Saturday, August 31, 2013

इस देश का यारो क्या कहना

जयराम शुक्ल
इन्डिया दैट इज भारत के नीले गगन के तले सबसे ताकतवर परिवार को आलाकमान कहा जाता है। यह अलोकतांत्रिक तरीके से गठित ऐसा समूह होता है जिसे हर वक्त लोकतंत्र की चिन्ता सताती रहती है। सत्ता यहीं आकर शरणागत होती है। आलाकमान यदि अपने अनुयायियों से कह दे कि यह आम नहीं इमली है, तो वह इमली होगी भले उसमें आम की टिकोरी लगी हो। आलाकमान का मुखिया उसी तरह पर्दे के पीछे रहस्यमयी तरीके से पार्टी संचालित करता व निर्देश देता है जैसे कि साठोत्तर दशक की फिल्मों का सफेदपोश खलनायक। अपने देश में हर राजनीतिक पार्टियों का आलाकमान हुआ करता है। सत्ता आने-जाने के साथ उसकी भूमिका में भी अदला-बदली होती रहती है। आज दिल्ली का आलाकमान ताकतवर है तो कल नागपुर का हो सकता है। केन्द्रीय आलाकमान की तर्ज पर सूबे के आलाकमान भी हुआ करते हैं। फिर छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंटे हुए आलाकमान। यह इकाई एक जिले से एक विधानसभा क्षेत्र तक होती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में छोटे-छोटे दलों को सुप्रीमो लोग चलाया करते हैं। उनके दल का वजूद उन्हीं से शुरू होता है उन्हीं पर खत्म हो जाता है। हर वक्त लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की दुहाई देने वाले ये छोटे-छोटे दल वस्तुत: गैंग की तरह संचालित होते हैं और उनका सुप्रीमो ही गैंगलीडर हुआ करता है।
इटली और अमेरिका के माफिया गिरोह पर लिखे गए मारियो पूजो के चर्चित उपन्यास गॉडफादर में वर्णित परिवारों और खानदानों की भांति अपने यहां भी राजनीतिक परिवार और खानदान हुआ करते हैं, जैसे डानकारलोन परिवार, टाटाग्लिया परिवार। किसी जमाने में राजनीतिक परिवारों व नेताओं के बीच प्रतिद्वंदिता हुआ करती थी, अब वह दुश्मनी में बदल गयी है। एक दूसरे को लांक्षित करने या खत्म करने के लिए सुपारियां तक देने का चलन हो चुका है। पूरे देश का तंत्र आलाकमानों और सुप्रीमों की मुठ्ठियों में है। इन्हें संविधान-कानून, लोकलाज और मयार्दा का भय नहीं व्यापता और हम मूरख लोग इनके चेहरों पर लगे लोकतांत्रिक व राजनीतिक दलों के मुखौटे को देखकर बहल जाते हैं।
सीबीआई की हिरासत में दिल्ली में मौजकर रहे भैय्याजी अपने क्षेत्र भैंसापुर के आलाकमान और सुप्रीमो दोनों हैं। इनके इशारे के बगैर पत्ता नहीं डोलता। ये जब चाहे दंगा करवा दें। विरोधी की सभा उखड़वा दें। दरअसल यही उनकी ताकत है। आजकल समाज में जिसकी जितनी न्यूसेंस वैल्यू होती है उतना ही उसका महत्व। भैय्याजी इसी न्यूजसेंस वैल्यू के साक्षात अवतार है और इसीलिए दिल्ली का आलाकमान उनसे मिलना चाहता है। भैय्याजी को सीबीआई ने पकड़ा तो एमडीएम जहरकाण्ड के लिए था, पर यह एक महज बहाना था। भैय्याजी इस सियासी अफसाने को भलीभांति समझ चुके थे। तय वादा और वक्त के मुताबिक भैय्याजी को आलाकमान के यहां ले जाया गया। आलाकमान सामने वाले की हैसियत देखकर अपना दूत तय करता है, सो भैय्याजी को डील करने के लिए घुघ्घूराजा तैनात किए गए। घुघ्घूराजा घाघ नेता माने जाते हैं। हर मसले पर उनकी जीभ जब लपर-लपर करके थक जाती है तो वे ट्वीट करने लगते है। उनकी ट्वीट ही राष्ट्रीय खबर बन जाती है। इसी विशिष्ट योग्यता की वजह से वे आलाकमान के सबसे चहेते दूत हैं। 
भैय्याजी से आमना-सामना होते ही घुघ्घूराजा ने पहला सवाल दागा...। 'नेताजी हम आपकी मदद क्यों करें?' 'हमने कब कहा कि मदद करें', भैयाजी ने जवाब दिया। 'तो आप जेल में सड़ते रहेंगे', घुघ्घूराजा ने धमकाया। 'हमारी छोड़ो आपकी पार्टी हमारे क्षेत्र में सड़ जाएगी। पांच कान्सटुयेन्सी में हमारे लोग किसी को हराने या कुछ करने की क्षमता रखते हैं। खुदा न खास्ता दिल्ली में विपक्ष की सरकार आ गई तो आप सब लोग जेल में चक्की पिसोगे। घोटाले-पर-घोटाले आपकी पार्टी का हर कुर्ता काला।' भैय्याजी बोले, 'रही बात हमारी तो बाहर खड़ी मीडिया को मैं बता दूंगा। आप लोग क्या डील करने वाले थे। भैंसापुर इलाके में सेकंडों में मैसेज पहुंच जाएगा कि भैय्याजी को आलाकमान स्लो प्वाइजन देकर मारना चाहता है। और जानते हैं.. राइट.. फैल जाएगा राइट....। इसी साल चुनाव है न, हमारे इलाके में आपकी पार्टी भी राइट हो जाएगी।' घुघ्घूराजा को पहली बार खुद के घाघ होने पर संदेह हुआ। सोचने लगे.. इलाके का अदना सा नेता.. देखो कितनी हाईपिच पर बात करता है। घुघ्घूराजा बोले, 'नेताजी हमारी पार्टी का क्या सपोर्ट करेंगे?' भैय्याजी बोले, 'हम इलाके में थर्डफोर्स हूं, सेकन्ड फोर्स को डैमेज करने का काम करूंगा।' वहां सेकन्ड फोर्स कौन है घुघ्घूराजा ने जानना चाहा। भैय्याजी ने जवाब जड़ा- 'ये आप लोग जानिए वहां सेकन्ड फोर्स कौन है?' घुघ्घूराजा पहली बार असमंजस में फंसे.. सचमुच भैय्याजी विकट हरामी नेता हंै। इनका तो कोई ओर-छोर ही नहीं। घुघ्घूराजा बोले- 'नेताजी हम लोग फिलहाल कॉमन राष्ट्रीय इन्ट्रेस्ट के लिए एक हो जाते हैं। अभी कुछ सोचने विचारने का वक्त है। हां.. अब चुनाव तक आपको कोई 'पकड़उआ एजेंसी' तंग नहीं करेगी..।' भैय्याजी के दिमाग का कुत्ता सक्रिय हो गया। वे बाहर मुस्कराते हुए निकले। टीवी वालों को बाइट दे रहे थे.. 'हमारे बीच में कितने भी मतभेद हो पर राष्ट्रहित में एक होना वक्त की मांग है हम आलाकमान को फुलसपोर्ट करने आया हूं..। लेकिन यह इश्यूबेस सपोर्ट है- जैसे आरटीआई को फारटीआई करने के लिए। चुनाव लड़ने का कानून बदलने के लिए...। ये मत समझिएगा कि... हम सरेंडर   कर रहे हैं इनके आगे..।' इस बीच समर्थकों ने नारेबाजी शुरू कर दी.. पार करेंगे देश की नैय्या.. भैंसापुर के भैरो भइया।
Details

Wednesday, August 28, 2013

मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए

मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए
जयराम शुक्ल
मेरे एक मित्र की अक्सर शिकायत रहती है कि आजकल मेरे लेखन में नकारात्मकता का पुट कुछ ज्यादा ही रहता है। मित्र की चिन्ता निश्चित ही गंभीर और विचारणीय है। मैंने खुश होने के लाख मौके तलाशे। अपने इर्द-गिर्द, समाज में, राजनीति और बाजार में मौसम और मानसून में। धर्म में विज्ञान में। तीर्थो में पर्यटन स्थलों में। आपस के रिश्तों में। रोजमर्रा की जिन्दगी में। लाख कोशिशों के बाद कहीं सुकून नहीं दिखा। कोई भी ऐसा नजारा नजर नहीं आया कि पल भर के लिए खुश हो लें। मेरे जैसे बहुत से बेचैन लोग हैं, कहीं से कुछ अच्छी खबर के इन्तजार में। मित्र की चिन्ता और उनके प्रश्नों का जवाब सव्रेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता में मिला। यह कविता उन्होंने 1982 में लिखी थी, असम के रक्तपात के संदर्भ में। यानी कि नब्बे के उदारीकरण के दौर के आठ वर्ष पहले। इस लम्बी कविता के आरंभ में कुछ अंश जो आज की परिस्थितियों के भी उत्तर हो सकते हैं। यथा - यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो? यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रही हों। तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो। यदि हां तो मुङो तुमसे कुछ नहीं कहना है। ..इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं है। न ईश्वर.. न ज्ञान.. न चुनाव। कागज पर लिखी कोई भी इबारत फाड़ी जा सकती है, और जमीन की सात परतों के भीतर गाड़ी जा सकती हैं। जो विवेक खड़ा हो लाशों को टेक वह अंधा है.. याद रखो एक बच्चे की हत्या। एक औरत की मौत। एक आदमी का गोलियों से चिथड़ा तन। किसी शासन का ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र का पतन है। ..आखिरी बात। बिलकुल साफ। किसी हत्यारे को। कभी मत करो माफ। चाहे हो वह तुम्हारा यार। धर्म का ठेकेदार। चाहे लोकतंत्र का स्वानाम धन्य पहरेदार।

समझ में नहीं आता क्या देखूं। कहां आंखें मूद लूं। एक फूल सी बच्ची के साथ दुराचार का आरोपी कथित संत अपने आश्रम में बैठकर, प्रवचनों में अपने किए पर पश्चाताप की बजाय मसखरों की तरह अट्टहास करता है। हमारे ही बीच के वे अन्धे और मूर्ख सेवादार झूठ का वितान बनाने में, उस आरोपी को बचाने में लगे हैं। सियासी दलों को यहां राजनीति नजर आती है।

प्रवचनों में उमड़ने वाली भेंड़ बकरियों सी भीड़ में वे अपना वोट तलाशते हैं। उधर चौरासी कोसी परिक्रमा का उपक्रम चल रहा है। राम की अयोध्या आहत है। 1984 से लगातार यह धर्मनगरी कफ्यरू, तनाव, गोलियां, जिरह बख्तर पहने सिपाहियों की बूटों से आहत है। अयोध्या को एक बार फिर सत्ता की सीढ़ी बनाने की कोशिशें हो रही हैं। जनमानस में राम की प्राण प्रतिष्ठा करने वाले तुलसी तो ‘मांगकर खाइबो मसीत (मस्जिद) में सोइबो’ तक में संतोष कर लेते हैं। ये धरम धुरंधर राम को चुनाव के पोस्टरों और नारों में बेंच रहे हैं। अयोध्यावासी ये सब नहीं चाहते। पर उनके न चाहने से क्या होता है? अयोध्या को अब राम ही बचा सकते हैं इन सियासत दानों से।

सड़क पर बेटियां सुरक्षित नहीं। एक दामिनी-फिर एक दामिनी, कहीं खुशबू तो कहीं गुड़िया। मुंबई में फिर सामूहिक दुष्कर्म हुआ। संसद गरम हो गई। फिर फांसी पर लटका देने की मांग उठी। जो सिलसिला शुरू हुआ थमने का नाम नहीं ले रहा। दुनिया भर में थू-थू हो रही है। कहीं विदेशी पर्यटक का शिकार तो कहीं विदेशी छात्रा से छेड़-छाड़। कानून और दण्ड का भय। बदनामी और पाप का डर समाज से तिरोहित होता जा रहा है।

आदमी अपने घर में सुरक्षित नहीं। हर घर में एक गुड़िया है। हर चौराहों पर दरिंदे खड़े हैं। इधर से आंखें फेरते हैं तो उधर किसान और उसके खेत रो रहे हैं। वन-पर्वत-नदी-झरने सभी कुछ कारपोरेट घरानों को पट्टों में दे देने की होड़ सी मची है। जंगल से वनवासी भगाए जा रहे हैं क्योंकि यहां जानवरों को बाघ-चीतों को पाला जाना है। जिन वनों में सदियों से आदमी, जानवर और पेड़-पौधों के बीच गहरी रिश्तेदारी निभाता रहता आया है, अचानक उसे जंगलों का दुश्मन घोषित कर दिया गया। किसानों को खेतों से बेदखल किया जा रहा है क्योंकि यहां कारखाने लगने हैं। ये कारखाने देश की ग्रोथ रेट बढ़ाएंगे। शहरों में अट्टालिकाएं, सड़क, फ्लाईओवर बनाने वाले गरीबों का इतना भी हक नहीं कि दो गज जमीन में वे परिवार के साथ गुजर कर सकें। झोपड़ियां हटाई जा रही हैं बिल्डरों के लिए। यहां मॉल मल्टीप्लेक्स बनेंगे।

आदमी को जंगल से भगाया, जानवरों के लिए। किसानों को खेत से भगाया कारखानों के लिए। शहर के झोपड़ों को उजाड़ा बिल्डरों के मल्टीप्लेक्स और मॉल के लिए। अपनी ही मातृभूमि में आदमी की औकात दो कौड़ी की बनाई जा रही है। उससे चैन से सांस लेने का हक छीना जा रहा है। उसके पक्ष में खड़ा होने के बजाय, उसका मजाक उड़ाया जा रहा है कि यह तो पॉंच रुपए रोजाना में गुजर कर सकता है। कोई मंत्री इसे सच साबित करने के लिए प्रयोग भी करके दिखाने की बात करता है। पार्लियामेंट जब बंद रहती है तो कहते हैं - लोकतंत्र पर विश्वास नहीं। जब चलती है तो चलने नहीं देते। न वाणी में संयम न कोई मर्यादा।

जिसका जो मन पड़े बोले जा रहा है। देश की राजनीति एक ऐसे रंगमंच में तब्दील हो गई है, जिसमें सिर्फ विदूषक और खलनायक हैं। नायकों का अता-पता नहीं। जन सरोकार की बातें कोई उठाना भी चाहे तो सत्ता तंत्र और विपक्ष दोनों उसका गला दबाने को, उसे अविश्वसनीय और पागल करार करने के लिए तत्पर हैं। जो गुस्से से मुट्ठी भींजते हुए जोर से अपने हक की बात करे वो नक्सली। जो गांधीवादी तरीके से अपनी बात करने की कोशिश करे वह पागल और लोकतंत्र का दुश्मन। एरोम शर्मीला, श्याम रुद्र पाठक या अन्ना हजारे ही, गांधी के रास्ते में चलने की कोशिश की तो या तो अनसुने कर दिए गए या अलग-थलग। पुणो में नरेन्द्र दाभोलकर को इसलिए मार दिया जाता है कि वे पोंगापन्थ और अन्धविश्वास के खिलाफ जंग छेड़े हुए थे। उनकी आवाज को आगे बढ़ाने पुणो का कबीर कलामंच आगे आया तो उसे नक्सली कहा गया। मारपीट की गई। सफदर हाशमी जैसे हश्र की धमकी दी गई। इन सब मसलों और नजारों के बीच कोई कैसे सकारात्मक हो सकता है..मित्र, वैसे मैं भी बकौल दुष्यन्त कुमार..सोचता हूं।
वे मुतमइन है - पत्थर पिघल नहीं सकता 
मैं बेकरार हूं आवाज में आसर के लिए।
लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
jairamshuklarewa@gmail.com

Saturday, August 24, 2013

कहि न जाए.. का कहिए

भारत देश में नौकरिहों और उनके डिपार्टमेंटस का एक ही मूल काम है कि उन्हें जो काम करना है उसको छोड़कर बाकी सब काम करें। जैसे हमारे जमाने में राज्य परिवहन की लारियां होती थी जिनका हार्न छोड़कर सब कुछ बजता था। अब देखिए मास्टरों को ही। इनके पास पढ़ाने को छोड़कर इतना काम है कि मरने की फुर्सत तक नहीं। पशुगणना-जनगणना- पेडग़णना, वोटरलिस्ट बनाना, चुनाव करना। जब ये राष्ट्रीय काम न हों तो बच्चों को पन्जीरी बांटना आदि-आदि। पुलिस के पास भी चोरों और मुजलिमों को पकडऩे के अलावा ढेर सारे काम होते हैं। जैसे ही व्हीआईपी ड्यूटी बजाना। बिल्डरों के लिए जमीन-मकान खाली कराना, जब कोई ज्यादा काम न हो तो लगे हाथ अवैध दारू बिकवाना, सट्टे की पर्ची कटवाना आदि-आदि। हमारे देश की सीबीआई के पास ले-देकर एक ही काम है नेता पकडऩा। जो नेता आलाकमान के खिलाफ मुंहखोले उसे पकड़कर उसका होश ठिकाने लगाना।
भैय्याजी का होश ठिकाने लगाने के लिए ही सीबीआई ने उन्हें पकड़ा था। यद्यपि सीबीआई को पता था कि एमडीएम जहर काण्ड में उनका रोल है। पर पकडऩे की वास्तविक वजह अपराधिक नहीं राजनीतिक थी। भैय्याजी तो खैर जानते ही थे। वे कम गुणन्तेबाज नहीं थे। यदि सीबीआई उन्हें बैठे-ठाले पकड़ लेती तो पब्लिक में मैसेज जाता कि वे वाकई अपराधी हैं - सो उन्हें जबसे आशंका हुयी उन्होंने मामले को पॉटलिकल टर्न दे दिया। पन्द्रह अगस्त को वे दिल्ली के आखिरी मुगल और लल्लनपुर के लालबुझक्कड़ पर जानबूझकर सावन-भादौं की तरह बरसे थे। सीबीआई पकड़ ले गई तो इलाके में वही मैसेज गया जो भैय्याजी चाहते थे। यानी कि राजनीतिक अदावत के चलते दिल्ली वालों ने उन्हें पकड़वाया है।
अपने देश में नेताओं को अपराध करने का यही मुफीद तरीका है। जैसे मवेशियों के चारे के नाम पर करोड़ों डकार जाओ। लड़के-बेटे बहू भाई सबको छूट देकर सूबे को भ्रष्टाचारगाह में बदल दो। आदमी की बस्ती उजाड़कर उसे बेघर करके हाथियों की मूर्ति लगवाओं। जिससे जो भी बन पड़े करो। सीबीआई पकड़े तो प्रचारित कर दो कि दिल्ली ने राजनीतिक दबाव बनाने के लिए पकड़वाया है। यह सच भी है दिल्ली को देश में भ्रष्टाचार से ज्यादा चिन्ता अपने राजनीतिक गुणा-भाग की रहती है, इसलिए जेल का भय दिखाकर पॉलटिकल ब्लैकमेल के लिए पकड़वाती है। सीबीआई इसी जनम में किसी जीव का रुप धरे तो वह क्या होगी ? सुप्रीमकोर्ट कहता है कि तोता होगी.. पर भैय्याजी का मानना है कि वह कुत्ता होगी.. ऐसा कुत्ता जिसके दांत और नाखून तोड़ दिए गए हों वह सिर्फ इशारा पाकर भोंके और झपटकर कपड़े फाड़ दे। अपने देश में कई ऐसी एजेन्सियां हैं जो इसी तरह पालतू है। सेन्ट्रल विजीलेन्स कमीशन, प्रेस कौंसिल और न जाने किस-किस नाम से। प्रदेशों में कमोवेश लोकायुक्त, ईओडब्लू, सीआईडी भी उसी के नक्शे कदम पर। ये संस्थाएं भोंक तो सकती है ज्यादा से ज्यादा कपड़े फाड़ सकती हैं पर काट नहीं सकतीं। ये विषहीन दंतहीन जीव हैं- मदारी के पिटारे में बंद सांप की तरह। 
भैय्याजी को ये सब मालुम है - इसलिए वे निश्चिंत हैं। चुनाव सामने हैं। वे खुद एक रीजनल फोर्स हैं। और जब केन्द्र में सरकार बनाने के लिए एक-एक सीट की पड़ी हो तो भैय्याजी का राजनीतिक महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है, एमडीएम जहरकाण्ड (जिसमें कई स्कूली बच्चे मरे थे) का वास्तविक अपराधी होने के बावजूद। भैय्याजी सीबीआई की हिरासत में दिल्ली में थे। बड़े लोगों की हिरासत भी मजेदार होती है। लग्जरी गाड़ी से आना-जाना। किसी सरकारी गेस्टहाउस को हिरासतगृह बना दिया जाना। मुजरिम की मांग के मुताबिक डाइट। यानी कि वह मटन-बिरियानी या मुर्ग मुसल्लम चाहे तो हाजिर। व्हिस्की-स्कॉच-शैम्पेन... क्या चाहिए। एक गरीब आदमी ऐसी हिरासत में एक दिन भी रहे तो तर जाए। स्वर्ग की कल्पना भूल जाए। दरअसल नेताओं की गिरफ्तारी और उनकी हिरासत भी एक म्यूचुअल अन्डरस्टैन्डिंग होती है। क्योंकि आज जिसकी सरकार है कल वह सड़क पर आ सकता है, और आज जो हिरासत में है कल उसके हाथ सत्ता की लगाम हो सकती है। इसलिए भविष्य का ध्यान रखते हुए ही विपक्षी को यथोचित ट्रीटमेंट दिए जाने का चलन आजादी के बाद से ही चला आ रहा है। सो भैय्याजी अपने गांव भैंसापुर के मच्छरों और वहां के गन्धाते लोगों से दूर दिल्ली के एक सरकारी गेस्टहाउस में हिरासत काट रहे हैं। सीबीआई के अफसर ने एक हफ्ते के दरम्यान एमडीएम जहरकाण्ड के संदर्भ में एक बात भी नहीं पूछी। अफसर यह जानने की कोशिश करता रहा कि उस इलाके में भैय्याजी की राजनीतिक जड़ें क्यों इतनी गहरी हैं। उनकी सभा में हजारों की भीड़ किस जादू के चलते जुटती है। भैय्याजी ठहरे खांटी नेता वे सरकारी चाकरों से क्या बोलें? इस बीच अफसर ने उन्हें खबर दी.. नेताजी कान्ग्रेचुलेशन.. कैबिनेट ने आपके उस मुद्दे का हल खोज लिया है जिसमें आपने चिन्ताव्यक्त की थी, कि जिस पर अपराधिक प्रकरण दर्ज हो वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा। अब कानून ही बदल दिया जाएगा, सभी चोट्टे-गिरहकट- खन्तीमार (जैसा कि कानूनन दुष्प्रचारित किया जाता है) ठप्पे से चुनाव लड़ सकेंगे। सिर के लटों को अंगुलियों से सवांरते हुए भैय्याजी ने कहा- हुं..ह.. अब आया न ऊंट पहाड़ के नीचे..। अफसर... आलाकमान को मैसेज दे दो हम राजी हैं, मैं उनसे कब मिल सकता हूं ?
Details

Sunday, August 18, 2013

लालबुझक्कड़ के हसीन सपने और लाल किला का आखिरी मुगल

इस साल का पंद्रह अगस्त जंगी रहा! अभी तक हम अपने शहर में कव्वाली का जंगी मुकाबला देखते व सुनते आए। लेकिन पन्द्रह अगस्त को भाषणों का जंगी मुकाबला देखा सुना। दिल्ली से आखिरी मुगल का देशराग चल रहा था, तो दूसरी ओर लल्लनपुर से लालबुझक्कड़ ललकार रहे थे। खबरिया चैनलों की भूमिका सारंगी-बैंजों वालों सी थी। सुदर्शनीय और सुदर्शना एन्कर्स तबले की थाप दे रहे थे। चैनलों के पैनलिए बुद्धिभक्षी टिप्पणीकार वाह-वाह..वाह-वाह.. करके महफिल का रंग जमा रहे थे। आखिरी मुगल और लालबुझक्कड़ जी की तकरीरें मुसलसल चलती रहीं और पैनलिए बीच-बीच में ठेका देते हुए.. इरशाद-इरशाद फरमा रहे थे। हिन्दुस्तान ने इतनी तरक्की न की होती तो उसकी जम्हूरियत में जीने वाली आवाम को ऐसी तवारीखी झलक शायद ही देखने को मिलती। टीवी के आधे में आखिरी मुगल, आधे में लालबुझक्कड़। बीच-बीच में लप्प-लप्प करते एंकर्स और स्क्रीन पर पासपोर्ट फोटो की तरह चिपके और बारी आने पर पूरे स्क्रीन में फैलकर चपर-चपर करते पैनलिए।
एक ओर दिल्ली की तकरीर में तरक्की के कसीदे। छियासठ साल में हम कहां से कहां पहुंच गए। घर-घर टीवी, हाथ-हाथ मोबाइल। लालबुझक्कड़ ने नहले पे दहला जड़ा। ये तरक्की फर्जी है इसमें नेहरू की स्मेल आती है। असली तरक्की तो वो होती है जिसमें सरदार पटेल की खुशबू बसी होती। किसानों के हाथ में देश की लगाम होती। इसी बीच एक पैनलिया बोल पड़ा- लालबुझक्कड़ जी आपके सूबे की लगाम तो कारपोरेट के हाथों में है। किसानों की जमीनें छिनती जा रही हैं। गोशालाओं की जगह धनपशुओं के चारागाह में बदलता जा रहा है आपका सूबा। किसानों को तो उसका गोबर ही हासिल होगा। एक पैनलिए की बात दूसरे पैनलिए ने काटी। दिल्ली में क्या हो रहा है.. घोटाले पे घोटाला। ये घोटाला.. वो घोटाला। कहीं दादू की दुंदभी तो, कहीं दामाद का बोलवाला। डालर के आगे रूपिया उसी तरह धड़ाम-धड़ाम गिर रहा है, जैसे 10 जनपथ में मंत्री और नेता धड़ाम से गिरते हैं। दिल्ली और लल्लनपुर के बीच जंगी मुकाबला चल रहा था.. पर इसका सबसे ज्यादा असर चैनलों के पैनलियों पर दिख रहा था। एक की आत्मा में आखिरी मुगल समाए हुए थे तो दूसरे के मुंह से लालबुझक्कड़ के बोल झड़ रहे थे। अपुन तो उस वक्त बुद्धूराम की तरह.. भैय्याजी के बारे में सोच रहे थे। भैय्याजी अपने गांव भैंसापुर की फुटही स्कूल में ध्वजारोहण करने के बाद क्षेत्रवासियों को संबोधित कर रहे थे। भैय्याजी न तो आखिरी मुगल की साइड थे, और न ही लालबुझक्कड़ के पाले में। उनकी लाइन तीसरी थी। यानी कि वे थर्ड फोर्स को रिप्रजेन्ट कर रहे थे। थर्ड फोर्स में आगे बढऩे के ज्यादा चान्सेज रहते हैं। मुट्ठीभर सदस्यों को लेकर जबसे हरफन लल्ली देदेघोड़ा ने देश की कमान संभाली, तभी से वे भैय्याजी के रोल मॉडल बन चुके थे।
भैंसापुर की फुटही स्कूल के चहला भरे प्रांगण में प्रिय गांववासियों को संबोधित करते हुए भैय्याजी ने कहा- साथियों.. आज हमारे विचारों में इतनी 'अमसाखमसीÓ हो चुकी है कि यह तय कर पाना मुश्किल है कि कौन सही और कौन गलत। दिल्ली की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा एक आदमी पूंजीपतियों के लिए नीति बनाता है। देश की अर्थव्यवस्था का गोबराइजेशन (वे जानबूझकर ऐसा ही उच्चारण करते हैं) करता है। तो लल्लनपुर वाला लालबुझक्कड़ अपने सूबे में कारपोरेटियों के लिए लाल कारपेट बिछाता है। ये दिल्ली और लल्लनपुर वाला अन्दरूनी मिले हुए हैं। भाइयों! ये दिखावे की नूराकुश्ती है। देश को तीसरे विकल्प की जरूरत है। भैय्याजी बोले -कहने को अपने मुल्क की फौज दुनिया में तीसरे नम्बर की है, पर पिद्दी सा पड़ोसी हमारे जवानों की मुंडी कटवा लेता है। घुसकर जवानों को मरवा देता है। दिल्ली के सब्र का बांध किस कंक्रीट का बना है? हमें बताया जाए! ये बांध कब तक छलकता रहेगा? और लालबुझक्कड़ जी के क्या कहने वे तो उसी लाइन के लग्गेबाज हैं जिनके नेता हवाईजहाज में दामाद की तरह आतंकवादियों को बैठाकर उन्हें उनके पीहर पहुंचा आए थे? ये किस मुंह से बड़ी-बड़ी हांकते हैं।
आदत के मुताबिक भैय्याजी दिन में ही सपनों में तैरने लगे। उन्हें रह-रहकर हरफन लल्ली देदेघोड़ा याद आने लगे। फिर सेन्ट्रल हॉल के मंद-मंद चलते पंखे। सामने फैला विस्तृत वोट क्लब। शान से तना इन्डिया गेट। दूब में दाने चुगते कबूतर और हवा में गुब्बारे उड़ाते बच्चों के बीच से भैय्याजी का कारकेड़ रायसिना हिल्स के पैलेस की ओर बढ़ रहा है। भैय्याजी ने अचानक कारकेड रुकवाया। काली लंबी कार की विन्डो का ग्लास खोलकर देखा कि... लालबुझक्कड़ जी इन्डिया गेट के समीप मूंगफली बेच रहे हैं। और वे.. दिल्ली के आखिरी मुगल, फुटपाथ पर स्टाल लगाकर अर्थशास्त्र की फटी पुरानी पुस्तकें आधे दाम पर बेच रहे हैं। पांच मिनट की इस चुप्पी के बीच गांव वाले घबड़ा गए। भैय्याजी अचकचा कर संभलने की कोशिश करते कि इतने में ही उनके एक पट्ठे ने कान में कुछ कहा। सकपकाकर भैय्याजी ने कहा... आज बस यहीं तक।
भैय्याजी वहां से सटक निकलने की कोशिश करते कि सांय-सांय करती हुई एक मोटर रुकी। उससे उतरने वाले पांच लोगों में से एक ने आईडी कार्ड दिखाते हुए कहा.. मैं सीबीआई से हूं, चलिए एमडीएम जहर काण्ड में आपसे पूछताछ करनी है। अचानक बदली हुई सीन पर बुदबुदाते हुए भैय्याजी ने कहा मीडिया इतना फास्ट है और दिल्ली के कान इतने तेज हैं आज मुझे पहली बार पता चला।
Details

Saturday, August 17, 2013

'भाषाओं की क़ब्रगाह बन गया भारत'

गणेश डेवी
 शनिवार, 10 अगस्त, 2013 को 13:19 IST तक के समाचार
भाषा, बंजारे, भारत, विलुप्त
पिछले 50 साल में भारत की क़रीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं. 50 साल पहले 1961 की जनगणना के बाद 1652 मातृभाषाओं का पता चला था. उसके बाद ऐसी कोई लिस्ट नहीं बनी.
उस वक़्त माना गया था कि 1652 नामों में से क़रीब 1100 मातृभाषाएं थीं, क्योंकि कई बार लोग ग़लत सूचनाएं दे देते थे.
वडोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के सर्वे के मुताबिक यह बात सामने आई है.
1971 में केवल 108 भाषाओं की सूची ही सामने आई थी क्योंकि सरकारी नीतियों के हिसाब से किसी भाषा को सूची में शामिल करने के लिए उसे बोलने वालों की तादाद कम से कम 10 हज़ार होनी चाहिए. यह भारत सरकार ने कटऑफ़ प्वाइंट स्वीकारा था.
इसलिए इस बार भाषाओं के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए हमने 1961 की सूची को आधार बनाया.
गणेश डेवी
गणेश डेवी के मुताबिक भारत की 250 भाषाएं विलुप्त हो गई हैं
जब हमने 'पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे' किया तब हमें 1100 में से सिर्फ़ 780 भाषाएं ही देखने को मिलीं. शायद हमसे 50-60-100 भाषाएं रह गईं हों क्योंकि भारत एक बड़ा देश है और यहां 28 राज्य हैं. हमारे पास इतनी ताक़त नहीं थी कि हम पूरे देश को कवर कर सकें. हमारे पास सिर्फ़ तीन हज़ार लोग ही थे और हमने चार साल तक काम किया . इस काम के लिए बहुत से लोग चाहिए थे.
हम यह मान भी लें कि हमें 850 भाषाएं मिल गईं हैं तब भी 1100 में से 250 भाषाओं के विलुप्त होने का अनुमान है.

'दो तरह की भाषाएं हुई लुप्त'

इसकी दो वजहें हैं और भारत में दो प्रकार की भाषाएं लुप्त हुईं हैं.
एक तो तटीय इलाक़ों के लोग 'सी फ़ार्मिंग' की तकनीक में बदलाव होने से शहरों की तरफ़ चले गए. उनकी भाषाएं ज़्यादा विलुप्त हुईं. दूसरे जो डीनोटिफ़ाइड कैटेगरी है, बंजारा समुदाय के लोग, जिन्हें एक समय अपराधी माना जाता था. वे अब शहरों में जाकर अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे 190 समुदाय हैं, जिनकी भाषाएं बड़े पैमाने पर लुप्त हो गईं हैं.
हर भाषा में पर्यावरण से जुड़ा एक ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है. जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा ही एक माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं.

'भाषा आर्थिक पूंजी भी है'

भारत, भाषाएं, विलुप्त
'सी फ़ार्मिंग' की तकनीक में बदलाव आया और तटीय इलाक़ों के लोग शहरों में चले गए. इसी के साथ उनकी भाषाओं का पतन हो गया.
भाषाओं का इतिहास तो 70 हज़ार साल पुराना है जबकि भाषाएं लिखने का इतिहास सिर्फ़ चार हज़ार साल पुराना ही है. इसलिए ऐसी भाषाओं के लिए यह संस्कृति का ह्रास है.
ख़ासकर जो भाषाएं लिखी ही नहीं गईं और जब वो नष्ट होती हैं, तो यह बहुत बड़ा नुकसान होता है. यह सांस्कृतिक नुकसान तो है ही, साथ ही आर्थिक नुकसान भी है. भाषा आर्थिक पूंजी होती है क्योंकि आज की सभी तकनीक भाषा पर आधारित तकनीक हैं.
चाहे पहले की रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान या इंजीनियरिंग से जुड़ी तकनीक हो या आज के दौर का यूनिवर्सल अनुवाद, मोबाइल तकनीक सभी भाषा से जुड़ी हैं. ऐसे में भाषाओं का लुप्त होना एक आर्थिक नुकसान है.

'शहर में हो भाषाओं के लिए जगह'

भाषा बचाने का मतलब है कि भाषा बोलने वाले समुदाय को बचाना. ऐसे समुदायों के लिए जो नए विकास के विचार से पीड़ित हैं, उनके लिए एक माइक्रोप्लानिंग की ज़रूरत है.
हर समुदाय चाहे वह सागर तटीय हो, घुमंतू समुदाय हो, पहाड़ी इलाक़ों, मैदानी और शहरी सभी समुदायों के लोगों के लिए अलग योजना की ज़रूरत है.
बहुत से लोग शहरीकरण को भाषाओं के लुप्त होने का कारण मानते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से शहरीकरण भाषाओं के लिए खराब नहीं है. शहरों में इन भाषाओं की अपनी एक जगह होनी चाहिए. बड़े शहरों का भी बहुभाषी होकर उभरना ज़रूरी है.

'सभी भाषाओं को मिले सुरक्षा'

"''हिंदी को डरने की ज़रूरत नहीं क्योंकि हिंदी दुनिया की भाषाओं के मामले में चीनी और अंग्रेज़ी के बाद सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है. वह स्पेनिश से आगे निकल गई है. मगर छोटी भाषाओं का बहुत ख़तरा है.''"
जिसकी लिपि नहीं हैं उसे बोली कहने का रिवाज़ है. ऐसे में अगर देखें तो अंग्रेज़ी की भी लिपि नहीं है वह रोमन इस्तेमाल करती है. किसी भी लिपि का इस्तेमाल दुनिया की किसी भी भाषा के लिए हो सकता है. जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में नहीं आई, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग. इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा.
सरकारें न तो भाषा को जन्म दे सकती हैं और न ही भाषा का पालन करा सकती हैं. मगर सरकार की नीतियों से कभी-कभी भाषाएं समय से पहले ही मर सकती हैं. इसलिए सरकार के लिए ज़रूरी है कि वह भाषा को ध्यान में रखकर विकास की माइक्रो प्लानिंग करे.
हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर की योजनाएं बनती हैं और राज्यों में इसकी ही छवि देखी जाती है. इसी तरह पूरे देश में भाषा के लिए योजना बनाना ज़रूरी है. मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि 1952 के बाद देश में भाषावार प्रांत बने.
इसीलिए हम मानते हैं कि हर राज्य उस भाषा का राज्य है, चाहे वह तमिलनाडु हो, कर्नाटक हो या कोई और. हमने केवल शेड्यूल में 22 भाषाएं रखी हैं. केवल उन्हें ही सुरक्षा देने के बजाय सभी भाषाओं को बगैर भेदभाव के सुरक्षा देना ज़रूरी है. अगर सरकार ऐसा नहीं करेगी तो बाकी सभी भाषाएं मृत्यु के रास्ते पर चली जाएंगीं.

'हिंदी को डरने की ज़रूरत नहीं'

भारत, भाषा, विलुप्त
बंजारे समुदायों ने अपनी छवि के चलते बड़े शहरों में पलायन किया और पहचान छिपाकर रखी. इस वजह से कई भाषाएं विलुप्त हो गईं.
दस हज़ार साल पहले लोग खेती की तरफ़ मुड़े उस वक़्त बहुत सी भाषाएं विलुप्त हो गईं. हमारे समय में भी बहुत बड़ा आर्थिक बदलाव देखने में आ रहा है. ऐसे में भाषाओं की दुर्दशा होना स्वाभाविक है. मगर अंग्रेज़ी से हिंदी को डर या हिंदी से अन्य भाषाओं को डर ठीक नहीं है.
पिछले 50 साल में हिंदीभाषी 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या 33 करोड़ से बढ़कर 49 करोड़ हो गई. इस तरह हिंदी की वृद्धि दर अंग्रेज़ी से ज़्यादा है.
मेरे हिसाब से हिंदी को डरने की ज़रूरत नही क्योंकि हिंदी दुनिया की भाषाओं के मामले में चीनी और अंग्रेज़ी के बाद सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है. वह स्पेनिश से आगे निकल गई है. मगर छोटी भाषाओं को बहुत ख़तरा है.
(पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश डेवी से अमरेश द्विवेदी की बातचीत पर आधारित)

Friday, August 9, 2013

कैसे बच पाएंगे दुनिया भर के अख़बार?

ब्रजेश उपाध्याय

 शुक्रवार, 9 अगस्त, 2013 को 07:11 IST तक के समाचार

जेफ़ बेजोस ने 25 करोड़ डॉलर में वाशिंगटन पोस्ट को खरीदा है.
वाशिंगटन पोस्ट अख़बार के बिकने की ख़बर की घोषणा के बाद से ही अमरीकी मीडिया में गरमागरम बहस जारी है कि इंटरनेट व्यापार के शातिर खिलाड़ी क्लिक करेंजेफ़ बेज़ोस ऐसा कौन सा जादू चलाएंगे जो अख़बार की काया पलट देगा.
अमेज़न डॉट कॉम के ज़रिए अरबपति बनने वाले बेज़ोस ने़ इंटरनेट की ताक़त से ख़ुदरा बिक्री की परिभाषा बदल कर रख दी. किताब हो या कैमरा, गहने हों या जूते... माऊस की बस एक क्लिक और सामान चंद दिनों के अंदर ग्राहक के घर में.
क्लिक करेंबेज़ोस ने 25 करोड़ डॉलर में छह सालों से घाटे में चल रहे अख़बार को खरीदा है. उसे चलाने के लिए उनका बिजनेस मॉडल क्या होगा, इस पर फ़िलहाल उन्होंने कुछ नहीं कहा है. लेकिन इतना ज़रूर कहा है, "आगे का रास्ता आसान नहीं होगा, हमें आविष्कार करने होंगे और उसका मतलब है कि हमें प्रयोग करने होंगे."

दुनिया भर की नज़र

"आगे का रास्ता आसान नहीं होगा, हमें आविष्कार करने होंगे और उसका मतलब है कि हमें प्रयोग करने होंगे."
जेफ़ बेज़ोस, वाशिंगटन पोस्ट के नए मालिक
ज़ाहिर है क्लिक करेंवाशिंगटन पोस्ट नामक इस प्रयोगशाला पर पूरी दुनिया की मीडिया की नज़र होगी.
ऐसा क्या कर सकते हैं बेज़ोस जो वाशिंगटन पोस्ट को बचा ले ?
बीबीसी ने ये जानने के लिए एक ख़ास बातचीत की राजू नरिसेटी से जो वाशिंगटन पोस्ट के पूर्व संपादक रह चुके हैं और उसके इंटरनेट पाठकों की संख्या रेकॉर्ड स्तर तक ले जाने का श्रेय काफ़ी हद तक उन्हें मिला था.
नरिसेटी ने भारत में भी मिंट नाम से बिज़नेस अख़बार की शुरूआत की और आज मीडिया मुगल रूपर्ट मरडॉक की कंपनी न्यूज़ कॉर्प की वरिष्ठ प्रबंधन टीम में है.

क्या हैं उपाय


विशेषज्ञों का मानना है कि अख़बारों को इंटरनेट के जरिए आमदनी को बढ़ाने के उपायों पर खास तौर से ध्यान देना होगा.
नरिसेटी ने तीन उपाय सुझाए.
  1. वाशिंगटन पोस्ट की पत्रकारिता में कहीं ग़लती नहीं है. ज़रूरत है उसकी बिज़नेस रणनीति को बदलने की और उसे स्मार्ट तरीके से कार्यान्वित करने की.
  2. वाशिंगटन पोस्ट ने बरसों से अपने पाठकों के बारे में जो जानकारी जुटाई है रजिस्ट्रेशन के ज़रिए उसका इस्तेमाल करके विज्ञापन और सब्सक्रिप्शन से पैसे कमाएं.
  3. डिजिटल के फ़ैसले अख़बार की प्रिंट की विरासत से बंधे ना हों. उनका कहना है कि अभी भी अख़बार की ज़्यादातर कमाई प्रिंट संस्करण से ही है और इसलिए रणनीति उसी के ईर्द-गिर्द घूमती है.
नरिसेटी कहते हैं कि वाशिंगटन पोस्ट भले ही एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड हो लेकिन उसके प्रिंट संस्करण को वाशिंगटन डीसी के लोग ही पढ़ते है और उस मायने में वो एक मेट्रो न्यूज़पेपर है.

अख़बारों का भविष्य

उनका कहना है कि अख़बार बिल्कुल ही ख़त्म हो जाएंगे ऐसा तो नहीं लगता है लेकिन उनका प्रभाव कम होता जाएगा और इसलिए उनके लिए ज़रूरी है एक वैकल्पिक आय का ज़रिया ढूंढना जो डिजिटल के क्षेत्र में नए प्रयोग से आ सकता है.
उन्होंने कहा कि भारत के लिए इसमें एक बड़ा सबक है क्योंकि इसमें कोई शक नहीं है कि जो आज अख़बारों का हाल अमरीका में है वही आनेवाले सालों में भारत में होगा.
नरिसेटी का कहना है कि ज़रूरी है कि अभी से ही भारतीय अख़बार अपनी वेबसाईट को मुफ़्त में उपलब्ध कराने की जगह उससे सब्सक्रिप्शन के ज़रिए पैसे कमाने के तरीकों पर काम करें.
उनका कहना है कि ज़रूरत है उस दिशा में छोटे-छोटे कदम उठाने की जिससे कुछ सालों में वो ठोस आय का ज़रिया बन सके और प्रिंट पर उसकी निर्भरता कम हो.

Tuesday, August 6, 2013

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों

- गोपालदास "नीरज" (Gopaldas Neeraj)
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |
माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |
लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।