चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
इस वर्ष, बिना आए ही सावन बीत गया। न पवन ने शोर किया न जियरा झूमा, न वन में मोर नाचा। सावन का अर्थ होता है प्रकृति का लहलहा उठना, नदी-तालाब का उफनाना। धारासार वर्षा से तृप्त आकाश की ओर निहार कर कृतज्ञता व्यक्त करना। लेकिन इस वर्ष की छुटपुट वर्षा ने सावन का दिल तोड़ दिया। मन-मयूर भीगकर नाच नहीं सका। संज्ञा रूप में तो आया, क्रिया बन कर नहीं। पक्षियों का आनंददायी कलरव नहीं सुनाई पड़ा। न झूले पड़े, न कजरी-हिन्दुली की तान सुनाई पड़ी। निराई करते गीत गाने की आलाप कब की बन्द हो चुकी है, इस साल धान ही नहीं बोई गई तो निराना क्या? कृषि निरावहिं चतुर किसाना की चौपाई व्यर्थ हो गई। हरियाली के इस महीने ने बहुत निराश किया। अपना देश ईश्वर की कृपा और इच्छा से चलता है। अच्छी वर्षा हो गई- ईश्वर की कृपा है, नहीं बरसा-प्रभु की इच्छा। सच तो यह भी है कि हमने प्रकृति (ईश्वर) का दोहन इतना कर लिया कि उसका संतुलन बिगड़ गया। ऋतुओं का समय पर आने न आने के कारक हमी हैं। सदय भाव से सेवा करने और अदय भाव से दण्ड देने का अधिकार उसके पास सदैव सुरक्षित हैं। मन कैसे मान ले कि सावन आया था। लेकिन लोकमानस तो मन में भी सावन मान लेता है, उल्लासित हो उठता है, भले ही भिगोने वाला सावन आए न आए जिआ जब झूमें, सावन है।
सावन, देवाधिदेव महादेव शिव का महीना है। प्रत्येक सोमवार, प्रत्येक तेरस, पूरा सावन मास, तीसरे साल पुरुषोत्तम मास (मलमास) क्यों? शायद इसलिए कि वे छल-छद्म से दूर भोलेनाथ हैं। गरीबों, अनाथों, अपाहिजों के अशरीरी देवता, मिट्टी से बनने वाले देवता। रुद्रपाठ से अभिषेक लोक की सबसे बड़ी पूजा है। किसी से कुछ न चाहने वाला, समुद्र के लिए जहर पीने वाला, पहाड़ पर बसने के बाद भी जमीन के लोगों की रक्षा करने वाले शिव को, लोक यदि अन्यों की तुलना में पूरा वर्ष ही दे दे, तो भी सम्पूर्ण कृतज्ञ न हो सकेगा। पूजा की सबसे कम सामग्री लेने वाला धतूर पुष्प, मदार, राख, कोई मंत्र नहीं, सिर्फ बम-बम पर ‘बम’ होना जिसका स्वभाव हो, ऐसे लोक देवता शिव का महीना है सावन। जब वर्षा नहीं होती तब शिवलिंग को पानी में डुबोने की परम्परा है। मान्यता है कि डूबने के लिए बनाई गई माटी की दीवार अक्सर टूट जाती है और जब शिवलिंग पानी में डूब जाते हैं तब वर्षा होती है। विष-पान की जलन को कम करने के लिए जल, दूध और मधु के अभिषेक की परम्परा है। शिव और शक्ति की एकमात्र ऐसे देवी-देवता हैं जिनकी पूजा-अराधना पूरे भारत में की जाती है। शिव के ज्योतिर्लिंग और सती के शक्तिपीठ सम्पूर्ण भारत में आस्था के प्रतीक के रूप में स्थापित हैं। शास्त्र और पुराणों के वे शिव हैं, रुद्र हैं, परंतु लोक में वे भूतनाथ और भोलेनाथ हैं। सती के शव को कंधे पर लटकाए, उनको जीवित मानते, विरल, प्रेमी शिव, सावन आते ही अपनी ससुराल कनखल (हरिद्वार) चले आते हैं। सती के आत्माद्वति देने के बाद कहते हैं कि दक्ष की पत्नी, सती की मां ने शिव से याचना की कि बेटियां सावन में मायके आती हंै, अब हमारा आंगन सती के बिना सूना रहेगा, मेरी इच्छा है कि आप सावन में एक माह ससुराल में रहें, कभी ससुराल में दामाद का सम्मान नहीं किया। मैं आंचल पसारकर भीख मांगती हूं शिव ने ‘एवमस्तु’ कहा। देश भर में कांवरिये विभिन्न ज्योर्तिलिंगों पर कांवर चढ़ाते हंै। जहां नदियां उत्तराभिमुख होती हैं वहां के जल को पवित्र मान गंगा के जल सा स्वीकार करते हुए जलाभिषेक करते हंै। सुल्तानगंज में गंगा उत्तरमुखी बहती हैं, गंगा का अपने उद्गम को निहारना, अन्य उत्तरमुखी बहती नदियों का भी मूल स्थान मान लिया जाता है। सुलतानगंज से एक सौ बीस किलोमीटर पैदल बिना जूता, चप्पल के कांवरियों का दल गंगा का जल लेकर देवघर (वैद्यनाथ) के शिवलिंग पर अर्पित कर सारी थकान मिटा लेता है।
सावन बहकने, सीमाओं के बांध तोड़ने, काम और रति के उद्दीपन, रोमांच-रोमांस, मुग्ध और मुग्धा के एक रस होने का महीना है, परंतु इसकी अति न हो जाए इसलिए संयम के देव, शिव की आराधना आवश्यक है। श्रम सीकरों को जब वर्षा की बूंदें अभिषिक्त करती हैं तब मल्हार कजरी और सावन के गीत अनायास गूंज उठते हैं, मन सावन हो पावन हो जाता है। ग्रीष्म की तपन से मुक्ति दिलाने वाला सावन जिस वर्ष नहीं आता, किसान के बारह महीनों में एक के न आने से शेष सिर्फ शून्य बचता है, विचित्र गणित है इस एक महीने का? मलमास का एक महीना भी शिव का महीना है। शिव के महीने में जल का अभाव होता नहीं, जिसकी जटाओं में जल का त्रिविध स्त्रोत हो, उस माह में जलाभाव? कुछ समझ में नहीं आता। श्रद्धा का अभाव तो नहीं? लेकिन वे तो अवश्यंभावी हैं, श्रद्धा-अश्रद्धा से तो कोई लेना-देना नहीं उनका। पहाड़ उनका घर है, बादल उनकी पर्वत श्रेणियों पर मिट जायेंगे बरबस बरसेंगे उनके दृष्टि-निक्षेप मात्र हो झर जाएंगे। जलाभिषेक के लिए जाते, भोलादानी को स्मरण करते-‘भोलन तोरे लम्बे देशवा हो। मोरे जात्री क निबल शरीर हो...।’ गाते हुए अपनी दशा का भी बखान करते थकते नहीं। शिव को जल और पार्वती को फुलेल इत्र चढ़ाने की प्रथा ‘त्वदीयं वस्तु तुभ्यमेव समर्पये’ की स्थिति से भिन्न नहीं, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। मात्र जल चढ़ाने से अनेक फलों को वह प्राप्त कर लेता है। भक्ति का यही अतार्किक भाव ही लोक जीवन का आधार है।
जाने किस प्रतिगामी परम्परा ने भगवान जगन्नाथ को सीमित दायरे में दर्शन और प्रसाद के निमित्त बांध जगतनाथ को सिर्फ हिन्दुओं का नाथ घोषित कर शब्द का अर्थ संकुचन कर दिया। परंतु शिव तो विश्वनाथ कहलाए। उनके यहां सबका प्रवेश है, श्मशान-राख तक स्वीकारते हैं, धतूर-बेल, निर्गन्ध फूल भी उनका स्पर्श या सुगंधित हो जाने की कल्पना समाज में है। उनका अशिव, दिगंबर रूप भी शिवत्व लिए है। तृप्ति और संतुष्टि के इस महीने में वह ललकार नहीं सुनाई पड़ी जिसकी व्याप्ति लोक में है। लगे हैं असाढ़, सावन चढ़ि आए ललकारि...की ललक अधूरी रही। गूंजती रही ‘बम भोलया’ कांवरिये शांति और भक्ति के प्रतीक रहे। अब भक्ति भी फैशन है, आक्रामक है, दिखावा है। भोलेनाथ के कांविरिये जब, हॉकी स्टिक, राड, त्रिशूल लेकर शिव की आराधना करेंगे तो रास्ते की शांति भंग होगी। आस्था प्रदर्शन की वस्तु नहीं, अपने में ही ईश्वर की अनूभूति है। सावन और शिव का तादातम्य परम्परा की विरासत है जिसे शाश्वत रखना लोक का काम है। जिसे वह संभाले बम भोलया गा रहा है। ‘दै टटिया निकरि चला हो, कौने माया म उलझे हैं प्रान हो...।’
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
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इस वर्ष, बिना आए ही सावन बीत गया। न पवन ने शोर किया न जियरा झूमा, न वन में मोर नाचा। सावन का अर्थ होता है प्रकृति का लहलहा उठना, नदी-तालाब का उफनाना। धारासार वर्षा से तृप्त आकाश की ओर निहार कर कृतज्ञता व्यक्त करना। लेकिन इस वर्ष की छुटपुट वर्षा ने सावन का दिल तोड़ दिया। मन-मयूर भीगकर नाच नहीं सका। संज्ञा रूप में तो आया, क्रिया बन कर नहीं। पक्षियों का आनंददायी कलरव नहीं सुनाई पड़ा। न झूले पड़े, न कजरी-हिन्दुली की तान सुनाई पड़ी। निराई करते गीत गाने की आलाप कब की बन्द हो चुकी है, इस साल धान ही नहीं बोई गई तो निराना क्या? कृषि निरावहिं चतुर किसाना की चौपाई व्यर्थ हो गई। हरियाली के इस महीने ने बहुत निराश किया। अपना देश ईश्वर की कृपा और इच्छा से चलता है। अच्छी वर्षा हो गई- ईश्वर की कृपा है, नहीं बरसा-प्रभु की इच्छा। सच तो यह भी है कि हमने प्रकृति (ईश्वर) का दोहन इतना कर लिया कि उसका संतुलन बिगड़ गया। ऋतुओं का समय पर आने न आने के कारक हमी हैं। सदय भाव से सेवा करने और अदय भाव से दण्ड देने का अधिकार उसके पास सदैव सुरक्षित हैं। मन कैसे मान ले कि सावन आया था। लेकिन लोकमानस तो मन में भी सावन मान लेता है, उल्लासित हो उठता है, भले ही भिगोने वाला सावन आए न आए जिआ जब झूमें, सावन है।
सावन, देवाधिदेव महादेव शिव का महीना है। प्रत्येक सोमवार, प्रत्येक तेरस, पूरा सावन मास, तीसरे साल पुरुषोत्तम मास (मलमास) क्यों? शायद इसलिए कि वे छल-छद्म से दूर भोलेनाथ हैं। गरीबों, अनाथों, अपाहिजों के अशरीरी देवता, मिट्टी से बनने वाले देवता। रुद्रपाठ से अभिषेक लोक की सबसे बड़ी पूजा है। किसी से कुछ न चाहने वाला, समुद्र के लिए जहर पीने वाला, पहाड़ पर बसने के बाद भी जमीन के लोगों की रक्षा करने वाले शिव को, लोक यदि अन्यों की तुलना में पूरा वर्ष ही दे दे, तो भी सम्पूर्ण कृतज्ञ न हो सकेगा। पूजा की सबसे कम सामग्री लेने वाला धतूर पुष्प, मदार, राख, कोई मंत्र नहीं, सिर्फ बम-बम पर ‘बम’ होना जिसका स्वभाव हो, ऐसे लोक देवता शिव का महीना है सावन। जब वर्षा नहीं होती तब शिवलिंग को पानी में डुबोने की परम्परा है। मान्यता है कि डूबने के लिए बनाई गई माटी की दीवार अक्सर टूट जाती है और जब शिवलिंग पानी में डूब जाते हैं तब वर्षा होती है। विष-पान की जलन को कम करने के लिए जल, दूध और मधु के अभिषेक की परम्परा है। शिव और शक्ति की एकमात्र ऐसे देवी-देवता हैं जिनकी पूजा-अराधना पूरे भारत में की जाती है। शिव के ज्योतिर्लिंग और सती के शक्तिपीठ सम्पूर्ण भारत में आस्था के प्रतीक के रूप में स्थापित हैं। शास्त्र और पुराणों के वे शिव हैं, रुद्र हैं, परंतु लोक में वे भूतनाथ और भोलेनाथ हैं। सती के शव को कंधे पर लटकाए, उनको जीवित मानते, विरल, प्रेमी शिव, सावन आते ही अपनी ससुराल कनखल (हरिद्वार) चले आते हैं। सती के आत्माद्वति देने के बाद कहते हैं कि दक्ष की पत्नी, सती की मां ने शिव से याचना की कि बेटियां सावन में मायके आती हंै, अब हमारा आंगन सती के बिना सूना रहेगा, मेरी इच्छा है कि आप सावन में एक माह ससुराल में रहें, कभी ससुराल में दामाद का सम्मान नहीं किया। मैं आंचल पसारकर भीख मांगती हूं शिव ने ‘एवमस्तु’ कहा। देश भर में कांवरिये विभिन्न ज्योर्तिलिंगों पर कांवर चढ़ाते हंै। जहां नदियां उत्तराभिमुख होती हैं वहां के जल को पवित्र मान गंगा के जल सा स्वीकार करते हुए जलाभिषेक करते हंै। सुल्तानगंज में गंगा उत्तरमुखी बहती हैं, गंगा का अपने उद्गम को निहारना, अन्य उत्तरमुखी बहती नदियों का भी मूल स्थान मान लिया जाता है। सुलतानगंज से एक सौ बीस किलोमीटर पैदल बिना जूता, चप्पल के कांवरियों का दल गंगा का जल लेकर देवघर (वैद्यनाथ) के शिवलिंग पर अर्पित कर सारी थकान मिटा लेता है।
सावन बहकने, सीमाओं के बांध तोड़ने, काम और रति के उद्दीपन, रोमांच-रोमांस, मुग्ध और मुग्धा के एक रस होने का महीना है, परंतु इसकी अति न हो जाए इसलिए संयम के देव, शिव की आराधना आवश्यक है। श्रम सीकरों को जब वर्षा की बूंदें अभिषिक्त करती हैं तब मल्हार कजरी और सावन के गीत अनायास गूंज उठते हैं, मन सावन हो पावन हो जाता है। ग्रीष्म की तपन से मुक्ति दिलाने वाला सावन जिस वर्ष नहीं आता, किसान के बारह महीनों में एक के न आने से शेष सिर्फ शून्य बचता है, विचित्र गणित है इस एक महीने का? मलमास का एक महीना भी शिव का महीना है। शिव के महीने में जल का अभाव होता नहीं, जिसकी जटाओं में जल का त्रिविध स्त्रोत हो, उस माह में जलाभाव? कुछ समझ में नहीं आता। श्रद्धा का अभाव तो नहीं? लेकिन वे तो अवश्यंभावी हैं, श्रद्धा-अश्रद्धा से तो कोई लेना-देना नहीं उनका। पहाड़ उनका घर है, बादल उनकी पर्वत श्रेणियों पर मिट जायेंगे बरबस बरसेंगे उनके दृष्टि-निक्षेप मात्र हो झर जाएंगे। जलाभिषेक के लिए जाते, भोलादानी को स्मरण करते-‘भोलन तोरे लम्बे देशवा हो। मोरे जात्री क निबल शरीर हो...।’ गाते हुए अपनी दशा का भी बखान करते थकते नहीं। शिव को जल और पार्वती को फुलेल इत्र चढ़ाने की प्रथा ‘त्वदीयं वस्तु तुभ्यमेव समर्पये’ की स्थिति से भिन्न नहीं, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। मात्र जल चढ़ाने से अनेक फलों को वह प्राप्त कर लेता है। भक्ति का यही अतार्किक भाव ही लोक जीवन का आधार है।
जाने किस प्रतिगामी परम्परा ने भगवान जगन्नाथ को सीमित दायरे में दर्शन और प्रसाद के निमित्त बांध जगतनाथ को सिर्फ हिन्दुओं का नाथ घोषित कर शब्द का अर्थ संकुचन कर दिया। परंतु शिव तो विश्वनाथ कहलाए। उनके यहां सबका प्रवेश है, श्मशान-राख तक स्वीकारते हैं, धतूर-बेल, निर्गन्ध फूल भी उनका स्पर्श या सुगंधित हो जाने की कल्पना समाज में है। उनका अशिव, दिगंबर रूप भी शिवत्व लिए है। तृप्ति और संतुष्टि के इस महीने में वह ललकार नहीं सुनाई पड़ी जिसकी व्याप्ति लोक में है। लगे हैं असाढ़, सावन चढ़ि आए ललकारि...की ललक अधूरी रही। गूंजती रही ‘बम भोलया’ कांवरिये शांति और भक्ति के प्रतीक रहे। अब भक्ति भी फैशन है, आक्रामक है, दिखावा है। भोलेनाथ के कांविरिये जब, हॉकी स्टिक, राड, त्रिशूल लेकर शिव की आराधना करेंगे तो रास्ते की शांति भंग होगी। आस्था प्रदर्शन की वस्तु नहीं, अपने में ही ईश्वर की अनूभूति है। सावन और शिव का तादातम्य परम्परा की विरासत है जिसे शाश्वत रखना लोक का काम है। जिसे वह संभाले बम भोलया गा रहा है। ‘दै टटिया निकरि चला हो, कौने माया म उलझे हैं प्रान हो...।’
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
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