Wednesday, August 28, 2013

मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए

मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए
जयराम शुक्ल
मेरे एक मित्र की अक्सर शिकायत रहती है कि आजकल मेरे लेखन में नकारात्मकता का पुट कुछ ज्यादा ही रहता है। मित्र की चिन्ता निश्चित ही गंभीर और विचारणीय है। मैंने खुश होने के लाख मौके तलाशे। अपने इर्द-गिर्द, समाज में, राजनीति और बाजार में मौसम और मानसून में। धर्म में विज्ञान में। तीर्थो में पर्यटन स्थलों में। आपस के रिश्तों में। रोजमर्रा की जिन्दगी में। लाख कोशिशों के बाद कहीं सुकून नहीं दिखा। कोई भी ऐसा नजारा नजर नहीं आया कि पल भर के लिए खुश हो लें। मेरे जैसे बहुत से बेचैन लोग हैं, कहीं से कुछ अच्छी खबर के इन्तजार में। मित्र की चिन्ता और उनके प्रश्नों का जवाब सव्रेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता में मिला। यह कविता उन्होंने 1982 में लिखी थी, असम के रक्तपात के संदर्भ में। यानी कि नब्बे के उदारीकरण के दौर के आठ वर्ष पहले। इस लम्बी कविता के आरंभ में कुछ अंश जो आज की परिस्थितियों के भी उत्तर हो सकते हैं। यथा - यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो? यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रही हों। तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो। यदि हां तो मुङो तुमसे कुछ नहीं कहना है। ..इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं है। न ईश्वर.. न ज्ञान.. न चुनाव। कागज पर लिखी कोई भी इबारत फाड़ी जा सकती है, और जमीन की सात परतों के भीतर गाड़ी जा सकती हैं। जो विवेक खड़ा हो लाशों को टेक वह अंधा है.. याद रखो एक बच्चे की हत्या। एक औरत की मौत। एक आदमी का गोलियों से चिथड़ा तन। किसी शासन का ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र का पतन है। ..आखिरी बात। बिलकुल साफ। किसी हत्यारे को। कभी मत करो माफ। चाहे हो वह तुम्हारा यार। धर्म का ठेकेदार। चाहे लोकतंत्र का स्वानाम धन्य पहरेदार।

समझ में नहीं आता क्या देखूं। कहां आंखें मूद लूं। एक फूल सी बच्ची के साथ दुराचार का आरोपी कथित संत अपने आश्रम में बैठकर, प्रवचनों में अपने किए पर पश्चाताप की बजाय मसखरों की तरह अट्टहास करता है। हमारे ही बीच के वे अन्धे और मूर्ख सेवादार झूठ का वितान बनाने में, उस आरोपी को बचाने में लगे हैं। सियासी दलों को यहां राजनीति नजर आती है।

प्रवचनों में उमड़ने वाली भेंड़ बकरियों सी भीड़ में वे अपना वोट तलाशते हैं। उधर चौरासी कोसी परिक्रमा का उपक्रम चल रहा है। राम की अयोध्या आहत है। 1984 से लगातार यह धर्मनगरी कफ्यरू, तनाव, गोलियां, जिरह बख्तर पहने सिपाहियों की बूटों से आहत है। अयोध्या को एक बार फिर सत्ता की सीढ़ी बनाने की कोशिशें हो रही हैं। जनमानस में राम की प्राण प्रतिष्ठा करने वाले तुलसी तो ‘मांगकर खाइबो मसीत (मस्जिद) में सोइबो’ तक में संतोष कर लेते हैं। ये धरम धुरंधर राम को चुनाव के पोस्टरों और नारों में बेंच रहे हैं। अयोध्यावासी ये सब नहीं चाहते। पर उनके न चाहने से क्या होता है? अयोध्या को अब राम ही बचा सकते हैं इन सियासत दानों से।

सड़क पर बेटियां सुरक्षित नहीं। एक दामिनी-फिर एक दामिनी, कहीं खुशबू तो कहीं गुड़िया। मुंबई में फिर सामूहिक दुष्कर्म हुआ। संसद गरम हो गई। फिर फांसी पर लटका देने की मांग उठी। जो सिलसिला शुरू हुआ थमने का नाम नहीं ले रहा। दुनिया भर में थू-थू हो रही है। कहीं विदेशी पर्यटक का शिकार तो कहीं विदेशी छात्रा से छेड़-छाड़। कानून और दण्ड का भय। बदनामी और पाप का डर समाज से तिरोहित होता जा रहा है।

आदमी अपने घर में सुरक्षित नहीं। हर घर में एक गुड़िया है। हर चौराहों पर दरिंदे खड़े हैं। इधर से आंखें फेरते हैं तो उधर किसान और उसके खेत रो रहे हैं। वन-पर्वत-नदी-झरने सभी कुछ कारपोरेट घरानों को पट्टों में दे देने की होड़ सी मची है। जंगल से वनवासी भगाए जा रहे हैं क्योंकि यहां जानवरों को बाघ-चीतों को पाला जाना है। जिन वनों में सदियों से आदमी, जानवर और पेड़-पौधों के बीच गहरी रिश्तेदारी निभाता रहता आया है, अचानक उसे जंगलों का दुश्मन घोषित कर दिया गया। किसानों को खेतों से बेदखल किया जा रहा है क्योंकि यहां कारखाने लगने हैं। ये कारखाने देश की ग्रोथ रेट बढ़ाएंगे। शहरों में अट्टालिकाएं, सड़क, फ्लाईओवर बनाने वाले गरीबों का इतना भी हक नहीं कि दो गज जमीन में वे परिवार के साथ गुजर कर सकें। झोपड़ियां हटाई जा रही हैं बिल्डरों के लिए। यहां मॉल मल्टीप्लेक्स बनेंगे।

आदमी को जंगल से भगाया, जानवरों के लिए। किसानों को खेत से भगाया कारखानों के लिए। शहर के झोपड़ों को उजाड़ा बिल्डरों के मल्टीप्लेक्स और मॉल के लिए। अपनी ही मातृभूमि में आदमी की औकात दो कौड़ी की बनाई जा रही है। उससे चैन से सांस लेने का हक छीना जा रहा है। उसके पक्ष में खड़ा होने के बजाय, उसका मजाक उड़ाया जा रहा है कि यह तो पॉंच रुपए रोजाना में गुजर कर सकता है। कोई मंत्री इसे सच साबित करने के लिए प्रयोग भी करके दिखाने की बात करता है। पार्लियामेंट जब बंद रहती है तो कहते हैं - लोकतंत्र पर विश्वास नहीं। जब चलती है तो चलने नहीं देते। न वाणी में संयम न कोई मर्यादा।

जिसका जो मन पड़े बोले जा रहा है। देश की राजनीति एक ऐसे रंगमंच में तब्दील हो गई है, जिसमें सिर्फ विदूषक और खलनायक हैं। नायकों का अता-पता नहीं। जन सरोकार की बातें कोई उठाना भी चाहे तो सत्ता तंत्र और विपक्ष दोनों उसका गला दबाने को, उसे अविश्वसनीय और पागल करार करने के लिए तत्पर हैं। जो गुस्से से मुट्ठी भींजते हुए जोर से अपने हक की बात करे वो नक्सली। जो गांधीवादी तरीके से अपनी बात करने की कोशिश करे वह पागल और लोकतंत्र का दुश्मन। एरोम शर्मीला, श्याम रुद्र पाठक या अन्ना हजारे ही, गांधी के रास्ते में चलने की कोशिश की तो या तो अनसुने कर दिए गए या अलग-थलग। पुणो में नरेन्द्र दाभोलकर को इसलिए मार दिया जाता है कि वे पोंगापन्थ और अन्धविश्वास के खिलाफ जंग छेड़े हुए थे। उनकी आवाज को आगे बढ़ाने पुणो का कबीर कलामंच आगे आया तो उसे नक्सली कहा गया। मारपीट की गई। सफदर हाशमी जैसे हश्र की धमकी दी गई। इन सब मसलों और नजारों के बीच कोई कैसे सकारात्मक हो सकता है..मित्र, वैसे मैं भी बकौल दुष्यन्त कुमार..सोचता हूं।
वे मुतमइन है - पत्थर पिघल नहीं सकता 
मैं बेकरार हूं आवाज में आसर के लिए।
लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
jairamshuklarewa@gmail.com

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