चंद्रमणि त्रिपाठी राजनीति में उस पीढ़ी के आखिरी लोगों में से एक थे जो विकट गरीबी में जिये, संघर्ष किया और राजनीति में अपना मुकाम बनाया। आज के दौर में धनबल, बाहुबल, जातीय गणित और वंश परम्परा यही कुल मिलाकर टिकट दिये जाने की बुनियादी योग्यता है। इन स्थितियों के चलते राजनीतिक दलों में कर्मठ, ईमानदार, जुझरू लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न कार्यकर्ताओं के लिए कोई जगह नहीं। कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दलों का यही चरित्र है। सत्ता का स्वाद चखने के पहले तक भाजपा इस दुगरुण से दूर थी, लेकिन अब उसकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। हाल ही में चले पार्टी के महाजनसम्पर्क अभियान में एक मण्डल अध्यक्ष ने जब पार्टी से वाहन के इंतजाम की बात की तो जिलाध्यक्ष से उसे ऐसी ही फटकार मिली. कि एक गाड़ी रखने की हैसियत नहीं रखते तो फिर मण्डल अध्यक्ष बन ही क्यों गए? मैं एकऐसे कर्मठ उम्मीदवार के बारे में जानता हूं जो फिलहाल एक जिले की पार्टी इकाई का अध्यक्ष है, उसे पार्टी के प्रदेश नेतृत्व ने इसलिए टिकट नहीं दी क्योंकि उसकी गरीबी का हवाला प्रस्तुत किया गया था।
यही नहीं एक ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति को टिकट दी गई, जो आज भी सूटकेस के वजन से बड़े से बड़े नेताओं की औकात को तौलता है।
स्वर्गीय चंद्रमणि त्रिपाठी को पहली बार लोकसभा की टिकट के लिए इन्हीं स्थितियों से गुजरना पड़ा था। सन् 1998 में उनकी उम्मीदवारी को सुनिश्चित करने जाने अनजाने एक किरदार मैं भी बन गया। तब मैं देशबन्धु में नौकरी करता था। श्री त्रिपाठी से मेरी वैचारिक निकटता जाहिर थी। मैं उनके लड़ाकू तेवर, संघर्ष क्षमता और बेबाक बयानी का कायल था। उन दिनों टिकट की गुणाभाग चल रही थी। भाजपा रीवा की महारानी प्रवीण कुमारी पर उम्मीदवारी का दांव लगाकर विफल हो चुकी थी। अब जो नाम उभरे उनमें से श्री त्रिपाठी का नाम सबसे वजनदार था। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व हर हाल पर चुनाव जीतने की गरज से कई विकल्पों पर काम कर रहा था। दिल्ली से मेरे एक पत्रकार मित्र ने सूचना दी कि रीवा की लोकसभा टिकट किसी बड़े पूंजीपति को दी जा रही है। मैं अनुमान नहीं लगा पा रहा था, क्योंकि रीवा का कोई बड़ा पूंजीपति भाजपा में नहीं था। श्री त्रिपाठी मेरे दफ्तर आए और उन्होंने भी इस बात की तस्दीक की कि टिकट किसी पूंजीपति को ही दी जा रही है, अब मैं दौड़ से बाहर हूं।
टिकट कमेटी की बैठक खजुराहो में थी और उमा भारती का प्रभाव चरमोत्कर्ष पर था। कमेटी में कालेज के दिनों के मेरे नेता व मुझ पर स्नेह रखने वाले प्रहलाद पटेल भी थे। मैंने चंद्रमणि जी से कहा- अखबार में कुछ लिख ही सकता हूं आपकी मदद के नाम पर। दूसरे दिन के अंक में पहले पन्ने में मेरी टिप्पणी छपी- शीर्षक था.. गरीब लोग कृपया टिकट न मांगे। जहां तक स्मरण है..मैंने लिखा था कि राजनीति में एक छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी पार्टी की टिकट व चुनाव लड़ने की ललक लिए हुआ आता है। पहले कार्यकर्ता की निष्ठा, उसका जुझरूपन, वैचारिक दृढ़ता और मॉस अपील टिकट का आधार बना करती थी, लेकिन अब ऐसे लोगों के लिए बैठकों का जाजम बिछाने, नारा लगाने, झण्डे बांधने व अखबार के दफ्तरों तक खबरें पहुंचाने का काम सुनिश्चित है। टिकट की योग्यता का आधार उम्मीदवार का कारोबार, बैंक बैलेंस, बड़े नेताओं को उपकृत करने की व कोई भी इंतजाम करने का कौशल बन गया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सुचिता और संस्कारों में फली-फूली भाजपा में भी यही रोग लग गया है। अब खजुराहो में टिकट कमेटी की बैठक है पर उम्मीदवारी के सौदे दिल्ली में हो रहे हैं। अब यदि चंद्रमणि त्रिपाठी अपने राजनीतिक संघर्षो व गरीबों के लिए की गई जेल यात्राओं का कैसा भी इकबालिया बयान करें कौन सुनने वाला है। चंद्रमणि जी की कद काठी कोई दूध घी व पौष्टिक खाद्य की वजह से इतनी चुस्त दुरुस्त नहीं है, अपितु राजनीतिक मोर्चो और प्रदर्शनों में उन पर पुलिस की इतनी लाठियां बरसीं हैं कि वह हरी-भरी हो गई। 19 माह के आपातकाल में जेल में उन्हें आड़ा बेड़ी पहनाकर- फांसी के कैदियों के लिए बनाए गए तनहाई सेल में रखा गया था। चंद्रमणि जी पढ़े लिखे हैं, ओजस्वी वक्ता हैं विधायक रह चुके हैं, लेकिन इन सब योग्यताओं के ऊपर उनकी गरीबी भारी पड़ती है, सो वे नाहक उम्मीद पाले हैं कि पार्टी उन्हें लोकसभा का टिकट दे सकती है..।
टिप्पणी में और भी कई भावनात्मक बातें थीं। मैंने त्रिपाठी जी को अखबार की दस प्रतियां दी व कहा कि खजुराहो जाकर टिकट कमेटी के सदस्यों तक पहुंचवा दीजिए। अब इसके बाद की जो घटना हुई वह चंद्रमणि ने नहीं अपितु उनने बताई जिनकी टिकट इस टिप्पणी के फेर में कट गई। वे हमारे मित्र थे और मुङो दूर-दूर तक उम्मीद नहीं थी कि जिस पूंजीपति की चर्चा की जा रही है वे यही हैं। वजह वे उस समय तक भाजपा में शामिल नहीं हुए थे। मेरे उस मित्र ने जिसका मैं गुनहगार था ने बताया कि.. उमाभारती जी आपका अखबार लहराते हुए टिकट कमेटी की बैठक में पहुंची। टिप्पणी को बांचकर सुनाया भी और कहा कि मैं यहां बुंदेलखण्ड में सामंती ताकतों के खिलाफ कैसे लड़ती हूं, किन-किन खतरों से मेरा वास्ता नहीं पड़ता, वो मैं जानती हूं!
भाजपा की इमेज को तोड़ना होगा कि यह बनियों-पूंजीपतियों की पार्टी है। साफ संदेश देना होगा कि इस पार्टी में संघर्ष करने वाले गरीब कार्यकर्ताओं के लिए भी जगह है। बैठक खत्म हुई, अगले हफ्ते लोकसभा के उम्मीदवारों की सूची में भाजपा प्रत्याशी के रूप में चंद्रमणि त्रिपाठी का नाम था। वे दमदारी से चुनाव लड़े और अच्छे मतों से जीते।
चुनाव की राजनीति से तेजी से खारिज हो रहे जमीनी नेताओं की जमात में चंद्रमणि त्रिपाठी निश्चित ही बचे खुचे नेताओं में से रहे हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में निर्वाचित होकर पहुंचे सदस्यों के बारे में इलेक्शन वॉच का अध्ययन बताता है कि एक तिहाई सांसदों का किसी न किसी तरह राजनीति से वंशानुगत कनेक्शन है। 30 साल से कम उम्र के तमाम सांसदों को सीट विरासत में मिली है। 40 साल से कम उम्र के 66 सांसदों में दो तिहाई किसी न किसी राजनीतिक परिवार के हैं, 35 वर्ष से कम उम्र का हर कांग्रेसी सांसद, राजनीति की वंश परम्परा को बढ़ा रहा है। संसद में पहुंचने वाले सदस्यों की घोषित आय (काला धन इसमें शामिल नहीं) के अनुसार हर चुनाव के बाद 30 फीसदी की दर से करोड़पति बढ़ रहे हैं। जहां तक अपराधिक पृष्ठभूमि व बाहुबलियों का सवाल है तो देश के कुल 4896 सांसदों व विधायकों में से 1450 के खिलाफ अपराधिक प्रकरण दर्ज है। इनमें से कई ऐसे जिन पर हत्या, डकैती, लूट, बलात्कार के आरोप हैं।
यद्यपि एक सत्य यह भी है कि गरीब पृष्ठभूमि के अस्सी फीसदी सांसद विधायक पांच साल पूरा होने तक कोठी व कारों के मालिक भी बन जाते हैं। राजनीति जिस दिशा की ओर चल पड़ी है, ऐसे में सोचता हूं कि गृहमंत्री होते हुए एक कमरे में गुजारा करने वाले इंद्रजीत गुप्त, सिर्फ एक अटैची की पूंजी वाले नृपेन चक्रवर्ती, पब्लिक बसों में सफर करने वाले मनोहर पर्रिकर (गोवा के मुख्यमंत्री),एक रिक्शे वाले की गृहस्थी की हैसियत रखने वाले त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार, देश के सबसे गरीब मंत्री ए के ऐंटोनी, जमीनी संघर्ष से आगे बढ़ी ममता बनर्जी और सादगी की प्रतिमूर्ति कुशाभाऊ ठाकरे जैसों की राजनीतिक वंश परम्परा को कौन बढ़ाएगा?
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425813208.
टिकट के बटवारें में तो बन्दरबाट हमेशा से होती आई है.ज्याद डोनेशन दीजिए और पार्टी की टिकट प्राप्त करें.लेफ्ट पार्टियाँ में ऐसा नही होता है.
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
शुक्ल जी ,आपने स्वर्गीय चंद्रमणित्रिपाठी जी के संघर्ष की जो समीक्षा की है हमने पहले भी सुना है लेकिन देखा कभी नही ,रीवा का होने के कारण मैने उन्हे सांसद के तौर पर जानता हू लेकिन रीवा के आंचलिक लोग बतौर सांसद उन्हे देखने के लिए तरस गये थे भले ही उनकी ऐतिहासिक छवी उनके ग़रीबी और समर्पित कार्यकर्ता की रही हो किंतु इसमे कोई दोमत नही की उनकी ज़मीनी राजनैतिक की हैसियत कभी नही रही .....अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर वो चुनाव ज़रूर जीत पाए थे लेकिन फिर भी उनको रीवा जिले की कई सड़को का भी पता नही था ...रही बात संघर्ष की तो कांग्रेस के जंमाने मे हमने स्वयं देखा है ये और बात है की संगठन के पुराने कार्यकर्ता होने का लाभ उन्हे ज़रूर मिला और उन्होने अपने दूसरे सुभचिंतको को भी दिलाया कैसे भुला दिया जाय की जिस ग़रीबी और संघर्ष की जमी के सहारे उन्होने लोकसभा तक का सफ़र तय किया,और उसी पूंजीवाद को मदद करते हुए टिकट वटवारे मे मउगंज विधानसभा मे उन्होने एक पूजिपती को अचानक पार्टी मे शामिल कर टिकट दिलवाने मे मदद की ! क्या उनके इस कदम से उनका कोई नया स्वाभिमान झलकता था ,क्या वे ज़मीनी कार्यकर्ताओ की राजनैतिक हत्या के दोषी नही थे...?भले ही राजनीति मे सर्वविदित होने से पहले उनकी कुछ लोगों की नज़र मे कोई छवि रही हों लेकिन जनाधार और लोकप्रियता से वो कोषो दूर थे एक बात उनके बारे मे ज़रूर कही जा सकती है की संगठन के प्रति वो समर्पित थे और व्यक्तिगत रूप से निर्विवादित नेता थे ...ईस्वर उनकी आत्मा को शांति दे उनके जाने से रीवा भाजपा की शक्ति कमजोर हुई है उसकी भरपाई असंभव है ......बृजेन्द्र पांडे "पाँति मिश्रान"
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