चंद्रिका प्रसाद चंद्र |
आकाशवाणी से जगजीत सिंह का गाया मगर मुझको लौटा दो, बचपन का सावन। वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी गीत बज रहा है। पढ़ना बंद हो गया और मन, गीत के बोल, उसके अंतरा और जगजीत की पुरकशिश आवाज में अटक गया। दिल उदास हो गया। गायक भी चला गया, बचपन भी चला गया। रिमही कहनूत है- भरी जवानी मांझ ढील ऐसी जवानी बिना चढ़े ही बीत गई। बुढ़ापा आ गया, सरकारी नौकरी से रिटायर होने का अर्थ है, कार्यक्षमता का कम होना (दीगर है कि अपने देश के नेताओं की जवानी अक्सर बुढ़ापे में चढ़ती है) बुढ़ापे से बचपन बहुत सुन्दर दिखाई पड़ता है। उस दहलीज पर, नाती पोतों की बाल हरकतें देखकर, अपना बचपन जिनको याद न आए वे मनुष्य नहीं हैं। प्रेमचन्द ने बूढ़ी काकी कहानी की शुरुआत ही बुढ़ापा, बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है वाक्य से की है। बच्चों के प्रति वृद्धों के प्रेम का मनोविज्ञान शायद यही है कि उन्हें अपना बचपन याद आता है, इसीलिए उनका लगाव पुत्रों से अधिक पौत्रों से होता है। दार्शनिक कहते हैं कि जिन्दगी तीन घंटे की है, बचपन, जवानी और बुढ़ापा। ईश्वर यदि कहीं-किसी सगुण रूप में है तो वह सिर्फ बचपन में है। छोटे-बड़े, जाति- पांति का विभेद तो बड़े होने की देन है। छुटपन में एक दूसरे से लिपटना, चूमना, लात-हाथ मारना, झगड़ना, रोना-हंसना, रूठना-मनाना और बड़े होते ही जाति-धर्म बताकर उन्हें एक दूसरे से अलग कर देना, ईश्वरत्व से अलग कर देना है। इतने निश्छल, निद्र्वन्द, कुन्ठामुक्त-वजर्नाहीन बचपन को याद करना आत्म अन्वेषण करना है, जो मनुष्यता का चरम शिखर है। वे पिढ़ई-पाटी के दिन थे। घोट्टी-पोत्ती अब नहीं रही। इनकी भौतिक उपस्थिति नदारद है। पाटी को चिमनी के धुंए से काले आले को एक छोटे गोल कपड़े से पोंछकर पोता जाता। सूखने पर उसे घोटनी से घोटकर इतना चमकाया जाता कि पाटी पर चेहरा दिखने लगता। उस पाटी पर बोरिका से भरी पारदर्शी छूही में डूबकर जब मूंज की कलम से अक्षर उतरते, उसकी चिकनाहट और सुन्दर लिखावट पर गुरुजी की प्रशंसा, विद्यार्थी को और भी प्रतिस्पर्धी बना देती थी। प्राथमिक शिक्षा, लिखावट की सुन्दरता, शुद्धता, पाठ पढ़ाना, पाटी पर ही लिखना, जोड़-बाकी, गुणा-भाग, सवैया-पौना, अढै़या, डेढ़ा की थी। जिसकी जीवन के हर कदम पर उपयोगिता थी। मिडिल तक कागज नसीब होता था। अभ्यास पेंसिल से कागज पर होता था। बाद में रबर से उसे मिटा दिया जाता और दूसरे रफ कार्य होते। रास्ते में किसी पेड़ की छाया में बैठकर सबक पूरा करके खेलते-कूदते घर पहुंचते। खाना खाते और फिर शेष सबक पूरा करते इसलिए कि रात को दिया जलता! मिट्टी का तेल किन्हीं-किन्हीं घरों में होता। शाम को खरकौनी पर पशुओं के चरी से वापस आने की प्रतीक्षा। घर के कामों में हाथ बंटाना भी पढ़ाई से अलग नहीं था। गाय-भैंसों को दुहवाना, बैलों को भूसा-पानी देना, ढील कर खेतों तक पहुंचाने में कोई कोताही नहीं। लौटकर सबक याद करना, एक गगरा पानी सिर पर डाल, नहाने को स्नान कहना, जल्दी से कपड़ा पहनते हुए खाना और बस्ता लेकर स्कूल भागने के दिन, स्कूल जाते हुए लड़कों को देखकर अनायास याद आते हैं। शिक्षक (गुरुजी) मात्र अध्यापक नहीं थे, मां-बाप भी थे। दण्ड के नाम पर सांटी होती थी, उसे विद्यावर्धिनी कहते। हाथ लाल हो जाते, परंतु मां-बाप से कभी शिकायत करने की हिम्मत नहीं पड़ी। यदि कहीं पता चल गया तो घर में भी पिटाई। परंतु घर की पिटाई की खबर सुन वही शिक्षक घर वालों को बच्चों के पक्ष में डांटने आते। वे गुरुजी लोग सच्चे अर्थो में राष्ट्रनिर्माता थे। गांव में डेरा रहते, नियमित समय से आते। छुट्टी होने के बाद विद्यार्थियों को खेल सिखाते, साथ में खेलते। स्कूल बंद होने का सन्नाटा कहीं नहीं दिखता था। वर्षा में अक्सर भीगना पड़ता परंतु भीगने के कारण सर्दी-जुकाम, बुखार कभी नहीं हुआ। आजादी के एक दो दशक बाद की, देश के गांवों की यही पढ़ाई थी। भाई राम सहाय बताते हैं कि एक दिन के एक सहपाठी की ड्राइंग बनाने में मदद कर दी। उसने पेंसिल दे दी। शाम को मां ने चित्र बनाते देख पूछ लिया-पेंसिल कहां पाए, किसी की चुराए क्या? उन्होंने बताया-मित्र ने दिया है। मां की आंखों में आंसू आ गए। पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन जब वे पढ़ते थे, वे उनकी कापी देखती, अक्षरों पर हाथ फेरती-कहती तुम्हारी लकीर सीधी नहीं है। बोली-कल उसकी पेंसिल दे देना, वह किससे चित्र बनाएगा। इस सद्भाव और बेबसी पर वे रोने लगे। मां ने कहा था- बेटे! ऐसे भाव वक्त के बदलाव के साथ लुप्त हो गए। जिस दिन हाफ टाइम छुट्टी हो जाती, उस दिन दो बजे से शाम तक स्कूल के मैदान में फुटबाल खेलते बीत जाता। पानी में दो हाथ भी गेंद न जाती लेकिन खेल जारी रहता न थकान न भूख। भूख तो घर देखकर लगती। घर देर से पहुंचने का दण्ड अलग से मिलता। मां चिड़ियों की तरह ढंक कर गोद में बैठाकर रूखा-सूखा जो खिलाती, उस खाने सा सुख, आज सब साधन होने के बाद भी नहीं मिला। एक कौर और कहने वाले शब्द मां के साथ चले गए। वक्त कभी वापस नहीं आता, उसका स्यापा करना भी उचित नहीं कहलाता, परंतु ऐसा महसूस होता है कि वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे। बचपन में एक घर था जिसमें मां-पिता, दादा-दादी, काका-काकी, भाई- बहन सारे नाते-रिश्ते उसी समय समङो गए। अब मकान है जिसमें सभी अकेले रह रहे हैं, अपने -अपने अहं के साथ, अपने अपने स्वर्ग में। हमारे पौराणिक नायकों को भी अपना बचपन कभी नहीं भूला। राम को अवध नहीं भूला, सरयू नहीं भूली। गोपियों को उद्धव ने कितना समझया। कृष्ण की उन सारे खेलों(लीला) को भूलने की बात कही। उद्धव से कृष्ण भी कह बैठे- ऊधौ! मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। जबहि सुरति आवति वा सुख की, जिउ उमगत तन माहीं। ग्वाल-बाल सब करत कोलाहल, नाचत गहि गहि बाहीं। वे सुरभी, वे बच्छ-दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं। बचपन को भुलाना अपने को भुलाना है। कवियों ने तो बचपन के लौटाने तक की मांग की है। परंतु क्या कभी बीता हुआ पल लौटा है। अब बचपन के सपने शेष हैं। सपनों को याद रखना अपनों को याद रखना है। बचपन मुग्ध करता है, उसकी यादें सारे अहंकार को ध्वस्त करती हैं। यह तो आइना है जिसे जवानी तोड़ देना और वृद्धता सुरक्षित रखना चाहती है इच्छा होती है कि बिना इसके लौटे भी यह गीत निरंतर बजता रहे- ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.....।- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09407041430 |
Wednesday, August 29, 2012
वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे
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