Thursday, March 14, 2013

सीता का अंतिम बयान


मैं सीता हूं। वाल्मीकि ने मेरी कहानी नहीं लिखी। मैं किसका बीज हूं,किसकी कोख में पली,कोई नहीं जानता। मेरी दारुण जन्मकथा काव्य इतिहास के पन्ने में इसलिए नहीं है कि वह समाज का आदर्श पृष्ठ नहीं हो सकता। सभी धरती पर जन्म लेते हैं,मैं धरती से पैदा हुई। यह संयोग था कि उसी दिन महाराज जनक के हल जोतने का शुभ मुहुर्त था,जो तदयुगीन राजकीय परम्परा थी और मैं खेत में सद्य: जाता के रूप में मिली और जनक नंदिनी कहलाई। कन्याजन्म नहीं हुआ बल्कि कन्या मिली। किस अशुभ घड़ी में मैं जन्मी,कोई नहीं जानता लेकिन जिसे मैं मिली वे निहाल हो गए। ऐसा भी नहीं कि वे पुत्रियों के लिए कल्पते रहे या उन्हें पुत्री इष्ट यज्ञ करना पड़ा हो। मेरी ही समवयस्क उनकी तीन जायज पुत्रियां थीं। जन्म से अवांछित,अयाचित,मैं नामधारी पिता शीलध्वज जनक के लिए चिंता का कारण बन गई। वे उस समय के सबसे बड़े दार्शनिक राजा थे। जिनको विदेह राज कहा जाता था। ऋषि-महर्षियों के तत्व चिंतन का समाधान मेरे पिता जनक से मिलता था। हो सकता है कि जनक घर में पहली किलकारी मेरी गूंजी हो,एतदर्थ बधाव बजा हो,परंतु रोचन कहां भेजू,यह सोचकर महाराज ने उत्सव न किया हो।
कुछ ही दिनों में उर्मिला,मांडवी,श्रुतिकीर्ति के जन्मते ही मेरा ही जन्मोत्सव हुआ। मैं दीदी थी। मां सुनयना और पिता की सबसे प्यारी पुत्री के रूप में लोक और काव्य ने मुङो ही जाना।
मैं सुन्दर थी,ऐसा लोक ओर काव्य में वर्णित है। विद्वान राजा और पिता ने जाने क्या सोचकर मेरा स्वयंवर रचाया। और विरोधाभास यह कि शर्ते भी तय कर दीं। हैं न विचित्र बात।
स्वयंवर याने अपने मन से वर का चुनाव। शर्त यदि होती तो मेरे तरफ से होनी थी। स्वयंवर का पहला सार्वजनिक प्रयोग मुझ पर किया गया। धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त स्वयंवरा की नहीं,पिता की थी। देश-देश के राजा स्वयंवर में आये थे। मैं पार्वती पूजन के लिए पुष्प वाटिका गई थी। वहां मैंने राम को देखा और मन ही मन उन्हें अपना वर मान लिया। यह पूरी तरह मेरे अंतर्मन का भाव था। राम ने मेरे भाव को समझ। धनरुभग हुआ लेकिन पूरी प्रक्रिया तक पिता अपनी प्रतिज्ञा से दुखी रहे,इसीलिए मेरी अन्य बहनों के लिए कोई के लिए कोई स्वयंवर कोई शर्त नहीं रखी। मेरे साथ तीनों बहनें भी भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्न के साथ बिना किसी स्वयंवर परम्परा के साथ ब्याही गईं। माताओं का असीम प्यार ससुराल में पाकर मैं अपने वर्तमान पर खुश थी।
राज-परम्परा के अनुसार महाराज दशरथ ने ज्येष्ठ पुत्र राम का राज्याभिषेक करने की तैयारी की। सारे अयोध्या ने देखा कि विमाता के दो वरदानों से आबद्ध दशरथ ने राम को चौदह बरस का वनवास और भरत को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने में आत्मबलिदान भी कर दिया। राम को वनवास मिला। उनके न चाहते हुए भी मैं उनके साथ वन गई। साथ में लक्ष्मण भी गए।
राम के हर कष्ट में मैं भागीदार रही। दुख मेरी नियति में था। मैंने दुखों को सहलाया। पूरी अयोध्या का लोकमत राम के साथ था।
लक्ष्मण ने पिता को कामातुर कहा। राजाज्ञा का उल्लंघन करने की सलाह दी। राम ने लोकमत को ठुकराकर राजाज्ञा का पालन किया। वन में भी खुश थी मैं,इसलिए कि राम मेरे साथ हैं।
वाल्मीकि की पूरी कथा के केन्द्र में राम थे। उन्हें महामानव के रूप में प्रतिष्ठापित करने का संकल्प आदिकवि के मन में था,इसीलिए राम अपने जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक लीला करते हैं। निष्कम्य,निष्करुण,निष्कलुस रहकर वे अपने कुल,राज और स्वधर्म का पालन पूरी निष्ठा से करते रहे। वे निर्लिप्त जीवन जीते रहे। हां! रावण द्वारा अपहरित होने पर मेरे प्रति उनका विलाप संलिप्तता प्रदर्शित करता है।
अशोक वाटिका में हनुमान मेरे लिए जीवन का संदेश लेकर आए। मैं उनके साथ चलने के लिए तैयार थी परंतु हनुमान तो सिर्फ पता लगाने आए थे,साथ में लाने का आज्ञापत्र नहीं था।
मेरा अपहरण राम के पुरुषार्थ के लिए चुनौती था। विवाद की शुरुआत राम ने सूर्पनखा की कान नाक-काट कर दी थी। बहन के अपमान का बदला मेरा अपहरण करके उसने लिया। लेकिन जब भी वह मुङो राजरानी या पत्‍नी बनाने की बात करने आता,हमेशा मंदोदरी को साथ लेकर आता। मंदोदरी के दिल पर तब क्या गुजरती होगी,मैं महसूस करती हूं,क्योंकि मैं एक पत्‍नी हूं।
राम ने रावण का वध किया। मैं ललक रही थी कि राम,सीधे मुङो लेने,देखने, मेरे आंसू पोंछने आएंगे,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
राम का आदेश था कि मैं सुस्नाता तथा दिव्य वस्त्र धारण करके आऊं। पालकी में नहीं,पैदल चलकर,लज्जा को स्वदेह में विलीन करके,राक्षसों,वानरों,भालुओं के सामने से होकर आऊं। लक्ष्मण,सुग्रीव,हनुमान को भी यह निर्णय अच्छा नहीं लगा। उन लोगों ने अनुमान लगाया कि राम के मन में पत्‍नी के प्रति प्रेम नहीं रह गया। राम ने कहा था- सुनो,तुम्हारे लिए,रावण द्वारा स्पर्श जनित दोष के परिमाजर्न के लिए एवं स्वयं के सम्मान रक्षार्थ रावण का वध किया था। तुम घसीटी जाकर रावण के अंक में थी,उसने तुम्हें कुदृष्टि से देखा था। तुमको ग्रहण करने में हमारे कुल-गौरव का क्या होगा। जनक नंदिनी! तुम्हारे प्रति अब मेरे मन में कोई चाह नहीं है। न्याय करना ही यथेष्ठ नहीं, न्याय दिखना भी चाहिए के अनुसार त्रिलोक वासियों को साक्षी मानकर मेरी परीक्षा ली गई। प्रख्यात वंश की कुलवधु सीता ने अग्नि परीक्षा दी। मैं निष्पाप थी,शायद यह पहली और आखिरी अग्नि परीक्षा किसी पति परायणा पत्‍नी द्वारा दी गई थी।
राम का राज्याभिषेक हुआ। मैं महारानी बनी। कुछ दिन सुख के बीते। मेरे सतीत्व को लेकर लोकापवाद फैला। राम जानते थे कि यह लोकापवाद मिथ्या है परंतु उन्होंने मुङो घर से निकाल दिया। मैं गर्भिणी थी। वाल्मीकि के आश्रम में वनवासियों ने मुङो शरण दी। मेरे पति ने मुङो घर से निकालकर एक झूठ को सच साबित कर दिया। लोकापवाद का सामना करते हुए यदि वे सारी प्रजा के सामने कह देते-सीता निदरेष है,लोकापवाद मिथ्या है और मैं स्वत: सीता के साथ निष्कासित जीवन जिऊंगा। जब मेरा निष्कासन हुआ था,वे मेरे साथ गईं थी,अब मैं उनके साथ जा रहा हूं। लेकिन राम ने ऐसा कुछ नहीं किया। वनवास में मैं अपने पुत्रों के साथ जीती रही। ऋषि,लव-कुश को रामकथा के गीतों का अभ्यास कराते रहे। मेरी अंतिम आस थी,शायद राम को कभी अपनी गलती का अहसास हो और मुङो वापस लेने मनाने आएं। मैं धरती की बेटी थी वही मेरी अंतिम शरण्य है। मां ! मैं आ रही हूं,तुम्हारी गोद में,जैसे तुमने जन्म में मुङो गोद लिया था,अंत में भी उसी तरह अपने में छिपा लो। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. लोकायन चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र 

2 comments:

  1. चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र आप ने बहुत अच्छी कोशिश की पर सीता माता की जीवनी लिखने में आप ने थोड़ी कमी की है ऎसा प्रतित हो रहा है के आप ने धर्म संकट के भय से कटुश बाते जो के सत्य है ग्रंथो में अंकित है उसे भी उजागर किया होता ।

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  2. Aisa nahi hai
    Agar ram ji leela karte hai to sita ji bhi leela karti hai
    Sita ki ye chavi nahi hai wo bwchari nahi hai
    Yo to ramji ki shakti hai
    Wo shastraravan ka vadh kar sakti hai

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