जयराम शुक्ल
इन दिनों समूची कांग्रेस राहुल गांधी को लेकर बिछी है और उनसे जिस तरह सत्ता व संगठन की कमान सम्हालने को लेकर अनुनय-विनय कर रही है मानो कि वे राजनीति के ऐसे हातिमताई हों, जिनके पास सभी समस्याओं का हल चुटकियों में है। स्थितियां कमोबेश ऐसे ही बन रही हैं जैसे कि पिछली मर्तबा भाजपाइयों ने लालकृष्ण आडवाणी को "पीएम इन वेटिंग"˜घोषित करके निर्मित कर दी थी। कांग्रेस में वंशवादी राजनीति की विरासत को सम्हालने में "˜टाइमिंग" का बड़ा महत्व रहा है।
इन्दिराजी को सत्ता की बागडोर सौंपने में पण्डित नेहरू को कोई हड़बड़ी नहीं थी। वे उनके प्रधानमंत्रित्व काल या यों कहें कि जीवन काल तक "गूंगी गुड़िया" ही बनी रहीं। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद घाघ कांग्रेसियों ने "˜गूंगी गुड़िया" को आगे करके राज करने की सोची थी जिसे इन्दिराजी के रणचन्डी रूप ने ध्वस्त कर दिया। इन्दिराजी स्वतंत्रता संग्राम में तपकर राजनीति में आई थीं व राजनीति के सभी पैतरों की मूक साक्षी रहीं। बांग्लादेश उदय और लोकसभा में इन्दिराजी के नेतृत्व में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत के बाद इन्दिराजी के स्वभाव में बदलाव आया और देवकान्त बरुआ सरीखे चाटुकार नेताओं के "˜इन्दिरा इज इन्डिया" का नारा देने के बाद कांग्रेस का आन्तरिक लोकतंत्र 1 सफदरजंग (इन्दिराजी का सरकारी आवास) में कैद हो गया। और भविष्य में कैसे-कैसे चाटुकार लोग सूबों के मुख्यमंत्री बने, नारायणदत्त तिवारी की मिसाल अभी भी दी जाती है जो बतौर मुख्यमंत्री इन्दिरा मैडम की सैंडिल पोंछते हुए अखबारों में छपे थे।
वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने का सार्वजनिक उद्घोष भी इन्दिरा गांधी ने ही संजय गांधी को आगे बढ़ाकर किया था। सन् 72 से लेकर 77 तक संजय गांधी सत्ता के समानांतर या यों कहें ज्यादा ताकतवर केन्द्र रहे। सन् 80 में वे अचानक कालकवलित न हो जाते तो सत्ता की वंश परंपरा को वही आगे बढ़ाते। राजनीति से निहायत विलग और सर्वथा निरपेक्ष राजीव गांधी दुर्घटनावश राजनीति में आए और इन्दिराजी की मौत से उपजी सहानुभूति की प्रचण्ड लहर पर सवार होकर देश की कमान संभाली। देश की जमीनी वास्तविकताओं से अनभिज्ञ राजीव गांधी अपनी पार्टी के ही शातिर और महत्वाकांक्षी नेताओं के दुश्चक्र में फंसकर बोफोर्स मामले में बदनाम हुए व कालान्तर में सत्ताच्युत भी। यदि राजीव गांधी अपने स्वयं के राजनीतिक पराक्रम की वजह से प्रधानमंत्री बने होते तो वीपी सिंह जैसे लोगों को उसी तरह मसल देते जैसे कि गूंगी गुड़िया इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस में मोरारजी भाई देसाई को फेंटे से लगा दिया था।
सोनिया गांधी विदेशी मूल की ही सही पर नेहरू-गांधी खानदान की श्रृंखला में सबसे मजबूत कड़ी साबित हुई हैं। राजीव गांधी की मौत के बाद कांग्रेसियों के अनुग्रह और आग्रह के बाद भी पार्टी की राजनीति से दूर रहीं। इन छ: वर्षो में वे कांग्रेसियों और देश की जनता की नेहरू-गांधी खानदान के प्रति "इन्टेंसिटी" को एक होशियार राजनीतिज्ञ की तरह तजवीजती रहीं। यही वजह है कि 1996 में कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से लेकर आज तक पार्टी के भीतर उनके सामने कोई चुनौती पेश करने वाला सिर नहीं उठा सका। जबकि इन्दिराजी 77 के पहले तक और 80 से 84 के बीच भी पार्टी के भीतर इतनी ताकतवर नहीं रहीं जितनी कि सोनिया गांधी आज हैं। यहां तक कि नेहरू को भी पार्टी में चुनौती देने वाले हुआ करते थे।
अब रही बात राहुल गांधी के लांचिंग की। तो यह अपने देश की रीढ़विहीन राजनीतिक पौध और कारपोरेट कम्पनियों में बदल गई पार्टियों की सोच है कि वे माल की गुणवत्ता में जाने की बजाय ब्रान्ड की लोकप्रियता पर ज्यादा विश्वास करती हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से राहुल गांधी बिहार और फिर उत्तरप्रदेश के चुनावों में भले ही सुपर फ्लाप हों पर वे कांग्रेस के "ब्रान्ड" और "पोस्टर ब्वाय" हैं, सो जड़ों से कटे और भविष्य से भयभीत कांग्रेस नेताओं को सिर्फ राहुल गांधी ही ऐसे नजर आते हैं जो कांग्रेस को राजनीतिक मंदी की बाजार से उबार सकते हैं। लेकिन यहां फिर "टाइमिंग" फैक्टर है। प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति बन जाना मात्र ही राहुल गांधी को दूसरे नम्बर पर बैठाने का अवसर प्रदान नहीं करता। कांग्रेस के योजनाकारों में बस यही चिन्तन और मन्थन का विषय है। राहुल गांधी की क्षमता को लेकर पार्टी के भीतर से जो स्वर उभर रहे हैं, वे कोई बेगाने नहीं हैं अपितु सोच-विचार और सोनिया गांधी की सहमति के आधार पर ही हैं। सलमान खुर्शीद जैसे नेताओं के वजूद को 10 जनपथ से ही क्लोरोफिल मिलता है। इन्दिराजी के जमाने में वसंत साठे जैसे नेता हुआ करते थे, जो इन्दिरा गांधी की सहमति से ही उनके खिलाफ वक्तव्य देकर देशव्यापी बहस का विषय बना दिया करते थे।
सलमान खुर्शीद कुछ-कुछ ऐसी ही भूमिका निभाने की कोशिश में हैं। घपलों- घोटालों, पूंजीपरस्त व जनविरोधी नीतियों, कमरतोड़ महंगाई के चलते यूपीए द्वितीय अपने विकर्षण के चरमबिन्दु पर है, ऐसे में राहुल गांधी की लांचिंग कितनी जोखिम भरी है, कम से कम सोनिया गांधी तो यह जानती ही हैं। इसलिए यह मानकर चलिए कि आज की तारीख में राहुल गांधी की क्षमता पर सवाल खड़ा करके उन्हें चुनौती के गरम तवे पर बैठने से जो रोके वही 10 जनपथ का सबसे करीबी है। आम कांग्रेसियों को भी यह उलटवांसी समझ में आनी चाहिए।
लेकिन इन सबके बावजूद जो एक बात चिन्ता का विषय है, वह यह कि क्या हमारे देश के लोकतंत्र की नियति यही है कि उस पर वंशवादी राजनीति की मुस्के कसी जाएं, या वह ऐसी पार्टियों के चलते सांस लें जिनका खुद का आन्तरिक लोकतंत्र दम तोड़ चुका हो। वे कारपोरेट कम्पनी की फर्म में बदल चुकी हों। राहुल की बात छोड़ भी दें तो यूपी में वंशवादी राजनीति की लगाम अखिलेश यादव के हाथों में है। पत्नी, पिता, ताऊ, चाचा, मामा, नात-रिश्तेदार मिलकर पार्टी चलाएं। यही बिहार में लालू यादव कर चुके हैं। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेल की हवा खा चुकीं करुणानिधि की लाडली बेटी कनिमोङि संभव है कि अगली बार तामिलनाडु की सत्ता को बतौर मुख्यमंत्री संभालें। शेख अब्दुल्ला के वंशज फारुख के पुत्र उमर अब्दुल्ला कश्मीर के मुख्यमंत्री इसी योग्यता के चलते बने हैं। शरद पवार अपनी इकलौती लाडली सुप्रिया सुले के लिए महाराष्ट्र में बिसात बिछा रहे हैं। उड़ीसा में नवीन पटनायक, बीजू की बीज परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। वंशवादी परम्परा की इन स्थितियों के चलते ममता, नीतीश, नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह जैसे नेताओं की उपस्थिति सकून देने वाली और उम्मीदों का दिया जलाए हुए है।
संसद में वंशवादी राजनीति के बारे में एक अध्ययन बताता है कि वर्ष 2009 में देश के तकरीबन एक तिहाई सांसदों का वंशानुगत कनेक्शन था। 30 साल से कम उम्र के तमाम सांसदों को सीट विरासत में मिली थी। 40 साल के कम उम्र में 66 सांसदों में दो तिहाई से ज्यादा सांसद किसी न किसी राजनीतिक परिवार के सदस्य थे। 35 साल से कम उम्र का हर कांग्रेसी सांसद किसी न किसी वंश परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। आज एक ओर जहां अमेरिका और इंग्लैण्ड (राजवंश की परपंरा के होने बावजूद) अपनी लोकतंत्रीय उदात्तता को नित-नया विस्तार दे रहे हैं। लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी और सर्वग्राहिता (अश्वेत ओबामा के राष्ट्रपति बनने की कथा याद करें) दिनों-दिन बढ़ रही हैं, वहीं दूसरी ओर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दम भरने वाले हम लोकतंत्र को कुनबों और कारपोरेट बनती जा रही पार्टियों के बाड़े की ओर हांक रहे हैं। और अंत में विंध्य के एक चर्चित कवि रामाधार विद्रोही की दो पक्तियां बतौर उपसंहार।
"राजा के हाथ हैं सलाखें/ परजा के पास सिर्फ आंखें/ वंशज को राजपाट/ कुनबे को किला/ कोई भी तंत्र हो यही सिलसिला।