इनदिनों देश की सियासी फिजा में काफी कुछ तैर रहा है। मोदी का विषवमन, राहुल का रुदन और हमेशा की तरह दिग्विजय का मसखरापन। तरुण तेजपाल के जेल जाने की चर्चा सुर्खियों में है तो आसाराम-नारायण सार्इं के कितने आश्रमों में चकले चल रहे थे, इसकी खोजपरक रिपोर्ट, केन्द्र की खुफिया एजेन्सी ‘साहेब’ का ‘वो’ कनेक्शन खोजेगी तो जस्टिस एक्स का मैडम वाय से संबंधों का खुलासा होगा। केजरीवाल की आप का स्टिंग असली है या फर्जी, फोरेंसिक लैब जल्दी ही बताने वाली है। राज्यों में सरकार बनाने के अपने-अपने दावे हैं, इन सबके बीच शोभन सरकार अब खुद सोने का खजाना खोदेंगे और कड़कड़ाती ठंड में एक बार फिर अन्ना लोकपाल को लेकर दिल्ली में अनशन करेंगे। विमर्श-चर्चाओं और बहसों से यदि कोई मुद्दा खारिज है तो वह है भारत-निर्माण का विजन। यह असल सवाल न तो नरेन्द्र मोदी के एजेन्डे में है और न ही राहुल गांधी के। |
छ: महीने बाद देश में महाचुनाव होने जा रहा है। दो में से किसी गठबंधन को बहुमत मिला तो उनकी सरकार अगले पांच साल के लिए देश की तकदीर लिखेगी। दो चेहरे सामने हैं। एक नरेन्द्र मोदी का दूसरा राहुल गांधी का। मीडिया इन दोनों को नाप तौल रहा है। देश का युवा मोदी के लिए कितना क्रेजी है और उसके बरक्स राहुल गांधी की सभाओं को वह किस तरह हूट कर रहा है। मोदी की कुर्सी कितने लाख रुपए में नीलाम हुई। प्राइम टाइम की सुर्खियों में मुख्यधारा मीडिया इसे ही परोसने में लगा है। मीडिया का तीन चौथाई हिस्सा कारपोरेट घरानों के पास है। जाहिर है नरेन्द्र मोदी की छवि को छ: महीने और चमकदार बनाए रखने की कोशिशें जारी रहेंगी। इस बीच फोर्ब्स जैसी पत्रिकाएं, अमीरी और रसूख के इन्डेक्स भी जारी कर रही हैं। मुकेश अम्बानी दुनिया के दस बड़े अमीरों में शामिल हैं। भारत में 103 अरबपति रहते हैं और अरबपतियों के मामले में हम छठवें स्थान पर हैं। देश की 98 प्रतिशत निजी संपदा दो प्रतिशत लोगों के पास है। रसूख के मामले में सोनिया गांधी दुनिया की सबसे रसूखदार महिलाओं में लगातार बनी हुई हैं। इस बीच कुछ ऐसे तथ्य भी राष्टÑीय और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों ने जारी किए हैं। जो न तो मीडिया की सुर्खियां बन पार्इं और न ही राजनीतिक बहसों में इन्हें जगह मिली। जैसे मानविकी सूचकांक की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आज भी 30 करोड़ घरों में बल्ब नहीं। चालीस करोड़ लोगों के यहां एलपीजी कनेक्शन नहीं हैं। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के उत्तरार्द्ध में सबसे चर्चित डील हुई थी अमेरिका के साथ एटमी डील। प्रचारित यह किया गया था कि इस डील से क्लीन ऊर्जा (प्रदूषण रहित) मिलेगी और बिजली की कमी से आम लोगों को निजात। इस डील को पूरा हुए लगभग पांच साल हो गए। देश जानना चाहता है कि कितने एटमी रिएक्टर निर्माणाधीन हैं और वे कब से बिजली बनाना शुरू कर देंगे। लेकिन यह बताने की फुर्सत न यूपीए सरकार को है और न एनडीए गठबन्धन को पूछने की चिंता। इस बीच 2 लाख करोड़ रुपयों का कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला सामने आया, आवंटन की जल्दबाजी के पीछे भी ऊर्जा की जरूरत के तर्क बताए गए हैं। ऊर्जा का संंकट जहां का तहां है.. कांग्रेस भाजपा दोनों के विजन डाक्यूमेंट से इसकी चिन्ता व्यक्त होती नहीं दिखती।
मनरेगा, खाद्य सुरक्षा बिल और तमाम राहतों व रियायतों के बीच ग्लोबल हंगर इन्डेक्स की एक रिपोर्ट काबिल-ए-गौर है। दुनिया में भुखमरी का शिकार हर चौथा व्यक्ति भारतीय है। वर्ष 2011-13 के बीच जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार हंगर इन्डेक्स (भूख का सूचकांक) में 120 देशों के भारत 63वें स्थान पर है। इस मामले में श्रीलंका, पाकिस्तान यहां तक की बांग्लादेश की स्थिति हमसे बेहतर है। दुनिया भर के 21 फीसदी कुपोषित बच्चे अपने देश में रहते हैं। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश की बात करें तो 5 साल से कम उम्र के 51.09 कुपोषित बच्चे इस सूबे में रहते हैं। इसी क्रम में ग्लोबल स्लेवरी इन्डेक्स (वैश्विक गुलामी सूचकांक) में दुनिया भर में 3 करोड़ गुलामों में से डेढ़ करोड़ गुलाम अपने देश में अभिशापित हैं। यह स्थिति तब है जब प्राय: हर प्रदेश गरीबों के लिए सस्ते राशन की योजनाएं चला रहा है। बन्धुआ मुक्ति का कड़ा कानून लागू है और प्रत्येक व्यक्ति को सुनिश्चित रोजगार की सांविधानिक गारंटी दी गई है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली दस से ज्यादा वर्षों से लागू है, जिसमें गरीबों को रियायती दाम पर राशन उपलब्ध कराने की बात की जाती है। दावे यह किए जाते हैं कि अन्न के उत्पादन में हम आत्मनिर्भर हैं और हमारे गोदामों में गेहूं का बम्पर स्टॉक जमा है। अन्तरराष्टÑीय संगठन द्वारा मीडिया को जारी इन आंकड़ों पर चिन्ता करने व भविष्य में कोई कारगर मॉडल तैयार करने का वक्त न नरेन्द्र मोदी के पास है और न राहुल गांधी के पास।
कारगर लोकपाल की नियुक्ति और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानूनों की दरकार के बीच स्थितियां ट्रान्सपेरेंसी इन्टरनेशनल बयान करती हैं। 62 फीसद भारतीयों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम कराने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। यूपीए सरकार के माथे पर 5 लाख करोड़ रुपयों के घोटालों के आरोप टंके हैं, तो उसकी पूर्ववर्ती एनडीए सरकार की कु न्डली में कई घोटालों की फेहरिश्त दर्ज है। कारगर और जवाबदेह लोकपाल की नियुक्ति के मामले में राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी का लगभग एक जैसा रुख है। पिछले साल पार्लियामेंट में बड़े ओज और जोश के साथ राहुल गांधी ने यूपीए सरकार की मंत्रिमण्डलीय समिति द्वारा ड्राफ्ट किए गए लोकपाल की पैरवी करते हुए अन्ना के जनलोकपाल को सिरे से खारिज कर दिया था। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने लोकायुक्त की नियुक्ति पर एक के बाद एक अड़ंगे लगाने जारी रखे, जो प्रकारान्तर में मुख्यमंत्री-राज्यपाल के विवाद के सबब बने। ढोल ढमाकों के साथ देश में जब इक्कीसवीं सदी की बात शुरू हुई तो कहा गया, यह युवाओं ंकी सदी होगी। अर्थशास्त्रियों ने देश की युवाशक्ति को ‘डेमोग्रेफिक डेवीडेन्ड’ (जननांकीय लाभांश) की बात की। चीन से ज्यादा आर्थिक तरक्की का प्रमुख आधार भी इसे ही बताया। वर्तमान का हाल यह कि अनुमानित 4.7 प्रतिशत दर के मुकाबले आर्थिक विकास की दर 3.8 प्रतिशत है जो बेहद निराशाजनक है। यह सही है कि देश की साठ फीसदी आबादी युवाओं की है लेकिन हम उन्हें उत्कृष्ट शिक्षा, तकनीकी कौशल और नए अवसर उपलब्ध कराने में नाकाम रहे हैं। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में नेसकाम व मैकिन्से के शोध में दुनिया के श्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में से भारत का कोई भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। इस सूची में पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान 226वां है, जोकि भारत में प्रथम है। राष्टÑीय मूल्यांकन और प्रत्यापन परिषद की मानें तो 90 फीसदी कॉलेजों और 70 फीसदी विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत कमजोर है। रोजगारों के अवसर के मामलों में मानवकी का 10 में से 1 और इन्जीनियरिंग का 4 में से 1 स्नातक की नौकरी के काबिल हैं। वैश्विक स्तर में उत्कृष्ट शैक्षणिक अधोसंरचना का जिक्र डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भी करते थे और प्रणब मुखर्जी भी करते हैं, पर सत्ता की दौड़ में शामिल इन दो महारथियों, नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के भाषणों में इस क्षेत्र की वरीयता का जिक्र कहीं पढ़ने सुनने को नहीं मिला। फेसबुक-ट्विटर के सोशल मीडिया की लहर पर सवार युवा पीढ़ी इन सवालों को दोनों भावी भाग्यविधाताओं के सामने रखे और इसके बाद तय करें कि देश की कमान किसके हाथ में हो? यदि दोनों ही नाकाबिल हैं.. तो तीसरे विकल्प की बहस शुरू होनी चाहिए, आखिर यह हमारे भविष्य का सवाल है।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
मनरेगा, खाद्य सुरक्षा बिल और तमाम राहतों व रियायतों के बीच ग्लोबल हंगर इन्डेक्स की एक रिपोर्ट काबिल-ए-गौर है। दुनिया में भुखमरी का शिकार हर चौथा व्यक्ति भारतीय है। वर्ष 2011-13 के बीच जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार हंगर इन्डेक्स (भूख का सूचकांक) में 120 देशों के भारत 63वें स्थान पर है। इस मामले में श्रीलंका, पाकिस्तान यहां तक की बांग्लादेश की स्थिति हमसे बेहतर है। दुनिया भर के 21 फीसदी कुपोषित बच्चे अपने देश में रहते हैं। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश की बात करें तो 5 साल से कम उम्र के 51.09 कुपोषित बच्चे इस सूबे में रहते हैं। इसी क्रम में ग्लोबल स्लेवरी इन्डेक्स (वैश्विक गुलामी सूचकांक) में दुनिया भर में 3 करोड़ गुलामों में से डेढ़ करोड़ गुलाम अपने देश में अभिशापित हैं। यह स्थिति तब है जब प्राय: हर प्रदेश गरीबों के लिए सस्ते राशन की योजनाएं चला रहा है। बन्धुआ मुक्ति का कड़ा कानून लागू है और प्रत्येक व्यक्ति को सुनिश्चित रोजगार की सांविधानिक गारंटी दी गई है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली दस से ज्यादा वर्षों से लागू है, जिसमें गरीबों को रियायती दाम पर राशन उपलब्ध कराने की बात की जाती है। दावे यह किए जाते हैं कि अन्न के उत्पादन में हम आत्मनिर्भर हैं और हमारे गोदामों में गेहूं का बम्पर स्टॉक जमा है। अन्तरराष्टÑीय संगठन द्वारा मीडिया को जारी इन आंकड़ों पर चिन्ता करने व भविष्य में कोई कारगर मॉडल तैयार करने का वक्त न नरेन्द्र मोदी के पास है और न राहुल गांधी के पास।
कारगर लोकपाल की नियुक्ति और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानूनों की दरकार के बीच स्थितियां ट्रान्सपेरेंसी इन्टरनेशनल बयान करती हैं। 62 फीसद भारतीयों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम कराने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। यूपीए सरकार के माथे पर 5 लाख करोड़ रुपयों के घोटालों के आरोप टंके हैं, तो उसकी पूर्ववर्ती एनडीए सरकार की कु न्डली में कई घोटालों की फेहरिश्त दर्ज है। कारगर और जवाबदेह लोकपाल की नियुक्ति के मामले में राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी का लगभग एक जैसा रुख है। पिछले साल पार्लियामेंट में बड़े ओज और जोश के साथ राहुल गांधी ने यूपीए सरकार की मंत्रिमण्डलीय समिति द्वारा ड्राफ्ट किए गए लोकपाल की पैरवी करते हुए अन्ना के जनलोकपाल को सिरे से खारिज कर दिया था। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने लोकायुक्त की नियुक्ति पर एक के बाद एक अड़ंगे लगाने जारी रखे, जो प्रकारान्तर में मुख्यमंत्री-राज्यपाल के विवाद के सबब बने। ढोल ढमाकों के साथ देश में जब इक्कीसवीं सदी की बात शुरू हुई तो कहा गया, यह युवाओं ंकी सदी होगी। अर्थशास्त्रियों ने देश की युवाशक्ति को ‘डेमोग्रेफिक डेवीडेन्ड’ (जननांकीय लाभांश) की बात की। चीन से ज्यादा आर्थिक तरक्की का प्रमुख आधार भी इसे ही बताया। वर्तमान का हाल यह कि अनुमानित 4.7 प्रतिशत दर के मुकाबले आर्थिक विकास की दर 3.8 प्रतिशत है जो बेहद निराशाजनक है। यह सही है कि देश की साठ फीसदी आबादी युवाओं की है लेकिन हम उन्हें उत्कृष्ट शिक्षा, तकनीकी कौशल और नए अवसर उपलब्ध कराने में नाकाम रहे हैं। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में नेसकाम व मैकिन्से के शोध में दुनिया के श्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में से भारत का कोई भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। इस सूची में पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान 226वां है, जोकि भारत में प्रथम है। राष्टÑीय मूल्यांकन और प्रत्यापन परिषद की मानें तो 90 फीसदी कॉलेजों और 70 फीसदी विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत कमजोर है। रोजगारों के अवसर के मामलों में मानवकी का 10 में से 1 और इन्जीनियरिंग का 4 में से 1 स्नातक की नौकरी के काबिल हैं। वैश्विक स्तर में उत्कृष्ट शैक्षणिक अधोसंरचना का जिक्र डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भी करते थे और प्रणब मुखर्जी भी करते हैं, पर सत्ता की दौड़ में शामिल इन दो महारथियों, नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के भाषणों में इस क्षेत्र की वरीयता का जिक्र कहीं पढ़ने सुनने को नहीं मिला। फेसबुक-ट्विटर के सोशल मीडिया की लहर पर सवार युवा पीढ़ी इन सवालों को दोनों भावी भाग्यविधाताओं के सामने रखे और इसके बाद तय करें कि देश की कमान किसके हाथ में हो? यदि दोनों ही नाकाबिल हैं.. तो तीसरे विकल्प की बहस शुरू होनी चाहिए, आखिर यह हमारे भविष्य का सवाल है।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
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