चिन्तामणि मिश्र
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे मोती मानुष चून , यह कालजयी दोहा रहीम ने जब लिखा था तब पानी का आज जैसा संकट नही था। किन्तु यह दोहा ही गवाह है कि लगभग पांच सौ साल पूर्व भी पानी का महत्व था तभी अकबर के दरबारी नौ-रत्न चेतावनी देते हैं। रहीम ने उस समय जो कहा वह आज सारी दुनिया के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। पानी को ले कर खून-खराबा शुरू हो चुका है। कई जगहों में पानी का अकाल स्थायी हो गया है। ऐसा नहीं है कि भारत में पीने के पानी की अचानक कमी हो गई है। यह प्रकृति की ओर से मानव जाति के लिए असमानता भी नही है। इस संकट के पीछे सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक नीतियों का हाथ है। सरकारों की रूचि पानी का कल्याणकारी प्रबन्धन करने की बजाय बहुराष्टÑीय कम्पनियों तथा औद्योगिक घरानों को व्यापार करने के लिए सुलभ कराने में है। कॉरपोरेट घरानों और बहुराष्टÑीय कंपनियों की व्यापारिक नजर में पानी नीला सोना है। इसकी बिक्री में कमाई की अपार सम्भावनाए हैं। आने वाले कुछ सालों में पानी का महत्व जमीन के नीचे से निकलने वाले कच्चे तेल से भी ज्यादा होगा और कम्पनियां पानी पर अधिकार चाहती हैं। इसकी शुरुआत छत्तीसगढ़ से हो चुकी है। वहां एक भरी-पूरी नदी ही सरकार ने एक कम्पनी को बेच दी। इस नदी से आसपास के लोग जो सदियों से इसके पानी पर ही निर्भर थे, वंचित कर दिए गए । लोकतांत्रिक व्यवस्था में पानी पर सब का अधिकार होता है किन्तु बाजारवादी ताकतों के आगे सरकारें घुटने टेक कर बैठ गई हैं।
पानी के सार्वजनिक वितरण को ले कर सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जो सरकार लोगों को पानी न उपलब्ध करा सके, उसे शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का ताजा अघ्ययन बताता है कि स्वच्छ पेय जल आपूर्ति के मामले में हम बहुत पीछे चल रहे हैं। हमारे यहां करोड़ों लोगों को साफ पानी नहीं मिल पाता और करोड़ों लोगों को किसी भी तरह के पानी की खोज में कई किलोमीटर भटकना पड़ता है। सरकार की नियत इस प्रसंग में लोकविरोधी है। सरकार ने जो राष्टÑीय जलनीति बनाई है उसमें पानी को प्राकृतिक संसाधन और उस पर सब का नैसर्गिक अधिकार स्वीकार करने की बजाए उसे आर्थिक उत्पाद माना है। इस अवधारणा का साफ मतलब है कि पानी की उपलब्धता को खरीदने की क्षमता से जोड़ दिया गया है। उधर संयुक्त राष्टÑ ने पेयजल को मानवाधिकारों में शामिल किया है किन्तु हमारी सरकारें पानी को आर्थिक उत्पाद मान कर बिक्री का रास्ता खोल रहीं हैं।
सरकार खुद पानी बेचने धंधे में उतर चुकी है। भारतीय रेल ने खुद का रेल नीर नाम से बोतल बन्द पानी बेचना शुरू कर रखा है। जाहिर है कि सरकार की पानी को ले कर प्राथमिकताए बदल गई हैं। सरकार भारतीय रेल को एक कम्पनी मानती है और रेल नीर उसका एक उत्पाद है जिसके जरिए सरकार ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाती है। अधिकतम तीन रुपए की लागत पर दस रुपए बिक्री मूल्य वसूल करके बेमिसाल मुनाफा बटोरने बाद भी खुद को लोक-कल्याण का पैरोकार होने का दावा करना शर्मनाक विडम्बना ही है। जब पैसा कमाना ही मकसद हो जाए तो फिर ग्राहक तैयार करने की कवायत शुरू होती है। इसकी पुष्टि रेल्वे के उस ढांचे को ध्वस्त करने से हो जाती है जिसे अंग्रेजों ने यात्रियों को पेयजल मुफ्त उपलब्ध कराने के लिए हर छोटे-बड़े स्टेशनों में बना कर रखा था।
इस बात पर तो किसी को सन्देह नही है कि देश में जल-प्रदूषण काफी तेजी से फैल रहा है। शहरी घरों से जितना कचरा निकल रहा है उसके अस्सी प्रतिशत से ज्यादा के निस्तारण की क्षमता और सुविधा हमारे पास नही है। हमारे देश की जिम्मेवार स्थानीय संस्थाओं में इस प्रसंग में जिम्मेवारी का भी अभाव है। इसके अलावा औद्योगिक कचरे का भी निस्तारण नहीं हो रहा है। कचरे का निपटान न होने से यह जमीन के अन्दर के पानी को भी दूषित कर रहा है। लेकिन पानी को प्रदूषण से बचाने के लिए प्रभावशाली कदम न उठाने से ऐसे सन्देहों खारिज भी नही किया जा सकता कि बोतलबन्द पानी की बिक्री कराने के लिए कचरे का निपटान न करना षड़यंत्र है। लेकिन बोतलबन्द पानी भी जिसका व्यापार खरबों रुपयों का हो गया है, सेहत के लिए खतरनाक है। अमेरिका की एक संस्था नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल की पिछले साल प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि बोतल बन्द पानी और साधारण पानी में कोई खास फर्क नही है। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबन्द पानी में पैथेलेटस नाम के रसायन का इस्तेमाल किया जाता है। बोतलबन्द पानी के जरिये यह रसावन लोगों के शरीर के अन्दर पहुंच रहा है। इससे व्यक्ति की प्रजनन क्षमता और मानसिक सेहत पर नकारात्मक असर पड़ता है। बोतल बनाने में एंटीमनी नाम के जिस रसायन का इस्तेमाल किया जाता इै वह बीस घंटे से अधिक पानी के संसर्ग में रह जाने से वह पानी जी मिचलाने, उल्टी और डायरिया जैसी समस्याओं को पैदा करता है। साफ है कि बोतल बन्द पानी की शुद्धता और स्वच्छता का दावा चाहे जितना भी किया जाए, संदेह के बादल तो मंडरा ही रहे हैं।
पानी प्रकृति का मनुष्य के लिए अनमोल उपहार है किन्तु सरकारों की नीतियां ऐसी हैं कि इस उपहार पर कुछ लोग कब्जा करके इसे मनमाने मूल्य पर बेच रहे हैं। पानी भूमि की सतह के ऊपर है और सतह के नीचे भी है। यह पानी सार्वजनिक सम्पति है किन्तु व्यापारिक घराने इसका मनमाना दोहन करके निजी सम्पति बना कर कमाई कर रहे हैं। जरूरतमन्द प्यासे लोगों के पास मनमानी कीमत पर पानी खरीदने के अलावा कोई रास्ता ही नही बचता है। पीने के पानी को शुद्ध बताने का दावा करने वाली कंपनियों को सरकार मानक प्रमाणपत्र जारी करती हैं किन्तु इनके द्वारा बेचे जा रहे पानी की कभी नियमित जांच नहीं होती। ऐसी कई इकाईयां हैं जहां पानी जांच के लिए प्रयोगशाला ही नहीं हैं। पानी को शुद्ध करने का दावा करने वाली मशीन बनाने वाली कंपनियों ने पूरा कारोबार खोखले दावों पर खड़ा कर रखा है। इन मशीनों की क्षमता वैज्ञानिक अध्ययनों ने खारिज कर दी है किन्तु हमारे यहां इन्हें आसानी से प्रमाणपत्र जारी हो रहे हैं। इनको आईएमए प्रमाणपत्र देती है किन्तु मशीनों की जाच नही होती क्योकि आईएमए के पास जांच करने के लिए बुनियादी ढांचा ही नहीं है। शुद्ध पानी का खोखला दावा करने वाली मशीनों पर देश के लोग काफी पैसा खर्च कर रहे हैं किन्तु उन्हें साफ-शुद्ध पानी नहीं मिले तो इसे धोखा ही कहा जायेगा। लोगों के मन में यह बात बैठा दी गई है कि मशीनों, बोतलों,पाउचों में जो पानी मिल रहा है वह शुद्ध है। लगता है कि जनता की चुनी हुई सरकारें देश नही चला रही हैं, देश में कंपनियों का शासन है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 09425174450.
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