Wednesday, February 29, 2012

इंसाफ की आस, टूटती सांस


     चिन्तामणि मिश्र
मित्र ने आठ साल पहले अपने किरायेदार से अपना मकान खाली करवाने के लिए अदालत में मुकदमा दायर किया था किन्तु आज तक उन्हें अपना मकान तो नहीं केवल पेशियां ही हाथ लगी हैं। कई बार दुखी हो कर कहने लगते हैं कि लगता है कि मेरे मरने के बाद भी मुकदमा और इसकी पेशियां जिन्दा रहेंगीं। इस तरह की पीड़ा देश के लाखों लोगों की इै। दादा मुकदमा शुरू करता है और उसका फैसला पोते को सुनना पड़ता है। आज न्याय पेशी में उलझा हुआ है। गैर जरूरी स्थगनों के अन्तहीन सिलसिलों के कारण अथवा साक्षियों की बहानेबाजी के चलते पेशियां बढ़ती जाती हैं। चुनाव याचिकाओं का निपटारा समय पर नहीं होता और नए चुनाव आ जाते हैं। धीरे-धीरे और अटक-अटक कर रेंगती लंबी न्याय प्रक्रिया के चलते लाखों विचाराधीन कैदी न्याय की प्रतिक्षा में शापित जेलों में बन्द हैं। इन्हें अकारण कानूनी स्पीड बे्रकरों से जूझना पड़ रहा है। देश भर में हजारों लोग केवल शक के आधार पर सलाखों के पीछे धकेल दिए जाते हैं और यह लोग लंबी न्याय प्रक्रिया के कारण सालों जेलों में नर्क भोगते हैं।
   विधिशास्त्र का सर्वविदित सूत्र वाक्य है कि न्याय में देरी न्याय को नकारना है। इससे भ्रष्टाचार का जन्म होता है। मामलों की शीघ्र सुनवाई और उनका त्वरित निस्तारण संविधान के अनुच्छेद-21 के अर्न्तगत मुलजिम का मूल अधिकार है। मगर हमारे देश में आम आदमी के लिए आज भी न्याय की डगर बहुत लंबी, भयावह तथा रपटीली हैं, अदालतों में मुकदमों के अम्बार लगे हैं। सर्वोच्य न्यायालय में छियासठ हजार, उच्च न्यायालयों में बावन लाख और निचली अदालतों में तीन करोड़ मामले लंबित हैं। इसके अलावा प्रदेशों के राजस्व मंडलों तथा विभिन्न राजस्व अदालतों में करोड़ों मामलों को अपनी बारी का इन्तजार हैं, उपभोक्ता संरक्षण मामलों में भी लंबी क्यू लगी हैं।  उच्चतम न्यायालय से ले कर देश के इक्कीस उच्च न्यायालयों में जजों के पद खाली पड़े हैं। विधि आयोग अनुशंसा कर चुका है कि प्रति दस लाख की आबादी पर पचास जजों की व्यवस्था की जानी चाहिए किन्तु जजों के खाली पद ही नहीं भरे जा रहे हैं, तब नए पदों के निर्माण की फिक्र करने का प्रश्न ही टाल दिया जाता है।
न्याय प्रदान करने में देरी का इकलौता कारण मुकदमों की भीड़ ही नहीं है, बल्कि कानूनों की भरमार भी है। नित्य नए कानून बनना और बदलना, उपयोगिता खो चुके कालातीत हो चुके कानूनों का प्रचलन, साक्ष्य प्रक्रिया के जटिल तकनीकी नियम, स्थगन सुविधा लम्बी बहस का विशेषाधिकार, समय सीमा का अभाव न्याय को बिलम्बकारी और जटिल तथा खर्चीला बना रहा है। जनतंत्र का मूल सिद्धान्त है कि सबके लिए कानून समान और न्याय सुलभ होना चाहिए लेकिन न्याय प्रक्रिया की जटिलता और खर्चीली होने से गरीब आदमी अदालत में दस्तक नहीं दे सकता है। अगर वह अदालत का दरवाजा खटखटाने का साहस करता भी है, तो समय पर राहत ही नहीं मिलती। आम आदमी यह देख सुन कर हैरान तथा आश्चर्यचकित रहता है कि कुछ मामलों की सुनवाई याचिका पेश होने के ही कुछ दिनों में शुरू हो जाती है और कुछ सुनवाई के लिए घिसटते रहते हैं। न्यायालय में कामकाज की भाषा, वादी-प्रतिवादी और विचाराधीन व्यक्ति की मातृभाषा में न होने से आम आदमी अन्धे और बहरे की तरह अदालत के अांगन में खेत में खड़े बिजूका की तरह हो जाता है।
  मुकदमा लम्बा खीचने में अनेक तत्वों के निहित स्वार्थ होते हैं। मसलन दुर्घटना के मामले में पेशी दर पेशी, तीन,चार,पांच साल यों ही निकाल दिए जाते हैं, ताकि दुर्घटना का सही बयान करने वाले साक्षी इस दौरान मूल मामला ही भूल जाएं और कौन गलत था, कौन सही था यह तलाशा ही न जा सके। हर मामले में अनेकों बार अपील करने का प्रावधान भी न्याय प्रदान करने में फिजूल का बैरियर बना है। किसी अपराध में सामान्य दंड या जुर्माना एक साल की कैद या दस हजार रुपए का जुर्माना का प्रावधान हो तो यह मामला मजिस्ट्रेट और सेशन जज तक ही जाए। प्रतिपक्ष को सुनवाई के अधिकतम दो मौके दिए जाएं और वे भी दस या पन्द्रह दिन के अन्तराल के हों। मुकदमा लम्बा खीचने की अपराधी, वकील, पुलिस तंत्र के पास कोई तरकीब भिड़ाने का अवसर न हो। दंड प्रक्रिया संहिता में बदलाव करके गवाहियों की संख्या भी कम की जानी चाहिए। इसके लिए एक ताजा उदाहरण पर्याप्त है। मुबई पर आंतकवादी हमले में शामिल कसाब , जिसे एके-47 लेकर निशाना लगाने के लिए आगे बढ़ते सारा देश देख रहा था, उसके मुकदमें में पांच या दस गवाह पर्याप्त थे। लेकिन सौ-डेढ़ सौ गवाहियां पेश की गई, इसकी कोई जरूरत नही थी। दुनिया को हम क्या दिखाना चाहते हैं? हमारे देश के बेकसूर नागरिक मारे गए हैं। एक मरे या सौ मरे, बात एक ही है। उसे भारतीय दंड विधान की मानव वध की धारा में अपराधी घोषित कर मृत्युदंड दे देते, दुनिया को इससे क्या लेना-देना? अरबों रुपए उस पर खर्च हो रहा है और वह हमारे न्याय तंत्र की गली-गलियारों का इस्तेमाल करके सजा भुगतने से बचा है। हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, डकैती के हजारों प्रकरण हैं, जिनमें गवाह एक ही बात दुहराते हैं। इतने गवाहों की जरूरत का कोई औचित्य ही नहीं है।
  निचली अदालतों में न्याय-दान की अवधि तो अद्भुत है। कोई नहीं   जानता कि कब निर्णय आयेगा और निर्णय आने के बाद भी इस पर कब अमल होना सम्भव हो पायेगा क्योंकि अपील नाम का सिहंद्वार खुला है। निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की शिकायतें काफी समय से आम हैं। कुछ दिन पहले सर्वोच्य न्यायालय के मुख्य न्यायधीश ने नाराजी जाहिर करते हुए कहा था कि निचली अदालतों में संजीदगी न होने के कारण बहुत सारे लोगों को बेवजह अन्याय सहना पड़ता है। करीब तीन साल पहले छतीसगढ़ में हुई न्यायिक सेवा की परीक्षा में उम्मीदवारों की उत्तर पुस्तिका में धांधली की रपट से स्पष्ट है कि इसी परीक्षा के सफल उम्मीदवार न्यायिक दडांधिकारी के रूप में अदलतों में बैठे हैं। चयन परीक्षा को भी विश्वसनीय और पारदर्शी बनाने की जरूरत है।
  बहरहाल, देश की न्याय प्रणाली में बहुत सुधार की जरूरत है ताकि हर नागरिक को आसानी से और कम समय में न्याय मिल सके और न्याय व्यवस्था में लोगों का भरोसा कमजोर न हो। सस्ता औा सरल न्याय सुलभ हो यह केवल अदालतों तथा वकीलों भर का मसला नहीं है, बल्कि समाज और सरकार की दूसरी संस्थाओं को भी गम्भीरता से सोचना होगा। अभी तकनीक का बेहतर इस्तेमाल भी नहीं हो रहा है। ग्राम न्यायालय को भी कागजों से बाहर ला कर नीचे स्तर पर मुकदमों का त्वरित निपटारा सम्भव हो सकता है।
                                - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                    सम्पर्क - 09425174450.

अपन कंटीली डार के गावत हैं


   चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र 
प्रकृति, मनुष्य की सहचरी है मनुष्य में उतना साहस नहीं कि प्रकृति की अवहेलना करे, और जब कभी ऐसा दुस्साहस उसने किया है, प्रकृति का दण्ड उसे झेलना पड़ा है। प्रकृति ही उसे संचरित और संतुलित करती है।  वर्षा, सर्दी और ग्रीष्म उसे प्रेरित करते हैं, सक्रिय करते हंै, या यूं कहें मनुष्य सम्पूर्णत: प्रकृति का अनुचर है, वह उसकी अनदेखी नहीं कर सकता, वह उस पर न सिर्फ प्रभाव डालती है, नियंत्रण में भी रखती है। प्रकृति और पुरुष का सामंजस्य जब भी बिगड़ा है, अनिष्ट हुए हैं। मनुष्य ने प्रकृति से डरकर ही उसकी प्रशंसा में ऋचाएं लिखीं, अभ्यर्थना की, क्योंकि उसका नग्न नर्तन उसने अग्नि और आंधी-वर्षा के रूप में देखा था। प्रकृति स्वभावत: कोमल और पुरुष, परुष होता है। उसकी पुरुषता ने जब भी कोमलता का ध्वंश किया, वह आक्रामक हुई और दण्डित किया। मनुष्य ने प्रकृति का इतना दोहन कर लिया है कि उसका संतुलन बिगड़ गया है, इतना विकृत किया कि उसकी मजबूत परतों में भी छेद हो गया। कभी ठीक समय पर वर्षा होती थी, सर्दी पड़ती थी, गर्मी होती थी, अब सब कुछ गड्डमड्ड है। हमने उसके प्रत्येक  अंग को चोट पहुंचाई है परंतु उससे ठीक समय पर आने की अपेक्षा की है।
   वसंत पंचमी को बीते बीसेक दिन हो गए, परंतु न तो पशुओं की ठंड गई न पक्षियों की। पूस की जाड़ और माघ की ठार, फागुन के कृष्ण पक्ष तक कमोवेश कायम है। वसन्त सिर्फ सरसों और अलसी के खेतों में दिखता है। मसूर के पौधे जरूर पीले पड़ रहे हैं परंतु चना केदार बाबू की कविता के साथ ‘एक बीते बराबर/यह हरा ठिगना चना/ बांधे मुरैहा शीश पर छोटे गुलाबी फल का/’आज भी सजकर खड़ा है। सच तो यह है कि ऋतुएं आती गांवों में हैं, दिखती हैं, परंतु उन्हें महसूस शहरी करते हैं। मौसम का बदलाव वे महसूस करते हैं, देख वही पाते। यह सौभाग्य सिर्फ गांव को मिलता है, जिससे उसका भविष्य जुड़ा है, और कहने को देश के वित्तमंत्री का कागजी किसान हित में पेश किया बजट भी है, विवादी स्वर या संवादी, यह संसद बेहतर जानती है या उसके प्रतिनिधि?
फागुन आ गया, दिन बड़े होने लगे, सूरज का ताप घमछंहिया में बहुत सुहावना लगता है, हवा में सिहरन है, परंतु फगुनहट नहीं बह रही है। देह के कपड़े कम जरूर हुए हैं परंतु उतरे नहीं, यह देखकर पेड़ों ने भी अपने को पत्तों से ढक रखा है, हां पीताभ-जीर्णता अवश्य दिखने लगी है। शीत से सिकुड़ा मानव अंगड़ाई लेने लगा है, खिले फूलों को देखकर उसकी सुसुप्त कामनाएं जागने लगी हैं। आम में कहीं-कहीं बौंरें बसंत पंचमी को देखने को मिली थी, लेकिन उनको मुंह में लेकर स्वाद की पारम्परिक कल्पना अधूरी रह गई। वसन्त को ऋतुराज कहते हैं और राजा की पहली अधिकारिक सूचना आम्र की बौरें ही देती हैं। गेंदा, गुलाब गांवों और शहरों में खिले हंै, सुनकर दिल्ली के मुगल गार्डेन के फूल भी गार्डेन-गार्डेन (बाग-बाग) हो उठे। शहरों के फूल अधिकतर दर्शनीय और कलात्मक भले होते हों, सुगंधित फूलों की संख्या कम होती है, शायद शहरियों के स्वभाव का ही साम्य ये पुष्प भी करते हंै क्योंकि उनके जीवन में भी चमक-दमक की अधिकता और सुगंधि की न्यूनता होती है। उनकी बगिया में क्रमोन्नति और मंहगाई भत्ते रूपी पुष्प हर छठें महीने खिलते रहते हैं और जब-जब ये फूल खिलते हैं, गांव का किसान मजदूर, दुकान के सामने खड़ा होकर अपनी बनाई सरकार और अपने कर्मचारियों के भाग्य पर रश्क करता है। फूल, शूल बन जाते हंै। गांवों में भटकटैया का एक पौधा होता है, जो स्वयंभू है, मनुष्य उसके कांटे से डरकर काटता है और हमारे एक शहरी मित्र को इस बात का गर्व है कि उनकी छत और बरामदे में एक सौ दस किस्म के कैक्टस हैं। गंधहीन, लेकिन सुन्दर नागफनी। जिन्दगी का अजीब फलसफा है। ऐसे लोगों के आगे सौंदर्य के तर्क बेमानी हैं।
   ऋतुराज वसन्त की सेना में पुष्पों की संख्या अधिक है। वर्षा और सर्दी की जकड़न से सारी प्रकृति उन्मुक्त और उन्मत्त हो उठी है । यह रीतिकालीन कल्पना नहीं प्राकृतिक यथार्थ है। आम्र मंजरी (बौर) ईश्वर का वरदान है। जिस वर्ष आम नहीं फूलता-फलता, आम आदमी की ग्रीष्म ऋतु निरर्थक हो जाती है। सेमल के पत्ते झड़ गए, महुआ भी कपड़े बदलने की तैयारी में हैं, पलाश जरूर उदास है अपने अतीत को सोचकर। वसन्त के देव काम हैं। नव पल्लव और पुष्प उनके परिधान हैं तो अस्त्र-शस्त्र भी। महादेव शिव समाधिस्थ हैं। देवताओं का कार्य-व्यापार ठप है। सीधे-साधे सुन्दर कामदेव को समाधि भंग करने के लिए पे्ररित करते हंै। सारे देवता सती प्रसंग में शिव के प्रलयंकर रूप से परिचित हैं। वसंत तप भंग करने की ऋतु है। कामदेव भी जानते हैं परंतु बलि का बकरा बनने को तैयार हो गए। वसंत ऋतु थी, अपने पुष्प तुणीर से पांच पुष्प खींचे, अशोक, अरविन्द, आम, नीलोत्पल और मल्लिका को देखा। मादक और अन्य धारदार पुष्प भी थे, परंतु उन्हें नहीं लिया । पंचपुष्पों का बाण, धनुष पर चढ़ाया और पलाश वृक्ष के ओट में खड़े होकर शिव के हृदय पर छोड़ दिया। समाधि भंग हुई। शिव ने मनोज (काम) को अपनी सफलता पर गर्वित होते देखा, उन्होंने नेत्र खोला। काम क्षार हो गया। पलाश का हरा पेड़ जलने लगा। उसने विनती की- ‘प्रभु! मेरी   गलती बताएं!’  शिव आशुतोष हो गए उन्होंने कहा - ‘जा! तुम्हारी ये लाल लपटें लाल फूल बनेंगी।’ पलाश ने कहा- ‘मैं अशिव रूप हूं, नग्न हूं’, शिव ने कहा-‘तुम्हारे शरीर पर तीन पत्ते होंगे, जिन पर हम त्रिदेव वास करेंगे।
    कालिदास और संस्कृत के अन्य कवियों के काव्यों में वसंत ऋतु के आगमन पर मदनोत्सव का उल्लासमय वर्णन है। अंगरागों से सुवासित शरीर नखशिख तक आह्लादित करता है। काम देवता था, अनंग होकर प्रत्येक जीव को बांधने लगा। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ का जीवन दर्शन आदर्श एवं सार्वजनीन है। काम, वेद शास्त्र एवं लोक सम्मत दर्शन है, देव है, आज वह स्वैराचार है, पहले वह ऋतुकाल और अपेक्षा पर आधारित और वैज्ञानिक था, आज उसका विकृत रूप समाज के सामने है। राक्षस की तरह उसके अनेक रूप हैं। वसंत पेड़ों से धरती पर उतरा है। गेहूं और जौ की बालियों वाले खेतों पर उतरी वासन्ती बयार भौचक निहार रही है, चने की घेंटियों से बतियाती,सरसों के फूलों का परिधान पहने, अलसी के फूलों जैसी नीली आंखें बिछाए ऋतुराज वसंत के आगमन की बाट जोह रही है। सिर्फ वसंत भर नहीं, मनुष्य ने प्रत्येक ऋतुओं को असंतुष्ट कर दिया है उनके आधान को विकृत कर दिया है। कोयल पहले जैसा नहीं गाती, भवरों में वह गुंजार नहीं है, तितली में वे रंग नहीं रहे।  अब समय पर वसंत भी नहीं आता, और हम हैं कि उसके चारण-गीत गाते नहीं अघाते। केदारनाथ अग्रवाल ने कभी कहा था कांग्रेस के राज में आयो नहीं वसंत। ‘अपन कंटीली डार के गावत हैं गुणवंत।’ लगता है उसे भी घोटालों की खबर लग गई है।
                                                         - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                             सम्पर्क - 09407041430.

आप वहां क्यों थीं मैडम?


tejindar gagan
 पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल के परिवहन मंत्री मदन मित्रा ने कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में सैंतीस वर्षीय एक स्त्री के साथ हुये सामूहिक बलात्कार के संदर्भ में एक विवादास्पद बयान दिया। उन्होंने कहा कि- ''सैंतीस वर्षीय यह स्त्री जो कि लंबे समय से अपने पति से अलग रह रही थी और जिसके दो बच्चे भी हैं, आधी रात को क्लब में क्या कर रही थी?'' इसी दुर्भाग्यजनक घटना के संदर्भ में मुख्यमंत्री सुश्री ममता बैनर्जी ने भी यह कह कर तूफान खड़ा कर दिया कि बलात्कार की इस घटना के पीछे एक तरह की राजनीति है। कुल मिलाकर एक स्त्री जिसके जीवन के साथ खुलेआम खिलवाड़ किया गया उसके प्रति किसी तरह की संवेदना कहीं नार नहीं आई उल्टे अप्रसांगिक प्रश्ों की झड़ी लगा दी गई। यह तो उस स्त्री के साहस की प्रशंसा करनी होगी कि उसने सामने आकर प्रेस और पुलिस को बयान दिये जिससे कि अगली कानूनी लड़ाई का रास्ता साफ हुआ। इसी तरह छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी और पांच पुत्रियों की हत्या इस कारण कर दी कि उसे अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह हो गया था। दोनों ही मामलों की अभी तंफतीश की जा रही है और अंतिम निर्णय आना अभी बाकी है पर दोनों में ही 'स्त्री' को लक्ष्य बनाया गया है।
दरअसल, हमारे मध्यवर्गीय समाज को कुछ स्थूल और जड़ मान्यताओं के बीच जीने की आदत है। त्रासदी यह है कि उसके मन में इस स्थिति के लिये किसी तरह का पश्चाताप नहीं है या उसे बदलने की इच्छा नहीं है। विशेषत: नैतिकता के प्रश् को लेकर एक तरह के भ्रम को पाल कर रखने के लिए वह अभिशप्त है। नैतिक अथवा अनैतिक दोनों का भ्रम मूलत: स्त्री-पुरुष संबंधों के इर्द-गिर्द बुना गया है। यह भ्रम भी समाज में स्त्री की संपूर्ण उपस्थिति को लेकर नहीं है बल्कि उसकी देह के लिये ज्यादा है। नैतिकता और अनैतिकता और शालीनता या अश्लीलता के सारे प्रश् स्त्री की देह पर ही टिके हैं। यह त्रासद भी है और हास्यास्पद भी। पता नहीं स्त्री अपनी देह में ऐसा क्या लेकर जन्म लेती है कि उसकी देह के सामने उसका मन और उस की संवेदना और उसकी आत्मा से जुड़े सारे सवाल बौने हो जाते हैं और हमारा समाज, जिसमें कई बार स्त्रियां स्वयं भी शामिल होती हैं, केवल उस की देह के लिये कड़े उसूल तय कर देता है, जिनका अतिक्रमण या जिनकी सीमाएं शालीनता और अश्लीलता के मापदंड बन जाते हैं। इस पूरे गणित में हर जगह स्त्री को वस्तु में रूपांतरित कर दिया जाता है। हमारे धर्मग्रंथ भी यही सिखाते आए हैं कि पराई स्त्री को स्पर्श मत करो, युध्द में जीती गई स्त्रियों को बराबर-बराबर बांट दो, स्त्रियों को तलाक ऐसे नहीं, वैसे दो, जिस स्त्री की कोंख से बच्चा न हो वह डायन होती है इसलिए दूसरी स्त्री से अपना वंश चलाओ, वगैरह-वगैरह। यानि कि जो भी निर्णय लेना है पुरुष को ही लेना है, स्त्री को कुछ नहीं करना सिवाय पुरुष द्वारा लिये गये निर्णय का अनुसरण करने के। यह एक तरफा है। एक दृष्टि में यह विचार ही अपने आप में अश्लील है। इस बात को और अधिक गहराई से समझने के लिए हमें नैतिकता और सृजनात्मकता के अंर्तसंबंधों की खोज करनी पड़ेगी। वैसे साहित्य में यह मुद्दा नया नहीं है। इस पर सार्थक बहस भी हुई है। स्त्री को शताब्दियों से पर्दे में रखने और उसकी सहज मानवीय अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाये रखने के चलते स्त्री की एक आंख भी घूरती हुई दिखाई दे जाती है तो भद्रजन असहज हो उठते हैं। उन्हें लगता है कि जैसे वे नंगे हो रहे हैं। भीतर के भय से मुक्ति  पाने के लिये वे स्त्री की आंख को ही अश्लील घोषित कर देते हैं। पश्चिम बंगाल के मंत्री महोदय ने यह काम किया है। उनके प्रश् ही अपने आप में अश्लील हैं। याें यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसी भद्र समाज में जिसमें कि स्त्री और पुरुष दोनों शामिल हैं, उन्हें बड़ा-बड़ा वर्ग अपने समर्थन में भी मिल जायेगा। मामले की पूरी तरह से छानबीन किये बिना यह सवाल उठा देना कि - ''सैंतीस वर्षीय वह स्त्री वहां क्यों थी, जहां उसके साथ बलात्कार किया गया,'' अपने आप में एक अपराध है।
हर समाज के अपने जीवन-मूल्य होते हैं, अपनी नैतिकता होती है। महाराष्ट्र के विदर्भ में दलित समाज की अपनी नैतिकता है और उत्तराखंड में चकराता के आदिम समाज की अपनी एक पारंपरिक जीवन शैली है। हमारे शहरी कथित आधुनिक समाज की जीवन-शैली इनके साथ मेल नहीं खाती तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शहर अधिक श्लील है, या नैतिक है या आधुनिक और न ही इसका अर्थ यह है कि मध्य भारत का आदिवासी समाज जिसकी उपस्थिति हमारे साहित्य में या पत्रकारिता में न के बराबर है उसकी नैतिकता कहीं गौण हो गई है। आदिवासी हमारे समाचारों में आते हैं तो दीगर कारणों से-धर्म-परिवर्तन की खबरों के साथ, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शो-पीस या विकास की दौड़  में कथित रूप से पिछड़ेपन के नाम पर। आदिवासी स्त्री को हमारे शहरी मध्यमवर्ग ने कभी सम्मान के साथ नहीं देखा बल्कि अपनी कुदृष्टि के साथ उसकी देह की तरफ ही देखा है। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि आदिवासी स्त्री, शहरी मध्य-वर्ग की पढ़ी-लिखी स्त्रियों के मुकाबले अधिक स्वतंत्र व गरिमा से भरा हुआ जीवन जीती हैं। बात यह है कि शहर का स्वभाव आदिवासी समाज को रास नहीं आता। इसलिये जहां-जहां सड़क जाती है आदिवासी अपने आप को भीतर जंगल की तरफ समेटने लगते हैं, क्योंकि जंगल उन्हें आकर्षित करता है, जंगल उन्हें अपना घर लगता है, जंगल उन्हें सुरक्षा देता है। वहां उनका सामना नैतिकता और अश्लीलता जैसे दुरूह शब्द-जाल से नहीं होता। शहर में नई-नई आई आदिवासी युवती जो कि शिक्षिका, नर्स, मजदूर या सिर पर टोकरी रखकर सब्जी-भाजी बेचने वाली कुछ भी हो सकती है, उसके साथ शहर में बदसलूकी होने की आशंका ज्यादा होती है। गजब यह है कि शहर की स्त्रियां जंगल में आदिवासी क्षेत्रों में जाने से डरती हैं और और इस बात को भूलती है कि उन भले लोगों के बीच वे अपने उन लोगों से ज्यादा सुरक्षित हैं जिन्हें वे शहरी और आधुनिक कहती हैं।
स्त्री की उपस्थिति ज्यों-ज्यों समाज में मुखर हो रही है, जिस तेजी के साथ स्त्री समाज के हर तरह के काम में अपनी योग्यता को स्थापित कर रही है, उतनी ही तेजी के साथ उसके यौन-उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है, न केवल उसकी देह को लेकर बल्कि उसकी अस्मिता को लेकर ही कई तरह के सवाल उठाये जाते हैं। किसी भी सरकारी, गैर-सरकारी दफ्तर में स्त्री का संघर्ष उसके पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले अधिक बड़ा होता है क्योंकि उसे तमाम नियम-कायदों के साथ  पुरुष की आंखों का सामना भी करना पड़ता है। वह दोहरा संघर्ष करती है। घर पर भी एक तरह के संघर्ष के बाद वह नौकरी पर आती है, नौकरी में उसे अपने स्त्री होने के प्रति लगातार सतर्क रहना होता है, और अगर वह अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी करते हुये कभी किसी एक ऐसी जगह पर पहुंच जाये जहां कि वह यौन-शोषण का शिकार हो जाये तो उसे उन प्रश्ों के उत्तर देने के लिये भी तैयार रहना पड़ता है जो पश्चिम बंगाल के मंत्री खुलेआम पूछ रहे हैं कि, आप वहां क्यों थीं मैडम?
उस स्त्री की संवेदना को पकड़ने की सख्त ारूरत है जो लगातार अपमान सहने और जीने के लिये अभिशप्त है पर उससे पहले यह आवश्यक है कि हमारा समाज नैतिकता के अपने मापदंडों को लेकर अपनी धारणा को एक सुस्पष्ट दिशा दे जिसमें स्त्री और पुरुष के लिये अलग-अलग मापदंड न हों।
tejinder.gagan@gmail.com

Thursday, February 16, 2012

. शहरयार


पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात
यूँ बूंद बूंद उतरी हमारे घरों में रात

कुछ भी दिखाई देता नहीं दूर दूर तक
चुभती है सूइयों की तरह जब रगों में रात

वह खुरदुरी चटाने*, वह दरिया वह आबशार
सब कुछ समेट ले गयी अपने परों में रात

आँखों को सब की नींद भी दी ख्वाब भी दिए
हम को शुमार करती रही दुश्मनों में रात 

बेनाम मंजिलों ने बुलाया है फिर हमें
सन्नाटे फिर बिछाने लगी रास्तों में रात..

Wednesday, February 15, 2012

-मुकुट बिहारी सरोज

सचमुच बहुत देर तक सोए
 इधर यहाँ से उधर वहाँ तक
 धूप चढ़ गई कहाँ-कहाँ तक
 लोगों ने सींची फुलवारी
तुमने अब तक बीज न बोए ।

 दुनिया जगा-जगा कर हारी,
 ऐसी कैसी नींद तुम्हारी ?
 लोगों की भर चुकी उड़ानें
 तुमने सब संकल्प डुबोए ।

 जिन को कल की फ़िक्र नहीं है
 उनका आगे ज़िक्र नहीं है,
 लोगों के इतिहास बन गए
 तुमने सब सम्बोधन खोए । 

जिजीविषा का कोई जवाब नहीं


   चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
धरती के तमाम जीवों से अलग मनुष्य ईश्वर की अनुपम सत्ता है। उसकी उत्पत्ति के पीछे तरह तरह के तर्क हैं कि वह कैसे पैदा हुआ उसे किसने बनाया। आध्यात्म और विज्ञान अपनी जगह प्रतिबद्ध हैं, परंतु इसमें दोनों एकमत हैं कि ईश्वर मनुष्य की परिकल्पना की सृष्टि है । वह है कि नहीं? है तो कैसा है? उसे क्या प्राप्त किया जा सकता है? या उसकी अनुभूति की जा सकती है। इसी एक बात में संसार भर के दार्शनिकोें की ऊर्जा आदिकाल से लगी है। इस अनसुलझे प्रसंग की सार्थकता कितनी है, हम नहीं जानते। ईश्वर की कल्पना में प्रकृति के सारे उपादान हैं चर-अचर, जीव-जन्तु, नदी-पहाड़ जन्म-मृत्यु। हमारे चिन्तन के बिन्दु जहां हार-थक जाते हैं वहीं से ईश्वरत्व का जन्म होता है। हमारी गलती पर जब प्रकृति दण्ड देती है। तब पराजयी आभास हमारी सीमा बताता है। भारतीय मनीषा के अधिसंख्य दर्शन मनुष्य को विधाता की सर्वोत्कृष्ट कृति मानते हैं। धरती के सभी प्राणियों में मनुष्य सबसे असंतुष्ट जीव हैं। वह सोता है तो सपने देखता है जागता है तो छटपटाता है, भागता है। तलाश-निरंतर तलाश, बेहतर, और भी बेहतर। वह आजाद और निर्द्वन्द रहना चाहता है। वह अपने ही बनाए तथ्यों की पूजा करता है उसमें परिणाम निकालता है, तंत्र (नियम-कानून) बनाता है, स्वतंत्र होने का दावा करता है और बनाए तंत्र को तोड़ भी देता है, संशोधन कर देता है। वह कभी खुश नहीं हो सका, प्रकृति का सबसे बड़ा रहस्य, आदमी है। वह कभी खुश नहीं हो सका, प्रकृति का सबसे बड़ा रहस्य, आदमी है। मनु या आदम के इस औलाद के औत्सुक्य की निरंतरता अद्यावधि कायम है। बनाई दीवार में अपने को कैद मान गिराकर फिर नई बनाया यही उसकी नियति है। स्वाधीन कहते हुए भी पर की अधीनता में उलझा है। विश्वास और संतुष्टि का यह अघोषित संघर्ष उसका स्वभाव है। किंबहुना वह अभिशप्त है।
  वैष्णवी कल्पना कहती है कि इस सृष्टि के नियामक ब्रह्मा है, विष्णु पालनकर्ता और शिव संहारक है। मनुष्य सबसे चालाक और सामाजिक प्राणी है। उसने सारे जीव जन्तुओं के गुण धर्म देखे और मनुष्यों में भी पशुओं के कुछ लक्षण पाए। गाहे-बगाहे मनुष्य ने कुछ लोगों में शेर जैसी ताकत देखी, कुछ के लक्षण गधों से मिलते दिखे, कुछ गीदड़ से लगे तो कुछ लोमड़ी से चालाक भी। कुछ मनुष्य कुत्तों की तरह स्वामिभक्त दिखे तो कुछ कीड़े-मकोड़ों की तरह रहे, यथास्थितिवादी। शायद यही मिलता-जुलता स्वभाव देखकर मनुष्य ने अपनी ही बिरादरी, के लोगों को पशुओं की संज्ञा दे दी और कभी कभार तो यहां तक कह दिया, अच्छे खासे आदमी को भी कि, वह आदमी नहीं निरा पशु है, गधा है, कुत्ता और कीड़े मकोड़ों से भी बदतर है। परंतु किसी पशु ने मनुष्य की संज्ञा नहीं स्वीकारी, भले ही वह पालतू रहा हो। हां मनुष्य के पुकारने से उसने हरकत जरूर की भले ही उसने लकड़ी की डर से नाचने का उपक्रम किया हो। लेकिन, मनुष्य के ऐसे लक्षण क्यों हो गए कि वह मनुष्येत्तर प्राणियों की समकक्षता में आ गया। एक लोककथा से इसका स्वभावगत साम्य किया तो बात कुछ समझ में आई।
   कहते हैं कि जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो सभी जीव जन्तुओं की उम्र चालीस बरस तय की। चालीस बरस बीतने के बाद मनुष्य ने ब्रह्मा से फरियाद की कि इस उम्र तक मैं जवान हुआ , मैं कुछ नहीं कर सका। अभी मेरे बेटे छोटे हैं, मुझे और उम्र दें। ब्रह्मा ने कहा कि मेरे विधान में सब बराबर हैं, यदि कोई जीव स्वेच्छा से अपनी उम्र तुम्हें देना चाहे मांग लो, उसे मैं तुम्हें दे सकता हूं मैं किसी को बाध्य नहीं कर सकता। मनुष्य स्वभाव से जुगाड़ू है वह सोच रहा था कि उसका गधा रिरिआता हुआ ब्रह्मा के पास आया बोला- ‘भगवन् मेरी उम्र बहुत अधिक है चालीस वर्ष तक आदमी के काम का बोझ ढोते-ढोते मैं थक गया हूं। मेरी उम्र आधी कर दीजिए।’ मनुष्य खुश हुआ, उसने ब्रह्मा की ओर देखा वे मुस्कुराए और मनुष्य  की उम्र साठ साल की हो गई। साठ साल बीतते ही वह पुन: ब्रह्मा के पास पहुंचा और कहा अभी मैं साठा पर पाठा हूं, मुझे और उम्र दीजिए।’ पिता का लाड़ला था, ब्रह्मा ने रुकने को कहा। उसी क्षण एक कुत्ता वहां आ गया, उसने ब्रह्मा से निवेदन किया। चालीस वर्ष जीना मेरे लिए कठिन है, मेरी उम्र आधी कर दीजिए। मनुष्य को मनचाही बीस वर्ष उम्र कुत्ते की भी मिल गई। अब मनुष्य अस्सी बरस का हो चुका था। उसकी जिजीविषा बदस्तूर कायम थी, अस्सी बरस के बाद भी उसके अनेक काम शेष थे, उसने फिर परम पिता से विनती की कि प्रभो मुझे शतायु करें। ब्रह्मा परेशान, फिर भी अपनी त्वचा रचना के लिए चिंतन शील बने रहे। कुलमुलाते कीड़े-मकोड़े से बात की। कीड़ों-मकोड़ों ने कहा कि भगवन् आपने हमें इतनी लम्बी चालीस बरस की उम्र देकर जीवन  नरक बना दिया, इसे कम कर दें। मनुष्य के हिस्से में बीस बरस और बढ़ गए । अब वह शतायु हो गया, अपनी प्राप्त विधि सम्मत उम्र से साठ वर्ष अधिक। वह खुश था या नहीं इसे वही जानता था परंतु वह संतुष्ट नहीं था।
मनुष्य चालीस वर्ष तक बेफि क्र होकर शेर की तरह अपनी जिन्दगी जीता है, जो इच्छा होती है करता है, अपनी शर्तों पर जीता है। उसके पौरुष के कायल सभी होते हैं, उसकी चाल-ढाल से समाज की दिशा बदलती है। संसार भर के सारे वीर सपूतों ने इसी उम्र तक शौर्य के परचम लहराए हैं। काल के भाल पर   इन्हीं के हस्ताक्षर हैं। इस उम्र ने मुड़कर नहीं देखा। विश्व इतिहास में इनके कार्यों की अमिट रेख है, ये चालीस बरस विधाता द्वारा दी गई सही उमर है। चालीस से साठ तक मनुष्य ने गधे से उम्र ली थी अत: गधे की तरह वह अपने लिए नहीं परिवार नामक संस्था के लिए मरता है कमाता है। गधे की तरह भार ढोता है उसकी सारी कमाई सल्तनत के लिए होती है। साठ से अस्सी के बीच मनुष्य द्वार के कुत्ते की तरह बाहर या बरामदे में बैठा प्रत्येक आने-जाने वाले को एक नजर कुत्ते की तरह देखता है। दूसरे के टुकड़ों पर पलता है। रखवाली की शक्ति न होते हुए भी घर की चौकीदारी करता है। घर के बाल-बच्चे भी उसकी अनदेखी करके नजदीक से गुजर जाते हैं। वह ऐसा विवश कुत्ता होता है जो गुर्राना भी भूल चुका है, फिर भी जीना चाहता है। अस्सी से आगे की उम्र कीड़े मकोड़े सी जिन्दगी जीते हुए भी मनुष्य मरना नहीं चाहता । संतुष्टि उसके स्वभाव में नहीं, वह चिरायु होना चाहता है। पता नहीं, अमर होना क्यों चाहता है? फिर भी मनुष्य, विधाता की अनुपम रचना हमेशा कहलाई जाती रहेगी क्योंकि अन्यों की उम्र लेकर जीने की कला सिर्फ उसके पास ही है। उसकी जिजीविषा का अंत नहीं है।
                                                   - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                           सम्पर्क - 9407041430.

धर्म जब धंधा बन जाए


        चिंतामणि मिश्र
अभी अखबारों में खबर आई कि कई बाबा लोग हवाई यात्रा पर अपने लिए विशेषाधिकार की मांग कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनकों सुरक्षा जांच और तलाशी से छूट दी जाए। इनका तर्क है कि उन्हें कोई मनुष्य छू नहीं सकता और अगर ऐसा होता है तो उन्हें शुद्ध होने के लिए स्नान और पूजा करनी पड़ती है। कुछ बाबा लोगों को ऐसी छूट देने की सिफारिश कांग्रेस अध्यक्ष ने और खेल मंत्री ने नागरिक उड्डन विभाग से की है। कोई कारण नहीं है कि इन खास बाबा लोगों को यह विशेषाधिकार न मिले, क्योंकि देश के सबसे बड़े भाग्य विधाता ने सिफारिश की है। अभी ऐसा विशेषाधिकार राष्टÑपति और प्रधानमंत्री को ही मिला है। वैसे भी सरकार किसी भी दल या गठबंघन की हो, बाबाओं को नाराज कोई नहीं करना चाहता।
      बाबा लोग बड़े चमत्कार कर रहे हैं। मीडिया में छाये हुए हैं। आध्यात्म से लेकर राजनीति में इनका लीला-गान गंूज रहा है। प्रसिद्ध तो पहले भी होते थे, किन्तु आजकल बाबा लोगों ने अपनी रणनीति बदल दी है। पहले गृहस्थी त्याग कर सन्यास लेते थे, किन्तु अब योग का स्थान उपभोग ने ले लिया है। योग और समाधि वाले चिंतन को बाबा लोगों ने मुगरा खड़ा करके देश और समाज को क्रांतिकारी प्रसाद दे कर गदगद कर दिया है। आज जब पूरा समाज बाजारवाद की गोद में बैठ कर मसान-पूजन करने में तल्लीन है, तो बाबा लोग इससे दूर कैसे रह सकते हैं। अंधे और बहरे भक्तों को कब तक आत्मा और परमात्मा का नीरस चिन्तन कराया जाता। लम्बे-लम्बे नाम कीर्तिन और बन्दर नृत्य की कितनी और कब तक गणेश परिक्रमा कराई जाती है। भक्त बोर हो रहे थे और दूसरे बाबा लोगों की तरफ उनके पलायन की सम्भावना हो रही थी। बाबा लोगोें को यह रूखा-सूखा सन्यास भी अकारथ लग रहा था, सो निकाल लाये योग का आधुनिक उपभोक्तावादी संस्करण । यह ऐसा सन्यास था, जिसमें हानि का दूर-दूर तक प्रश्न नहीं था और फायदा अकूत। तीर्थ-स्थलों में, हिल स्टेशनों में, राजधानियों और महानगरों में आश्रम  ऐसे बन गए कि पांच और सात सितारे  होटल फीके हो गए हैं।
      अन्ध भक्त चेलों से मिले लाखों-करोड़ों रुपए से बाबा लोगों को संतोष नहीं हो रहा। बाबा लोग मंजन गोरे होने की कीम साबुन, गन्डा- ताबीज ,रुद्राक्ष, चमत्कारी अंगूठी-यंत्र हर मर्ज की दवा आटा-दाल आदि बेचने लगे। कई बाबा तो फैक्ट्री खोल कर मार्केटिंग में लग गए। टीवी पर तो बाबा लोगों की सुनामी ही आ गई है। कई बाबा तो टीवी चैनलों के मालिक ही बन गए है। बाबा लोग अब जीवन जगत के गूढ़ प्रश्नों से अपना सिर फोड़ने की जगह बाजार में अपनी-अपनी कम्पनियां लेकर कॉर्पाेरेटेड बाबा में रूपान्तरित हो गए।
कुछ बाबा लोगों ने तो कमाल का रास्ता कमाई के लिए तलाश लिया है। धर्म की ओट में सेक्स की दुकान शुरू कर दी। चित्रकूट के एक बाबा लम्बे समय से काल गर्ल्स की कम्पनी संचालित किए थे। इनकी कम्पनी का नेटवर्क देश के सभी बड़े शहरों में था। थोड़ी सी चूक के कारण दिल्ली में पकड़े गए। एक बड़े बाबा पर उनकी भूतपूर्व शिष्या ने यौन शोषण और बलात्कार की सबूतों सहित पुलिस में शिकायत दर्ज कराकर आरोप लगाया है। शिकायत में जबरिया गर्भपात कराने का भी आरोप है। बाबा जी का हरिद्वार में गंगा किनारे भव्य आश्रम है। वे राजनीति में भी हैं और केन्द्र सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। आन्ध््रा के एक बाबा समलिंगी के रूप में अर्न्तराष्टÑीय मीडिया की खबर बने थे। ऐसे बाबा सारे देश में बड़ी संख्या में विराजवान है जो अपने भव्य आश्रमों में महिलाओं के साथ रासलीला रचाते है।ं
     पिछले साल मघ्यप्रदेश के वन विभाग की जमीन पर एक शंकराचार्य का स्थायी कब्जा करने का मामला उठा। वन विभाग ने कब्जा हटाने की नोटिस दी तो विभाग के अधिकारियों से अभ्रदता की गई जब वन विभाग ने मामला निपटाने के लिए कहा कि वे कब्जे की मंजूरी के लिए आवेदन ही दे दें तो शकंराचार्य ने अपनी सार्वभौमिकता की गुहार लगाते हुए गर्जना कर दी कि किसी की उनसे आवेदन पत्र मांगने की हैसियत नहीं है। बाद में वन मंत्री शंकराचार्य के श्रीचरणों में स्वयं पेश हुए, अपने ही विभाग का बड़ी बहादुरी से समर्पण कर आये । यह वही वन विभाग है जो गरीब ग्रामीणों के मात्र जंगल प्रवेश पर उनको दौड़ा-दौड़ा कर पीटता है , जेल की यात्रा कराता है। सरकारें बाबा लोगों के मामले में बेहद उदार रहती हैं। सरकारों का रुतबा आम आदमी के लिए सुरक्षित होता है। बाबाओं की बिरादरी अब सत्ताधारी देवताओं से पे्ररणा लेकर खुद को देश के कानून और देश की संस्कृति से ऊपर समझने लगी है। आज हम जिस दौर में हैं, उसमें धर्म भी व्यापार और उद्योग में बदल गया है और धर्म भी बाजार में खरीदने तथा बेचने की वस्तु बना दिया गया। असल में आज धर्म की जगह पाखंड विराजमान हो चुका है और बाबा लोग पाखंड को धर्म बता कर जनता को सम्मोहित किए हैं। बाबा लोग भी अपने-अपने झंडे और डंडे लेकर पाप-पुण्य और स्वर्ग- नरक से लोगों को भयभीत करके उसे दिगम्बर किये जा रहे हैं। कबीर बाबा कह गए कि- कपड़ा रंग कर पहन लेने तथा सिर मुंड़ा लेने से वैराग्य या सन्यास नहीं उपजता, जब मन, धन का ढेर लगाने, वैभवपूर्ण आवास जुटाने के जुगाड़ में जुटा  है, कंचन और कामिनी के लिए लार टपका   रहा है, सब पर शासन करने के लिये कत्थक कर रहा है तो सन्यास नाटक से अधिक कुछ नहीं है।
बाबाओं ने जन आस्था को खंड-खंड कर अखाड़ा रच डाला है जिसमें अतीत को वर्तमान से संवाद करने के लिए विकलांग बनाया गया है। सत्ता से जुड़ने के लिए पेट के बल लेट कर दंडवत की जा रही है। राम ने जिस साम्राज्यवादी रावण को मारा था, वही साम्राज्यवादी रावण बाजारवाद के रथ में बैठकर व्यंग कर रहा है। संस्कृति की सीता रावण के कब्जे में है। इस सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को लेकर बाबा लोगों की आत्मा में अंधेरी रात व्याप्त है। सभी धर्मग्रंथों के पाठ हैं, सबद हंै- विचार बीज हैं, वाचिक परम्परा लोकानुभव हैं, शास्त्री हैं, पर शास्त्र सत्ता की ओर, बाजार की ओर लपक रहा है। आखिर क्या कारण है कि आज बाबाओं- महंतों को सत्ता की देहरी में हाजरी भरनी पड़ रही है? इसके कई कारणों में सबसे बड़ा कारण हैं कि अब उनका कोई अपना प्रभामंडल ही नहीं रहा हैंं। जंगलों, पहाड़ों में रह कर चिंतन और वैराग्य की जगह बाबाओं की भूमिका व्यापारी की हो गई है। वह आम आदमी के कल्याण हेतु अपने आश्रम का इस्तेमाल नहीं कर रहा। वह नेताओं,उद्योगपतियों,अपराधियों के हित साधने और अपने ओढ़े हुए सन्यासी लबादे की ओट में आर्थिक, राजनैतिक ताकत पर अधिकार के लिए प्रपंच रच रहा है।
                                      - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                         सम्पर्क - 09425174450.

Saturday, February 11, 2012

अक्लमंद हो तो क्या लिखो?


रूप, रंग, गंध लिखो,  मन की उडान हो गई जो स्वच्छंद लिखो, 
तितली लिखो, फूल लिखो, 
रेशम लिखो, प्रेम लिखो,
जो भी लिखो,
प्रशंसा, पैसा और सम्मान के जरूरतमंद लिखो,
चमक लिखो, दमक लिखो,
ठसक और खनक लिखो,
देश, विश्व, सत्ता के बदलते समीकरण लिखो,
अच्छा लिखो, नफीस लिखो,
ऊँचा लिखो, दमकदार लिखो,
जिनकी पढ़ने की हैसियत है,
उनकी हैसियत के अनुसार लिखो,
मुख्य धारा लिखो, बिकने वाला लिखो,
शोहरत वाला लिखो, चर्चा लायक लिखो,
छप्पर मत लिखो, साथ में नाला मत लिखो,
खून मत लिखो, भूख मत लिखो,
सडती हुई लाश पर मंडराते चील, कौवे मत लिखो,
औरत की कोख में ठूंसे गये पत्थर बिल्कुल मत लिखो,
दिवानों, पागलों और सनकियों की बात मत लिखो,
देश मत लिखो, समाज मत लिखो,
गांव मत लिखो, गरीब मत लिखो,
विकास लिखो, खनिज लिखो,
हवाई अड्डा और होर्डिंग लिखो,
ए.सी. लिखो, कार लिखो, स्काच लिखो,
सेंट लिखो, लड़की लिखो,
पैसा लिखो, मंत्री लिखो,
साहब लिखो, फाइल क्लियर लिखो,
जली हुई झोंपड़ी, लूटी हुई इज्जत, मरा हुआ बच्चा,
पिटा हुआ बुढा बिल्कुल मत लिखो,
पुलिस की मार, फटा हुआ ब्लाउज,
पेट चीरी हुई लड़की की लाश मत लिखो,
महुआ मत लिखो, मडई मत लिखो,
नाच मत लिखो, ढोल मत लिखो,
लाल आँख मत लिखो, तनी मुट्ठी मत लिखो,
जंगल से आती हुई ललकार मत लिखो,
अन्याय मत लिखो, प्रतिकार मत लिखो,
सहने की शक्ति का खात्मा और बगावत मत लिखो,
क्रान्ति मत लिखो, नया समाज मत लिखो,
संघर्ष मत लिखो, आत्मसम्मान मत लिखो,
लाईन है खींची हुई, अक्लमंद और पागलों में,
अक्लमंद लिखो, पागल मत लिखो,

हिमांशु कुमार

Tuesday, February 7, 2012

प्याज़ की परतें और जाति


सुशील झा
 मंगलवार, 7 फ़रवरी, 2012 को 05:44 IST तक के समाचार
यूपी के चुनावों में हर दल जाति पर वोट ज़रुर जुटाने की कोशिश कर रहा है
साठ के दशक में जाने माने कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम ने एक कार्टून के ज़रिए कहा था कि लोग वोट नहीं देते बल्कि जाति पर वोट देते हैं. ये बात कई वर्षों के बाद आज भी बार बार कही जाती है चुनावों के दौरान और यूपी के चुनाव में तो जाति को सबसे अहम माना जाता है. चुनाव के दौरान जाति इतनी महत्वपूर्ण क्यों हो जाती है.
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं कि राजनीतिक दबाव के तौर पर जाति आज़ादी के बाद उभरी है.
वो कहते हैं, ''जाति की सामाजिक मान्यता गिरी है लेकिन जाति का जनतंत्र के साथ संवाद हुआ है और यही कारण है कि इसका राजनीतिक महत्व बढ़ गया है. गांवों में ये अधिक है इसमें शक नहीं किया जा सकता. ऐसा नहीं है कि एक दल ने ऐसा किया है सारे दल ही जाति के आधार पर चुनावों की रणनीति तय करते हैं. ''
यूपी देश में आबादी के हिसाब से बड़े राज्यों में गिना जाता है और यहां एक बड़ी आबादी दलितों, अन्य पिछड़ा वर्गों और अन्य जातियों की है. इन जातियों का इस्तेमाल लगातार राजनीतिक दल करते रहे हैं. इलाहाबाद के गोविंद वल्लभ पंत इंस्टीट्यूट में पढ़ाने वाले बदरी नारायण कहते हैं.

बदरी नारायण

"पहले अगड़ी जातियों ने लोगों को जाति के नाम पर गोलबंद किया. साठ के दशक में मुद्दे अलग थे. सत्तर के दशक में ओबीसी जातियां गोलबंद होने लगीं और उसके बाद दलित जातियों ने उन्हीं नेताओं को चुना जो उनकी जाति के लिए काम करते थे. इसमें विकास का मुद्दा पीछे नहीं छूटा बल्कि परतों में चलता रहा. इसे एक प्याज़ की तरह समझा जा सकता है. जातियों के हित और राजनीतिक विकास प्याज़ के परतों की तरह हैं"
''पहले अगड़ी जातियों ने लोगों को जाति के नाम पर गोलबंद किया. साठ के दशक में मुद्दे अलग थे. सत्तर के दशक में ओबीसी जातियां गोलबंद होने लगीं और उसके बाद दलित जातियों ने उन्हीं नेताओं को चुना जो उनकी जाति के लिए काम करते थे. इसमें विकास का मुद्दा पीछे नहीं छूटा बल्कि परतों में चलता रहा. इसे एक प्याज़ की तरह समझा जा सकता है. जातियों के हित और राजनीतिक विकास प्याज़ के परतों की तरह हैं. ''
यूपी में हालात अब ऐसे बन चुके हैं कि हर दल को किसी न किसी जाति से जोड़ कर देखा जाता है. मसलन मायावती का नाम दलितों से जोड़ा जाता है तो सपा का नाम यादवों से और बीजेपी को ठाकुरों की पार्टी कहा जाता है लेकिन क्या ये सारी जातियां इन्हीं पार्टियों को वोट देते हैं. आनंद कुमार कहते हैं कि ऐसा सोचना सरलीकरण होगा.
वो कहते हैं, '' देखिए ऐसा नहीं है कि एक जाति सिर्फ एक जाति को वोट देती है. पहले दलित कांग्रेस को वोट देते थे. मुसलमान भी. बाद में मायावती के समय दलितों और ब्राहमणों ने एक साथ वोटिंग की. और ये भी जान लीजिए कि इंदिरा गांधी से लेकर सभी ने जाति का इस्तेमाल किया. सोशलिस्ट राजनीति के दौरान चरण सिंह का अजगर समीकरण फिर मुलायम सिंह का माई समीकरण. वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें आनन फानन में लागू कर के ओबीसी को गोलबंद किया और फिर मायावती लेकिन अभी भी एक जाति के सारे लोग एक ही दल को वोट नहीं देते हैं. ''

प्रोफेसर आनंद कुमार

"पहले दलित कांग्रेस को वोट देते थे. मुसलमान भी. बाद में मायावती के समय दलितों और ब्राहमणों ने एक साथ वोटिंग की. और ये भी जान लीजिए कि इंदिरा गांधी से लेकर सभी ने जाति का इस्तेमाल किया. "
अगर विभिन्न जातियां किसी एक पार्टी को वोट नहीं देती तो फिर ये वोट देती कैसे हैं. तो क्या फिर जाति के आधार पर राजनीति को समझना भूल है. बदरी नारायण कहते हैं कि जाति को एक ही चश्मे से देखना नहीं चाहिए क्योंकि इसकी कई परते हैं. वो कहते हैं कि ज़रुरी नहीं कि दलित भी एक समूह की तरह वोट करता हो. उनका कहना था, '' देखिए दलित में भी कई समूह हैं. वाल्मीकि, जाटव, चमार और ये सभी अलग अलग हितों को मानते हैं और अलग अलग वोट भी डालते हैं. वाल्मीकि पहले बीजेपी के साथ जा चुके हैं. हां ये ज़रुर होता है कि प्रभावशाली गुट जहां वोट करता है बाकी सभी उसकी तरफ ही चलने लगते हैं. ''
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में ऊंची जातियों की संख्या कम है जबकि दलितों की संख्या ज्यादा. ऐसे में उन्हें एक वोट ब्लॉक की तरह देखना सभी राजनीतिक दलों की मजबूरी भी बन जाता है. 2001 के आकड़ों के अनुसार इस राज्य में अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या 20 प्रतिशत है जबकि अन्य पिछड़ी जातियों का हिस्सा 51 प्रतिशत है. साफ है कि इन जातियों को रिझाने के नित नए उपाय किए जा रहे हैं.
जहां कांग्रेस सैम पित्रोदा के मुंह से कहलवाती है कि वो जाति के बढ़ई हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी उमा भारती को पार्टी में वापस बुलाती है और यूपी से चुनाव लड़वाती है.
इन दांव पेंचों का कितना फायदा होता है ये चुनाव परिणामों में ही पता चल पाता है लेकिन बदरी नारायण की मानें तो इन चुनावों में लोग विकास की भी बात कर रहे हैं लेकिन वो भी एक दिखावे के तौर पर.
यानि की जाति की छाया यूपी चुनावों पर ज़रुर रहेगी लेकिन कितनी ये कहना फिलहाल मुश्किल होगा और ये कहना भी कि दलित सिर्फ मायावती को वोट देंगे और यादव सिर्फ सपा को या फिर ठाकुर सिर्फ बीजेपी को.

भारत में अनाज का उत्पादन घटने की आशंका


 मंगलवार, 7 फ़रवरी, 2012 को 17:18 IST तक के समाचार

सीएसओ ने मौजूदा वित्त वर्ष ख़त्म होने से पहले ये अनुमान जारी किए हैं जिनसे सरकार को बजट बनाने में मदद मिलेगी
कृषि प्रधान देश भारत में अनाज के उत्पादन में ज़बर्दस्त गिरावट आ सकती है. ये अनुमान किसी और ने नहीं बल्कि भारत के एक सरकारी संगठन ने ही जताया है.
केंद्रीय सांख्यिकी संगठन यानी सीएसओ ने कहा है कि वर्ष 2011-12 में देश के कृषि उत्पादन में महज ढाई प्रतिशत की बढोतरी हो सकेगी.
ये चिंता की बात इसलिए है क्योंकि वर्ष 2010-11 के दौरान कृषि क्षेत्र में सात प्रतिशत की बढोतरी हुई थी और अब ये आंकड़ा सात से गिरकर सीधे ढाई प्रतिशत पर आ गया है.
इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था से जुड़े अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ेगा.
सीएसओ ने देश की आर्थिक विकास दर वर्ष 2011-12 के दौरान तीन साल के सबसे निचले स्तर 6.9 प्रतिशत रहने का भी अनुमान जताया है.
सीएसओ ने निर्माण, कृषि और खनन जैसे क्षेत्रों में तेज़ गिरावट को इसकी मुख्य वजह बताया है. पिछले वित्त वर्ष में भारत की विकास दर 8.4 प्रतिशत दर्ज़ की गई थी.
सोमवार को अनुमान जारी करते हुए सीएसओ ने कि वर्ष 2011-12 में कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों के क्षेत्रों में 2.5 प्रतिशत की दर से बढ़त हो सकती है. वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान ये दर सात प्रतिशत थी.
सीएसओ का कहना कि निर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर बीते साल के 7.6 प्रतिशत के मुक़ाबले 3.9 प्रतिशत रह सकती है.

सकल घरेलू उत्पाद

सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक ने पहले ही कहा था कि दुनियाभर में आर्थिक मंदी और ऊंची घरेलू ब्याज दरों का इस वित्तीय वर्ष में वृद्धि के अनुमानों पर असर पड़ेगा
भारत के केंद्रीय रिज़र्व बैंक ने पिछले महीने मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा करते हुए सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी में वृद्धि दर सात प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था.
लेकिन सीएसओ ने जीडीपी दर सात प्रतिशत से भी कम रहने की आशंका जताई है.
मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में सरकार ने जीडीपी दर साढे सात प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था.
सरकार ने बीते साल फ़रवरी में बजट पूर्व सर्वेक्षण में वर्ष 2011-12 के लिए जीडीपी में वृद्धि दर नौ प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था लेकिन ताज़ा अनुमान इससे बहुत कम है.
पूरे वित्तीय वर्ष के लिए जीडीपी वृद्धि दर 6.9 प्रतिशत रहने के ताज़ा अनुमान का ये मतलब है कि वर्ष 2011-12 के दूसरे उत्तरार्ध में आर्थिक विस्तार की गति धीमी हुई.
अप्रैल-सितम्बर 2011 की अवधि में ये दर 7.3 प्रतिशत दर्ज़ हुई थी.
सीएसओ के नवीनतम अनुमानों के मुताबिक़, खनन क्षेत्र में 2.2 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है. पिछले वर्ष इस क्षेत्र में पांच प्रतिशत की वृद्धि दर्ज़ की गई थी.
निर्माण क्षेत्र में भी वर्ष 2010-11 के 8 प्रतिशत के मुक़ाबले 4.8 प्रतिशत की गिरावट आने की आशंका जताई गई है.
सीएसओ का ये भी अनुमान है कि वित्त, बीमा, रियल इस्टेट और क़ारोबारी सेवाओं के क्षेत्र में बीते वित्तीय वर्ष के 10.4 प्रतिशत वृद्धि दर के मुक़ाबले वर्ष 2011-12 के दौरान वृद्धि दर 9.1 प्रतिशत रह सकती है.

योजना आयोग

योजना आयोग इन अनुमानों से निराश नहीं है
जीडीपी में वृद्धि दर के बारे में सीएसओ के अनुमानों पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा, ''6.9 प्रतिशत की दर हमारी उन बातों से मेल खाती है जो हम कहते रहे हैं.''
उन्होंने कहा, ''हमने वर्ष 2011-12 के लिए सात प्रतिशत की दर बताई थी. पहले उत्तरार्ध में 7.3 प्रतिशत वृद्धि दर रही, तीसरी तिमाही में ये दर 6.9 प्रतिशत रही, इसलिए सात प्रतिशत भी संभव है.''
आंकड़ों के मुताबिक़, विद्युत, गैस और पनबिजली उत्पादन के क्षेत्र में इस साल अच्छी वृद्धि देखी जा सकती है.
इस क्षेत्र में वर्ष 2010-11 के दौरान तीन प्रतिशत की वृद्धि हुई थी. लेकिन वर्ष 2011-12 के दौरान वृद्धि दर बढ़कर 8.3 प्रतिशत तक हो सकती है.
मौज़ूदा वित्त वर्ष में होटल, परिवहन और संचार क्षेत्रों में वृद्धि दर 11.2 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया गया है. पिछले साल इन क्षेत्रों में वृद्धि दर 11.1 प्रतिशत रही थी.
सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक ने पहले कहा था कि दुनियाभर में आर्थिक मंदी और ऊंची घरेलू ब्याज दरों का इस वित्तीय वर्ष में वृद्धि के अनुमानों पर असर पड़ेगा.
वर्ष 2010-11 और इससे पहले वर्ष 2009-10 में भारतीय अर्थव्यवस्था 8.4 प्रतिशत की दर से बढ़ी. वर्ष 2008-09 में ये दर 6.7 प्रतिशत दर्ज़ की गई थी.
सीएसओ ने मौजूदा वित्त वर्ष ख़त्म होने से पहले ये अनुमान जारी किए हैं जिनसे सरकार को बजट बनाने में मदद मिलेगी.

Monday, February 6, 2012

रोटी,शराब और पेट्रोल

यह सुनकर आपको अटपटा लग सकता है कि भला रोटी का शराब और पेट्रोल से क्या रिश्ता हो सकता है? नई विश्व व्यवस्था में जिस तरह अन्न के उपयोग की प्राथमिकताएं बदल रही हैं उसके चलते एक नया परिदृश्य उभरकर सामने आ रहा है। अमेरिका और यूरोपीय संघ अन्न को ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोत के रूप में देख रहे हैं, वहीं भारत समेत कई विकासशील देशों में तेजी से बढ़ते शराब उद्योग के निशाने पर भी गरीबों का भोज्य अन्न ही है। आने वाले दिनों में अन्न का बड़ा हिस्सा आटा चक्कियों में पहुंचने की बजाय डिस्टलरीज और ‘इथनॉल’ उत्पादन करने वाले प्लांट्स की भट्ठियों में पहुंचेगा। धीरे-धीरे ही सही पर स्थितियां जिस तरह बदल रही हैं वह हैरान कर देने वाली हैं।
अन्न पर टिका शराब उद्योग
पिछले वर्षों में महाराष्टÑ में जब ग्रेन(अन्न) से लिकॅर बनाने वाली डिस्टलरियों के लायसेंस रेवड़ी की तरह बांटे गए तो बड़ा हंगामा हुआ था। अखबारों की सुर्खियां बनी खबरें समय के साथ हाशिए पर आ गर्इं पर अकेले महाराष्टÑ में पचास से ज्यादा डिस्टलरीज हैं जो अन्न(गेंहू, जौ, मक्का आदि) के फर्मन्टेशन से शराब बना रही हैं। अपने देश की स्थितियों पर ही विचार करें, तो एसोचैम के अनुसार भारत में शराब की खपत 30 प्रतिशत सालाना के हिसाब से बढ़ रही है। शराब की मौजूदा खपत 67,00 मिलियन लीटर, 2015 तक बढ़कर 19 हजार मिलियन लीटर प्रतिवर्ष हो जायेगी। आने वाले चार वर्षों के भीतर शराब के कारोबार का आकार लगभग दूना 1.4 लाख करोड़ का हो जायेगा। शराब उद्योग के लिए अन्न सबसे सहज और सुलभ कच्चा माल है। जाहिर है शराब की खपत के साथ अन्न उत्पादन का बड़ा हिस्सा शराब की भट्ठियों में सड़ने के लिए जायेगा। फर्ज करिए पन्द्रह रुपये किलो गेंहू के फर्मन्टेशन से यदि डेढ़ सौ रुपये की शराब बनती है तो मुनाफे का धंधा रोटी होगी कि शराब।
अन्न से ही इथनॉल
इथनॉल को वैज्ञानिकों ने पेट्रोल के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया है। कई यूरोपीय देशों में इथनॉल का उपयोग भी शुरू हो गया है। इथनॉल इथाइल एल्कोहल का शोधित रूप है। इथाइल एल्कोहल का सबसे बड़ा स्त्रोत ग्रेन है। इसके फर्मन्टेशन से यीस्ट (खमीर), प्राकृतिक शर्करा को एल्कोहल में बदल देते हैं, यही एल्कोहल इथनॉल के रूप में पेट्रोल का विकल्प बनता है और वाहनों में इसका उपयोग शुरू हो चुका है। खाड़ी देशों की अस्थिरता और प्राकृतिक पेट्रोलियम के सूखते स्त्रोतों ने वैज्ञानिकों को वैकल्पिक र्इंधन की खोज के लिए मजबूर किया है। यूरोपियन यूनियन और अमरीका की सबसे बड़ी चिंता यही है कि खुदा न खास्ता पेट्रोलियम देश जो ज्यादातर अरब व अफ्रीका के मुस्लिम बहुल व शासित हैं, एक हो जायें तो क्या स्थिति बनेगी। इसी स्थित से निपटने के लिए खाद्य प्रबंधन की नई रणनीति को गुप-चुप तरीके से अंजाम दिया जा रहा है। शाकाहार के बदले मांसाहार का विकल्प प्रस्तुत किया जा रहा है। दुर्भाग्य से आधुनिकता की चकाचौंध में अपना देश भी इस दुश्चक्र में फंसता और धंसता जा रहा है।
खतरे को ऐसे समझें
अपने देश में खान-पान की बदलती प्रवृत्तियों की सर्वे रिपोर्ट और आंकड़े जहां यूरोपीय समुदाय को खुश करने वाले हैं वहीं हमे हैरान व व्यथित करते हैं। यूएन फूड एण्ड एग्रीकल्चर आर्गनाईजेशन (एफएओ) के अनुसार भारत में मीट की खपत 5.0 से 5.5 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है। इसकी ग्रोथ रेट 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। एफएओ की रिपोर्ट कहती है कि भारतीय अपनी पारंपरिक खान-पान की आदतों को बदलते हुए मांसाहार की ओर तेजी से उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे में यहां नए रेस्टोरेंट श्रृंखलाओं को कारोबार जमाने के लिए अकूत संभावनाएं हैं। 2015 तक भारतीय खाद्य बाजार का कारोबार 300 बिलियन यूएस डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। महानगरों में यूरो-अमेरिकी रेस्त्राओं की श्रृंखला तेजी से बढ़ी है। केएफसी(कन्टुकी फ्रायड चिकेन), मैकडोनाल्ड और इटैलियन पिज्जा हट का कारोबार प्रति वर्ष दुगुना होता जा रहा है। राजधानी नई दिल्ली की स्थिति तो यह है कि किसी स्तरीय रेस्टोरेंट में वेजेटेरियन थाली नॉनवेज थाली से डेढ़ गुना महंगी है। आप अपने शहर के कॉफी हाउस को भी मिशाल के तौर पर लें तो यहां एग करी  45 रुपये में उपलब्ध है जबकि एक प्लेट दाल 65 से 75 रुपये के बीच। क्या यह आंकड़ा आपको हैरान करने वाला नहीं कि अपने देश में 2006 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अन्न की उपलब्धता 445.3 ग्राम थी जो 2011 में घटकर 436 ग्राम हो गई है। हाल ही में संपन्न हुई देहली सस्टेनेवल डवलपमेंट सम्मिट में ये आंकड़े पेश किए गए हैं। यानी कि कुल मिलाकर प्रति व्यक्ति मांस की खपत बढ़ रही है और अन्न की घट रही है। जाहिर है कि यह घट-बढ़ और तेज होगी। क्योंकि अन्न रोटी से ज्यादा शराब और पेट्रोल के लिए काम आने वाला जिन्स है।
एफडीआई का खतरनाक खेल
एफडीआई(फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) का बिल संसद के पिछले सत्र में भले ही गिर गया हो पर जैसा कि मनमोहन सिंह और प्रकारांतर में राहुल गांधी ने संकल्प दोहराया है कि वे देश में एफडीआई लाकर ही मानेंगे, तो तय समझिए चाहे यूपीए सरकार रहे या एनडीए आए, देश में एफडीआई को आज नहीं पांच साल बाद सही, हरी झण्डी मिलनी ही मिलनी है। अमेरिका व यूरोपियन यूनियन का इस हेतु भारी दबाव है। एफडीआई के साथ ही वॉलमार्ट जैसी जाइंट   बहुराष्टÑीय कंपनियां खुदरा बाजार में आ जायेंगी। ये कारपोरेट फार्मिंग भी करेगी और किसानों की उपज भी खरीद लेंगी। इस खुले खेल में जल्दी ही वालमार्ट व इसी तरह की अन्य कई बहुराष्टÑीय कंपनियों का भारतीय खाद्य बाजार में कब्जा हो जायेगा। किसानों के अन्न का बड़ा हिस्सा ये खरीदेंगी। अभी भी देश में पहले से ही पांव जमाए आईटीसी और यूनीलीवर जैसी बहुराष्टÑीय कंपनियां ई-चौपाल के जरिए किसानों की उपज खरीद रही हैं। कई इलाकों में तो फसल बोने के साथ ही बिक जाती हैं। तब होगा यह कि आने वाले दिनों में अन्न का बड़ा हिस्सा यूरो-अमेरिकी बहुराष्टÑीय कंपनियों के गोदाम में जाएगा। जाहिर है ये कंपनियां गेहूं को आटा मिल में तो नहीं ही भेजेंगी। अपितु 15 रुपये किलो के गेहूं से डेढ़ सौ रुपये की शराब या इथनॉल बनाने के लिए उपयोग में लाएंगी।
खौलते पानी में मेंढक
बदलाव हमारी व्यवस्था में हो, प्रवृत्तियों में या सभ्यता-संस्कृति में आहिस्ते-आहिस्ते होता है। हम जब तक समझ पाते हैं देर हो चुकी होती है, सब कुछ गवां चुके  होते हैं। स्कूल के दिनों में एक दिलचस्प वैज्ञानिक प्रयोग के बारे में सुना था। ‘खौलते हुए पानी में मेंढक को डालेंगे तो वह उछल कर बाहर आ जायेगा, किन्तु तैरते हुए मेंढक के साथ ठण्डे पानी को मंद आंच में रखेंगे, तो मेढक उछल कर बाहर नहीं आयेगा, अपितु क्रमश: बढ़ते हुए ताममान में वह खुद पक जायेगा’ किसी भी बदलाव को इस प्रयोग की नजीर के साथ समझा जा सकता है। हिन्दुस्तान ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। नई विश्व व्यवस्था इसी अंदाज में आगे बढ़ रही है।

Wednesday, February 1, 2012

अगले जनम मोहे बेटा न दीजो


      चिन्तामणि मिश्र
श हर के सवा सौ साल पुराने जगतदेव तालाब की सीढ़ी में अस्सी साल की विधवा फूली की गृहस्थी है। गृहस्थी के नाम पर एक कम्बल दो चार बर्तन, चीकट हो गई कई जगह से फटी दरी और दो-तीन टीन के डिब्बे हैं। फूली शहर के पुराने बाजार में भीख मांगती है। पहले दिन भर भीख के लिए बाजार में भटकती थी, किन्तु अब थकान और चलने-फिरने में कठिनाई होने के कारण दोपहर के बाद भीख मांगने जाती है। रात में खुले आसमान के नीचे तालाब की सीढ़ियों पर आधी कच्ची और आधी पक्की नींद लेने की रस्म अदा करती है। बीच-बीच में जब उसकी नींद खुल जाती है तो भगवान को याद करती रहती है। फूली जो प्रार्थना भगवान से करती है वह बड़ी विचित्र है। लोग भगवान से धन दौलत अच्छी सेहत आदि देने की याचना करते हैं, किन्तु फूली भगवान से मांगती है कि मुझे अगले जनम में बेटा न दीजो। फूली और उसकी विचित्र याचना की जानकारी मुझे अनायास पिछली गर्मी में हुई। फूली मेरे घर के पास के बाजार में भीख मांगने आती थी और थक कर मेरे घर के बाहर बने चबूतरे पर बैठ जाती थी। उस दिन ऐसे ही समय फूली से मेरी बातचीत शुरू हुई। पहले तो उसने अपने बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया। लेकिन धीरे-धीरे उसने अपने बारे में बताया कि उसके दो बेटे हैं। उनका अपना परिवार है। दोनों चूना भट्टा में काम करते हैं, लेकिन रोटी का एक टुकड़ा भी मां को नहीं देते थे। फूली के पति के नाम गांव में एक कच्चा मकान था, जो उसके निधन के बाद दोनों बेटों के नाम हो गया। दोनों बेटों ने फूली के विरोध के बाद भी वह मकान बेच दिया और अपने बीबी बच्चों के साथ सूरत चले गए। मैं निराश्रित हो गई। रोज-रोज गांव में भीख मिलना कठिन था और अपने ही गांव में भीख के लिए हाथ पसारने में संकोच और शर्म भी लगती थी तो मैंने गांव छोड़ दिया। मेरे बार-बार आग्रह करने पर भी फूली ने अपने गांव का नाम-पता नहीं बताया।
       फूली से इतनी बातें टुकड़े-टुकड़े में हुई किन्तु हर बार बातचीत के बीच वह दोनों हाथ उठा कर भगवान से केवल यही प्रार्थना करती रही कि अगले जनम भगवान मुझे बेटा न दीजो। मुझे चाहो तो बांझ बना देना किन्तु बेटों की मां न बनाना। फूली के दर्द को कोई आवाज देने वाला नहीं है। मैं जानता हंू कि रिश्वत का प्रबंध करके फूली को सरकार से निराश्रित पेन्शन दिलाई जा सकती है। उसे नगर निगम के खैराती ओल्ड होम में रखवाया जा सकता है। लेकिन इस तरह के प्रबन्ध फूली के दर्द उसको दी गई मानसिक चोटों का प्रतिकार नहीं कर सकते। यह गाथा अकेली फूली की नहीं है। हमारे आसपास हर बस्ती में इससे भी ज्यादा करुण और दारुण कहानियां देखने तथा सुनने को मिल जाती हैं। बूढ़ी माताएं, बूढ़े बाप, बेटों-बहुआें के जुल्म से कराह रहे हैं। भरा-पूरा परिवार है। वैभव घर-गृहस्थी में नाच रहा है, किन्तु बूढ़े कबाड़ की तरह फालतू बना दिए गए हैं - कोई न बोले, कोई न बैठे, कोई न पूछे हाल। अपने  ही घर  में हो  गए हम फिजूल का माल ॥
आज अब इन बूढों ने कभी सोचा नहीं था कि उनके यहां ऐसे धुंधकारी पैदा होंगे। अब अनेकों फूलियों को कड़वा अनुभव हो रहा है कि उनकी कोख से आईएएस, आईपीएस प्रोफेसर डाक्टर इंजीनियर विधायक सांसद पैदा हो रहे हैं, किन्तु अब श्रवण कुमार पैदा नहीं होते। अब कोई अपने मां-बाप को पुत्र का सुख नहीं देता। पुत्र का सुख देने के लिए नौकर रख दिये जाते हैं। अब घर ओल्ड ऐज होम होते जा रहे हैं। धन को सबसे ऊंचे सिहांसन पर बैठा दिया गया है। धन को अधिक से अधिक बटोरने की लालसा में आदमी प्रेत हो गया है। नाते रिश्ते मनुष्यता परदुखकातरता खोखले अर्थहीन शब्द बन कर रह गए हैं। धन अपने साथ दम्भ और अंहकार लेकर आता है। आज के दौर में आदमी और समाज, धर्म, राजनीति, विज्ञान सब कुछ बाजार द्वारा नियंत्रित हो रहा है। बाजार व्यवस्था में बूढ़ों को बुहार कर हाशिए में फेंक दिया जाता है।
    आधुनिक सभ्यता की धुरी बाजारवाद पर टिकी है और बाजावाद भोगवाद को बढ़ावा देता है। भोगवाद हमेशा स्वार्थ की पालकी पर चलता है। जगतदेव तालाब की सीढ़ी पर जी रही फूली इसी बाजारवाद की शिकार है। संयुक्त परिवार की प्रथा टूटने से बूढ़ों की समस्या और भी जटिल हो गई है। अब लोगों के धर बड़े लेकिन दिल छोटे हो गए। घरों में कुत्तों की फिक्र और उनकी सेवा पवित्र कर्म समझ कर की जाती है, लेकिन बूढ़े मां-बाप को कुत्तों से भी बदतर व्यवहार मिल रहा है। घर के ड्रार्इंग रूम में बूढ़ों का प्रवेश निषेध रहता है। सोफे कफन की तरह सफेद चादर से ढ़क दिये जाते हैं। इन पर बूढ़ों को बैठने की इजाजत नहीं होती। वॉशबेसिन भी बूढ़ों की अलग कर दी जाती है अगर साहब और मेम साहब की वॉशबेसिन का धोखे से इस्तेमाल कर लिया तो नौकर टोक देते हंै। बूढ़ों को घर में आये मेहमानों के सामने आना मना रहता है। मौसम की सबसे सस्ती सब्जी, सूखी रोटी, मोटा चावल, दाल के चन्द दानों में हल्के नमक, हल्दी वाला गर्म पानी, नौकर के हाथ दिन में दो बार भोजन के नाम पर परोस दिया जाता है। बूढ़ों के पास आकर कोई नहीं बैठता। कोई बातचीत नहीं करता । स्नेह दुलार को तरस जाते हैं बूढ़े।  हालचाल पूछे न कोई  सब अपने में   मस्त । जैसे एकाकी  होता है  सूरज रात ही अस्त॥
बच्चे कम्प्यूटर दादा, टीवी दादी, अंकल चिप्स और मोबाइल आंटी के सत्संग में मस्त रहते हैं। बेटे कुबेर बनने और बहुए उर्वशी को पछाड़ने में जुटी हैं। अब देश में बुढ़ापा किस्तों में मर रहा है। बेटे बहुएं, पोते, पोतियां कहा जा रहे हैं, कब लौटेंगे बूढेÞ मां-बाप को पता ही नहीं। बूढ़े मां-बाप तो तीन टांग की कुर्सी की तरह एक कोने में डाल दिए गए हैं। प्यार से बात करना भूला दिया गया है। बूढ़े मां-बाप को अब घरों रूपी गमलों में बोन्साई की तरह रोपा जा रहा है। जबरन बुढ़ापे को एकांतवास की सजा दी जा रही है।
            नए जमाने की आहट का मिलने लगा आभास ।
                 दशरथ और कौशिल्या  अब भोग रहे बनवास ॥
आज हम मनुष्य विरोधी दौर में जी रहे हैं। मानवीय प्रसंग स्वार्थ से जुड़ गए हैं। पारिवारिक विघटन और सामाजिक पतन ने आत्मीय सम्बंधों का अंतिम संस्कार  करने के लिए आदमियत की अर्थी कंधों पर उठा रखी है। पराई व्यथा की अनुभूति बांझ हो गई है। भरा-पूरा परिवार होने पर भी बूढ़े मां-बाप को तनहाई और उपेक्षा के नाग बार-बार डस रहे हैं। इन बूढ़ों का जीना भी कोई जीना है। बीमार होने पर बूढ़ों को अस्पताल में पटक दिया जाता है जहां उनके अपने नहीं होते। मरते समय अपने आसपास अपने नहीं होता उसे जो अंतिम यात्रा के लिए विदा करें। वहां होते हैं अनजाने, अनचीन्हें नर्स और डाक्टरों के पथरीले चेहरे।
              बन्द किये अपनों ने जब खिड़की और किबार।
                 सन्नाटा कटता नहीं और मन रहता बीमार ॥
                                     - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                            सम्पर्क - 09425174450.