चिन्तामणि मिंश्र
बाबा साहेब अम्बेडकर आजादी के आन्दोलन में जितना सक्रिय रहे, उससे कहीं ज्यादा दलित आन्दोलन में उनका योगदान है। बाबा साहेब उच्च कोटि के विद्वान तो थे ही वे राजनीतिक समझ और धार्मिक विवेक रखते थे। वे जीवन भर जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे। भारतीय इतिहास में उनका उल्लेख कई प्रकार से कई स्थान पर किया जाता है। समाज सुधारक,संविधान निर्माता,साहित्यकार, बौद्ध दार्शनिक और विधि विशेषज्ञ के रूप में उनका स्थान शिखर पर है। हकीकत तो यह है कि भारत में दलितों को आज जो कुछ प्राप्त हुआ है उसका पूरा और इकलौता श्रेय बाबा साहेब की राजनैतिक लड़ाई और उनके चिन्तन को है। उन्होंने इस सोच को बदला कि दलितों की दशा और दिशा बदलने के लिए घिघिआने तथा देवी-देवताओं का नाम लेकर गुहार लगाने से कुछ नहीं होने वाला है जैसा कि भक्तिकाल में सन्त-महात्मा करते रहे है। उनकी सोच थी कि राजनीति से परहेज रख कर लोकतंत्र में सत्ता पर काबिज नहीं हुआ जा सकता और दलित तथा अन्य वर्ग की समस्याओं का समाधान सत्ता से ही निकलता है।
भारत के दलितों को अम्बेडकर के रूप में सच्चा हितैषी तथा क्रांतिकारी नेता मिला था, जिसने स्वाधीनता संग्राम के दौरान आजादी के मायने ही बदल दिए। उन्होंने स्वराज का विरोध नहीं किया बल्कि कहा कि उनके लिए स्वराज उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि स्वराज किन हाथों में होना चाहिए। बाबा साहेब मानते थे कि स्वराज की स्थापना समाजवादी रास्ते से ही हो सकती है। आजाद भारत में समाजवादी व्यवस्था होनी चाहिए। बाबा साहेब ने अपने चिन्तन को अमलीजामा पहनाने के लिए इंडिपेडेंट लेबर पार्टी बनाई थी। पहले आम चुनाव के समय उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी और शेतगार कामगार पार्टी के साथ मिल कर चुनाव भी लड़ा था। वे समकालीन समाजवादियों का साझा मोर्चा बनाना चाहते थे। उनका डा. लोहिया से मिल कर पार्टी बनाने का इरादा था, किन्तु उनके असमय निधन के कारण इरादा पूरा नहीं हो सका। वे मानते थे कि दलित, पिछड़े वर्ग की समस्याओं का समाधान और जाति व्यवस्था का खात्मा तभी होगा जब समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों के साथ मिलकर काम किया जायेगा। दलित अकेले कभी यह बदलाव नहीं ला सकते
बाबा साहेब के जीवन में धर्म अनुपस्थिति नहीं था। वे धार्मिक व्यक्ति थे। उनका पूरा परिवार कबीारपंथी था। वे हिन्दूधर्म के ब्राम्हणवाद और हिन्दू धर्म की कठोर जातिवादी मानसिकता का विरोध करते रहे। जब उन्हें यह एहसास हो गया कि दलितों और अछूत जातियों की दशा हिन्दू बने रहकर और हिन्दू समाज में बदल सकना असम्भव है तो उन्होंने अपने अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है। धर्म परिर्वतन के कुछ ही माह बाद उनका निधन हो गया और उनकी नव-बौद्धों को लेकर जो योजना थी वह सामने नहीं आ सकी ।
विडम्बना तो यह रही कि अम्बेडकरवादी नव-बौद्धों ने बौद्धधर्म को भी कर्मकांड के रूप में ही अपनाया। बाबा साहेब को फोटो फे्रम में प्रतिष्ठा करके भगवान घोषित कर डाला। अन्य धार्मिक पंथों की तरह बुद्ध और बाबा साहेब भी भक्तिभाव से के वल पूजित रह गए। नव-बौद्ध दलित वोट बैंक की जगह अब बौद्ध वोट बैंक हो गए। बाबा साहेब के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक विचारों को विकसित और स्थापित करने में रूचि ही नहीं रही। बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के अवसर पर अपने अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएं निर्धारित की थी, किन्तु नव-बौद्ध इन प्रतिज्ञाओं का पालन करने की जगह जातिवाद, छुआछूत और ऊंच-नीच की भावना में आकंठ डूबे हैं। वे हिन्दू धर्म की नकल कर रहे हैं। शादी-ब्याह के अवसर पर कलश स्थापना हिन्दूओं की ही तरह से होती है। फर्क इतना है कि कलश में आम के पत्तों की जगह पीपल के पत्ते होते हैं। हवन कुंड की जगह दीपक और लाल रक्षासूत्र कलावा की जगह सफेद रक्षा सूत्र ने ले ली है। गायत्री मंत्र की जगह नमोतस्य भगवतो का जाप होता है। अम्बेडकरवादी बौद्ध आज भी बेटी-बेटों की शादी में जाति को ही महत्व देते हैं। यह बाबा साहेब का अनुगमन नहीं है।
आज अम्बेडकर का जिस तरह से जिक्र होता है, उसमें उनका क्रांतिकारी तेवर गायब होता जा रहा है। उनको लेकर कई खेमे बन गए हैं। ऐसे लोग नव-उदारवाद और भूमंडलीकरण को दलित हित में मानते हैं। उन्हें लगता है कि अंगे्रज भारत में देर से आए और जल्दी चले गए। वे मानते हैं कि उपनिवेशवाद भारत के लिए वरदान था। मैकाले महान मुक्तिदाता था। ऐसे अम्बेडकरवादी चिंतक दलित की मुक्ति का माध्यम अस्मिता की लड़ाई को मानते हैं। समझने की बात यह है कि अस्मिता की लड़ाई तभी महत्वपूर्ण हो सकती है जब उसका उद्देश्य शोषण विहीन समाज की स्थापना हो। यह लड़ाई अस्मिता को आधार बना कर लड़ी जानी चाहए किन्तु सामाजिक मुक्ति तभी सम्भव है जब इसमें सर्म्पूण समाज की मुक्ति की कामना हो। दलित चेतना केवल दलित हित की बात न सोचे। इसे मानव मात्र की मुक्ति से जोड़ना होगा। ऐसा करने पर ही बाबा साहेब के विचारों के साथ समझ और न्याय होगा। बाबा साहेब के निधन के बाद दलित आन्दोलन आरक्षण के मुद्दे से जरा भी आगे नहीं बढ़ा। आरक्षण ने दलितों में नव-ब्राम्हण पैदा किए जिसमें सम्पन्न दलित नेता, ठेकेदार नौकरशाह, एनजीओ के कुबेर, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर,का मध्यवर्ग विकसित हुआ है। इनके सरोकार गैर दलित समुदाय के सरोकारों से जुड़ गए हैं। अब इनकी चिन्ताएं आम दलित जनता के प्रति नहीं, शोषक वर्ग के लिए होती हैं।
भारत के इतिहास में दो महापुरुषों की प्रतिज्ञा का जिक्र बहुत होता है। पहली ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ जिसने राजनीतिक और सामाजिक संतुलन में घटतौली की थी, दूसरी प्रतिज्ञा अम्बेडकर की ‘भीम प्रतिज्ञा’- कि हिन्दू होकर नहीं मरूंगा। इस प्रतिज्ञा के चलते बुद्ध की शरण में जाना कोई बदलाव नहीं ला सका क्योंकि हिन्दू धर्म से ही मिलता जुलता बौद्ध धर्म है। लेकिन इन तमाम बातों से परे एक बात हमेशा महत्वपूर्ण है कि बाबा साहेब हमारे समय के महानायक है। उनकी दलितों के लिए तेजाबी सोच, उनका संघर्ष, उनकी विद्वता और उनका चिंतन, वंदनीय है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 09425174450.
बाबा साहेब अम्बेडकर आजादी के आन्दोलन में जितना सक्रिय रहे, उससे कहीं ज्यादा दलित आन्दोलन में उनका योगदान है। बाबा साहेब उच्च कोटि के विद्वान तो थे ही वे राजनीतिक समझ और धार्मिक विवेक रखते थे। वे जीवन भर जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे। भारतीय इतिहास में उनका उल्लेख कई प्रकार से कई स्थान पर किया जाता है। समाज सुधारक,संविधान निर्माता,साहित्यकार, बौद्ध दार्शनिक और विधि विशेषज्ञ के रूप में उनका स्थान शिखर पर है। हकीकत तो यह है कि भारत में दलितों को आज जो कुछ प्राप्त हुआ है उसका पूरा और इकलौता श्रेय बाबा साहेब की राजनैतिक लड़ाई और उनके चिन्तन को है। उन्होंने इस सोच को बदला कि दलितों की दशा और दिशा बदलने के लिए घिघिआने तथा देवी-देवताओं का नाम लेकर गुहार लगाने से कुछ नहीं होने वाला है जैसा कि भक्तिकाल में सन्त-महात्मा करते रहे है। उनकी सोच थी कि राजनीति से परहेज रख कर लोकतंत्र में सत्ता पर काबिज नहीं हुआ जा सकता और दलित तथा अन्य वर्ग की समस्याओं का समाधान सत्ता से ही निकलता है।
भारत के दलितों को अम्बेडकर के रूप में सच्चा हितैषी तथा क्रांतिकारी नेता मिला था, जिसने स्वाधीनता संग्राम के दौरान आजादी के मायने ही बदल दिए। उन्होंने स्वराज का विरोध नहीं किया बल्कि कहा कि उनके लिए स्वराज उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि स्वराज किन हाथों में होना चाहिए। बाबा साहेब मानते थे कि स्वराज की स्थापना समाजवादी रास्ते से ही हो सकती है। आजाद भारत में समाजवादी व्यवस्था होनी चाहिए। बाबा साहेब ने अपने चिन्तन को अमलीजामा पहनाने के लिए इंडिपेडेंट लेबर पार्टी बनाई थी। पहले आम चुनाव के समय उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी और शेतगार कामगार पार्टी के साथ मिल कर चुनाव भी लड़ा था। वे समकालीन समाजवादियों का साझा मोर्चा बनाना चाहते थे। उनका डा. लोहिया से मिल कर पार्टी बनाने का इरादा था, किन्तु उनके असमय निधन के कारण इरादा पूरा नहीं हो सका। वे मानते थे कि दलित, पिछड़े वर्ग की समस्याओं का समाधान और जाति व्यवस्था का खात्मा तभी होगा जब समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों के साथ मिलकर काम किया जायेगा। दलित अकेले कभी यह बदलाव नहीं ला सकते
बाबा साहेब के जीवन में धर्म अनुपस्थिति नहीं था। वे धार्मिक व्यक्ति थे। उनका पूरा परिवार कबीारपंथी था। वे हिन्दूधर्म के ब्राम्हणवाद और हिन्दू धर्म की कठोर जातिवादी मानसिकता का विरोध करते रहे। जब उन्हें यह एहसास हो गया कि दलितों और अछूत जातियों की दशा हिन्दू बने रहकर और हिन्दू समाज में बदल सकना असम्भव है तो उन्होंने अपने अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है। धर्म परिर्वतन के कुछ ही माह बाद उनका निधन हो गया और उनकी नव-बौद्धों को लेकर जो योजना थी वह सामने नहीं आ सकी ।
विडम्बना तो यह रही कि अम्बेडकरवादी नव-बौद्धों ने बौद्धधर्म को भी कर्मकांड के रूप में ही अपनाया। बाबा साहेब को फोटो फे्रम में प्रतिष्ठा करके भगवान घोषित कर डाला। अन्य धार्मिक पंथों की तरह बुद्ध और बाबा साहेब भी भक्तिभाव से के वल पूजित रह गए। नव-बौद्ध दलित वोट बैंक की जगह अब बौद्ध वोट बैंक हो गए। बाबा साहेब के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक विचारों को विकसित और स्थापित करने में रूचि ही नहीं रही। बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के अवसर पर अपने अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएं निर्धारित की थी, किन्तु नव-बौद्ध इन प्रतिज्ञाओं का पालन करने की जगह जातिवाद, छुआछूत और ऊंच-नीच की भावना में आकंठ डूबे हैं। वे हिन्दू धर्म की नकल कर रहे हैं। शादी-ब्याह के अवसर पर कलश स्थापना हिन्दूओं की ही तरह से होती है। फर्क इतना है कि कलश में आम के पत्तों की जगह पीपल के पत्ते होते हैं। हवन कुंड की जगह दीपक और लाल रक्षासूत्र कलावा की जगह सफेद रक्षा सूत्र ने ले ली है। गायत्री मंत्र की जगह नमोतस्य भगवतो का जाप होता है। अम्बेडकरवादी बौद्ध आज भी बेटी-बेटों की शादी में जाति को ही महत्व देते हैं। यह बाबा साहेब का अनुगमन नहीं है।
आज अम्बेडकर का जिस तरह से जिक्र होता है, उसमें उनका क्रांतिकारी तेवर गायब होता जा रहा है। उनको लेकर कई खेमे बन गए हैं। ऐसे लोग नव-उदारवाद और भूमंडलीकरण को दलित हित में मानते हैं। उन्हें लगता है कि अंगे्रज भारत में देर से आए और जल्दी चले गए। वे मानते हैं कि उपनिवेशवाद भारत के लिए वरदान था। मैकाले महान मुक्तिदाता था। ऐसे अम्बेडकरवादी चिंतक दलित की मुक्ति का माध्यम अस्मिता की लड़ाई को मानते हैं। समझने की बात यह है कि अस्मिता की लड़ाई तभी महत्वपूर्ण हो सकती है जब उसका उद्देश्य शोषण विहीन समाज की स्थापना हो। यह लड़ाई अस्मिता को आधार बना कर लड़ी जानी चाहए किन्तु सामाजिक मुक्ति तभी सम्भव है जब इसमें सर्म्पूण समाज की मुक्ति की कामना हो। दलित चेतना केवल दलित हित की बात न सोचे। इसे मानव मात्र की मुक्ति से जोड़ना होगा। ऐसा करने पर ही बाबा साहेब के विचारों के साथ समझ और न्याय होगा। बाबा साहेब के निधन के बाद दलित आन्दोलन आरक्षण के मुद्दे से जरा भी आगे नहीं बढ़ा। आरक्षण ने दलितों में नव-ब्राम्हण पैदा किए जिसमें सम्पन्न दलित नेता, ठेकेदार नौकरशाह, एनजीओ के कुबेर, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर,का मध्यवर्ग विकसित हुआ है। इनके सरोकार गैर दलित समुदाय के सरोकारों से जुड़ गए हैं। अब इनकी चिन्ताएं आम दलित जनता के प्रति नहीं, शोषक वर्ग के लिए होती हैं।
भारत के इतिहास में दो महापुरुषों की प्रतिज्ञा का जिक्र बहुत होता है। पहली ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ जिसने राजनीतिक और सामाजिक संतुलन में घटतौली की थी, दूसरी प्रतिज्ञा अम्बेडकर की ‘भीम प्रतिज्ञा’- कि हिन्दू होकर नहीं मरूंगा। इस प्रतिज्ञा के चलते बुद्ध की शरण में जाना कोई बदलाव नहीं ला सका क्योंकि हिन्दू धर्म से ही मिलता जुलता बौद्ध धर्म है। लेकिन इन तमाम बातों से परे एक बात हमेशा महत्वपूर्ण है कि बाबा साहेब हमारे समय के महानायक है। उनकी दलितों के लिए तेजाबी सोच, उनका संघर्ष, उनकी विद्वता और उनका चिंतन, वंदनीय है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 09425174450.
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