रेहान फ़ज़ल
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
मंगलवार, 22 अक्तूबर, 2013 को 11:08 IST तक के समाचार
संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है.
द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग (2013) के अनुसार अमरीका का केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी चोटी पर है जबकि भारत के पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान विश्व में 226 वाँ है.
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कभी-कभी तथ्य अपनी कहानी ख़ुद कहते हैं. इसलिए चलिए तथ्यों की ही बात की जाए.
उच्च शिक्षा की तस्वीर
तथ्य 1: स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है. भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है.
तथ्य 2: इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था.
तथ्य 3: हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं. (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है.
तथ्य 4: राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है.
तथ्य 5: भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है.
तथ्य 6: भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं.
तथ्य 7: आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई.
तथ्य 8: अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है. इस साल श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स के बी कॉम ऑनर्स कोर्स में दाखिला लेने के लिए कट ऑफ़ 99 फ़ीसदी था.
तथ्य 9: अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है.
तथ्य 10: भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है.
शोध में पिछड़ा भारत
15 साल पहले मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, "आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा. दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है."
भारत में शिक्षा क्षेत्र की बड़ी शख़्सियत और ज्ञान आयोग के प्रमुख सैम पित्रोदा का भी कहना है, ''आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है."
इंफ़ोसिस के प्रमुख नारायण मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है. इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है.
"आजकल वैश्विक अर्थ व्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है."
सैम पित्रोदा, अध्यक्ष, भारतीय ज्ञान आयोग
दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में होते हैं. इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़ 3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं. भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख नंदन नीलेकणी कहते हैं कि भारत को अपने डेमोग्राफ़िक लाभांश का फ़ायदा उठाना चाहिए.
इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है. अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं.
योजना आयोग के सदस्य और पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व उप कुलपति नरेंद्र जाधव इस बात से हैरान हैं कि कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है. उनका कहना है, ''पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिए काफ़ी हैं.''
जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल कहते है कि शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए. वे कहते हैं, ''ये ना हो कि पहले शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने वाला संस्था का कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को उसका उप कुलपति बनाए."
निजीकरण का नफा-नुकसान
कॉरनेल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और वर्ल्ड बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु कहते हैं, "आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है. ये एक ग़लत तर्क है. यह तो उसी तरह सोचने की तरह हुआ कि अगर टाटा मोटर्स को लाभ कमाना है तो इसे छोटी कार बनाने में रुचि नहीं रखनी चाहिए. हालांकि वास्तविकता यह है कि अगर उसे लाभ कमाना है तो उसे छोटी कार ही बनानी चाहिए. इसी तरह शिक्षा में अगर कोई लाभ कमाने वाली कंपनी विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है तो हमें उसके आड़े नहीं आना चाहिए.''
हर साल भारतीय स्कूल से पास होने वाले छात्रों में महज 15 फ़ीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएं, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरे भारत में 1500 नए विश्वविद्यालय खोले जाने की ज़रूरत पड़ेगी. इस सबके लिए धन सिर्फ़ निजी क्षेत्र से ही आ सकता है.
कौशिक बसु कहते हैं, "हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि किसी भी सरकार, खास कर विकासशील देश की सरकार के लिए ये संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालयों को ही ढंग से चला पाए. यह तभी संभव है जब वित्तीय मापदंडों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए."
विशेषज्ञों की राय है कि 'रन ऑफ़ द मिल' यानी बने बनाए ढर्रे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही अच्छा है. आजकल का सबसे प्रचलित जुमला है नौकरी से जुड़े हुए कोर्स.
फ़ैसला लेने वालों के बीच ‘वोकेशनल’ शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा का वो रुतबा अब नहीं रहा क्योंकि इसके साथ ये बट्टा लगा हुआ है कि ये पढ़ाई में पीछे रहने वालों की ही पसंद है.
गुणवत्ता की समस्या
उच्चतर शिक्षा पर खासा शोध करने वाले पूर्व आईएएस अफ़सर पवन अग्रवाल कहते हैं कि अब समय आ गया है कि इस धारणा को बदला जाए कि विश्वविद्यालय शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को भद्र बनाना है.
भारत सरकार ने भी इसे शिक्षा मंत्रालय कहना बंद कर मानव संसाधन मंत्रालय कहना शुरू कर दिया है. ब्रिटेन में भी अब इसे शिक्षा और कौशल मंत्रालय कहा जाने लगा है. ऑस्ट्रेलिया में इसे शिक्षा, रोज़गार और कार्यस्थल संबंध मंत्रालय कहा जाता है.
एनआईआईटी के संस्थापक राजेंद्र सिंह पवार कहते हैं, "अब उस जाति व्यवस्था से छुटकारा पाने की ज़रूरत है जिसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया है जहाँ अगर एक इंसान व्यावसायिक शिक्षा लेने के लिए ट्रेन से उतरता है तो उसे बाद में उच्च शिक्षा के डिब्बे में सवार होने की अनुमति नहीं होती."
21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो. स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है लेकिन पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजुकेशन (प्रोब) के सदस्य एके शिव कुमार कहते हैं कि असली समस्या गुणवत्ता की है.
"आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है. ये एक ग़लत तर्क है."
कौशिक बसु, मुख्य अर्थशास्त्री, विश्व बैंक
ये एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती.
अब समय आ गया है कि चाक और ब्लैक बोर्ड के ज़माने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए.
मनमोहन सिंह ने साल 1991 में जो सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था में किए थे उसी स्तर के सुधारों की दरकार साल 2013 में भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में है. अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसे संस्थानों से आगे देखने की ज़रूरत है जिन्हें 50-60 साल पहले स्थापित किया गया था.
सैम पित्रोदा कहते हैं, "आज नियम-कानूनों और भ्रष्टाचार की वजह से शिक्षा के क्षेत्र में घुसना लगभग नामुमकिन हो गया है. अगर आप घुस भी जाते हैं और आपको लाइसेंस मिल भी जाता है तो आप शिक्षा की गुणवत्ता नहीं बनाए रख सकते. जबकि होना इसका ठीक उलटा चाहिए.''
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