Wednesday, March 28, 2012

शब्द संभारै बोलिएं


              चंद्रिका प्रसाद चंद्र
शास्त्रकारों ने इस बात की पूर्ण स्वीकृति दी है कि सत्य बोलो। अप्रिय सत्य उपद्रव और मनभेद को जन्म देता है, फलत: समरसता की सद्भावना बाधित होती है। शास्त्र, एक नियमन की प्रक्रिया है जिसमें अनेक तरह के नियंत्रण भी हैं। लोक हितार्थ लिखे गए शास्त्रों ने खुले मन से माना है कि भले ही शुद्ध और सही हो लेकिन यदि लोक के विरुद्ध है, उसे नहीं करना चाहिए, यह लोक की मांग नहीं है, उसके हृदय की अनुगूंज है जिसे शास्त्र ने महसूस कर उपर्युक्त टिप्पणियां की हैं। यह लोक के शास्त्र पर हस्ताक्षर हैं संशोधन के साथ। क्योंकि सत्य कहने और करने में वह सच्चिदानन्द के करीब होता है। दूसरे को दुख देकर आनंद प्राप्त करना लोक को स्वीकार्य नहीं है, और जो लोक को स्वीकार्य नहीं है, वह ईश्वर को स्वीकार नहीं हो सकता, क्योंकि लोक भी ईश्वर की ही अनुकृति है। विचार, भाषा में व्यक्त होते हैं। अनुभव को भाषा से ही व्यक्त किया जाता है। हिन्दी क्षेत्र की सम्पूर्णता को जितनी गंभीरता और सहजता से कबीर और तुलसी ने समझा है, शायद ही किसी अन्य ने कोशिश की हो। इसीलिए उन्हें लोकनायक कवि, दार्शनिक माना गया। लोक के हर तरह के अनुभव उनकी रचनाओं में भरे पड़े हैं जो हमें शिक्षा निर्देश देते रहते हैं। कबीर कहते हैं- ‘शब्द संभारै बोलिए, शब्द के हाथ न पांव। एक शब्द मरहम करै, एक शब्द करे घाव।’
  बिना हाथ पांव के शब्दों की शक्ति भारतीय पुराणों और इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। शब्दों ने हमें संवाद करना सिखाया, विस्तृत समाज का आधार ये ही शब्द हैं, तो संसार भर के उपद्रव और अशांति का कारण भी शब्द ही हैं। हृदय में जितनी तीव्रता से शब्द प्रवेश करते हैं उतना वेगमान बर्वरीक का फूंक भी नहीं है, जिसके फूंकने मात्र से योगेश्वर कृष्ण का सारा संसार लय हो सकता था। कबीर को इस शब्द की ताकत का अंदाज कितने अर्थों में है, कि जीवन के पृष्ठ-दर-पृष्ठ खोलते जाइए, शब्दों की अर्थ-छवियां खुलती जाएंगी। कबीर की चिंता में समाज सर्वोपरि है। वे जानते थे कि संभलकर, सोचकर बोलना लोक और समाज के हित में है। समाज और लोक की मंगलकामना के लिए उन्होंने मनीषियों को भी समझाइश दी थी कि ‘साधो सबद-साधना कीजै।’ शब्दों की साधना मौन से हुई, इसलिए  वे साधक मुनि कहलाए। कबीर के इस कथन की साधना आज विश्व को करनी होगी। लोग प्रतिदिन प्रत्येक स्तर पर बिना विचारे बोले जा रहे हंै, शब्द दूरियां बढ़ाते हैं। शब्दों से बेहतर कोई मलहम और उससे धारदार कोई तीर आज तक नहीं बन सका। शब्द हमारा संस्कार है, व्यवहार है, अस्मिता है, और विश्व भर में हमारी पहचान है। विश्व-मंच पर विवेकानंद के ही शब्द ‘भाइयों और बहनों’ ने उन्हें सर्वप्रिय बना दिया। शब्द ब्रह्म हैं, शब्द की सत्ता से नकार अपने से नकार है शब्द का अक्षर है, कालेत्तर है।
द्रौपदी के एक शब्द पर महाभारत हुआ। पुराणोतिहास का सबसे नंगा दृश्य उस महाभारत में है जिसके बारे में कहा जाता है कि जो कहीं नहीं है वह महाभारत में है और जो महाभारत में नहीं है वह कहीं नहीं है। लोक में आज भी शिद्दत से उपस्थित है। जल-थल के विभ्रम में पड़े दुर्योधन पर द्रौपदी का कटाक्ष ‘अंधे की औलाद अंधी ही होती है।’ द्रौपदी पर कितनी भारी पडा कि सभा में नग्न करते हुए दुर्योधन का यह कहना कि ‘यहां सब अंधे बैठे हैं अंधों के सामने नंगे होने में क्या रोना-चिल्लाना’ शब्द का क्रियात्मक प्रतिकार था। तुलसी के ‘मानस’ में जहां पर जाति वर्ग के पात्रों का सम्मान राम द्वारा होता है। परीक्षा लेने आई सती को मां कहकर संबोधन, तारा की संवेदना अनुभूति करने वाले राम सूर्पणखा के साथ अभद्र और अमर्यादित कैसे हो गए? यहां तक तो रावण उनके केन्द्र में कहीं था ही नहीं। ‘अहै कुमार मोर लघु भ्राता’ कहने की कौन सी मजबूरी थी। कथा को आगे बढ़ाने का क्रम ‘मनहुं चुनौती दीन’ एक शब्द-भाव मिश्रित संकेत ही था, जिसके आग में सुवर्ण लंका राख हो गई, कमोवेश जीवित है। ‘माई हसबैंड माई वाइफ’ आज भी लोक के शब्द नहीं हैं। मुन्ने/मुन्नी के पिता/किसी देवर का नाम लेकर रिश्तों को बताने का चलन अभी खत्म नहीं हुआ। ‘तिरछे करि नैन दै सैन तिन्है, समुझाय कछु मुसकाय चली’ का भाव और अर्थ संकेत देकर भारतीय जीवन की मर्यादा का पालन कालान्तर के कवि ‘गोरे देवर’ श्याम उन्हीं के ज्येष्ठ हैं, के कथनों से कई गुना बेहतर हैं।
  युद्धों के प्रारंभ में भी सबसे पहले शब्द बाण ही चलते हैं, तब भी और आज भी। शब्दों को वापस लेने की बातें कही जाती हैं। लेकिन ये हवा के बाण कभी भी वापस अपने तरकश में नहीं आते। आमेर के राजा मानसिंह को अपने घर की तरफ आते देख सिरदर्द का बहाना कर राणाप्रताप ने द्वार पर उनका स्वागत करने के लिए पुत्र को भेजा। मानसिंह ने पूछा-‘राणा कहां हैं।’ पुत्र ने उत्तर दिया-‘सिर में दर्द है।’ मानसिंह को इसमें अपमान की गंध दिखी, उन्होंने कहा- राणा के सिरदर्द की दवा लेकर जल्दी ही आऊंगा। इतिहास जानता है कि हल्दी घाटी का युद्ध इसी की परिणति थी।
  शब्द के अर्थ संकेतों पर भी विश्व खड़ा है। प्रत्येक की यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि सोच-समझकर बोले क्योंकि शब्दों के निहितार्थ बहुत व्यापक और कालजयी होते हैं। शब्द पास खींचते हंै, शब्द दूर करते हैं, दोनों परिणाम देते हैं। सुख और दुख मात्र शब्द हैं, अनुभूति के अर्थ में ही वे सार्थक और निरर्थक होते हैं।   संकल्प-विकल्प, उत्तर-प्रत्युत्तर के लिए समय देना शब्दों के परिणाम को सोचने समझने का समय देना है। बिना यह सोचे कि इसका परिणाम क्या होगा? परिणाम सामने आने पर शब्द वापस करने की बात करते हैं। लेकिन शब्द क्या कभी वापस हो सके हैं? शब्द तो काल के भाल पर अमिट हस्ताक्षर बनकर दिखते रहेंगे।
मां शब्द का कोई विकल्प नहीं हो सका। आयातित शब्द हमारे रिश्तों को अर्थवत्ता नहीं दे सकते। हमारा समाज रिश्तों पर आधारित है, प्रत्येक रिश्ते के शब्द हैं। कोई रिश्ता ‘इन ला’ नहीं है। मामा, फूफा, मौसी, मौसिया के समानार्थी अंकल आंटी नहीं है। हमारे दादा भाई, मंझले, संझले लहुरबा, मझिला, नन्हें का समानार्थी कोई शब्द नहीं है। रिश्तों के कमजोर पड़ते जाने के कारण शब्द भी लुप्त होते जा रहे हैं। परिवार शब्द सिमटकर पति-पत्नी तक मुश्किल से बचा, अंतिम सांसे गिन रहा है। शब्द को कायम रखने के लिए इन्हें संभलकर बोलना और रखना होगा। शब्दों में मिठास घोलिए, कोयल की तरह प्रिय बनिए। तुलसी बाबा भी कह गए हैं- ‘तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुं ओर’ संसार को वश में करने का मंत्र भी वे बता गए हैं। उन पर अमल करके दुनिया को बेहतर बनाया जा सकता है। सच भी यही है- बातइ हाथी पाइए, बातइ हाथी पांव। ‘बात संभालकर बोलना’  ‘बात बिगड़ जाने पर जीभ खींच लेना’ लोकोक्ति आज भी अपनी जगह खड़ी है।
                                                 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                    सम्पर्क - 09407041433.

प्रभु जी हम गरीब, तुम पालनहार

tejinder.gagan
पिछले सप्ताह दो खबरें पूरे समाचार जगत में अनर्थ के अंधकार की तरह छाई रहीं। एक तो यह कि नव-धनाढय वर्ग के जीवित देवता श्रीश्री रविशंकर ने यह कहा कि सरकारी स्कूल बंद कर दिए जाने चाहिए और शिक्षा का दायित्व निजी हाथों में सौंप दिया जाना चाहिए और दूसरे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने 'गरीबी की रेखा' की जो नई परिभाषा गढ़ी, और यह 'सुखद' समाचार दिया कि उनकी गणना के मान से भारत में गरीबों की संख्या में सात प्रतिशत की कमी आई है। उनके बुध्दिजीवी साथियों जिन में लार्ड मेघनाथ देसाई शामिल हैं, ने उनकी इस गणना का समर्थन किया। हालांकि अपनी बात के समर्थन में वे सड़कों पर नहीं उतरे क्योंकि अगर कहीं वे सड़क पर उतर आते तो अपने समर्थन के तर्कों पर उन्हें पुनर्विचार करना पड़ता। गरीब आदमी के चेहरे पर रोशनी लाने में इन अर्थशास्त्रियों के चमकते चेहरे कतई समर्थ नहीं हैं। इस बात को वे भी समझते हैं। 'टाईम्स ऑफ इंडिया' के अपने एक आलेख में बच्ची करकरिया ने श्री मोंटेक सिंह का नाम उचित ही 'मनी टेक सिंह' लिखा है। यह विडंबना है कि भारत के योजना आयोग के उपाध्यक्ष को देश में गरीबी की रेखा के मापदंड को समझने के लिए वर्ष भर में दर्जनों बार संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्राएं करनी पड़ती हैं। गरीबी की रेखा गरीब आदमी के चेहरे पर अपनी पूरी पारदर्शिता के साथ दिखाई देती है, उसे पढ़ने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यता नहीं होनी चाहिए। गरीबी की रेखा गरीब आदमी की धमनियों में धीमी गति से चलती है और उसे पकड़कर उसमें जरूरी खाद-पानी डालना कोई मुश्किल काम नहीं है पर योजना आयोग में बैठे नौकरशाह अपनी गिनती और अपने आंकडों में मुंह छिपाए बैठे रहते हैं और अपना एक छद्म संसार रच लेते हैं। उन्हें लगता है कि देश की पूरी धन सम्पदा का स्रोत वे हैं। वे यह भूलते हैं कि तथ्य इसके ठीक विपरीत है। देश का मेहनतकश आदमी, किसान, मजदूर, रिक्शेवाला, फल और सब्जी के ठेले लगाने वाला, तकनीशियन, छोटा-मोटा सरकारी कर्मचारी-चपरासी, क्लर्क और लेखापाल, यह सारी जनता जो शहरों में, पहाड़ों पर और समुद्र के किनारे पर मछली पकड़ने वाले मछुआरे- ये सब जो काम करते हैं और टैक्स भरते हैं, यह सारा पैसा उनका है, जिस पर उनका हक बनता है। देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत योजना आयोग सिर्फ एक संस्था है और उसका काम जनता के इस पैसे का हिसाब रखते हुए ऐसी नीतियां बनाना है कि देश का अर्थतंत्र विकसित हो सके या फिर इस बात की तटस्थ मीमांसा करना भी है कि किस राज्य ने किन योजनाओं के तहत आबंटित पैसे का उपयोग अपने राज्य की दूरगामी जन कल्याण योजनाओं के लिए खर्च किया है कि उनके राज्य के आम आदमी के जीवन-स्तर में पर्याप्त सुधार आ सके। योजना आयोग को राज्यों को उनके संसाधनों के मुताबिक पैसा आबंटित करना चाहिए न कि राजनैतिक पक्षधरता से या उस तरह कि जैसे हम किसी भिखारी को उस तरह से पैसे दें कि वह भीख मांगने का एक नया कटोरा खरीद सके। सारी गडबड़ी गरीबी की रेखा मापने के हमारे मानदंडों में है। संभवत: यह एक मानदंड है कि अगर किसी व्यक्ति के पास इतने संसाधन हैं कि वह एक नियत मात्रा में 'कैलोरींज' ले सकता है तो वह गरीब नहीं हैं। पता नहीं किन विवेकहीन लोगों की यह सोच थी या इसका वैज्ञानिक आधार क्या था पर एक मामूली तरह से सोचने वाले व्यक्ति की समझ में भी जो बात आती है वह यह कि- एक आदमी के पास रहने के लिए छत न हो, पहनने के लिए कपड़ा न हो, जिसकी सारी इच्छाएं मर चुकी हों, जो बहुत दूर तो क्या अपने पास तक देख न सकता हो, उसके पास कमाई का कोई साधन न हो- उसे कुछ 'कैलोरींज' देकर क्या कोई भी सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकती है। चूंकि यह किसी एक व्यक्ति का किस्सा नहीं है- सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों की तादाद में, पूरे देश में एक बहुत बडा गरीब तबका गरीबी की उनकी खींची हुई रेखा के नीचे जीवनयापन करने पर विवश है, तो निश्चित ही यह सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का नतीजा है। इन नीतियों को सुधारने की जगह सरकार उन पर पर्दा डालने की कोशिश लगातार करती है और यह आम आदमी को दिखाई दे रहा है पर योजना आयोग को दिखाई नहीं देता क्यों? ऐसे ही जैसे कि श्रीश्री रविशंकर को यह दिखाई नहीं देता कि देश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे गरीबी की हालत में भी पढ़ तो रहे हैं। उनके पास साधन नहीं है फिर भी एक प्राथमिक पाठशाला उन्हें शरण देती है। जिस निजी क्षेत्र की शिक्षा की बात श्रीश्री रविशंकर करते हैं वहां तो पैसा मनुष्य को रौंदता हुआ चलता है। वे स्कूल तो अमेरिका से संचालित होते हैं, उनका तो भारतीयता और भारतीय जीवन तथा उसकी मूल्यबध्दता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। श्रीश्री कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे नक्सली होते हैं। यह घोर आपत्तिजनक बात है और साथ ही झूठ भी। सच बात तो यह है कि जिस तरह देश में शिक्षा का निजीकरण हुआ है और एक नया युवा आभिजात्य वर्ग सामने आया है, जिसका देश की जड़ों के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है, उसके प्रतिफलन के रूप में नक्सलवाद का फैलाव हुआ है। आप देश के सारे निजी शिक्षण संस्थान बंद कर दीजिए और अमीर या गरीब की परवाह किए बगैर सबको शिक्षा के समान अवसर दे दीजिए तो आप देखेंगे कि नक्सलवाद की रेखा, अपने आप ही आप की हथेलियों से गायब होती दिखेगी।
इस बीच अन्ना हजारे ने एक बार फिर जन-लोकपाल बिल के लिए नई दिल्ली में एक दिन का सांकेतिक अनशन किया है। यह न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि दु:खद भी है। देश की संसद को गौण करने की कोई भी कोशिश अंतत: एक तरह का राष्ट्र-द्रोह ही कहलाएगी। यह अलग बात है कि अगर आप को पूरी ईमानदारी से यह लगता है कि संसद में कुछ ऐसे लोग पहुंच जाते हैं जिनका आचरण नैतिक मूल्यों पर खरा नहीं उतरता या जिनका लोक-जीवन संदिग्ध है तो आपको उसके लिए जन-चेतना जागृत करने का काम करना चाहिए पर यह एक भोली सी इच्छा होगी क्योंकि आपके साथ तो श्रीश्री और बाबा रामदेव जैसे लोग खड़े है जिनका अपना नैतिक-संदेश ही संदिग्ध है या फिर आपके साथ अरविन्द केजरीवाल और सुश्री किरण बेदी हैं जो स्वयं नौकरशाह रहे हैं और अपना टैक्स समय पर न देने और फर्जी दौरा बिल भरने के आरोप झेल रहे हैं। अन्ना हजारे को देश की आम जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि जनलोकपाल बिल कोई ऐसा जादू का पिटारा नहीं है कि खुल जा सिमसिम कहते ही अलादीन का कोई चिराग बाहर आ जाएगा और देश की सभी समस्याओं का निदान कर देगा। यह पहला कदम भी नहीं है- पहला कदम है गरीबी की रेखा का पुनर्निर्धारण और सभी को शिक्षा के समान अवसर मुहैया कराना। जब तक यह नहीं हो जाता तब तक तो यह ठीक है कि - 'प्रभु जी हम गरीब, तुम पालनहार-'
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बाजार का पानी, लूट की कहानी



     चिन्तामणि मिश्र
  रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे मोती मानुष चून , यह कालजयी दोहा रहीम ने जब लिखा था तब पानी का आज जैसा संकट नही था। किन्तु यह दोहा ही गवाह है कि लगभग पांच सौ साल पूर्व भी पानी का महत्व था तभी अकबर के दरबारी नौ-रत्न चेतावनी देते हैं। रहीम ने उस समय जो कहा वह आज सारी दुनिया के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। पानी को ले कर खून-खराबा शुरू हो चुका है। कई जगहों में पानी का अकाल स्थायी हो गया है। ऐसा नहीं है कि भारत में पीने के पानी की अचानक कमी हो गई है। यह प्रकृति की ओर से मानव जाति के लिए असमानता भी नही है। इस संकट के पीछे सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक नीतियों का हाथ है। सरकारों की रूचि पानी का कल्याणकारी प्रबन्धन करने की बजाय बहुराष्टÑीय कम्पनियों तथा औद्योगिक घरानों को व्यापार करने के लिए सुलभ कराने में है। कॉरपोरेट घरानों और बहुराष्टÑीय कंपनियों की व्यापारिक नजर में पानी नीला सोना है। इसकी बिक्री में कमाई की अपार सम्भावनाए हैं। आने वाले कुछ सालों में पानी का महत्व जमीन के नीचे से निकलने वाले कच्चे तेल से भी ज्यादा होगा और कम्पनियां पानी पर अधिकार चाहती हैं। इसकी शुरुआत छत्तीसगढ़  से हो चुकी है। वहां एक भरी-पूरी नदी ही सरकार ने एक कम्पनी को बेच दी। इस नदी से आसपास के लोग जो सदियों से इसके पानी पर ही निर्भर थे, वंचित कर दिए गए । लोकतांत्रिक व्यवस्था में पानी पर सब का अधिकार होता है किन्तु बाजारवादी ताकतों के आगे सरकारें घुटने टेक कर बैठ गई हैं।
     पानी के सार्वजनिक वितरण को ले कर सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जो सरकार लोगों को पानी न उपलब्ध करा सके, उसे शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का ताजा अघ्ययन बताता है कि स्वच्छ पेय जल आपूर्ति के मामले में हम बहुत पीछे चल रहे हैं। हमारे यहां करोड़ों लोगों को साफ पानी नहीं मिल पाता और करोड़ों लोगों को किसी भी तरह के पानी की खोज में कई किलोमीटर भटकना पड़ता है। सरकार की नियत इस प्रसंग में लोकविरोधी है। सरकार ने जो राष्टÑीय जलनीति बनाई है उसमें पानी को प्राकृतिक संसाधन और उस पर सब का नैसर्गिक अधिकार स्वीकार करने की बजाए उसे आर्थिक उत्पाद माना है। इस अवधारणा का साफ मतलब है कि पानी की उपलब्धता को खरीदने की क्षमता से जोड़ दिया गया है। उधर संयुक्त राष्टÑ ने पेयजल को मानवाधिकारों में शामिल किया है किन्तु हमारी सरकारें पानी को आर्थिक उत्पाद मान कर बिक्री का रास्ता खोल रहीं हैं।
      सरकार खुद पानी बेचने धंधे में उतर चुकी है। भारतीय रेल ने खुद का रेल नीर नाम से बोतल बन्द पानी बेचना शुरू कर रखा है। जाहिर है कि सरकार की पानी को ले कर प्राथमिकताए बदल गई हैं। सरकार भारतीय रेल को एक कम्पनी मानती है और रेल नीर उसका एक उत्पाद है जिसके जरिए सरकार ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाती है। अधिकतम तीन रुपए की लागत पर दस रुपए बिक्री मूल्य वसूल करके बेमिसाल मुनाफा बटोरने बाद भी खुद को लोक-कल्याण का पैरोकार होने का दावा करना शर्मनाक विडम्बना ही है। जब पैसा कमाना ही मकसद हो जाए तो फिर ग्राहक तैयार करने की कवायत शुरू होती है। इसकी पुष्टि रेल्वे के उस ढांचे को ध्वस्त करने से हो जाती है जिसे अंग्रेजों ने यात्रियों को पेयजल मुफ्त उपलब्ध कराने के लिए हर छोटे-बड़े  स्टेशनों में बना कर रखा था।
       इस बात पर तो किसी को सन्देह नही है कि  देश में जल-प्रदूषण काफी तेजी से फैल रहा है। शहरी घरों से जितना कचरा निकल रहा है उसके अस्सी प्रतिशत से ज्यादा के निस्तारण की क्षमता और सुविधा हमारे पास नही है। हमारे देश की जिम्मेवार स्थानीय संस्थाओं में इस प्रसंग में जिम्मेवारी का भी अभाव है। इसके अलावा औद्योगिक कचरे का भी निस्तारण नहीं हो रहा है। कचरे का निपटान न होने से यह जमीन के अन्दर के पानी को भी दूषित कर रहा है। लेकिन पानी को प्रदूषण से बचाने के लिए प्रभावशाली कदम न उठाने से ऐसे सन्देहों खारिज भी नही किया जा सकता कि बोतलबन्द पानी की बिक्री कराने के लिए कचरे का निपटान न करना षड़यंत्र है। लेकिन बोतलबन्द पानी भी जिसका व्यापार खरबों रुपयों का हो गया है, सेहत के लिए खतरनाक है। अमेरिका की एक संस्था नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल की पिछले साल प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि बोतल बन्द पानी और साधारण पानी में कोई खास फर्क नही है। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबन्द पानी में पैथेलेटस नाम के रसायन का इस्तेमाल किया जाता है। बोतलबन्द पानी के जरिये यह रसावन लोगों के शरीर के अन्दर पहुंच रहा है। इससे व्यक्ति की प्रजनन क्षमता और मानसिक सेहत पर नकारात्मक असर पड़ता है। बोतल बनाने में एंटीमनी नाम के जिस रसायन का इस्तेमाल किया जाता इै वह बीस घंटे से अधिक पानी के संसर्ग में रह जाने से वह पानी जी मिचलाने, उल्टी और डायरिया जैसी समस्याओं को पैदा करता है। साफ है कि बोतल बन्द पानी की शुद्धता और स्वच्छता का दावा चाहे जितना भी किया जाए, संदेह के बादल तो मंडरा ही रहे हैं।
  पानी प्रकृति का मनुष्य के लिए अनमोल उपहार है किन्तु   सरकारों की नीतियां ऐसी हैं कि इस उपहार पर कुछ लोग कब्जा करके इसे मनमाने मूल्य पर बेच रहे हैं। पानी भूमि की सतह के ऊपर है और सतह के नीचे भी है। यह पानी सार्वजनिक सम्पति है किन्तु व्यापारिक घराने इसका मनमाना दोहन करके निजी सम्पति बना कर कमाई कर रहे हैं। जरूरतमन्द प्यासे लोगों के पास मनमानी कीमत पर पानी खरीदने के अलावा कोई रास्ता ही नही बचता है। पीने के पानी को शुद्ध बताने का दावा करने  वाली कंपनियों को सरकार मानक प्रमाणपत्र जारी करती हैं किन्तु इनके द्वारा बेचे जा रहे पानी की कभी नियमित जांच नहीं होती। ऐसी कई इकाईयां हैं जहां पानी जांच के लिए प्रयोगशाला ही नहीं हैं। पानी को शुद्ध करने का दावा करने वाली मशीन बनाने वाली कंपनियों ने पूरा कारोबार खोखले दावों पर खड़ा कर रखा है। इन मशीनों की  क्षमता वैज्ञानिक अध्ययनों ने खारिज कर दी है  किन्तु हमारे यहां इन्हें आसानी से प्रमाणपत्र जारी हो रहे हैं। इनको आईएमए प्रमाणपत्र देती है किन्तु मशीनों की जाच नही होती क्योकि आईएमए के पास जांच करने के लिए बुनियादी ढांचा ही नहीं है। शुद्ध पानी का खोखला दावा करने वाली मशीनों पर देश के लोग काफी पैसा खर्च कर रहे हैं  किन्तु उन्हें साफ-शुद्ध पानी नहीं मिले तो इसे धोखा ही कहा जायेगा। लोगों के मन में यह बात बैठा दी गई है कि मशीनों, बोतलों,पाउचों में जो पानी मिल रहा है वह शुद्ध है। लगता है कि जनता की चुनी हुई सरकारें देश नही चला रही हैं, देश में कंपनियों का शासन है।
                                    - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                            सम्पर्क - 09425174450.

Thursday, March 22, 2012

संस्कृतियों के संक्रमण में फंसा अपना देश


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
विश्व में शायद अपना देश ही एकमात्र ऐसा देश है जो दो संस्कृतियों से संचालित है। ‘इंडिया’ और भारत दो संस्कृति है। सिंकदर से लेकर मुगलों तक आर्यावर्त और भारत ही देश की पहचान थे, भले ही यवनों ने अपनी भाषा में और तुर्कों ने कुछ संज्ञा दी हो, भारत को वे ध्वस्त नहीं कर सके। लगभग नब्बे वर्ष के अंग्रेजी शासन ने देश को ‘इंडिया’ और ‘भारत’ दो भागों में विभाजित कर दिया। ‘इंडिया’ जो महानगरों में रहता है और ‘भारत’ जो गांवों में रहता है। इंडिया का प्रतिनिधित्व विश्व भर में होता है, भारत का प्रतिनिधित्व अपने देश में भी नहीं होता। यह अलग बात है कि प्रतिनिधियों का चुनाव यह कहता है, लेकिन वे प्रतिनिधि उसके नहीं होते, जितने खड़े हैं। इनमें से किसी एक को चुनना उनकी मजबूरी है। ‘इंडिया’ के वर्ष की शुरुआत जनवरी से होती है, हालांकि ईसा का जन्म दिसम्बर में हुआ था। एक जनवरी को शायद छठि-आठौं रही हो। विविधता से भरे इस देश में जितने भी विदेशी-देशी रहे, सबके अपने सन्-संवत हैं। ईसा के पहले और बाद के संवतों ने वह उपलब्धि अंचल विशेष में भले ही प्राप्त की हो, समूचे देश पर नब्बे वर्ष का ईसा सिर पर सवार है। मुगलों ने हिज्री संवत को भारतीयों पर लादा नहीं। सैकड़ों वर्ष के शासन के बाद भी उन्होंने देशी पहचान नहीं छीनी। विक्रम संवत, शक संवत, बंगला सन् इत्यादि अपनी सम्पूर्ण चेतना से लोक की तिथियों और महीने के साथ पूरे दिल दिमाग में रहे। जम्बूदीपे रेवाखण्डे विक्रम संवत, पूजा और संस्कार के साथ इंडिया और ईसा के कैलेण्डर के बावजूद अपनी अस्मिता के साथ खड़ा है। जीवन के सारे मांगलिक कार्य वि.सं. के पंचांग के अनुसार होते हैं, संस्कार और मांगलिक तिथि और दिन होते हैं, डेट और मन्थ नहीं। विक्रम संवत् ईसा का दादा है, जो ईसा से सत्तावन वर्ष बड़ा है। शक ् संवत कहीं से टपककर राष्टÑीय हो गया, विक्रम सिर धुनता मध्य भारत के लोक में खड़ा है। चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा रेवाखण्ड का नववर्ष है।
  राम को रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए जो देवी पूजा करनी पड़ी थी, वह शारदीय नवरात्र थी। विक्रम संवत का प्रारंभ वासंती नवरात्र से होता है। दोनों नवरात्रों में देवी की उपासना है। मां के नौ स्वरूप हैं। दुर्गा, काली, शीतला, शारदा के इन स्वरूपों में सम्पूर्ण भाव-सत्ता भी है। बंगाल में दुर्गा के स्वरूप की कथा राम से भी जुड़ी है, जो वर्तमान में सम्पूर्ण उत्तरभारत में फैली है। वासन्ती नवरात्र शुद्ध सात्विक मनोभाव का महीना है। शारदीय नवरात्र के बाद रावण वध होता है तो वासंती नवरात्र की अंतिम तिथि में रामजन्म नववर्ष का प्रारंभ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को होता हे, परंतु भारत के इस क्षेत्र में महीने का प्रारंभ कृष्ण पक्ष से मानते हैं, लेकिन पंचांग में कृष्ण पक्ष की अमावस्या के आगे तीस का अंक लिखा मिलता है। इस विरोधाभास के पीछे अधिमास (मलमास) की जटिल और सांख्यकीय गणना है। लोक इस गणित में नहीं पड़ता। उसने कृष्ण पक्ष को ही मास के प्रांरभ की तिथि मान ली, बावजूद इसके कि शुक्ल पक्ष ही मास का प्रथम पक्ष है। इसी तिथि से पंद्रह दिन तक पुरोहित पंचांग लेकर यजमानों के यहां वर्ष भर का फलाफल बांचने जाते हैं। लोग उस पंचांग पर विश्वास करते हैं उसी के अनुसार मंगल कार्य करते हैं। कल्याण की निकाई देवी की पूजा गांव के एक छोर से शुरु कर पूरे गांव की गोठ होती है, अपने हाथ में लोटे से भरे पानी की धार देते, किनारे बसी देवी महारानी पर घेंटा की बलि के साथ गाना बजाना हाता है, और देवी से वर्ष भर की सलामती की दुआ मांगी जाती है। इस आस्था में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता।
 फागुन की पूनम को होलिका दहन के साथ ही संवत की मृत्यु होती है। चैत्र महीने का कृष्णपक्ष, उत्सव-उल्लास के पंद्रह दिन हैं । संवत के मृत्योत्सव के बाद नव संवत का आगमन, घट स्थापना, देवी मां की पूजा के नव दिन। इतने दिनों तक किसी देवता की पूजा का कोई विधान लोक में नहीं है। लोक के देवी देवता भव्य मंदिरों में नहीं रहते। देवी की पूजा-प्रत्येक गांव के सिवान में चा-छ: दस, टूटी-फूटी काले पत्थर की मूर्तियों पर कभी सिंदूर, कभी दहेंगर पोतकर कर ली जाती है। खुले आकाश के नीचे किसी नीम के वृक्ष तले, या किसी मेंढुली में रहने वाली इन देवी के ये नौ दिन जवारों के और ओझाई के दिन होते हंै। रात भर भगत गाते हैं। शक्ति और तंत्र साधना के इन दिनों को देवी मां का जागरण काल कहते हैं। कोई भी अवतारी देवता लोक का पिता नहीं बन सका। लेकिन लोक ने देवियों को मां की संज्ञा दी। पिता  कभी वत्सल नहीं बन सका। मां का सहज वात्सल्य उसे मिला है। ईश्वर परम पिता हुआ लेकिन, उसका कोई अवतार पिता नहीं कहलाया, जबकि शक्ति स्वरूपा देवी, मां कहलाई।
भारत का अपना विस्तृत अतीत है। माना कि अतीत में सब कुछ अच्छा नहीं होता, फिर भी अनेक मानवीय संबंधों पर हम विश्व में सर्वोपरि हैं, उनको बचाए और बनाए रखना हमारा दायित्व है। दायित्व बोध बना रहे, यह जिम्मेदारी गैर की नहीं सिर्फ हमारी है। परंपराओं को वैज्ञानिकता की कसौटी पर रखते हुए अपनी जमीन और जमीर का ध्यान अवश्य रखें। अपनी जमीन से जुड़ा हुआ ज्ञान ही अपनी उन्नति में सहायक होता है। आयातित ज्ञान में पराई जमीन में अपनी परंपरा की फसलें नहीं लहलहा   सकतीं। इंडिया, परंपरा-संस्कृति-भाषा से विमुख करने पर आमादा है। कितने ही प्रतिभाशाली अनिल कुमार मीणा आत्महत्या कर रहे हैं और ‘भारत’ को पता नहीं है। ‘इंडिया’ को अमेरिका बनाने में लगे लोग यदि भारत को उस दौड़ में शामिल होने से रोक सकें तो देश के ऊपर उनकी अहैतुकी कृपा होगी। भारत की परंपराएं देश की पहचान हैं। विदेशियों द्वारा जारी किए हुए फतबे ईर्ष्या-द्वेष से भरे, हमारी एकता को तोड़ने का प्रयास है। भारत में नववर्ष जनवरी में नहीं है। जनवरी अतंर्राष्टÑीय नववर्ष क्यों हुआ, सभी जानते हैं। भारत में विभिन्न संस्कृतियों के अलग-अलग नववर्ष हैं, बंगला, हिजरी, शक, वीर, निर्वाण इत्यादि की अपनी तिथियां हैं। सभी संस्कृति के लोग उसमें सहभागी होते हैं परंतु विक्रम संवत के अपने ठाठ हैं।
   वासंती ऋतु स्वयं में सर्वश्रेष्ठ है। प्रकृति का सबसे बड़ा सौंदर्य और मन वसंत के इस नवरात्र पर न्यौछावर है। स्वयं नारायण भी मां को आने के लिए मनुहार करते हैं कि इस नवरात्रि में वे आएं। कभी वे महिषासुर को मारने के लिए आर्इं थीं। लोकगीत की एक पंक्ति देखें- लिखि लिखि पतियां, काहे न करे मसियानी हो मां/ अंचलकार क कगदा बने हैं, नयन बोलाबैं नारायन हो मां/महिषासुर एक दानौ उपजा तेहि कारन चली आबा हो मां/ इस गीत में कबीर के ‘नैना अंतर आउं तूं’ और गीता के ‘विनाशाम् च दुष्कृताम्’ की ध्वनि एक साथ है। नव संवत्सर की नवरात्र देश वासियों के लिए नए संचार का प्रारंभ है। ‘मइया! तोरे अंगने आएउं, निहुरि कइ पइयां लोगउ’ के भगत रात रात भर जागरण कर नवरात्र का स्वागत करते हैं।
                                                     - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                        सम्पर्क - 09407041430.

समलैंगिकता और कानून



   संतोष खरे
समलैंगिकों के अधिकारों की वकालत करने वाली संस्था नाज फाउन्डेशन ने आपसी सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता देने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष जनहित याचिका प्रस्तुत की थी। उच्च न्यायालय ने पहले यह याचिका एवं इसकी पुनर्विचार याचिका निरस्त कर दी किन्तु जब याचिकाकर्ता इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे तो सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर पुनर्विचार करने को कहा। याचिकाकर्ता संस्था का तर्क था कि सरकार नैतिकता के आधार पर उनके समानता के मौलिक अधिकार का हनन कर रही है। जब कि केन्द्र सरकार का कहना था कि समलैंगिक सेक्स संबंध अनैतिक है और इन्हें कानूनी मान्यता दिये जाने से समाज में नैतिक मूल्यों का पतन होगा। सरकार का यह भी तर्क था कि इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार केवल संसद को है अत: न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सुनवाई के पश्चात दिल्ली उच्च न्यायालय ने जुलाई 2009 में आपसी सहमति से बने ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी। यदि यह निर्णय कायम रहा तो इसका परिणाम यह होगा कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 377 विलोपित कर दी जाएगी और समलैंगिक संबंध अपराध के दायरे से बाहर हो जाएंगे। इस निर्णय के विरुद्ध कई सामाजिक धार्मिक संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका प्रस्तुत की, जिसकी सुनवाई के दौरान न्यायालय ने केन्द्र सरकार को अपने दो न्यायविदों के माध्यम से परस्पर विरोधी मत व्यक्त करने पर नाराजगी व्यक्त की और फिर यह पूछा कि सरकार यह बताए कि देश में कितने समलैंगिक हैं? इस याचिका पर सुनवाई जारी है।
   धारा 377 के अनुसार जो व्यक्ति स्वेच्छा से दूसरे पुरुष, स्त्री या पशु के साथ ‘अप्राकृतिक इंद्रियभोग’ से तात्पर्य है, समान लिंग के व्यक्ति के द्वारा पारस्परिक सेक्स संबंध, पशुगमन अथवा मुख मैथुन। (इस संबंध में यह स्मरणीय है कि अमेरिका में मुख मैथुन को अपराध नहीं माना जाता।) याद करें वहां के तत्कालीन राष्टÑपति बिल क्लिंटन पर उनके आफिस की कर्मचारी मोनिका लेविंस्की के साथ ‘मुख मैथुन’ का आरोप लगाया गया था, किन्तु वहां इसे अपराध की श्रेणी में नहीं माना गयाऔर क्लिंटन इस आरोप के बावजूद अगला चुनाव जीत गए थे।) भारत में ऐसी कानूनी स्थिति नहीं है। यहांं इस संबंध में विभिन्न उच्च न्यायालयों के निर्णयों में मत भिन्नता है। गुजरात और सिंध के उच्च न्यायालय ने मुख मैथुन को इस धारा के अंतर्गत अपराध माना था जब कि मैसूर उच्च न्यायालय  ने जिसका निर्णय पाश्चात्य देश के न्यायालय के निर्णय पर आधारित था, इसे अपराध नहीं माना था। एक अन्य निर्णय में गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा था कि मुख मैथुन  के मामले में दण्ड उतना कठोर नहं दिया जाना चाहिए कि गुदा मैथुन सोडोमी के मामलों में दिया जाता है। इस धारा के अनुसार सीडोम अपराध मानने के लिए शिकायतकर्ता  की सहमति तुच्छ मानी जाती है।
    समलैंगिक संबंधों के पक्ष में जो तर्क दिये गए हंै उनमें से कुछ  यह हैं कि सन् 1860 के पूर्व समलैंगिकता अपराध नहीं था, यह तभी अपराध माना गया जब अंग्रेजों ने इसे दण्ड संहिता में शामिल किया। विश्व के 126 देश ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता प्रदान कर चुके हैं। मेडिकल साइंस के अनुसार ऐसे संबंध अप्राकृतिक नहीं। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 23 प्रतिशत लोग मुख मैथुन, 16 प्रतिशत लोग गुदा मैथुन 8 प्रतिशत लोग समलैंगिक प्रेम करते हंै। इस संदर्भ में न्यायालय में यह तर्क भी दिये गए कि ‘किराए की कोख (सेरोगेट)’ परखनली शिशु तथा बिना विवाह के साथ रहने (लिव इन रिलेशनशिप) के युग में समलैंगिकता को ‘अप्राकृतिक’ नहीं मानना चाहिए। उनका कहना है कि समय के साथ कानून बदलने चाहिए। एक तर्क यह भी दिया गया कि पाश्चात्य देशों में पुरुषों के बीच कामुक संबंध एक सामान्य बात है। इस तरह के लोगों के  संगठन बने हुए हैं। सरकार की ओर से प्रमुख रूप से यही आपत्ति की गई कि यह अपराध भारतीय संस्कृति के विरुद्ध और बेहद अनैतिक है। वही इसके विपरीत एक महान्यायवादी ने सरकार की ओर से तर्क भी प्रस्तुत किया कि इसे अपराध के दायरे से बाहर रखना चाहिए। जिससे सरकार ने पहले असहमति व्यक्त की तथा बाद में असहमति के विपरीत शपथपत्र  प्रस्तुत किया।
उपरोक्त परिस्थितियों में सुनवाई के पश्चात सर्वोेच्च न्यायालय क्या निर्णय देगा यह तो भविष्य बताएगा। यदि सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को कायम रखता है तो यह निर्णय भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित करने वाला होगा। इस संदर्भ में यह तथ्य भी नहीं भुलाया जा सकता कि जब तक ऐसे संबंधों के बारे मे कोई एफआईआर नहीं लिखवाता और आपराधिक प्रकरण अदालत में नहीं चलता तब तक समाज या कानून को ऐसे संबंधों से कोई लेना देना नहीं।
    अब देखना यह है कि उपरोक्त परिस्थितियों में जबकि सरकार स्वयं इसे अपराध के दायरे से बाहर रखने पर सहमत है, सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में क्या निर्णय लेगा।
                    - लेखक सुपरिचित व्यंग्यकार एवं अधिचक्ता हैं ।
                       सम्पर्क-09425172638.

Tuesday, March 20, 2012

भारतीय रेलवे, सशस्त्र बलों से आगे है



 मंगलवार, 20 मार्च, 2012 को 12:18 IST तक के समाचार
सुधारों को लेकर बड़े राजनीतिक विवाद का केंद्र बनी इंग्लैंड की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (एनएचएस) को चीन की सेना और भारतीय रेलवे के बाद दुनिया का सबसे बड़ा नियोक्ता माना जाता है. लेकिन क्या ये वाकई सच है?
चीन और भारत के मुकाबले ब्रिटेन के आकार को देखते हुए इस दावे पर भरोसा तो नहीं होता. जी हां, ये दावा सच है भी नहीं.

वहीं 19 लाख कर्मचारियों के साथ मैकडोनल्ड चौथे और अमरीकी सुपर-मार्केट चेन वालमार्ट 21 लाख लोगों के साथ इस सूची में तीसरे स्थान पर है.इंग्लैंड की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा अपने कर्मचारियों की संख्या के हिसाब से दुनिया का पांचवी सबसे बड़ी नियोक्ता है. इसके कर्मचारियों की संख्या 17 लाख है.
और दूसरे पायदान पर है चीन की सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी जिसके सुरक्षा बलों की संख्या 23 लाख है.
कर्मचारियों की संख्या के लिहाज से अमरीका रक्षा विभाग दुनिया में अव्वल है जिसके तहत 32 लाख लोग काम करते हैं.

तुलना आसान नहीं

अमरीकी रक्षा विभाग चीन की सेना से बडा़ क्यों है, इस तरह की तुलना करना बड़ा मुश्किल है.

जेम्स हैकेट

"भारतीय रेलवे के कर्मचारियों की संख्या 14 लाख है, उसकी इस वर्ष एक लाख और 
भारतीय रेलवे, भारतीय सशस्त्र बलों से आगे है 
कर्मचारियों की भर्ती करने की योजना है. cजिनके सक्रिय बलों की संख्या 13 लाख है."
अमरीकी रक्षा विभाग का मुख्यालय वर्जिनिया स्थित पेंटागन इमारत में है जो असैन्य कर्मचारियों की शक्ल में अपने लोगों की संख्या और बढ़ाना चाहता है वैसे कहा ये भी जाता है कि जिन इमारतों में कार्यालय हैं, उनमें पेंटागन दुनिया की सबसे बड़ी इमारत है.
वहीं चीन के सेना में कितने सैनिक है, इसकी सटीक संख्या बताना लगभग नामुमकिन है.
और जो इसके 23 लाख कर्मचारी बताए जाते हैं, वो सिर्फ सैन्य कर्मचारी हैं यानी अमरीकी रक्षा विभाग की तरह इसमें असैन्य कर्मचारियों की संख्या शामिल नहीं है.

क्या है आधार

दुनियाभर की सेनाओं के बारे में सालाना आकलन मिलिट्री बैलेंस के मुताबिक, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी दुनिया की सबसे बड़ी सक्रिय सेना है. ब्रिटेन स्थित अंतरराष्ट्रीय सामरिक अध्ययन संस्थान ने ये आकलन प्रकाशित किया है.
वैसे यदि आप अमरीकी रक्षा विभाग में सक्रिय सुरक्षा बलों की गिनती करें तो पाएंगे कि वहां केवल 16 लाख लोग हैं और इस लिहाज से ये महकमा हमारी सूची में फिसलकर सातवें स्थान पर आ जाएगा.
एक अनुमान के मुताबिक भारतीय सशस्त्र बलों में सक्रिय सैनिकों की संख्या 13 लाख है
और यदि असैन्य कर्मचारियों की संख्या पता चल जाए तो ये भी मुमकिन है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, अमरीकी रक्षा विभाग के बराबर निकले. होने को ये भी सकता है कि चीन की सेना आगे निकल जाए.
लेकिन ये पता लगाना आसान नहीं है कि कौन कर्मचारी सैन्य और कौन असैन्य, क्योंकि चीन की सेना और अमरीकी रक्षा विभाग का संगठन और ढ़ांचा एकदम अलग है.
मिलिट्री बैलेंस के संपादक जेम्स हैकेट कहते हैं, ''सेनाओं के भीतर कई संगठन होते हैं जैसे सक्रिय सुरक्षाबल, आरक्षित बल, असैन्य बल. वो लोग भी शामिल होते हैं जो अनुबंध पर काम कर रहे होते हैं. इसलिए जब आप संख्या की बात करते हैं तो ये इस पर निर्भर करता है कि आप गिनती किसकी कर रहे हैं.''
उन्होंने बताया, ''हमने अपनी गिनती में उन कर्मचारियों को गिना है जो वर्दी में हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी सेना की जिम्मेदारियों को पूरा करने में सक्षम हैं.''
जेम्स हैकेट कहते हैं, ''पीपुल्स लिबरेशन ऑर्मी अन्य सेनाओं के मुकाबले बड़ी होने का एक कारण ये है कि ये एक जगह तैनात है जबकि पश्चिमी सेनाएं दुनियाभर में बिखरी हैं.''

देखन में छोटे लगें

चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी दुनिया की सबसे बड़ी सेना है लेकिन उसके सैनिकों की एकदम सटीक संख्या पता लगाना मुश्किल है
इंग्लैंड की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा तुलनात्मक रूप से छोटी भले ही नजर आती है लेकिन फिर भी बड़ी है. ये चीन के राष्ट्रीय पेट्रोलियम निगम से बड़ी है जिसके दुनिया के 49 देशों में 16 लाख कर्मचारी हैं.
ये चीन के स्टेट ग्रिड कॉर्पोरेशन से भी बड़ी है जो 15 लाख कर्मचारियों के साथ इस सूची में सातवें स्थान पर है.
हैरानी की बात तो ये है कि इंग्लैंड की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा में भारतीय रेलवे से भी ज्यादा कर्मचारी हैं जिसके बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है जबकि ये आठवे स्थान पर आता है.
जेम्स हैकेट के मुताबिक, ''भारतीय रेलवे के कर्मचारियों की संख्या 14 लाख है, उसकी इस वर्ष एक लाख और कर्मचारियों की भर्ती करने की योजना है.''
फिर भी भारतीय रेलवे, भारतीय सशस्त्र बलों से आगे है जिनके सक्रिय बलों की संख्या 13 लाख है.
चीन के रेलवे को इस सूची में शीर्ष दस में जगह नहीं मिली है और इसकी वजह ये है कि वो अलग-अलग हिस्सों में बंटा हुआ है.

Friday, March 16, 2012

ये बजट नहीं मंहगाई का दस्तावेज है

जयराम शुक्ल
पहली नजर में ही यह बजट फजीहत में फंसी यूपीए सरकार की खीझ के अलावा कुछ
नहीं लगता। सेवाकर, एक्साइज टैक्स और उत्पाद शुल्क में की गई बढ़ोत्तरी का
ऐसा सर्वव्यापी असर पड़ेगा जिसकी घनी छाया में ‘किसानों की चिन्ता’, रक्षा
बजट में बढ़ोत्तरी, समाज सेवा के क्षेत्र में मनरेगा और एनआरएचएम जैसी
यूपीए की ध्वजवाहक योजनाएं ढंक जाएंगी। इस बजट ने आम उपभोक्ताओं से लेकर
उद्योग जगत तक को नाखुश किया ही है, मध्य वर्ग के सपनों पर भी डाका डाला
है।
उम्मीद थी कि आयकर की सीमा तीन लाख रुपए तक बढ़ेगी, लेकिन एक लाख अस्सी
हजार से बढ़ाकर दो लाख करना दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि इससे जो
मामूली सी राहत मिलेगी वह सर्विस टैक्स के जरिए मूलधन समेत वापस हो
जाएगी। राजकोषीय घाटा पूरा करने के लिए दूसरे क्षेत्रों से संसाधन जुटाए
जा सकते थे। मसलन सरकार अनुत्पादक क्षेत्रों में कटौती करती, नौकरशाही की
फिजूल खर्ची पर लगाम कसती। इस बजट में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के कोई
उपाय नजर नहीं आते। वित्तमंत्री का पूरा ध्यान, करदाताओं से सौ फीसदी
वसूली पर ज्यादा है। मसलन संपत्ति की खरीदारी पर भी टीडीएस काटने का
प्रस्ताव है, ताकि उपभोक्ता टैक्सेसन के राडार से बचकर न जाने पाए।
बजट में सबसे ज्यादा फोकस कृषि क्षेत्र में किया गया है। एक और हरित
क्रांति के लिए 18 प्रतिशत का बजट प्रस्ताव बढ़ा है, किसानों को कर्ज देने
की प्रणाली आसान बनायी गई है, पर देश में बढ़ती बेरोजगारी की चिन्ता कहीं
नहीं झलकती। सब्सिडी में क्रमश: कटौती का दबाव विश्व की वित्तीय संस्थाओं
की ओर से पहले से ही रहा है। वित्तमंत्री का लक्ष्य सब्सिडी को जीडीपी के
दो प्रतिशत से भी नीचे लाने का है। जाहिर है मिट्टी का तेल, रसोई गैस और
डीजल में सब्सिडी निशाने पर है। यानी कि आने वाले दिन रसोई और खेत दोनों
के लिए मुश्किलों से भरे हो सकते हैं। किसानों की जेब तक सीधे सब्सिडी
पहुंचाने और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को कम्प्यूटरीकृत करने की
बात जरूर की गई है, लेकिन इसके लिए कैसा तंत्र विकसित किया जाएगा यह नहीं
बताया गया है। आम आदमी के लिए ‘पीडीएस’ और ‘मनरेगा’ अच्छी मंशा वाली
फ्लॉप योजनाएं साबित हुई हैं। इन योजनाओं पर जिस तरह से बजट बढ़ाया गया है
उस हिसाब से इनकी मॉनिटरिंग को भी चुस्त-दुरुस्त करना होगा नहीं तो सारी
राहत भ्रष्टाचार के जबड़े में समा जाएगी।
कालेधन पर श्वेतपत्र जारी करने का संकल्प स्वागत योग्य है, पर यह धन जब
देश में लौटेगा तभी इस संकल्प का कोई परिणाम निकलेगा। बजट पेश करते हुए
वित्तमंत्री ने यह साफ किया है कि वे आलोचनाओं के लिए तैयार हैं, कल की
सुर्खी नहीं अपितु दस साल बाद के हालात को देखते हुए ऐसा बजट लाए हैं। यह
साफगोई आज उपभोक्ता की कमर तोड़कर परसों च्यवनप्राश खिलाने जैसी बात है।
बजट की जो समवेत प्रतिक्रियाएं आ रही हैं उसके चलते कई मसलों पर ‘रोलबैक’
करना होगा नहीं तो यह बजट यूपीए का आखिरी बजट भी साबित हो सकता है।