चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
प्रकृति, मनुष्य की सहचरी है मनुष्य में उतना साहस नहीं कि प्रकृति की अवहेलना करे, और जब कभी ऐसा दुस्साहस उसने किया है, प्रकृति का दण्ड उसे झेलना पड़ा है। प्रकृति ही उसे संचरित और संतुलित करती है। वर्षा, सर्दी और ग्रीष्म उसे प्रेरित करते हैं, सक्रिय करते हंै, या यूं कहें मनुष्य सम्पूर्णत: प्रकृति का अनुचर है, वह उसकी अनदेखी नहीं कर सकता, वह उस पर न सिर्फ प्रभाव डालती है, नियंत्रण में भी रखती है। प्रकृति और पुरुष का सामंजस्य जब भी बिगड़ा है, अनिष्ट हुए हैं। मनुष्य ने प्रकृति से डरकर ही उसकी प्रशंसा में ऋचाएं लिखीं, अभ्यर्थना की, क्योंकि उसका नग्न नर्तन उसने अग्नि और आंधी-वर्षा के रूप में देखा था। प्रकृति स्वभावत: कोमल और पुरुष, परुष होता है। उसकी पुरुषता ने जब भी कोमलता का ध्वंश किया, वह आक्रामक हुई और दण्डित किया। मनुष्य ने प्रकृति का इतना दोहन कर लिया है कि उसका संतुलन बिगड़ गया है, इतना विकृत किया कि उसकी मजबूत परतों में भी छेद हो गया। कभी ठीक समय पर वर्षा होती थी, सर्दी पड़ती थी, गर्मी होती थी, अब सब कुछ गड्डमड्ड है। हमने उसके प्रत्येक अंग को चोट पहुंचाई है परंतु उससे ठीक समय पर आने की अपेक्षा की है।
वसंत पंचमी को बीते बीसेक दिन हो गए, परंतु न तो पशुओं की ठंड गई न पक्षियों की। पूस की जाड़ और माघ की ठार, फागुन के कृष्ण पक्ष तक कमोवेश कायम है। वसन्त सिर्फ सरसों और अलसी के खेतों में दिखता है। मसूर के पौधे जरूर पीले पड़ रहे हैं परंतु चना केदार बाबू की कविता के साथ ‘एक बीते बराबर/यह हरा ठिगना चना/ बांधे मुरैहा शीश पर छोटे गुलाबी फल का/’आज भी सजकर खड़ा है। सच तो यह है कि ऋतुएं आती गांवों में हैं, दिखती हैं, परंतु उन्हें महसूस शहरी करते हैं। मौसम का बदलाव वे महसूस करते हैं, देख वही पाते। यह सौभाग्य सिर्फ गांव को मिलता है, जिससे उसका भविष्य जुड़ा है, और कहने को देश के वित्तमंत्री का कागजी किसान हित में पेश किया बजट भी है, विवादी स्वर या संवादी, यह संसद बेहतर जानती है या उसके प्रतिनिधि?
फागुन आ गया, दिन बड़े होने लगे, सूरज का ताप घमछंहिया में बहुत सुहावना लगता है, हवा में सिहरन है, परंतु फगुनहट नहीं बह रही है। देह के कपड़े कम जरूर हुए हैं परंतु उतरे नहीं, यह देखकर पेड़ों ने भी अपने को पत्तों से ढक रखा है, हां पीताभ-जीर्णता अवश्य दिखने लगी है। शीत से सिकुड़ा मानव अंगड़ाई लेने लगा है, खिले फूलों को देखकर उसकी सुसुप्त कामनाएं जागने लगी हैं। आम में कहीं-कहीं बौंरें बसंत पंचमी को देखने को मिली थी, लेकिन उनको मुंह में लेकर स्वाद की पारम्परिक कल्पना अधूरी रह गई। वसन्त को ऋतुराज कहते हैं और राजा की पहली अधिकारिक सूचना आम्र की बौरें ही देती हैं। गेंदा, गुलाब गांवों और शहरों में खिले हंै, सुनकर दिल्ली के मुगल गार्डेन के फूल भी गार्डेन-गार्डेन (बाग-बाग) हो उठे। शहरों के फूल अधिकतर दर्शनीय और कलात्मक भले होते हों, सुगंधित फूलों की संख्या कम होती है, शायद शहरियों के स्वभाव का ही साम्य ये पुष्प भी करते हंै क्योंकि उनके जीवन में भी चमक-दमक की अधिकता और सुगंधि की न्यूनता होती है। उनकी बगिया में क्रमोन्नति और मंहगाई भत्ते रूपी पुष्प हर छठें महीने खिलते रहते हैं और जब-जब ये फूल खिलते हैं, गांव का किसान मजदूर, दुकान के सामने खड़ा होकर अपनी बनाई सरकार और अपने कर्मचारियों के भाग्य पर रश्क करता है। फूल, शूल बन जाते हंै। गांवों में भटकटैया का एक पौधा होता है, जो स्वयंभू है, मनुष्य उसके कांटे से डरकर काटता है और हमारे एक शहरी मित्र को इस बात का गर्व है कि उनकी छत और बरामदे में एक सौ दस किस्म के कैक्टस हैं। गंधहीन, लेकिन सुन्दर नागफनी। जिन्दगी का अजीब फलसफा है। ऐसे लोगों के आगे सौंदर्य के तर्क बेमानी हैं।
ऋतुराज वसन्त की सेना में पुष्पों की संख्या अधिक है। वर्षा और सर्दी की जकड़न से सारी प्रकृति उन्मुक्त और उन्मत्त हो उठी है । यह रीतिकालीन कल्पना नहीं प्राकृतिक यथार्थ है। आम्र मंजरी (बौर) ईश्वर का वरदान है। जिस वर्ष आम नहीं फूलता-फलता, आम आदमी की ग्रीष्म ऋतु निरर्थक हो जाती है। सेमल के पत्ते झड़ गए, महुआ भी कपड़े बदलने की तैयारी में हैं, पलाश जरूर उदास है अपने अतीत को सोचकर। वसन्त के देव काम हैं। नव पल्लव और पुष्प उनके परिधान हैं तो अस्त्र-शस्त्र भी। महादेव शिव समाधिस्थ हैं। देवताओं का कार्य-व्यापार ठप है। सीधे-साधे सुन्दर कामदेव को समाधि भंग करने के लिए पे्ररित करते हंै। सारे देवता सती प्रसंग में शिव के प्रलयंकर रूप से परिचित हैं। वसंत तप भंग करने की ऋतु है। कामदेव भी जानते हैं परंतु बलि का बकरा बनने को तैयार हो गए। वसंत ऋतु थी, अपने पुष्प तुणीर से पांच पुष्प खींचे, अशोक, अरविन्द, आम, नीलोत्पल और मल्लिका को देखा। मादक और अन्य धारदार पुष्प भी थे, परंतु उन्हें नहीं लिया । पंचपुष्पों का बाण, धनुष पर चढ़ाया और पलाश वृक्ष के ओट में खड़े होकर शिव के हृदय पर छोड़ दिया। समाधि भंग हुई। शिव ने मनोज (काम) को अपनी सफलता पर गर्वित होते देखा, उन्होंने नेत्र खोला। काम क्षार हो गया। पलाश का हरा पेड़ जलने लगा। उसने विनती की- ‘प्रभु! मेरी गलती बताएं!’ शिव आशुतोष हो गए उन्होंने कहा - ‘जा! तुम्हारी ये लाल लपटें लाल फूल बनेंगी।’ पलाश ने कहा- ‘मैं अशिव रूप हूं, नग्न हूं’, शिव ने कहा-‘तुम्हारे शरीर पर तीन पत्ते होंगे, जिन पर हम त्रिदेव वास करेंगे।
कालिदास और संस्कृत के अन्य कवियों के काव्यों में वसंत ऋतु के आगमन पर मदनोत्सव का उल्लासमय वर्णन है। अंगरागों से सुवासित शरीर नखशिख तक आह्लादित करता है। काम देवता था, अनंग होकर प्रत्येक जीव को बांधने लगा। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ का जीवन दर्शन आदर्श एवं सार्वजनीन है। काम, वेद शास्त्र एवं लोक सम्मत दर्शन है, देव है, आज वह स्वैराचार है, पहले वह ऋतुकाल और अपेक्षा पर आधारित और वैज्ञानिक था, आज उसका विकृत रूप समाज के सामने है। राक्षस की तरह उसके अनेक रूप हैं। वसंत पेड़ों से धरती पर उतरा है। गेहूं और जौ की बालियों वाले खेतों पर उतरी वासन्ती बयार भौचक निहार रही है, चने की घेंटियों से बतियाती,सरसों के फूलों का परिधान पहने, अलसी के फूलों जैसी नीली आंखें बिछाए ऋतुराज वसंत के आगमन की बाट जोह रही है। सिर्फ वसंत भर नहीं, मनुष्य ने प्रत्येक ऋतुओं को असंतुष्ट कर दिया है उनके आधान को विकृत कर दिया है। कोयल पहले जैसा नहीं गाती, भवरों में वह गुंजार नहीं है, तितली में वे रंग नहीं रहे। अब समय पर वसंत भी नहीं आता, और हम हैं कि उसके चारण-गीत गाते नहीं अघाते। केदारनाथ अग्रवाल ने कभी कहा था कांग्रेस के राज में आयो नहीं वसंत। ‘अपन कंटीली डार के गावत हैं गुणवंत।’ लगता है उसे भी घोटालों की खबर लग गई है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
सम्पर्क - 09407041430.
No comments:
Post a Comment