हाल ही में कानून और व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार को लेकर राष्टÑीय एजेन्सियों ने अधिकृत आंकड़े प्रसारित किए थे। नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर टाइम्स आॅफ इण्डिया ने मध्यप्रदेश को ‘रेप कैपिटल’ घोषित कर दिया। वह इसलिए क्योंकि पूरे देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म में यह प्रदेश अव्वल रहा। बालिका भू्रण की सबसे ज्यादा हत्याएं भी लाड़ली लक्ष्मी के प्रदेश के नाम पर ही दर्ज हैं। अपराधिक घटनाओं के मामले में केरल के बाद प्रदेश का दूसरा नम्बर है। लड़कियों के साथ छेड़खानी के मामले में राजधानी भोपाल देश का सबसे तेजी से उभरता हुआ महानगर है। यानी कि आंकड़ों की मानें तो ‘जननी और लाड़ली’ पर सबसे ज्यादा खतरे यही हैं। देश में दूसरे नम्बर पर दर्ज अपराधिक घटनाएं, लॉ-एण्ड आर्डर तथा आम आदमी को हिफाजत की असली तस्वीर बयान करती है। भ्रष्टाचार के मामले में अपने प्रदेश का ट्रैक रेकार्ड आंखें खोल देने वाला है। केन्द्र व राज्य की एजेन्सियों ने पिछले 18 महीनों में 2080 करोड़ रुपये के घोटाले पकड़े। इन्दौर में परिवहन विभाग के एक तृतीय श्रेणी कर्मचारी ने यहां 300 करोड़ की सम्पत्ति छापे में मिली, तो एक साल पहले जोशी दम्पत्ति के आवास से आयकर के दस्ते ने तो 3 करोड़ रुपये नगद बरामद किए। सत्ता के गलियारों के दो दमदार खिलाड़ी दिलीप सूर्यवंशी और सुधीर शर्मा के यहां ईडी और आयकर विभाग इनकी परिसम्पत्तियों का आंकलन कर रहा है। राजनीतिक व प्रशासनिक हवाले में इन दोनों धनकुबेरों के कारोबार में सत्ताधारी दल के मंत्री, नेताओं की भागीदारी की बातें उठ रही हैं।
हाल ही के नगरी निकाय के चुनाव, प्रदेश में लॉ एण्ड आर्डर तथा भ्रष्टाचार की इसी पृष्ठिभूमि में हुए और भाजपा को भारी विजय मिली। भाजपा को सबसे शानदार जीत कांग्रेस के क्षत्रपों के ही इलाके में मिली। कमलनाथ, दिग्विजय, सुभाष यादव सभी इलाकों में भाजपा का परचम लहराया। कई सीटों पर तो कांगे्रस मुकाबले पर ही नही रही। कुछेक सीटें जो कांग्रेस के खाते में आर्इं, वे प्रमुख विपक्षी दल को इज्जत बचाने की दिशा में महज तिनके का सहारा है। इससे पहले महेश्वर में विधानसभा उप चुनाव में कांग्रेस को 32 हजार से ज्यादा मतों से ऐतिहासिक हार हुई। राजनीति में ऐसी मान्यता रही है कि जनता दो साल बाद से ही सत्ताधारी दल से उकताने लगती है और तीसरे साल के बाद से वह अपना गुस्सा किसी ने किसी बहाने व्यक्त करने लगती है। पर अपने प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। अब तक जितने भी उपचुनाव हुए लगभग सभी भाजपा के खाते में गए। चुनावी साल के पहले के छोटे-बड़े चुनाव परिणामों को यदि एन्टी इन काम्बेन्सी का राडार माना जाए तो इस राडार के यही संकेत हैं कि तीसरी बार भी शिवराज और उनकी भाजपा...। प्रदेश में राजनीति की ऐसी स्थिति एक उलझी हुई गुत्थी है जिससे साफ-साफ जवाब मिलना आसान नहीं। फिर भी जनता की नब्ज टटोले और उसके मूड को भांपने का यत्न करें तो पता चलेगा कि वह इन स्थितियों को झेलने के बावजूद भी विपक्ष (कांग्रेस) पर इतना भरोसा नहीं कर पा रही है कि वह भाजपा का विकल्प बने। उसके स्मृति पटल पर दिग्विजय काल पत्थर पर लकीर की तरह अंकित है और सामने बिजली, सड़क, पानी के दृश्यों की झांकी रह-रहकर उभर आती है। नौ साल से सत्ता से च्युत होने के बाद भी कांग्रेस के क्षत्रपों में सत्ता की ठसक वैसी ही है, क्योंकि ये क्षत्रप अभी भी केन्द्र की सत्ता से जुड़े हैं इसलिए विपक्ष धर्म से इसका कभी कोई सीधा वास्ता नही रहा। प्रदेश नेतृत्व में जिस तरह पचौरी के बाद भूरिया थोपे गए, उससे कांगे्रस के जमीनी कार्यकर्ताओं को निराशा ही लगी। गुटों में बंटी कांग्रेस के नेताओं को इस बात से ज्यादा वास्ता है कि अपना भले ही न बना हो दूसरे का कितना बिगड़ा। इसके उलट चुनाव नजदीक आने के साथ ही भाजपा ज्यादा एग्रोसिव दिखती है। बड़बोले प्रभात झा की जुबान विपक्षी नेताओं को नश्तर सी चुभकर परेशान करती रहती है तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की शालीनता व सर्वग्राहिता फौरीतौर पर मरहम बन जाती है। कुल मिलाकर अपराध और कानून व्यवस्था को लेकर नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़े और भीषण भ्रष्टाचार की इबारतें क्या असर डाल पाएंगी, जब प्रदेश की जनता विपक्ष को ही विश्वसनीय नहंी मान पा रही है। या यूं कहें कि विपक्ष जनता के अन्तस और मर्म को नहीं समझ पा रहा है और न ही उस दिशा में कोई सार्थक कोशिश कर रहा है।
हाल ही के नगरी निकाय के चुनाव, प्रदेश में लॉ एण्ड आर्डर तथा भ्रष्टाचार की इसी पृष्ठिभूमि में हुए और भाजपा को भारी विजय मिली। भाजपा को सबसे शानदार जीत कांग्रेस के क्षत्रपों के ही इलाके में मिली। कमलनाथ, दिग्विजय, सुभाष यादव सभी इलाकों में भाजपा का परचम लहराया। कई सीटों पर तो कांगे्रस मुकाबले पर ही नही रही। कुछेक सीटें जो कांग्रेस के खाते में आर्इं, वे प्रमुख विपक्षी दल को इज्जत बचाने की दिशा में महज तिनके का सहारा है। इससे पहले महेश्वर में विधानसभा उप चुनाव में कांग्रेस को 32 हजार से ज्यादा मतों से ऐतिहासिक हार हुई। राजनीति में ऐसी मान्यता रही है कि जनता दो साल बाद से ही सत्ताधारी दल से उकताने लगती है और तीसरे साल के बाद से वह अपना गुस्सा किसी ने किसी बहाने व्यक्त करने लगती है। पर अपने प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। अब तक जितने भी उपचुनाव हुए लगभग सभी भाजपा के खाते में गए। चुनावी साल के पहले के छोटे-बड़े चुनाव परिणामों को यदि एन्टी इन काम्बेन्सी का राडार माना जाए तो इस राडार के यही संकेत हैं कि तीसरी बार भी शिवराज और उनकी भाजपा...। प्रदेश में राजनीति की ऐसी स्थिति एक उलझी हुई गुत्थी है जिससे साफ-साफ जवाब मिलना आसान नहीं। फिर भी जनता की नब्ज टटोले और उसके मूड को भांपने का यत्न करें तो पता चलेगा कि वह इन स्थितियों को झेलने के बावजूद भी विपक्ष (कांग्रेस) पर इतना भरोसा नहीं कर पा रही है कि वह भाजपा का विकल्प बने। उसके स्मृति पटल पर दिग्विजय काल पत्थर पर लकीर की तरह अंकित है और सामने बिजली, सड़क, पानी के दृश्यों की झांकी रह-रहकर उभर आती है। नौ साल से सत्ता से च्युत होने के बाद भी कांग्रेस के क्षत्रपों में सत्ता की ठसक वैसी ही है, क्योंकि ये क्षत्रप अभी भी केन्द्र की सत्ता से जुड़े हैं इसलिए विपक्ष धर्म से इसका कभी कोई सीधा वास्ता नही रहा। प्रदेश नेतृत्व में जिस तरह पचौरी के बाद भूरिया थोपे गए, उससे कांगे्रस के जमीनी कार्यकर्ताओं को निराशा ही लगी। गुटों में बंटी कांग्रेस के नेताओं को इस बात से ज्यादा वास्ता है कि अपना भले ही न बना हो दूसरे का कितना बिगड़ा। इसके उलट चुनाव नजदीक आने के साथ ही भाजपा ज्यादा एग्रोसिव दिखती है। बड़बोले प्रभात झा की जुबान विपक्षी नेताओं को नश्तर सी चुभकर परेशान करती रहती है तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की शालीनता व सर्वग्राहिता फौरीतौर पर मरहम बन जाती है। कुल मिलाकर अपराध और कानून व्यवस्था को लेकर नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़े और भीषण भ्रष्टाचार की इबारतें क्या असर डाल पाएंगी, जब प्रदेश की जनता विपक्ष को ही विश्वसनीय नहंी मान पा रही है। या यूं कहें कि विपक्ष जनता के अन्तस और मर्म को नहीं समझ पा रहा है और न ही उस दिशा में कोई सार्थक कोशिश कर रहा है।
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