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अपना भारत,त्यौहारों, व्रतों और उत्सवों का देश है। अन्य किसी भी देश में इतने उत्सव नहीं मनाए जाते। उत्सवधर्मिता मनुष्य के नित-नूतन जीवंतता का प्रमाण है। आनंद मनुष्य जीवन का सवरेत्तम भाव है। अधिकतर व्रत-उपवास स्त्रियों के ही भरोसे हैं, इन उपवासों में उन्हें कष्ट होता है, यदि वे इन व्रतों के प्रति एक दिन भी असमर्थता की उंगली उठा दें तो उत्सवों की धरती डगमगा जाएगी। लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगी क्योंकि भक्ति, आस्था और विश्वास की गठरी उन्हीं को पुरुषों ने देकर मुक्ति पा ली है। हर हफ्ते कोई न कोई व्रत करना उनकी नियति है और उस स्थिति में भी सुस्वाद और मधुर भोजन अन्यों के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी भी उन्हें ही उठानी है। फिर भी वह अर्धागिनी है, दूसरा अंग केवल भोजनार्थी है। भादौं के कृष्ण पक्ष की छठ, बलराम जयंती, हलछठ (हलषष्ठी) के रूप में मनाई जाती है। रेवांचल में भाई के लिए बहुला चौथ, पति के लिए हरतालिका (तीजा), पुत्र के लिए हलछठ के व्रत उपवास रखे जाते हैं। जिन बहनों के भाई हैं वे व्रत के दिन शाम को पूजा अर्चना के बाद फूला चना शुद्ध घी में तलकर सेंधा नमक डालकर उद्यापन करती हैं और जाै की रोटी खाती हैं। हरतालिका का व्रत निजर्ला और सबसे कठिन होता है। रात भर जागकर उत्तम पति पाने और पाये हुए को अगले जन्म में भी पाने की आशा का व्रत। पाये हुए से मुक्ति पाने का कोई भी व्रत नहीं- ˜अब तो सब शीश चढ़ाए लई,जो कछु मन भाइबे से कीजिए यूं ही एक मात्र आधार शहीदी अंदाज में यह सब वे करती हैं। कभी करवा, कभी तिलवा चौथ तो कभी संतान सप्तमी, हर पखवाड़े एकादशी-तेरस अलग से। संस्कृति की एकमात्र संरक्षक स्त्रियां हैं। वे हाथ उठा दें, संस्कृति भरभरा जाएगी। व्रतों के भी सामाजिक और पर्यावरणीय निहितार्थ हैं। हलषष्ठी के दिन, माताओं का पुत्र के दीर्घायु होने का व्रत, (पुत्री के लिए कोई व्रत नहीं) जोते हुए खेत में नहीं जाना, बोए हुए का फल नहीं खाना, पालतू पशुओं में सबसे निरादृत पड़वा (पाड़ा) के मां (भैंस) के दूध के दही से कांस-बेर-छिउला एवं पूजास्थल की लोकविधि से पूजा करने का विधान कबीर के हठयोग से भी कठिन है। भारतीय कृषि-संसार में सबसे उपेक्षित पड़वा को भी एक दिन ढूंढ़ा जाता है और उस पुत्रवती भैंस पर भी क्षण भर के लिए रश्क किया जाता है। मनुष्यों में भले ही पुत्रों से वंश परम्परा का चलन हो, पशुओं की वंश-परम्परा पुत्रियों से ही चलती है। बछिया और पड़िया ही गाय और भैंस की सल्तनत बढ़ाते हैं। गाय और भैंस का थोड़ा दूध क्रमश: बछिया और पड़िया के लिए छोड़ देते हैं, ताकि वे स्वस्थ रहें और दो तीन साल बाद किसान के काम आएं। पड़वा (पाड़ा) को तभी तक भैंस के थनों में लगे रहने देते हैं, जब तक दूध थनों में उतरता है, जैसे ही वह चूसने लगता है उसे अलग किसी खूंटे से बांध देते हैं। लोक में एक कहनूति है-किसी ने पाड़ा से पूछा-तुम्हारी मां का दूध कैसा है। उसने जवाब दिया-थाम्हा (जिसमें बंधा था) जैसा। कुसंग में पड़े मनुष्य जिसके उठने-बैठने के कुछ निश्चित अड्डे बन गए हों, उसके लिए लोकोक्ति है- भैंसा भैंसों में या कसाई के खूंटे में। मूर्ख व्यक्ति को भी निरा पड़वा कहकर संतुष्ट हुआ जाता है। भैंसों की लड़ाई प्रसिद्ध थी। कभी शिकारियों की मचान के पास भैंसा बांधकर शेर के शिकार की परम्परा थी। पशुओं में अलमस्त यह जीव यमराज का वाहन है। लोक में भैंसासुर देव की तरह पूजित है। चरवाहा युग (कृष्ण युग) में कृष्ण की बंशी ने सभी चर-अचर को स्तंभित किया, अनेक पशु-पक्षियों-जीवों के मुग्ध होने की बात मिलती है लेकिन कहीं भैंस के तल्लीनता की आहट काव्यों में नहीं मिलती। शायद इसीलिए कहावत बनी हो कि भैंस के आगे बीना बाजै ठाढ़ि भैंस पगुराय ऐसी वीतरागिता सिर्फ ज्ञानियों ध्यानियों में ही हो सकती है परंतु कृष्ण की वंशी पर तो ध्यानियों का ध्यान भी छूट गया था। भैंस ज्ञानी है, उस पर फर्क नहीं पड़ा। वैसे भी ज्ञानियों पर कब, किसी की बात का असर पड़ा हो, प्रमाण कहां मिलता है? हलछठ की अनेक लोककथाएं हैं। अपने अपने अंचल में अपनी तरह से कही जाती हैं। खेत जोतते किसान के हल के फाल से झुरमुट में छिपाकर रखे ग्वालिन के बच्चे की मृत्यु और उसे उन्हीं कांटों से मिलकर जिलाने के दिन से लोक में हलछठ के दिन गाय-बैल की जगह भैंस-पड़वा की स्थापना और जोते हुए खेत में न जाने की परम्परा का बीज पड़ा होगा। पाड़ा बड़ा होकर भैंसा कहलाया। भैंसा ताकत का प्रतीक है, भैंस की तुलना में अधिक सुंदर भी होता है। मनुष्य ने स्त्रियों की सुन्दरता के मानक भले ही गढ़े हों। पुरुष अधिक सुन्दर होता है। पशु पक्षियों और जानवरों में सिंहनी से सिंह, गौरेया से गौरबा, मादा बाज से नर बाज, मोरनी से मोर, गीदड़ी से गीदड़, गाय से बैल और भैंस से भैंसा अधिक सुन्दर होते हैं। निरीहों और अनाथों के नाथ सदैव भोलेनाथ शिव शंकर रहे। वे पशुपतिनाथ हैं, बैल की सवारी करते हैं, मूषक, मोर, सर्प से संयुक्त उनका परिवार, लेाक जीवन का सहचर है। महाभारत के युद्ध समाप्ति के बाद- शेष जो था रह गया कोई नहीं। एक वृद्धा एक अंधे के सिवा। युधिष्ठिर को आत्मग्लानि हुई। विज्ञ थे, लोकापवाद अपनों की हत्या का अलग से था। उनकी हर समस्या के समाधान द्वारिका चले गए। अपनी करनी का प्रायश्चित करने के लिए पाण्डवों को अकेले हस्तिनापुर छोड़ गए। पाण्डवों ने चिरशांति के लिए स्वर्गारोहण किया। आर्यावर्त के चक्रवर्ती राजा का अभिषेक करने कोई नहीं आया। श्रीराम ने सरयू में समाधि ली, कृष्ण हिरण्य नदी (प्रभाष) में समाधिस्थ हुए। पाण्डव हिमालय की कन्दराओं के बर्फीले इलाके में स्वर्ग जाने के लिए चले। हिमालय भगवान शिव का परिक्षेत्र था। उनसे मिलने की उत्कट चाह हृदय में संजोये पाण्डव शिव की तलाश में थे। शिव उनको दर्शन देना नहीं चाहते थे, वे लोक देवता थे, और पाण्डवों की लोक निन्दा कर रहा था। भैंसों का एक झुण्ड पाण्डवों को दिखाई पड़ा। पाण्डवों ने उन भैंसों का पीछा किया। शिव, भैंसों के उस झुण्ड में भैंसे के रूप में शामिल थे। भैंसा बड़ी सतर्कता से दाएं-बाएं देखता भाग रहा था। दूसरों की अपेक्षा बलशाली लग रहा था। महाबली भीम को उस पर संदेह हुआ, वे उसके पीछे दौड़े। जब तक भीम ने भैंसे की पीठ पकड़ी तब तक सींग सहित भैंसे का सिर और धड़ बर्फ की कंदरा में घुस चुका था। पृष्ठ भाग भीम ने पकड़ लिया, कहते हैं कि वही पृष्ठ भाग केदारनाथ कहलाया, जिसे द्वादश ज्योतिर्लिगों में एक माना जाता है। पीठ, लिंग कैसे कहलाया, यह आस्था का सवाल है। लेकिन यह क्या कम है कि एक अनादृत जीव भैंसा, शिव का संसर्ग पाकर तीर्थ बन गया। लोक का पाड़ा केदारनाथ बन पूजित हो गया। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09407041430. |
Friday, August 31, 2012
व्रतों-उत्सवों के कुछ निहितार्थ
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