Friday, September 27, 2013

पलटी मार बाप बदल

जयराम शुक्ल
ये वक्त-वक्त की बात है। उधर भोपाल के जम्बूरी मैदान में महानायक मोदी की अगवानी में मध्यप्रदेश की समूची भाजपा डांस कर रही थी और इधर बेचारे नितिन गडकरी चित्रकूट में पिन्डा पार रहे थे। पितरपख लगा है न। वैसे पितरों को पूछता कौन है। पहले जब भाजपा में कोई पेंच फंसती थी उसके नेता चित्रकूट भागे चले आते थे नानाजी के पास। अब नानाजी कहां याद रहे और कहां याद रहे दीनदयाल उपाध्याय। जम्बूरी मैदान में वे अपनी पार्टी के छोटे-बडेÞ-बूढेÞ, यानी कि विजयवर्गीय, गौर और सारंग का मंच पर डांस देखते तो निहाल हो जाते। एकात्म मानववाद-अन्त्योदय और दरिद्रनारायण की चिन्ता करने वाले उपाध्यायजी पार्टी की हाईटेक तरक्की निश्चित ही स्वर्ग से निहार रहे होंगे। जिन्दगी रेल की थर्डक्लास यात्रा में गुजार दी। अब पार्टी के तारणहारों को चार्टरप्लेन का काफिला चाहिए। गडकरी बेचारे इसी चक्कर में चित्रकूट से भोपाल नहीं जा पाए।  सभी हेलीकाप्टर मोदीजी और राजनाथ की चकमेड़री में लगे रहे। वक्त कितनी तेजी से पलटी मारता है। छ: महीने पहले तक इन्हीं गडकरी के पीछे भाजपाई भागते हांफते नजर आते थे। पद से हटते ही डस्टबिन में चले गए। 
हमारे देश की राजनीति का यही वास्तविक चाल-चरित्र और चेहरा है। बरसों पहले परसाईजी ने अपने कॉलम में एक मजेदार वाकयात पर लिखा था। मजमून कुछ यूं था। प्रदेश के एक मुख्यमंत्री बड़े चमचा पसंद थे। उनका दरबार चापलूसों से गुलजार रहा करता था। एक दिन कुछ चापलूसों ने मुख्यमंत्री को यूनिक आइडिया दिया। क्यों न बाबूजी (मुख्यमंत्री के पिताजी) के जीवन की हीरक जयंती मना ली जाए। मुख्यमंत्री ने हांमी भर दी। सरकारी धन से बाप का श्राद्ध कौन नहीं करना चाहेगा। सो तैयारी शुरू हो गई। संस्कृति विभाग, जनसंपर्क विभाग ने बाबूजी के हीरक जयंती की थीम तैयार की। दूसरे विभागों ने प्रबंध संभाला। कुछ उदारमना उद्योगपति भी इस पुण्यकाम में आगे आए। दरबारी कवियों ने गीत लिखे। सरकारी पे-रोल वाले पत्रकारों ने इतिहास के पन्ने पलटे और बाबूजी द्वारा आजादी की लड़ाई में किए गए पराक्रम को ढ़ूंढ निकाला। एक स्मारिका निकालने की योजना बनी। इन्हीं तैयारियों के बीच पार्टी के ही कुछ विघ्नसंतोषियों ने आलाकमान से शिकायत कर दी। मुख्यमंत्री अगले बारह घंटों में बदल दिए गए। नए मुख्यमंत्री ने शपथ ली। चापलूस दरबारियों ने सोचा अब क्या किया जाए। इस बीच सबसे फितरती और चतुर चमचे ने सुझाया कि नए मुख्यमंत्री जी के पिताजी के भी सौ साल पूरे हो रहे हैं- क्यों न पूरा कार्यक्रम इनके पिताजी को समर्पित कर दिया जाए- बस बाप भर ही तो बदलना है, बाकी जस का तस। 
सो राजनीति में ऐसा होता है। हमारे शहर में एक भूतपूर्व मंत्रीजी हैं। इन्हें अब कोई चुटकी भर तम्बाखू के लिए नहीं पूछता। एक दौर था जब इनकी पीक के लिए हथेलियां हाजिर रहा करती थीं। एक बार तो गजब हुआ। एक युवामंत्री की शादी थी। बारात जनवासे से निकल पड़ी। मंत्रीजी लालबत्ती पर दूल्हा बनकर सवार थे। नाराज मुख्यमंत्री उन्हें अपने ही अन्दाज में तोहफा देना चाहते थे। सो द्वारचार लगने से पहले ही कलेक्टर ने मंत्री के कान में मुख्यमंत्री जी का फरमान सुना दिया कि आप मंत्री पद से बर्खास्त कर दिए गए हो। इतना सुनते ही सरकारी ड्रायवर कार में ब्रेक लगा कर बोला उतरिए और पैदल जाइए। डांस कर रहे गनमैनों और निजी अमले के पांव थम गए। सब वहीं से लौट लिए। अपने भैय्याजी राजनीति को शुरू से ही तिरिया चरित्र की तरह मानते रहे हैं। सो पर्यवेक्षक को जब टिकट के लिए बायोडाटा देने का समय आया तो उन्होंने रामसलोना को तलब किया। यह इसलिए कि जब ये हमारा बायोडाटा देने के लिए जुलूस-जलसे के साथ जाएगा तो बात साफ हो जाएगी कि रामसलोना टिकट की दौड़ में नहीं है। रामसलोना राजी हो गया और गाजे-बाजे के साथ सर्किट हाउस पहुंचा। अपने साथ चार-पांच बन्दे और ले गया। आधे घंटे बाद जब भैय्याजी पहुंचे - तो देखा पर्यवेक्षक उनके बायोडाटा की जगह रामसलोना के बायोडाटा का अध्ययन कर रहा था। दरअसल रामसलोना ने भैय्याजी के बायोडाटा की पुंगी बनाकर जेब में डाल ली थी और ब्रीफ कर दिया कि भैय्याजी के नेतृत्व में चुनाव हम लड़ेंगे। दांत पीसते हुए भैय्याजी ने पर्यवेक्षक से पूछा-ये कैसा विश्वासघात है। आलाकमान से हमारा पैक्ट हो चुका है। पर्यवेक्षक बिना भाव दिए बोला-आलाकमान की गाइडलाइन की क्राइटेरिया में आप नहीं फंसते। पांव पटकते हुए वे बाहर निकले तो रामसलोना खीस निपोरे हुए खड़ा था। वे कुछ बोलते कि समर्थक नारे लगाने लगे, रामसलोना संघर्ष करो... हम तुम्हारे साथ हैं। भैय्याजी के समर्थकों ने भी पलटी मार दी थी। भैय्याजी भावुक हो गए फिर दार्शनिक अंदाज में बुदबुदाए - राजनीति भुजंग की भांति कुटिल और तड़ित की तरह चंचल होती है। फिर बोले हम तो राजनीति का भुजंगनाथ हंू। देखता हूं ये गूलर रामसलोना कब तक बच पाता है। 

Saturday, September 21, 2013

जाति से जाति भिड़ाते चलो

                                         जयरामशुक्ल 

इस देश में पिछले दो दशकों से सबसे ज्यादा गाली खाने वाले महापुरुष का नाम है ‘मनु’। मनु महाराज पर आरोप है कि उन्होंने समाज को वर्ण और जातियों में बांटा। अब बांटा हो या ना बांटा हो, पर दलित विद्वान ऐसा कहते हैं तो मानना पड़ेगा। नहीं मानेंगे तो वे मुझे मनुवादी बना देंगे। कल्पना करिए यदि मनु नहीं होते तो आज कौन जान पाता कि अपने नरेन्द्र भाई मोदी तेली हैं। मोदी जब से चर्चाओं में आए, जातिवाद के रिसर्च स्कालरों ने सबसे पहली यही खोज की थी। देश में जितने भी राजनीतिक दल हैं, उन सबका आधार मनु के जातीय वर्गीकरण का है। अब लालू-मुलायम अहीर हैं, तो यह मान लिया जाता है कि देश भर के अहीर या तो जनता दली हैं या सपाई। दूसरे दलों में जो अहीर हैं उनपर भी संदेह किया जाता है कि इनकी सिम्पैथी लालू-मुलायम से होगी। यह वैसे ही है जैसे संघी और विहिप वाले हर मुसलमान के दिल में पाकिस्तान झांकते हैं। नीतीश की सारी काबीलियत पर उनका कुनबी होना भारी पड़ जाता है। आप सरनेम लिखो या नहीं हमारे रिसर्च स्कालर ढूंढ लेंगे कि आप किस जाति से हैं। खैर आदमी और दल को जाति के आधार पर वर्गीकृत किया जाना तो ठीक है लेकिन विद्वानों ने देवी देवताओं को भी जातियों में बांट दिया। जैसे परशुराम ब्राह्मणों के देवता, तो किसन कन्हैया अहिरों के, भगवान राम ठाकुरों के, विश्वकर्मा महाराज मकैनिकों के और चित्रगुप्त लालाओं के। लगभग हर जातियों ने अपने-अपने देवी देवता खोज लिए हैं। भगवान न करे कि ऐसा दिन आए कि जन्माष्टमी सिर्फ अहीर मनाएं, तो रामनवमी सिर्फ क्षत्रिय और परशुराम जयन्ती बाम्हन लोग। जातियों के इस ढूंढा-ढांढी और हड़पछत्तीसी के बीच कई देवी-देवता है जो जाति निरपेक्ष बने हुए हैं। जैसे शंकर जी का घराना, बजरंगबली आदि। इसलिए बेसहारों के सबसे बड़े सहारा यही हैं। ये दोनों देवता ऐसे हैं जिन तक बीपीएल वालों की सीधी पहुंच है। नदी से एक कंकर निकाल कर वहीं शंकर जी बन जाएंगे या किसी पत्थर को सिंदूर से रंगकर बजरंगबली बना लीजिए। ये मंदिर और महलों में भी नहीं रहते, कहीं भी इन्हें विराज सकते हैं। भोग न लगाएं या चढ़ावा न चढ़ाएं तो भी चलेगा। चुल्लू भर पानी से अभिषेक कर दीजिए या चुुटकी भर सिंदूर चढ़ा दीजिए इतने में ही खुश। खैर जब देवी देवताओं तक को हमने जाति में बांट दिया तो ये महापुरुष किस खेत की मूली हैं। देश के महान नेता बल्लभभाई पटेल पटेलों के नेता हो गए, तो सुभाष बाबू बंगालियों के, तिलक महाराज मराठियों के और इसी तरह भगत सिंह पंजाबियों के। देश के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो पाए तो समाज के हो गए। दिल कई फाक में बंट गयें। और यही टुकडेÞ-टुकड़े वाली सामाजिक व्यवस्था राजनीति की मूल आधार बन गई। मुझे नहीं लगता कि दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में आदमियों का ऐसा बंटवारा हुआ होगा। सो इसीलिए कहता हूं कि सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने-अपने पार्टी कार्यालयों में मनु महाराज की भी फोटो लगाकर भजन-पूजन किया करें, उन्हें गाली देने के बजाय जयकारा लगवाएं। क्योंकि जिस दिन देश की राजनीति से ये जाति-पांति खत्म हो गई तो कई राजनीतिक दलों को हिन्द महासागर में विसर्जित करना पड़ेगा। इसलिए भारतीय राजनीति मनु महाराज की चिर ऋणी रहेगी और यदि न रहे तो इसे कृतघ्नता समझा जाएगा। अपने भैय्याजी यानी कि भैंसापुर के पंडित भैरों प्रसाद, मनु महाराज के पक्के भक्त हैं। वोटरलिस्ट की तरह हर जाति की वंशावली और उसकी नाभिनाल उनके पास सुरक्षित है। इसी के दम पर वे इलाके के सबसे प्रभावशाली नेता माने जाते हैं। इस विधानसभा में टिकट के लिए उनका बायोडाटा यूं ही सब पर भारी नहीं। उसमें वोटरों की जाति, उपजाति और गोत्र तक का सूक्ष्म ब्योरा है। आलाकमान जब उनके इलाके में रायशुमारी करने पहुंचा तो उन्होंने पूरे समाजशास्त्रीय तरीके से पर्यवेक्षक को समझाया। भैयाजी बोले- ‘हम तो टीटीएस को रिप्रेजेट करता हूं।’ पर्यवेक्षक असम का था पूछा- टीटीएस माने। तो वे बोले, मतलब ‘तीन तेरा सवा लख्खी’ हमने ब्राम्हणों के ऐसे ही पट्टी है। अब टीटीएस तो मेरे साथ है ही मेरी ससुराल डीएमटियों में है। डीएमटी बोले तो दुबे, मिसिर, तिवारी। सो इस तरह सारे ब्राम्हण हमारे। अब रही बात ओबीसी की तो हम केकेए का गुरुबाबा हूं। पीढ़ियों से उनके कानों में गुरुमंत्र फूंकता आया हूं। पर्यवेक्षक ने पूछा- केकेए क्या? भैय्याजी बोले- जैसे मुल्ला एम सिंह का एम वाई यानी मुस्लिम-यादव। दलितों के हम जनम-जनम से ब्योहर हैं। हमारे पुरखों ने न जाने कितना कोदौं इन लोगों को कर्जें में दिए है। सबके बही खाते हमारे पास हैं। चुनाव से पहले जैसे सरकार कर्जे माफ करती है वैसे हम भी माफ कर देंगे। अब रही बात ठाकुरों की। तो उन्हें तो हम महाराज कुमार चिरंजी कह के पोटिला लूंगा। सो पूरा इलाका हमारे साथ है। कोई अपनी छतरी से बाहर नहीं। असमियां पर्यवेक्षक सुन कर दंग रह गए। वह भी अपने इलाके में भैयाजी की तरह का एक नेता था। उसकी आंखें खुल चुकी थी कि कैसे जाति-जाति को जोड़-तोड़कर चुनाव का रुख मोड़ा जा सकता है। भैय्याजी का चेला रामसलोना मंद-मंद मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था- जाति से जाति भिड़ाते चलो, चुनाव में चहला मचाते चलो।

Monday, September 16, 2013

हम भक्तन के भक्त हमारे

                                     जयराम शुक्ल
भारत तब भी लीला भूमि थी आज भी  है। अवतारी पुरूष आते थे, लीला करते थे, भक्तगणों पर कृपा बरसाते थे। आज भी अपने देश में लीलाधरों की पूरी जमात है। विधानसभा-पार्लियामेंट में, पार्टी के मंच मचानों- सभा रैलियों में जो कुछ होता है वह अवतारी पुरूषों की लीला ही है। राजनीति के मंच पर जो लीला हम देखते है, तो गांव की रामलीला याद आती है। परदे के सामने हनुमानजी और रावण का घनघोर युद्ध होता है। गत्ते की तलवारें- कनस्तर के पहाड़ और रूई के गोलों से बनाई गई गदाओं से एक दूसरे की मार-धुनाई होती है। रावण-हनुमान बने पात्र दांत पीस-पीसकर एक दूसरे को खा जाने वाले डायलॉग बोलते हैं। जब रामलीला खतम होती है तो परदे के पीछे हनुमान और रावण का पाठ करने वाले पात्र एक ही चिलिम में गांजा सोटते हुए नजर आते हैं। पट बंद होते ही बैर-भाव भी खतम। पार्लियामेंट की बहसों में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि प्रत्यक्षत: रामलीला के पात्रों जैसा ही पाठ करते दिखते हैं। नेपथ्य में सब एक हो जाते हैं। लेकिन अब लीला की मर्यादा भी तार-तार होती दिखती है। राजनीतिक दलों को आरटीआई से दूर रखने या दागियों को चुनाव नहीं लड़ने  देने की सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के खिलाफ जिस तरह सभी पात्र परदे के सामने ही एक हो गए उससे ऐसा ही लगता है। लोकलाज और जनभय जब तिरोहित हो जाता है तो ऐसा ही होता है।
पन्द्रह अगस्त को लालकिले के मुकाबले लल्लनपुर के कालेज की दालान से दहाड़ने वाले लालबुझक्कड़ ने तो इस बार कमाल ही कर दिया। वे तो लीलाधरों के चक्रवर्ती निकले। भुख्खड़ों के प्रान्त छत्तीसगढ़ में तो अपने लिए फर्जी लाल किला ही बनवा डाला। उसकी प्राचीर से दहाड़े। वे अब अपने सूबे में पधार रहे हैं। संभव है कि उनकी लीलामंडली के स्थानीय प्रायोजक इस बार 7 आरसीआर ही बनवा डाले। 7 आरसीआर का मतलब सात रेसकोर्स रोड जहां प्रधानमंत्री का बंगला है। ये वाकय देखकर मुझे तो बूंदी के दुर्ग वाली कहानी याद आ गयी। मेवाड़ के महाराणा लाखा ने एक बार प्रण किया कि वे जब तक हाड़ाओं को परास्त कर बूंदी का दुर्ग फतह नहीं कर लेते तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगे। बूंदी के हांड़ा बड़े बहादुर थे। उनसे जीत पाना टेढ़ी खीर है  यह महाराणा के चमचे-चुरकुन जानते थे। बाद में महाराणा को भान हुआ कि वे भावावेश में गलत प्रतिज्ञा कर बैठे हैं। सो प्रधान चमचे ने राय दी कि ऐसा करते हैं कि बूंदी का फर्जी दुर्ग बनाते हैं, महाराणा उस पर आक्रमण करके अपना प्रण पूरा कर लें। हुआ भी यही। कभी-कभी लगता है कि पार्लियामेंट के चुनाव के पहले-पहले तक लालबुझक्कड़ के सभी प्रण ऐसे ही पूरे कर लिए जाएंगे। डर लगता है कि इनकी चमचामंडली कहीं लालकिला की तरह फर्जी पार्लियामेंट और सेन्ट्रल हाल न बनवा दें और यहीं लालबुझक्कड़ जी पीएम की शपथ न ले बैठें। खैर  ऐसा होता भी है तो कोई गलत बात नहीं। आखिर हम ऐसी लीलाएं सनातन से देखते आए हैं, अपना मुल्क लीलाभूमि जो ठहरा।
संत-महंतों के आश्रम में भी ऐसी ही लीलाएं चलती है। पिपासाराम ने जो किया वो भी रहसलीला थी। वे लीला करने के लिए ही झांसूमल से पिपासाराम बने। लोगों ने उन्हें बेमतलब जेल में डाल डिया। सिद्ध पुरूष के लिए क्या आश्रम क्या जेल। पिपासाराम जीते जी बैकुन्ठवासी हो गए। देश भर में ऐसे कई पिपासाराम हैं जिनकी लीलाएं अनवरत चल रही है और भक्तगण प्रमुदित हैं। कभी-कभी  मुझे लगता है कि ये दुनिया न तो जाति-धरम में बंटी है न ही अमीर-गरीब में। वस्तुत: ये दुनिया लीलाधरों और भक्तगणों के बीच बंटी है। एक वर्ग अवतारी पुरूषों का है जो डायरेक्ट स्वर्ग से उतरकर नेता- साधू- और कारपोरेट के सीईओ बन जाते हैं,  दूसरा वर्ग है भक्तजनों का जिसमें हम सब शामिल हैं। सदियों से ऐसी लीलाएं देखते आ रहे हैं और यह हमारी ड्यूटी है कि मंच के सामने तालियां पीटें- रह रह कर जयकारा लगाएं। एक बार फिर जोर से बोलिए- लल्लनपुर के लालबुझक्कड़ की जय। लीला सिरोमणि संत पिपासाराम की जय। ओम- ओम- नमो नमो.. हा.हा.हा..।
देश में चल रही इन लीलाओं के बारे में भैय्याजी का अपना अलग ख्याल है। भैंसापुर की नौटंकी और रामलीला उनके पुरखों के जमाने से चलती आयी है। रामलीला में भैय्याजी रावण का पाठ किया करते थे। रामलीला के बाद वे अपनी दलान में रावण की कथा सुनाया करते थे। भैय्याजी का मानना है कि रावण के साथ इतिहास ने अन्याय किया। वो विद्वान था, यही उसका सबसे बड़ा अवगुण था। रावण तो बेचारा विद्वानों की लड़ाई में मारा गया। एक तरफ वो अकेला तो दूसरी तरफ अगस्त्य, विश्वामित्र और वशिष्ठ। राम-लक्ष्मण तो बेचारे नादान थे। इनका उसी तरह यूज किया गया जैसे कि शोले फिल्म में ठाकुर ने जय-बीरू को गब्बर को मारने किया था। बहरहाल भैय्याजी यथार्थवादी है, वे चाहें तो भी बड़ों-बड़ों की तरह लीला नहीं कर सकते हैं क्योंकि यहां भी वर्गचरित्र आड़े आता है - धरम के नाम पर करते सभी अब रासलीला है.. और भैय्याजी करें तो कह दो उनका करेक्टर ढीला है।

Tuesday, September 10, 2013

'मेकिंग आफ द पिपासाराम'

जयराम शुक्ल
सदियों पहले शेक्सपियर कह गए- अजी नाम में क्या धरा है। पर अपन ऐसा नहीं मानते। क्योंकि तुलसी बाबा ऐसा नहीं मानते थे। उन्होंने लिखा- कलियुग केवल नाम अधारा। यानी कि नाम की ही तूती बोलेगी। जैसे इन दिनों आसाराम का केवल नाम ही काफी है। बच्चों से कह दो कि आसाराम पर निबंध लिखो तो कॉपी भर देंगे। टीवी और प्रिन्ट मीडिया उनके अतीत और चरित्र की ऐसी खनाई-खोदाई कर रहा है कि लगता है कि वह मोहनजोदड़ो-हड़प्पा तक पहुंच जाएगा। किसी ने जानकारी निकाली कि आसूमल किस तरह से आसाराम बन गया। इधर बॉलीवुड से खबर है कि ‘मेकिंग आफ द पिपासाराम कांपू’ नाम की फिल्म पटकथा तैयार है। नामचीन हिरोइनें उस लड़की का रोल करने के लिए बेताब हैं। कई बेस्ट सेलर लेखकों ने तो प्रकाशकों के यहां आसाराम कथा पर आधारित उपन्यास के प्लाट भी रजिस्टर्ड करा डाले। आसाराम आश्रम में थे तब उनके नाम पर धंधा, आज जेल में है तो भी धंधा। टीवी चैनलों के प्राइम स्लाट में ... जहां देखो... आसाराम ...आसाराम। टीआरपी की सुई भी आसाराम के नाम पर ऊपर नीचे हो रही है। वे मीडिया के संसेक्स बन गए हैं। संत लोकमंगल के परमपुंज होते हैं। आसाराम जी ऐसे ही पुंज हैं। कल तक उनके नाम का दंतमंजन बिकता था आज उसी तरह उनकी कलुषित कथाएं बिक रही हैं, प्रिंट-मीडिया में टीवी चैनलों में। आजकल के भक्त भी कमाल के होते हैं। कल तक बापू के साथ नमो-नमो ओम ओम हा-हा कहकर नाचने वाले उनकी रासलीलाओं की सत्यकथाएं सुनते-सुनाते नहीं थकते।
एक नवोदित प्रवचनकार भक्तों को नाम की व्याख्या सुना रहे थे। भागवत कथा का एक दृष्टान्त देकर- कि अजामिल नाम का एक कसाई हुआ करता था। दिन भर पशुओं के वध का धंधा करता था। एक दिन में जीव हत्या के कई पाप। भजन कीर्तन -जप -तप का समय नहीं। उसे चिन्ता सताती थी इतना पाप करके तो वो रौरव-नरक ही जाएगा। सो अपने गुरू से पूछा- कि स्वर्ग का कोई शार्टकट रास्ता बताइए।  गुरू ने सुझाया अपने बेटे का नाम नारायण रख लो। जब उसे पुकारोगे तो भगवान का नाम स्वमेव आ जाएगा। सो अजामिल ने मरते समय अपने बेटे नारायण को पुकारा, पर बेटे से पहले उसकी आवाज सुन ली भगवान ने और अजामिल को यमदूतों की कस्टडी से छुड़ाते हुए सीधे अपने लोक ले गए। एक कसाई कैसी साधारण सी जुगत लगाकर देवलोक चला गया। नवोदित प्रवचनकार ने कथाक्रम में समकालीन ट्विस्ट देते हुए बताया कि देवलोक में अजामिल के भक्तिभाव से प्रसन्न होकर प्रभु ने उसकी इच्छा पूछी तो देवलोक में शुद्ध-सात्विक और ब्रम्हचर्य की नीरस जिन्दगी से त्रस्त अजामिल ने कहा- प्रभो! मुझे फिर पृथ्वीलोक भेज दो और हां आर्यावर्त यानी भारत ही भेजना। सो.. भक्तों प्रभु ने प्रसन्न होकर अजामिल को पुन: जन्म लेने के लिए भारत भूमि भेज दिया। यहीं अजामिल सम्पूर्ण अलौकिक कलाओं के साथ आसूमल के रुप में अवतरित हुए और कालान्तर में संत आसाराम बापू के नाम से जाने गए। और हां.. शार्टकट स्वर्ग पहुंचाने की युक्ति बताने वाले अपने उस जन्म के गुरू की बात को याद रखते हुए इस जन्म में भी अपने बेटे का नाम नारायण ही रखा, जिन्हें भक्तगण और मीडियाजगत नारायण सांई के नाम से जानता है।
नवोदित प्रवचनकार की यह कथा भैय्याजी यानी भैरो परसाद के गांव भैंसापुर में चल रही थी। जाहिर है इस कथा के प्रायोजक और जजमान भैय्याजी ही थे। एमडीएम जहरकाण्ड में सीबीआई की क्लीनचिट और दिल्ली से आलाकमान का वरदहस्त साथ में लेकर लौटे भैय्याजी को लगा कि लगे हाथ कुछ धरम-करम के काम कर लेना चाहिए सो उन्होंने गांव में प्रवचन का आयोजन रच दिया। कल तक पहुंचे हुए संत आसाराम जैसों के हश्र को देखते हुए भैय्याजी ने तय किया कि अपना संत प्रवचनकार खुद तैयार करेंगे। आगे चलकर यही हमारी पार्टी पॉलटिक्स प्रचार-प्रसार और जरूरत पड़ी तो राजनीति में धार्मिक टांग के रूप में इस्तेमाल करेंगे। अपने यहां राजनीति में यह चलन पहले से चलता आया है। हर पार्टी और हर नेता के पास एक धार्मिक टांग हुआ करती है। जैसे कांग्रेस  के पास एक नितवले शंकराचार्य है, तो भाजपा के पास धार्मिक टांगों की पूरी मंडली है। अयोध्या-काशी-मथुरा का मामला उछालना हो तो लॉ-एन्ड-आॅर्डर की ऐसी-तैसी करते हुए ये धार्मिक टांगें राजनीति के पायताने में फंसा दी जाती है। सपा और बसपा के पास भी अपनी धार्मिक टांगे हैं। कोई फतवा जारी करके लोकतंत्र की फटी ध्वजा की चिन्दियां बिखेरता है तो कोई धम्मम् शरण गच्छामि का पुण्यवाक्य उछालकर। अपन तो तलाश में है एक अदद संत कबीर के जो अपनी शबद-साखियों के शब्दों से इन धार्मिक टांगों को फ्राई करके कंगूरों में लटका दें।.. पर जो कबीर बर्बर इब्राहीम लोदी की सल्तनत में भी काशी की गलियों में लुकाठी लिए लोक को जगाता फिरता था,वो कबीर आज पैदा हो जाए तो सभी उसका वध करने के लिए वैसे ही एक जुट हो जाएंगे जैसे कि पार्लियामेंट में आरटीआई की फारटीआई करने और चोट्टों-गिरहकटों के लिए चुनाव का मार्ग प्रशस्त करने के लिए एक जुट हुए हैं। फिलहाल अपन की उम्मीद तो भैय्याजी द्वारा तैयार किए जा रहे उस नवोदित प्रवचनकार पर टिकी है जिसने अजामिल से आसाराम तक के सफर की शोधपूर्ण कथा से अवगत कराया।Details