द बुक ऑफ इंडियन एनिमल्स (1948) में एस. एच. प्रेटर ने लिखा कि "मध्य भारत के कुछ शुष्क जंगलों में सफ़ेद या आंशिक सफ़ेद बाघ असामान्य नहीं हैं.[8] यह मिथक है कि सफ़ेद बाघ जंगल में नहीं पलते-बढ़ते. भारत ने रीवा के निकट विशेष रूप से आरक्षित एक जंगल में इस वशीभूत-नस्ल के सफ़ेद बाघों को फिर से पैदा करने की योजना बनायी.[9] जंगल में सफ़ेद बाघों को पैदा किया गया और कई पीढि़यों तक उनका संयोग कराया गया. ए. ए. डनबर ब्रांडर ने वाइल्ड एनिमल्स इन सेंट्रल इंडिया (1923) में लिखा कि "सफ़ेद बाघ कभी-कभार होते हैं. रीवा राज्य और मांडला एवं विलासपुर जिलों के संगम sthal पर अमरकंटक के पड़ोस में इन जानवरों का नियमित रूप से संयोग कराया जाता है. आखिरी बार 1919 में जब मैं मांडला में था, उस समय वहां एक सफ़ेद बाघिन और दो-तिहाई विकसित सफ़ेद शावक जीवित थे. 1915 में एक नर बाघ को रीवा राज्य ने पकड़ लिया और उसे कैद कर लिया. बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी के जर्नल के खंड XXVII के अंक 47 में भारतीय पुलिस के श्रीमान स्कॉट ने इस जानवर का उत्कृष्ट विवरण दिया है."[10]
द जर्नल ऑफ द बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी के "मिसलेनियस नोट्स: नं. 1-ए व्हाइट टाइगर इन कैप्टिविटी (तस्वीर के साथ)" के पूर्व चर्चित लेख कहता है कि "रीवा की कैद में जो सफ़ेद बाघ था उसे दिसंबर 1915 में इस सुहागपुर के निकट राज्य के जंगल से पकड़ा गया था. उस समय वह लगभग दो साल का था. दक्षिणी रीवा में इस बाघ से जुड़े और भी दो सफ़ेद बाघ थे, लेकिन ऐसा माना जाता था कि इस पशु की मां सफ़ेद नहीं थी ... लगभग 10 या 12 साल पहले दक्षिणी रीवा के सोहार्गपुर तहसील में एक सरदार ने एक सफ़ेद बाघ को मार डाला था. शाहडोल और अन्नूपुर, B.N.Ry. के अत्यंत निकट अन्य दो बाघ दिखाई पड़े, लेकिन स्वर्गवासी महाराज का आदेश था कि उनकी हत्या न की जाए. अन्नूपुर (भीलम डुंगारी जंगल) के एक बाघ के बारे में कहा जाता था कि वह कैद किए गए बाघ का भाई था. ये सफ़ेद बाघ सेंट्रल प्रोविंस के पड़ोसी ब्रितानिया जिलों में घुमा करते हैं और वे मैकल पर्वत श्रृंखलाओं के आसपास रहते हैं." इसके पर्याप्त सबूत हैं कि जंगलों में वयस्क सफ़ेद बाघों का अस्तित्व था.[11][12] 1900 के दशक में पोलोक तैयार की गई रिपोर्टों में मेघालय की जिंतेंह पहाड़ियों और बर्मा में सफ़ेद बाघों के देखे जाने की खबर थी. 1892 और 1922 के बीच, पूना, ऊपरी असम, उड़ीसा, बलिसपुर और कूचबिहार में सफ़ेद बाघों को गोली मारी गई. 1920 और 1930 के दशक में विभिन्न अंचलों में सफ़ेद बाघों को गोली मारी गई. इसी समयावधि में बिहार में पंद्रह बाघों को गोली मारी गई. कलकत्ता संग्रहालय और बिहार के टिसरी स्थित मीका शिविर में ट्रॉफियों की प्रदर्शनी लगी हुई हैं. रॉलैंड वार्ड के रिकॉर्ड्स ऑफ़ बिग गेम में सफ़ेद बाघों के और भी प्रमाण दर्ज हैं.
विक्टर एच. काहलने ने 1943 में उत्तरी चीन में सफ़ेद बाघों के बारे में बताया: "... उत्तर चीन में बड़ी तादाद में निश्चित रूप से हलके भूरे रंग के धारियों वाले रंगविहीन बाघ पैदा हुए हैं. मेलानिस्टीक (काले) बाघ बहुत ही दुर्लभ हैं."[13] हालांकि, सफ़ेद बाघ रंगहीन नहीं होते. ये बाघ अमुर बाघ की उपप्रजाति (पैंथेरा टाइग्रिस अल्टाइका) के सफ़ेद बाघ थे, जिन्हें साइबेरियाई बाघ के नाम से भी जाना जाता है. उत्तरी चीन और कोरिया में सफ़ेद बाघों के होने की खबर मिली थी.[14][15] दोनों देशों में सफ़ेद बाघों का सांस्कृतिक महत्व है. वे सुमात्रा और जावा की लोककथाओं का भी हिस्सा हैं.
जिम कॉर्बेट ने जंगल में एक सफ़ेद बाघिन पर एक फिल्म बनाया, जिसके नारंगी रंग के दो शावक थे. इस फिल्म के फुटेज को 1984 की नैशनल ज्योग्राफिक फिल्म मैन ईटर्स ऑफ़ इंडिया में इस्तेमाल किया गया था, जो जिम कॉर्बेट द्वारा 1957 में इसी नाम से लिखी गई किताब पर आधारित थी. यह जंगलों में सफ़ेद बाघों के अस्तित्व और उनके संयोग का एक और सबूत है. मध्य प्रदेश के रीवा राज्य की पूर्व रियासत में बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के वेबसाइट में सफ़ेद बाघों की तस्वीरें दिखाई गयीं हैं और कहा गया है "बांधवगढ़ के जंगल अतीत में सफ़ेद बाघों के जंगल थे." आज, बांधवगढ़ में 46 से 52 नारंगी रंग के बाघ निवास कर रहे हैं, जो भारत में किसी भी राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की आबादी में सबसे बड़ी संख्या है.[16]
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