चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
विश्व में शायद अपना देश ही एकमात्र ऐसा देश है जो दो संस्कृतियों से संचालित है। ‘इंडिया’ और भारत दो संस्कृति है। सिंकदर से लेकर मुगलों तक आर्यावर्त और भारत ही देश की पहचान थे, भले ही यवनों ने अपनी भाषा में और तुर्कों ने कुछ संज्ञा दी हो, भारत को वे ध्वस्त नहीं कर सके। लगभग नब्बे वर्ष के अंग्रेजी शासन ने देश को ‘इंडिया’ और ‘भारत’ दो भागों में विभाजित कर दिया। ‘इंडिया’ जो महानगरों में रहता है और ‘भारत’ जो गांवों में रहता है। इंडिया का प्रतिनिधित्व विश्व भर में होता है, भारत का प्रतिनिधित्व अपने देश में भी नहीं होता। यह अलग बात है कि प्रतिनिधियों का चुनाव यह कहता है, लेकिन वे प्रतिनिधि उसके नहीं होते, जितने खड़े हैं। इनमें से किसी एक को चुनना उनकी मजबूरी है। ‘इंडिया’ के वर्ष की शुरुआत जनवरी से होती है, हालांकि ईसा का जन्म दिसम्बर में हुआ था। एक जनवरी को शायद छठि-आठौं रही हो। विविधता से भरे इस देश में जितने भी विदेशी-देशी रहे, सबके अपने सन्-संवत हैं। ईसा के पहले और बाद के संवतों ने वह उपलब्धि अंचल विशेष में भले ही प्राप्त की हो, समूचे देश पर नब्बे वर्ष का ईसा सिर पर सवार है। मुगलों ने हिज्री संवत को भारतीयों पर लादा नहीं। सैकड़ों वर्ष के शासन के बाद भी उन्होंने देशी पहचान नहीं छीनी। विक्रम संवत, शक संवत, बंगला सन् इत्यादि अपनी सम्पूर्ण चेतना से लोक की तिथियों और महीने के साथ पूरे दिल दिमाग में रहे। जम्बूदीपे रेवाखण्डे विक्रम संवत, पूजा और संस्कार के साथ इंडिया और ईसा के कैलेण्डर के बावजूद अपनी अस्मिता के साथ खड़ा है। जीवन के सारे मांगलिक कार्य वि.सं. के पंचांग के अनुसार होते हैं, संस्कार और मांगलिक तिथि और दिन होते हैं, डेट और मन्थ नहीं। विक्रम संवत् ईसा का दादा है, जो ईसा से सत्तावन वर्ष बड़ा है। शक ् संवत कहीं से टपककर राष्टÑीय हो गया, विक्रम सिर धुनता मध्य भारत के लोक में खड़ा है। चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा रेवाखण्ड का नववर्ष है।
राम को रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए जो देवी पूजा करनी पड़ी थी, वह शारदीय नवरात्र थी। विक्रम संवत का प्रारंभ वासंती नवरात्र से होता है। दोनों नवरात्रों में देवी की उपासना है। मां के नौ स्वरूप हैं। दुर्गा, काली, शीतला, शारदा के इन स्वरूपों में सम्पूर्ण भाव-सत्ता भी है। बंगाल में दुर्गा के स्वरूप की कथा राम से भी जुड़ी है, जो वर्तमान में सम्पूर्ण उत्तरभारत में फैली है। वासन्ती नवरात्र शुद्ध सात्विक मनोभाव का महीना है। शारदीय नवरात्र के बाद रावण वध होता है तो वासंती नवरात्र की अंतिम तिथि में रामजन्म नववर्ष का प्रारंभ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को होता हे, परंतु भारत के इस क्षेत्र में महीने का प्रारंभ कृष्ण पक्ष से मानते हैं, लेकिन पंचांग में कृष्ण पक्ष की अमावस्या के आगे तीस का अंक लिखा मिलता है। इस विरोधाभास के पीछे अधिमास (मलमास) की जटिल और सांख्यकीय गणना है। लोक इस गणित में नहीं पड़ता। उसने कृष्ण पक्ष को ही मास के प्रांरभ की तिथि मान ली, बावजूद इसके कि शुक्ल पक्ष ही मास का प्रथम पक्ष है। इसी तिथि से पंद्रह दिन तक पुरोहित पंचांग लेकर यजमानों के यहां वर्ष भर का फलाफल बांचने जाते हैं। लोग उस पंचांग पर विश्वास करते हैं उसी के अनुसार मंगल कार्य करते हैं। कल्याण की निकाई देवी की पूजा गांव के एक छोर से शुरु कर पूरे गांव की गोठ होती है, अपने हाथ में लोटे से भरे पानी की धार देते, किनारे बसी देवी महारानी पर घेंटा की बलि के साथ गाना बजाना हाता है, और देवी से वर्ष भर की सलामती की दुआ मांगी जाती है। इस आस्था में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता।
फागुन की पूनम को होलिका दहन के साथ ही संवत की मृत्यु होती है। चैत्र महीने का कृष्णपक्ष, उत्सव-उल्लास के पंद्रह दिन हैं । संवत के मृत्योत्सव के बाद नव संवत का आगमन, घट स्थापना, देवी मां की पूजा के नव दिन। इतने दिनों तक किसी देवता की पूजा का कोई विधान लोक में नहीं है। लोक के देवी देवता भव्य मंदिरों में नहीं रहते। देवी की पूजा-प्रत्येक गांव के सिवान में चा-छ: दस, टूटी-फूटी काले पत्थर की मूर्तियों पर कभी सिंदूर, कभी दहेंगर पोतकर कर ली जाती है। खुले आकाश के नीचे किसी नीम के वृक्ष तले, या किसी मेंढुली में रहने वाली इन देवी के ये नौ दिन जवारों के और ओझाई के दिन होते हंै। रात भर भगत गाते हैं। शक्ति और तंत्र साधना के इन दिनों को देवी मां का जागरण काल कहते हैं। कोई भी अवतारी देवता लोक का पिता नहीं बन सका। लेकिन लोक ने देवियों को मां की संज्ञा दी। पिता कभी वत्सल नहीं बन सका। मां का सहज वात्सल्य उसे मिला है। ईश्वर परम पिता हुआ लेकिन, उसका कोई अवतार पिता नहीं कहलाया, जबकि शक्ति स्वरूपा देवी, मां कहलाई।
भारत का अपना विस्तृत अतीत है। माना कि अतीत में सब कुछ अच्छा नहीं होता, फिर भी अनेक मानवीय संबंधों पर हम विश्व में सर्वोपरि हैं, उनको बचाए और बनाए रखना हमारा दायित्व है। दायित्व बोध बना रहे, यह जिम्मेदारी गैर की नहीं सिर्फ हमारी है। परंपराओं को वैज्ञानिकता की कसौटी पर रखते हुए अपनी जमीन और जमीर का ध्यान अवश्य रखें। अपनी जमीन से जुड़ा हुआ ज्ञान ही अपनी उन्नति में सहायक होता है। आयातित ज्ञान में पराई जमीन में अपनी परंपरा की फसलें नहीं लहलहा सकतीं। इंडिया, परंपरा-संस्कृति-भाषा से विमुख करने पर आमादा है। कितने ही प्रतिभाशाली अनिल कुमार मीणा आत्महत्या कर रहे हैं और ‘भारत’ को पता नहीं है। ‘इंडिया’ को अमेरिका बनाने में लगे लोग यदि भारत को उस दौड़ में शामिल होने से रोक सकें तो देश के ऊपर उनकी अहैतुकी कृपा होगी। भारत की परंपराएं देश की पहचान हैं। विदेशियों द्वारा जारी किए हुए फतबे ईर्ष्या-द्वेष से भरे, हमारी एकता को तोड़ने का प्रयास है। भारत में नववर्ष जनवरी में नहीं है। जनवरी अतंर्राष्टÑीय नववर्ष क्यों हुआ, सभी जानते हैं। भारत में विभिन्न संस्कृतियों के अलग-अलग नववर्ष हैं, बंगला, हिजरी, शक, वीर, निर्वाण इत्यादि की अपनी तिथियां हैं। सभी संस्कृति के लोग उसमें सहभागी होते हैं परंतु विक्रम संवत के अपने ठाठ हैं।
वासंती ऋतु स्वयं में सर्वश्रेष्ठ है। प्रकृति का सबसे बड़ा सौंदर्य और मन वसंत के इस नवरात्र पर न्यौछावर है। स्वयं नारायण भी मां को आने के लिए मनुहार करते हैं कि इस नवरात्रि में वे आएं। कभी वे महिषासुर को मारने के लिए आर्इं थीं। लोकगीत की एक पंक्ति देखें- लिखि लिखि पतियां, काहे न करे मसियानी हो मां/ अंचलकार क कगदा बने हैं, नयन बोलाबैं नारायन हो मां/महिषासुर एक दानौ उपजा तेहि कारन चली आबा हो मां/ इस गीत में कबीर के ‘नैना अंतर आउं तूं’ और गीता के ‘विनाशाम् च दुष्कृताम्’ की ध्वनि एक साथ है। नव संवत्सर की नवरात्र देश वासियों के लिए नए संचार का प्रारंभ है। ‘मइया! तोरे अंगने आएउं, निहुरि कइ पइयां लोगउ’ के भगत रात रात भर जागरण कर नवरात्र का स्वागत करते हैं।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
सम्पर्क - 09407041430.
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