब्द क्या कभी वापस हो सके हैं? शब्द तो काल के भाल पर अमिट हस्ताक्षर बनकर दिखते रहेंगे।
मां शब्द का कोई विकल्प नहीं हो सका। आयातित शब्द हमारे रिश्तों को अर्थवत्ता नहीं दे सकते। हमारा समाज रिश्तों पर आधारित है, प्रत्येक रिश्ते के शब्द हैं। कोई रिश्ता ‘इन ला’ नहीं है। मामा, फूफा, मौसी, मौसिया के समानार्थी अंकल आंटी नहीं है। हमारे दादा भाई, मंझले, संझले लहुरबा, मझिला, नन्हें का समानार्थी कोई शब्द नहीं है। रिश्तों के कमजोर पड़ते जाने के कारण शब्द भी लुप्त होते जा रहे हैं। परिवार शब्द सिमटकर पति-पत्नी तक मुश्किल से बचा, अंतिम सांसे गिन रहा है। शब्द को कायम रखने के लिए इन्हें संभलकर बोलना और रखना होगा। शब्दों में मिठास घोलिए, कोयल की तरह प्रिय बनिए। तुलसी बाबा भी कह गए हैं- ‘तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुं ओर’ संसार को वश में करने का मंत्र भी वे बता गए हैं। उन पर अमल करके दुनिया को बेहतर बनाया जा सकता है। सच भी यही है- बातइ हाथी पाइए, बातइ हाथी पांव। ‘बात संभालकर बोलना’ ‘बात बिगड़ जाने पर जीभ खींच लेना’ लोकोक्ति आज भी अपनी जगह खड़ी है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
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