जयराम शुक्ल
एक रिमही कहावत है कि "डार से चूके बांदर और बात से चूके मनई" के लिए सुधार के दुबारा मौके नहीं आते। अपने प्रदेश में कांग्रेस के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति है। अव्वल तो संसदीय ज्ञानी चौधरी राकेश सिंह और कल्पना पारुलेकर का कूदकर आसंदी तक (विधानसभाध्यक्ष के बैठने के आसन) तक पहुंचना और सभापति ज्ञान सिंह के साथ झूमाझटकी करना निहायत अनैतिक, असंसदीय और शर्मनाक था लेकिन अब सदस्यता बहाली के लिए विपक्ष जिस तरह गिड़गिड़ाने की मुद्रा में खड़ा दिख रहा है उससे निकट भविष्य में और भी भद्द पिटने वाली है। पता नहीं इन विधायकों और इनके पैरवीकारों में सवा साल के शेष बचे कार्यकाल का मोह क्यों है। कायदे से चाहिए यह था कि कांग्रेस के सभी विधायक अपने इस्तीफे सौंपकर सड़क में आ जाते और शेष बचे सवा साल में भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था को लेकर निर्णायक लड़ाई छेड़ने की रणनीति बनाते, पर एक हफ्ते के भीतर ही जिस तरह एबाउट टर्न लिया उससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस में संघर्ष की धार कुंद हो चुकी है और सड़क पर मोर्चा लेने का माद्दा नहीं बचा।
पिछले कुछ सालों में संसदीय लोकतंत्र के मंदिरों में इससे भी शर्मनाक दृश्य देखने को मिले हैं। मामला चाहे कर्नाटक का सदन के भीतर मोबाइल में ब्लू फिल्म देखने का रहा हो, या फिर जम्मू-कश्मीर की विधानसभा की हाथापाई का। उत्तरप्रदेश की विधानसभा तो अपने विधायकों की खुलेआम नंगई के लिए प्रसिद्ध हो चुकी है। मध्यप्रदेश की विधानसभा का ट्रैक रेकार्ड भी कुछ अच्छा नहीं रहा। यहां भी सदन के भीतर जूते चल चुके हैं (याद करें-पंढ़रीनाथ कृदंत और मेघावाले प्रकरण)। जनता शासनकाल में सुरेश सेठ हाथी लेकर सदन में घुस चुके हैं तो एक बार अच्युतानंद मिश्र (तत्कालीन मऊगंज विधायक) सदन में पहलवानी दिखा चुके हैं।
कल्याणी पाण्डे प्रकरण भी पटवा के मुख्यमंत्रित्व और ब्रजमोहन मिश्र के स्पीकर काल में हो चुके हैं। तब कांग्रेस विपक्ष में थी और अभूतपूर्व हंगामे के साथ पन्द्रहियों पुरानी विधानसभा की लॉबी में सदन की समानांतर कार्रवाइयां चलाईं। सन् 96-97 में नए विधानसभा भवन के नामकरण को लेकर हफ्तों हंगामा चला। इंदिरा गांधी की नाम पट्टिका तोड़कर पांवों से कुचली गई।
इसके बाद नेता प्रतिपक्ष रहे गौरीशंकर शेजवार के नेतृत्व में तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के केबिन का ऐसा ही घेराव किया गया, जैसा कि इस बार ईश्वरदास रोहाणी का किया गया था। तिवारी जी ने न तो घेराव कर रहे विपक्षी विधायकों की अवहेलना कर कोई सभापति बैठाकर कार्रवाई चलवाने की कोशिश की और न ही ऐसी कोई स्थिति बनने दी कि किसी विधायक को सदस्यता से बर्खाश्त किया जाए। हां यह जरूर हुआ कि कुछ ही दिनों बाद नेता प्रतिपक्ष शेजवार को पद से हटना पड़ा और बाबूलाल गौर नेता प्रतिपक्ष बने। कहने का आशय यह कि विधानसभा में सत्ता व विपक्ष के बीच इससे भी ज्यादा गरमा-गरमी के मौके आए लेकिन बाद में सब कुछ संभल गया।
संसदीय लोकतंत्र में यदि विधानसभा या लोकसभा में निर्वाचित सदस्यों की बातें न सुनी जाए तो ऐसी उत्तेजना स्वाभाविक है चाहे फिर उसे संसदीय परंपरा के अनुकूल मानिए या प्रतिकूल। विपक्ष इस बार धारदार मुद्दों के साथ सदन में हाजिर था। भ्रष्टाचार को लेकर वह पुख्ता प्रमाणों के साथ सरकार को घेरना चाहता था। लेकिन विपक्षी सदस्य इस बार वह संयम नहीं दिखा पाए जो पिछले साल के शीतकालीन सत्र में अविश्वास प्रस्ताव के समय दिखाया था। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने जिस तथ्यपरक तरीके से अविश्वास प्रस्ताव को बिन्दुवार रखा उससे उनकी नेतृत्व क्षमता के प्रति समूचे प्रदेश में विश्वास पैदा हुआ था। संभवत: सदन में अविश्वास प्रस्ताव का यह उन विरलतम क्षणों में से एक था जब विपक्ष ने बर्हिगमन के बजाय सत्तापक्ष के उत्तर को धैर्यपूर्वक व संजीदगी से सुना। इसके बाद के सत्रों में जो कुछ हुआ या तो वह सुनियोजित या प्रायोजित था या फिर नेता प्रतिपक्ष से भी एक कदम जाने की कोशिशें। पिछली मर्तबे भी कल्पना पारुलेकर (विधायक महिदपुर) का वह कृत्य निंदनीय, अशोभनीय और शर्मनाक था, जब उन्होंने लोकायुक्त जस्टिस पीपी नावलेकर के मुखौटे के साथ टैम्परिंग करके आरएसएस का स्वयंसेवक साबित कर दिया। प्रकारान्तर में मुकदमा दर्ज हुआ, गिरफ्तारी हुई और बजट सत्र के कई मूल्यवान दिन पारुलेकर प्रकरण के नाम पर स्वाहा हो गए। कांग्रेस को यहां भी बगले झांकने पड़े।
राजनीति तो वैसे भी शह और मात का खेल है। जरा भी गुंजाइश मिली तो मात तय है। इस बार विधानसभा निर्बाध चलती तो सत्ता की सरपरस्ती में रचे जाने वाले भ्रष्टाचार के कई अध्यायों का उघड़ना तय था। विपक्ष ने तो विधानसभाध्यक्ष रोहाणी के खिलाफ भी जबरदस्त तैयारी कर रखी थी।
रोहाणी-रज्जाक प्रकरण सदन में गूंजता, इसके अलावा किसानों से जुड़े भी मसले थे, जो भाजपा की किसान महापंचायत के जवाब होते। सरकार तो यह ताके बैठी थी कि विपक्ष उत्तेजनावश जरा भी फिसले तो उसके ऊपर चढ़ बैठे। यही हुआ भी। पुराने अनुभवों व दृष्टान्तों के आधार पर ऐसा नहीं लगता कि बर्खाश्त विधायकों को हाईकोर्ट से कोई राहत मिलेगी। शायद इसीलिए सदस्यता बहाली के लिए विपक्ष का स्वर दिनों-दिन कातर होता जा रहा है। मुख्यमंत्री और बर्खाश्तगी का प्रस्ताव व समर्थन करने वाले मंत्रीद्वय- नरोत्तम मिश्र और कैलाश विजयवर्गीय अब डैमेज कन्ट्रोल में लगे हैं। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने विधानसभाध्यक्ष को नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का दृष्टान्त देकर पत्र लिखा है कि बिना दूसरा पक्ष सुने कोई फैसला कर देना न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है। दोनों बर्खाश्त विधायकों ने भी विधानसभाध्यक्ष को पत्र लिखकर अपने असंसदीय आचरण के लिए खेद प्रकट किया है व क्षमा याचना की है। इन सभी स्थितियों के मद्देनजर संभव है कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर दोनों बर्खाश्त सदस्य बहाल कर दिए जाएं, लेकिन इसके बाद सवा साल तक कांग्रेस क्या अपने ही किए से उबर पाएगी, जबकि इस बार उसके सामने करो या मरो जैसी स्थिति है। कांग्रेस के पास अब आगे की क्या रणनीति है यह तो उसके क्षत्रप और योजनाकार ही जानें लेकिन मेरी नजर में उसकी स्थिति तपते हुए लाल फौलाद पर बाल्टी भर पानी डाल दिए जाने जैसी है। चुनाव के पहले तक उसकी कुंद धार पर किस तरह पैनापन आएगा यह देखने वाली बात होगी।
(लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं)
jairamshuklarewa@gmail.com
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