इस चुनाव की पृष्ठभूमि और उसके संदर्भ से तीन बड़े बुनियादी सवाल उभरे हैं जिन पर गंभीरता से विमर्श की जरूरत होगी। पहला: चुनाव में प्रचार की भाषा आरोप-प्रत्यारोप की हदें और टूटती वर्जनाएं। दूसरा: देश-प्रदेश के निर्माण, महंगाई व युवाओं के मुद्दों पर पार्टियों का पलायनवादी रुख। तीसरा: कानून व्यवस्था, कर्तव्यपरायणता के प्रति सरकारों की गैरजवाबदेहिता। तेरह दिन बाद फिर किसी न किसी की सरकार बनेगी पर क्या चेहरा बदल जाने या वही रहने से कुर्सी का चरित्र बदलेगा इस बार भी यही देखने सुनने का इंतजार है।
ते रह दिन बाद यह तय हो जाएगा कि शिवराज सरकार की हैट्रिक बनती है या कांग्रेस की फिर वापसी होती है। यह भी साफ हो जाएगा कि प्रदेश में दो धु्रवीय राजनीति की निरंतरता बनी रहती है या कि खण्डित जनादेश निकलकर सामने आता है। इन तरह दिनों में जीत-हार का सट्टाबाजार चढ़ता-उतरता रहेगा। मतदाताओं का मौन सबको हैरत में डालने वाला है। यह भी देखना होगा कि मतदान के ज्यादा प्रतिशत में इनकंबेन्सी फैक्टर है या सरकार की उपलब्धियों के साथ। इस बीच मीडिया के सर्वे और चैनलों के पैनलियों का बुद्धिविलास भी जारी रहेगा। अचानक आई खबर शून्यता की भरपाई भी विश्लेषण और भावी सरकार के स्वरूप के आंकलन के जरिए भरी जाती रहेगी।
इस चुनाव की पृष्ठभूमि और उसके संदर्भ से तीन बड़े बुनियादी सवाल उभरे हैं जिन पर गंभीरता से विमर्श की जरूरत होगी। पहला: चुनाव में प्रचार की भाषा आरोप-प्रत्यारोप की हदें और टूटती वर्जनाएं। दूसरा: देश-प्रदेश के निर्माण, महंगाई व युवाओं के मुद्दों पर पार्टियों का पलायनवादी रुख। तीसरा: कानून व्यवस्था, कर्तव्यपरायणता के प्रति सरकारों की गैरजवाबदेहिता।
बात शुरू करते हैं प्रचार की भाषा और आरोप-प्रत्यारोपों की वर्जनाओं को लेकर। अक्टूबर में हमने एक बात की ओर संकेत किया था कि इस चुनाव में मर्यादाएं भी तार-तार होंगी और वर्जनाएं भी टूटेंगी। इसके पीछे ठोस वजह यह थी कि नरेन्द्र मोदी की भोपाल महारैली के प्रचार की जो होर्डिंग्स राजधानी के चौराहों पर लगाई गई थी उन पर लिखा था- ये युद्ध आर-पार है, अब अंतिम प्रहार है। अटल बिहारी वाजपेयी की किसी अन्य संदर्भ में लिखी गयी कविता की इस पंक्ति का प्रयोग करके भाजपा ने यह संकेत दे दिया था कि प्रचार के मामले में वह किसी भी हद तक जा सकती है। चुनाव प्रचार के विज्ञापनों की इबारत यह बताती है कि उसने अपने इस धर्म का बखूबी से निर्वाह किया। जब एक पक्ष घिनौनेपन पर उतर आता है तो दूसरे पक्ष के पास दो ही विकल्प बचते हैं या तो वह पलायन करे या फिर नहले पर दहले के अन्दाज में जवाब दे। भाजपा के विज्ञापन की इबारत के साथ, मनमोहन सिंह, सोनिया-राहुल, रॉबर्ट वाड्रा के अलावा प्रदेश के प्रमुख नेताओं के पेक्टोग्राम उभारे गए। कांग्रेस तो वैसे ही इस खेल में माहिर है, उसने शिवराज सिंह और उनके परिवार को निशाने पर रखा, आमतौर पर अब तक जिन बातों को पब्लिक के बीच में लाने से परहेज किया जाता रहा, भाजपा-कांग्रेस दोनों ने अपने विज्ञापनों व मंचीय भाषणों के जरिए प्रस्तुत किया।
प्रचार अभियान और भाषणों में किसी भी पक्ष ने गंभीरता व तार्किकता नहीं दिखायी। भाजपा ने इसे आर-पार का युद्ध और अंतिम प्रहार के साथ शुरू किया, लेकिन युद्ध की भी मर्यादाएं तय हैं, इस बार उनका लिहाज नहीं रखा गया। किसी जमाने में राजनीतिक दल समविचारधारा के लेखकों व बौद्धिकों से प्रचार साहित्य तैयार करवाते थे, अब वही काम विज्ञापन एजेन्सियां करने लगीं, और उनकी सोच ‘ठंडा मतलब कोका कोला या ये प्यास है बड़ी’ से आगे कुछ जाता ही नहीं। देश प्रसिद्ध भोपाली शायर बशीर बद्र ने सत्तर के दशक में लिखा था ‘दुश्मनी जमकर करो पर इतनी गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों। ’ दिसम्बर में सरकार बन जाएगी। पक्ष व प्रतिपक्ष में यही सब लोग चुनकर पहुंचेंगे; सोचता हूं कि एक-दूसरे की नजरों का कैसा सामना करेंगे... पर जब आंखों का पानी ही मर गया हो तो ऐसे सवाल उठाना बेमतलब है।
दूसरी बात इस चुनाव में दोनों राजनीतिक दलों ने अपने-अपने घोषणापत्रों में वायदों की झड़ी सी लगा दी। मुफ्त सेवाओं और योजनाओं के ऐसे सब्जबाग दिखाए गए हैं कि यदि इन दोनों में से किसी की भी सरकार बनी और वायदों पर वाकई अमल किया तो प्रदेश कंगाल हो जाएगा और यहां के निम्न मध्यमवर्ग के लोग निकले और नकारा। एक पार्टी ने एक दिन की मजदूरी में माहभर के राशन का प्रबंध किया है तो दूसरी पार्टी का वायदा है कि वो मुफ्त में महीने भर का राशन देगी। ऊर्जा जैसी गंभीर समस्या जिससे प्रदेश अब तक उबर नहीं पाया है, उसे गरीबों व किसानों के बीच मुफ्त में बांटे जाने के वायदे किए गए हैं। किसी भी राजनीति दल ने उस वर्ग की चिन्ता नहीं की जिसके टैक्स से राजस्व जुटाया जाता है। घोषणापत्रों में ऐसे छिछोरे वायदे राजनीतिक दलों के मानसिक दिवालियापन और वोट के लिए किसी भी हद तक जाने की होड़ नजर आती है।
प्रदेश सरकार पर 89 करोड़ रुपयों का कर्ज है। इस कर्ज का न तो किसी राजनीतिक दल ने जिक्र किया और न जनता के सामने ऐसी कोई योजना प्रस्तुत की गई कि वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन कहां से जुटाए जाएंगे। कानून-व्यवस्था का हाल क्या है यह बताने की जरूरत इसलिए नहीं कि प्रचार अभियान में नेशनल क्राइम ब्यूरो आॅफ रेकार्ड के आंकड़े खूब प्रचारित हुए खासतौर पर महिलाओं के अत्याचार के सम्बन्ध में। शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में भी प्रदेश की स्थिति और दयनीय है। जिस तरह देश का कोई भी राष्टÑीय संस्थान या विश्वविद्यालय दुनिया के श्रेष्ठ 200 संस्थानों में शामिल नहीं, उसी तरह मध्यप्रदेश का कोई भी संस्थान देश के 100 सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में नहीं आता। निजी व्यवसायिक कॉलेजों की बेहिसाब संख्या तो है पर सड़क छाप फैकल्टी के चलते 20 में से एक छात्र ही दक्ष व काम लायक निकल रहा है। भोपाल के रेस्त्राओं और शोरूम्स में एमबीए पास लड़के 5 से 10 हजार की नौकरी करते मिल जाएंगे। व्यवसायिक डिग्रियों का इतना अवमूल्यन हुआ है कि पूछिए मत। एक ओर जहां दिल्ली के श्रीराम कॉलेज आॅफ कॉमर्स के छात्र प्लेसमेंट और पैकेज के मामलों में आईआईएम अहमदाबाद के छात्रों से टक्कर ले रहे हैं वहीं अपने प्रदेश के निजी और सरकारी कालेजों से निकले कॉमर्स व इकोनामिक्स के छात्रों को संविदा शिक्षक तक की नौकरियों के लाले पड़े हैं। युवाओं की इस चिन्ता का जिक्र किसी भी राजनीतिक दल ने न अपने घोषणापत्रों में की न ही चुनाव में बहस का मुद्दा बनाया। डॉक्टरों की इतनी कमी है कि औसतन 10 किलोमीटर की परिधि में सरकारी अस्पताल नहीं स्थापित हो पाए हैं। जो सरकारी अस्पताल हैं भी उनमें से अधिसंख्य में कम्पाउन्डर और नर्स ही विशेषज्ञों का काम कर रहे हैं। कुपोषण, नवप्रसूता व शिशुओं की मृत्युदर भी भयावह है। चुनाव में स्वास्थ्य सुरक्षा को लेकर भी किसी ने कोई चिन्ता व्यक्त नहीं की। बौद्धिकता के विकास और भौतिक तरक्की के इस दौर में यह चुनाव, नेताओं के विषवमन, रुदन और मसखरेपन के लिए जाना जाएगा।
तीसरी बात चुनाव की आचार संहिता लागू होने के बाद कानून व व्यवस्था की जो स्थिति रही उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या प्रशासनिक अराजकता के लिए वे राजनीतिक दल जिम्मेदार होते हैं जो सत्ता या विपक्ष में बैठते हैं। लगभग डेढ़ महीने तक प्रशासन पर चुनाव आयोग का नियंत्रण चला। इस दरम्यान प्रशासन चुस्त दुरुस्त व कानून व्यवस्था चाक चौबन्द दिखीं। अपराधिक घटनाएं लगभग थमी रहीं। कदाचरण, भ्रष्टाचार व अन्य मामले की उभरकर नहीं आए। वजह, प्रशासन नेता, मंत्रियों के दखल से काफी कुछ हद तक निरपेक्ष रहा। ताकतवर राजनेताओं को भी अधिकारियों व कर्मचारियों से दो टूक सुननी पड़ी जबकि सामान्य दिनों में यही प्रशासन सत्ताधीशों की जूतियां चमकाने या बेगार करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। सबक यह कि क्या पूरे पांच वर्ष तक ऐसा प्रशासन नहीं चल सकता जो कि आदर्श चुनाव संहिता के दरम्यान चलता है। यदि ऐसा नहीं तो सीधा मतलब यह कि प्रशासनिक अराजकता और बदहाल कानून-व्यवस्था के लिए सियासीदल ही जिम्मेदार हैं। तेरह दिन बाद फिर किसी न किसी की सरकार बनेगी पर क्या चेहरा बदल जाने या वही रहने से कुर्सी का चरित्र बदलेगा इस बार भी यही देखने सुनने का इंतजार है।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09425813208.
इस चुनाव की पृष्ठभूमि और उसके संदर्भ से तीन बड़े बुनियादी सवाल उभरे हैं जिन पर गंभीरता से विमर्श की जरूरत होगी। पहला: चुनाव में प्रचार की भाषा आरोप-प्रत्यारोप की हदें और टूटती वर्जनाएं। दूसरा: देश-प्रदेश के निर्माण, महंगाई व युवाओं के मुद्दों पर पार्टियों का पलायनवादी रुख। तीसरा: कानून व्यवस्था, कर्तव्यपरायणता के प्रति सरकारों की गैरजवाबदेहिता।
बात शुरू करते हैं प्रचार की भाषा और आरोप-प्रत्यारोपों की वर्जनाओं को लेकर। अक्टूबर में हमने एक बात की ओर संकेत किया था कि इस चुनाव में मर्यादाएं भी तार-तार होंगी और वर्जनाएं भी टूटेंगी। इसके पीछे ठोस वजह यह थी कि नरेन्द्र मोदी की भोपाल महारैली के प्रचार की जो होर्डिंग्स राजधानी के चौराहों पर लगाई गई थी उन पर लिखा था- ये युद्ध आर-पार है, अब अंतिम प्रहार है। अटल बिहारी वाजपेयी की किसी अन्य संदर्भ में लिखी गयी कविता की इस पंक्ति का प्रयोग करके भाजपा ने यह संकेत दे दिया था कि प्रचार के मामले में वह किसी भी हद तक जा सकती है। चुनाव प्रचार के विज्ञापनों की इबारत यह बताती है कि उसने अपने इस धर्म का बखूबी से निर्वाह किया। जब एक पक्ष घिनौनेपन पर उतर आता है तो दूसरे पक्ष के पास दो ही विकल्प बचते हैं या तो वह पलायन करे या फिर नहले पर दहले के अन्दाज में जवाब दे। भाजपा के विज्ञापन की इबारत के साथ, मनमोहन सिंह, सोनिया-राहुल, रॉबर्ट वाड्रा के अलावा प्रदेश के प्रमुख नेताओं के पेक्टोग्राम उभारे गए। कांग्रेस तो वैसे ही इस खेल में माहिर है, उसने शिवराज सिंह और उनके परिवार को निशाने पर रखा, आमतौर पर अब तक जिन बातों को पब्लिक के बीच में लाने से परहेज किया जाता रहा, भाजपा-कांग्रेस दोनों ने अपने विज्ञापनों व मंचीय भाषणों के जरिए प्रस्तुत किया।
प्रचार अभियान और भाषणों में किसी भी पक्ष ने गंभीरता व तार्किकता नहीं दिखायी। भाजपा ने इसे आर-पार का युद्ध और अंतिम प्रहार के साथ शुरू किया, लेकिन युद्ध की भी मर्यादाएं तय हैं, इस बार उनका लिहाज नहीं रखा गया। किसी जमाने में राजनीतिक दल समविचारधारा के लेखकों व बौद्धिकों से प्रचार साहित्य तैयार करवाते थे, अब वही काम विज्ञापन एजेन्सियां करने लगीं, और उनकी सोच ‘ठंडा मतलब कोका कोला या ये प्यास है बड़ी’ से आगे कुछ जाता ही नहीं। देश प्रसिद्ध भोपाली शायर बशीर बद्र ने सत्तर के दशक में लिखा था ‘दुश्मनी जमकर करो पर इतनी गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों। ’ दिसम्बर में सरकार बन जाएगी। पक्ष व प्रतिपक्ष में यही सब लोग चुनकर पहुंचेंगे; सोचता हूं कि एक-दूसरे की नजरों का कैसा सामना करेंगे... पर जब आंखों का पानी ही मर गया हो तो ऐसे सवाल उठाना बेमतलब है।
दूसरी बात इस चुनाव में दोनों राजनीतिक दलों ने अपने-अपने घोषणापत्रों में वायदों की झड़ी सी लगा दी। मुफ्त सेवाओं और योजनाओं के ऐसे सब्जबाग दिखाए गए हैं कि यदि इन दोनों में से किसी की भी सरकार बनी और वायदों पर वाकई अमल किया तो प्रदेश कंगाल हो जाएगा और यहां के निम्न मध्यमवर्ग के लोग निकले और नकारा। एक पार्टी ने एक दिन की मजदूरी में माहभर के राशन का प्रबंध किया है तो दूसरी पार्टी का वायदा है कि वो मुफ्त में महीने भर का राशन देगी। ऊर्जा जैसी गंभीर समस्या जिससे प्रदेश अब तक उबर नहीं पाया है, उसे गरीबों व किसानों के बीच मुफ्त में बांटे जाने के वायदे किए गए हैं। किसी भी राजनीति दल ने उस वर्ग की चिन्ता नहीं की जिसके टैक्स से राजस्व जुटाया जाता है। घोषणापत्रों में ऐसे छिछोरे वायदे राजनीतिक दलों के मानसिक दिवालियापन और वोट के लिए किसी भी हद तक जाने की होड़ नजर आती है।
प्रदेश सरकार पर 89 करोड़ रुपयों का कर्ज है। इस कर्ज का न तो किसी राजनीतिक दल ने जिक्र किया और न जनता के सामने ऐसी कोई योजना प्रस्तुत की गई कि वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन कहां से जुटाए जाएंगे। कानून-व्यवस्था का हाल क्या है यह बताने की जरूरत इसलिए नहीं कि प्रचार अभियान में नेशनल क्राइम ब्यूरो आॅफ रेकार्ड के आंकड़े खूब प्रचारित हुए खासतौर पर महिलाओं के अत्याचार के सम्बन्ध में। शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में भी प्रदेश की स्थिति और दयनीय है। जिस तरह देश का कोई भी राष्टÑीय संस्थान या विश्वविद्यालय दुनिया के श्रेष्ठ 200 संस्थानों में शामिल नहीं, उसी तरह मध्यप्रदेश का कोई भी संस्थान देश के 100 सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में नहीं आता। निजी व्यवसायिक कॉलेजों की बेहिसाब संख्या तो है पर सड़क छाप फैकल्टी के चलते 20 में से एक छात्र ही दक्ष व काम लायक निकल रहा है। भोपाल के रेस्त्राओं और शोरूम्स में एमबीए पास लड़के 5 से 10 हजार की नौकरी करते मिल जाएंगे। व्यवसायिक डिग्रियों का इतना अवमूल्यन हुआ है कि पूछिए मत। एक ओर जहां दिल्ली के श्रीराम कॉलेज आॅफ कॉमर्स के छात्र प्लेसमेंट और पैकेज के मामलों में आईआईएम अहमदाबाद के छात्रों से टक्कर ले रहे हैं वहीं अपने प्रदेश के निजी और सरकारी कालेजों से निकले कॉमर्स व इकोनामिक्स के छात्रों को संविदा शिक्षक तक की नौकरियों के लाले पड़े हैं। युवाओं की इस चिन्ता का जिक्र किसी भी राजनीतिक दल ने न अपने घोषणापत्रों में की न ही चुनाव में बहस का मुद्दा बनाया। डॉक्टरों की इतनी कमी है कि औसतन 10 किलोमीटर की परिधि में सरकारी अस्पताल नहीं स्थापित हो पाए हैं। जो सरकारी अस्पताल हैं भी उनमें से अधिसंख्य में कम्पाउन्डर और नर्स ही विशेषज्ञों का काम कर रहे हैं। कुपोषण, नवप्रसूता व शिशुओं की मृत्युदर भी भयावह है। चुनाव में स्वास्थ्य सुरक्षा को लेकर भी किसी ने कोई चिन्ता व्यक्त नहीं की। बौद्धिकता के विकास और भौतिक तरक्की के इस दौर में यह चुनाव, नेताओं के विषवमन, रुदन और मसखरेपन के लिए जाना जाएगा।
तीसरी बात चुनाव की आचार संहिता लागू होने के बाद कानून व व्यवस्था की जो स्थिति रही उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या प्रशासनिक अराजकता के लिए वे राजनीतिक दल जिम्मेदार होते हैं जो सत्ता या विपक्ष में बैठते हैं। लगभग डेढ़ महीने तक प्रशासन पर चुनाव आयोग का नियंत्रण चला। इस दरम्यान प्रशासन चुस्त दुरुस्त व कानून व्यवस्था चाक चौबन्द दिखीं। अपराधिक घटनाएं लगभग थमी रहीं। कदाचरण, भ्रष्टाचार व अन्य मामले की उभरकर नहीं आए। वजह, प्रशासन नेता, मंत्रियों के दखल से काफी कुछ हद तक निरपेक्ष रहा। ताकतवर राजनेताओं को भी अधिकारियों व कर्मचारियों से दो टूक सुननी पड़ी जबकि सामान्य दिनों में यही प्रशासन सत्ताधीशों की जूतियां चमकाने या बेगार करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। सबक यह कि क्या पूरे पांच वर्ष तक ऐसा प्रशासन नहीं चल सकता जो कि आदर्श चुनाव संहिता के दरम्यान चलता है। यदि ऐसा नहीं तो सीधा मतलब यह कि प्रशासनिक अराजकता और बदहाल कानून-व्यवस्था के लिए सियासीदल ही जिम्मेदार हैं। तेरह दिन बाद फिर किसी न किसी की सरकार बनेगी पर क्या चेहरा बदल जाने या वही रहने से कुर्सी का चरित्र बदलेगा इस बार भी यही देखने सुनने का इंतजार है।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09425813208.
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