पिछले हफ्ते अपने विन्ध्य का भविष्यफल बांचते हुए यहां के अधोसंरचना विकास व संभावित औद्योगिकीकरण और उससे जुड़ी भू-अधिग्रहण, विस्थापन और पुनर्वास की समस्या को रेखांकित करने की हल्की सी कोशिश की थी। इस संदर्भ में कई पाठक मित्रों की गंभीर प्रतिक्रि याएं व सुझाव आए। इस बहस को अगले कॉलम में जारी रखेंगे, फिलहाल अपने विन्ध्य की खेती-किसानी, प्रकृति व पर्यावरण संतुलन पर औद्योगीकरण के प्रभाव की भावी तस्वीर का आंकलन करने की कोशिश करते हैं।
उन्नत खेती का ख्वाब: साल दर साल सूखा-ओला-पाला जैसे प्राकृतिक प्रकोप झेलने के लिए अभिशप्त हो चुके किसान भाइयों को इस साल फिर वही 33 वर्षीय पुरानी दिलासा है। बस जल्दी ही बाणसागर का पानी अपने खेतों में आने ही वाला है। उधर बरगी बांध का पानी चल चुका समझो। अपने विन्ध्य में नहरों के जरिए सोन-नर्मदा और गंगा का मेल होने ही वाला है। बस अब वह दिन दूर नहीं जब हर खेत को पानी और हर हाथ को काम मिलेगा। सन् नब्बे में भाजपा यही नारा देकर सत्ता में आई थी। फिलहाल प्रदेश में उसी का राज है। सो इसलिए बीस साल पहले का नारा अब फलीभूत होने वाला है। अपना विन्ध्य पंजाब-हरियाणा के नक्शो-कदमों पर चलने ही वाला है। किसान तिनफसली उपज लेने लगेंगे। अन्न से धन की वर्षा होने लगेगी। वे मोटर पर सवार होकर शॉपिंग मॉल में खरीदारी करने जाया करेंगे। किसानों के अपने शीतगृह होंगे, जहां सब्जियां,फल-फूल, दूध-दही, घी-मख्खन का भंडार होगा। अब सल्फास खाकर कोई भी किसान नहीं मरेगा। शब्दजालों का जो भविष्यफल कई सालों से हम बांचते आ रहे हैं फिलहाल इस साल भी वही समझिए।
हकीकत यह है: अपने विन्ध्य में सिंचाई का औसत रकबा लगभग तेरह से पंद्रह प्रतिशत है। पिछले पांच सालों से यहां सामान्य औसत वर्षा(9000से1100मिमी के बीच) से लगभग आधी ही होती आई है। सूखा-ओला-पाला, इल्ली,आंधी-तूफान के बिना शायद ही कोई साल गुजरा हो। बिजली की दशा बयान करने लायक नहीं। हजारों की संख्या में किसान बिजली चोरी के मामले में फंसे हैं। इनमें से सैकड़ों जेलयात्रा कर चुके हैं। खाद-बीज का कर्जा ऊपर से बना हुआ है। खेती का रकबा दिनों-दिन सिमट रहा है। जमीन का एक बड़ा हिस्सा नहरों, चौड़ी सडक़ों, बायपास, रेललाइन बिछाने व तीन-तीन नेशनल पार्कों(पन्ना,बांधवगढ़ व संजय) के बफर जोन बनाने में नप रहा है। फिर ऊपर से दर्जनों की संख्या में सीमेंट कारखाने व थर्मल प्लांट्स के करार हुए हैं। सरकार की लाठी और अपने धन की लुकाठी के दम पर उद्योगपतियों ने औने-पौने दामों में जमीन का अधिग्रहण शुरू कर दिया है। खेतों पर फसलों की जगह चिमनियां उगेंगी। नई खबर यह है कि सीमेंट और बिजली के कारखाने लगाने वाले उद्योगपति एग्रोफार्मिंग के क्षेत्र में भी अपना कारोबार फैलाने जा रहे हैं। जेपी, रिलाएंस और रूचि सोया(कैलाश सहारा) ने इस क्षेत्र में भी घुसपैठ करना शुरू कर दिया है। ये औद्योगिक घराने यहां कारपोरेट फार्मिंग शुरू करेंगे। तो गरीब किसानों की काश्तकारी की जमीन पर चारों ओर से गिद्धि नजर लगी हुई है। अब रही बात बाणसागर और बरगी की नहरों से आने वाले पानी की, तो यकीन मानिए खेतों से ज्यादा कारखाने इनका पानी पिएंगे। सीमेंट और थर्मल प्लांट पानी के सहारे चलने वाले उद्योग हैं। यदि इनकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर जाएं तो पता चलेगा कि पानी की जितनी जरूरत पेयजल व सिंचाई के लिए है उससे कहीं ज्यादा जरूरत इन उद्योगों का पड़ेगी। उदाहरण के लिए सतना शहर को बीस से पच्चीस लाख लीटर पीने के पानी की रोज आवश्यकता होती है, जबकि शहर से लगे हुए इलाके में खुलने जा रही रेवती सीमेंट फैक्ट्री को रोजाना कम से कम तीस लाख लीटर पानी की जरूरत होगी जिसे प्रदाय करने की जिम्मेवारी सरकार ने ली है। एेसी ही छह फैक्ट्रियां सतना के इर्द-गिर्द और आने वाली हैं। अभी हाल ही में सीधी जिला पंचायत ने एक प्रस्ताव पारित करके नहरों के पानी का एक फैक्ट्री को इस्तेमाल की स्वाकृति दी है। किसानों के हिस्से का पानी कारखानों का दिए जाने की सरकारी प्राथमिकता की यह एक हैरतअंगेज शुरुआत है।
तो उपचार क्या : अपने विन्ध्य के किसानों के सामने विकल्प के तौर पर वही मशहूर फिल्मी तराना है- जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां। तो इन्हीं परिस्थतियों के बीच से रास्ता निकालना होगा। हमारा कहना यह है कि सरकार खदानों पर आधारित उद्योगों के लिए जितनी बेताब है,उतनी ही बेताबी खेती पर आधारित उद्योगों को लेकर दिखाए। यदि आते-आते बाणसागर व बरगी का पानी यहां के खेतों में आ गया और अस्सी फासदी भी सिंचाई संभव हो पाई तो समझिए कि यहां के कृ षि उत्पादन का टर्नओवर व देश की अर्थव्यवस्था में यहां के किसानों का योगदान, यहां स्थापित होने वाले उद्योगों के टर्नओवर व अर्थव्यवस्था को उद्योगपतियों के योगदान से कई गुना ज्यादा होगा। इसलिए जरूरी है कि किसानों को सुविधाएं उपलब्ध कराने में सरकार उतनी ही सदाशयता दिखाए जितनी कि उद्योगपतियों के लिए दिखा रही है। शुरुआत छोटी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के साथ की जा सकती है। मसलन विन्ध्य के सभी जिलों में कम से कम जनपद स्तर पर शीतभंडारगृह व अन्न भंडारण के लिए वेयरहाउस बनाए जाएं। छोटे व सीमांत किसानों के लिए माइक्रोफाइनेंस जैसी स्कीम बनाएं ताकि किसान छोटी-मोटी जरूरतों के लिए सूदखोरों व व्यवहरों के आगे हाथ न पसारे। सिंचित व भविष्य में सिंचित होने वाली जमीन का किसी भी स्थिति में उद्योगों के लिए अधिग्रहण न किया जाए, चाहे इस हेतु उद्योगों का करार तोडऩा ही क्यों न पड़े। पहले पहाड़ी, बंजर व परती जमीन चिन्हित की जाए व इस किस्म की जमीन की उपलब्धता के आधर पर ही उद्योगों की स्थापना के बारे में विचार किया जाए। पानी का मामला सबसे गंभीर विषय है। सरकार पर एक एेसी कड़ी नीति बनाने पर दबाव बनाया जाए कि बाणसागर और बरगी से मिलने वाला पानी पहले पेयजल के लिए आरक्षित हो, इसके बाद खेतों को सिंचाई के लिए मिले, तदोपरांत सरप्लस पानी उद्योगों को दिया जाए। औद्योगिक इकाइयां किसी भी स्थिति में भूगर्भीय जल का दोहन न करने पाएं, इस पर कानूनी रोक तो लगे ही इसकी निगरानी के लिए मॉनिटरिंग कमेटियां बनाई जाए। औद्योगिक इकाइयां के खर्चे पर बरसाती पानी के संरक्षण के लिए संसाधन व संरचनाएं विकसित की जाएं। कारपोरेट फार्मिंग यहां के किसानों के कितने हित में है या नहीं, पहले विशेषज्ञों से इसका अध्ययन करवाया जाए इसके बाद ही एेसी खेती के लिए अनुमति दी जाए।
जरूरी सलाह: बड़े कारपोरेट जहां जाते हैं पहले वहां वे अपने हिसाब से माहौल बनाने के लिए निवेश करते हैं। बिजनेस की भाषा में इसे इनवायरमेंट मेकिंग कहा जाता है। ये सबसे पहले वहां के प्रभावशाली वर्ग मसलन, विधायक, सांसद, नगर व ग्रामीण क्षेत्र के अन्य छोटे-बड़े निर्वाचित प्रतिनिधि, पत्रकार व अन्य बौद्धिक वर्ग। इन्हें छोटे-मोटे ठेके, लायजनिंग का काम देकर एेसा उपकृत करते हैं कि ये भी उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं। सरकार और उसकी मशीनरी भी इन्ही की लंबरदार बन जाती है। उद्योग-धंधा जम जाने के बाद इन सब की औकात दो टके की भी नहीें बचती, क्योंकि तब तक ये भोपाल और दिल्ली में सत्ता के गलियारे में इतने मजबूत हो चुके होते हैं कि स्थानीय राजनीति भी इन्ही के इशारे पर संचालित होने लगती है। इसलिए सलाह यह है कि इनके झांसे में फंसे बगैर खुद के व अपने गांव-समाज के भाइयों के भावी व्यापक हित को सोचें इसके बाद ही कोई निर्णय लें। फूट डालो व राज करो की नीति को समझें, छोटे से फायदे के लिए गांव व वहां के लोगों के हितों को दांव पर न लगा दें। लेकिन यह भी ध्यान रखें कि कई कारपोरेट घराने एेसे भी हैं जो वाकयी लोकहित का ध्यान रखते हैं, इसलिए अच्छे-बुरे की परख उनके कार्यों के आधार पर समझें। और मोटी-मोटी बातों में यह तो जान ही लें कि हमारे लिए खेती भी जरूरी है और उद्योग भी, लेकिन देखने वाली बात यह है कि दोनों के बीच आवश्यक संतुलन बना रहे।
प्रकाशित- 10 जनवरी 2011
उन्नत खेती का ख्वाब: साल दर साल सूखा-ओला-पाला जैसे प्राकृतिक प्रकोप झेलने के लिए अभिशप्त हो चुके किसान भाइयों को इस साल फिर वही 33 वर्षीय पुरानी दिलासा है। बस जल्दी ही बाणसागर का पानी अपने खेतों में आने ही वाला है। उधर बरगी बांध का पानी चल चुका समझो। अपने विन्ध्य में नहरों के जरिए सोन-नर्मदा और गंगा का मेल होने ही वाला है। बस अब वह दिन दूर नहीं जब हर खेत को पानी और हर हाथ को काम मिलेगा। सन् नब्बे में भाजपा यही नारा देकर सत्ता में आई थी। फिलहाल प्रदेश में उसी का राज है। सो इसलिए बीस साल पहले का नारा अब फलीभूत होने वाला है। अपना विन्ध्य पंजाब-हरियाणा के नक्शो-कदमों पर चलने ही वाला है। किसान तिनफसली उपज लेने लगेंगे। अन्न से धन की वर्षा होने लगेगी। वे मोटर पर सवार होकर शॉपिंग मॉल में खरीदारी करने जाया करेंगे। किसानों के अपने शीतगृह होंगे, जहां सब्जियां,फल-फूल, दूध-दही, घी-मख्खन का भंडार होगा। अब सल्फास खाकर कोई भी किसान नहीं मरेगा। शब्दजालों का जो भविष्यफल कई सालों से हम बांचते आ रहे हैं फिलहाल इस साल भी वही समझिए।
हकीकत यह है: अपने विन्ध्य में सिंचाई का औसत रकबा लगभग तेरह से पंद्रह प्रतिशत है। पिछले पांच सालों से यहां सामान्य औसत वर्षा(9000से1100मिमी के बीच) से लगभग आधी ही होती आई है। सूखा-ओला-पाला, इल्ली,आंधी-तूफान के बिना शायद ही कोई साल गुजरा हो। बिजली की दशा बयान करने लायक नहीं। हजारों की संख्या में किसान बिजली चोरी के मामले में फंसे हैं। इनमें से सैकड़ों जेलयात्रा कर चुके हैं। खाद-बीज का कर्जा ऊपर से बना हुआ है। खेती का रकबा दिनों-दिन सिमट रहा है। जमीन का एक बड़ा हिस्सा नहरों, चौड़ी सडक़ों, बायपास, रेललाइन बिछाने व तीन-तीन नेशनल पार्कों(पन्ना,बांधवगढ़ व संजय) के बफर जोन बनाने में नप रहा है। फिर ऊपर से दर्जनों की संख्या में सीमेंट कारखाने व थर्मल प्लांट्स के करार हुए हैं। सरकार की लाठी और अपने धन की लुकाठी के दम पर उद्योगपतियों ने औने-पौने दामों में जमीन का अधिग्रहण शुरू कर दिया है। खेतों पर फसलों की जगह चिमनियां उगेंगी। नई खबर यह है कि सीमेंट और बिजली के कारखाने लगाने वाले उद्योगपति एग्रोफार्मिंग के क्षेत्र में भी अपना कारोबार फैलाने जा रहे हैं। जेपी, रिलाएंस और रूचि सोया(कैलाश सहारा) ने इस क्षेत्र में भी घुसपैठ करना शुरू कर दिया है। ये औद्योगिक घराने यहां कारपोरेट फार्मिंग शुरू करेंगे। तो गरीब किसानों की काश्तकारी की जमीन पर चारों ओर से गिद्धि नजर लगी हुई है। अब रही बात बाणसागर और बरगी की नहरों से आने वाले पानी की, तो यकीन मानिए खेतों से ज्यादा कारखाने इनका पानी पिएंगे। सीमेंट और थर्मल प्लांट पानी के सहारे चलने वाले उद्योग हैं। यदि इनकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर जाएं तो पता चलेगा कि पानी की जितनी जरूरत पेयजल व सिंचाई के लिए है उससे कहीं ज्यादा जरूरत इन उद्योगों का पड़ेगी। उदाहरण के लिए सतना शहर को बीस से पच्चीस लाख लीटर पीने के पानी की रोज आवश्यकता होती है, जबकि शहर से लगे हुए इलाके में खुलने जा रही रेवती सीमेंट फैक्ट्री को रोजाना कम से कम तीस लाख लीटर पानी की जरूरत होगी जिसे प्रदाय करने की जिम्मेवारी सरकार ने ली है। एेसी ही छह फैक्ट्रियां सतना के इर्द-गिर्द और आने वाली हैं। अभी हाल ही में सीधी जिला पंचायत ने एक प्रस्ताव पारित करके नहरों के पानी का एक फैक्ट्री को इस्तेमाल की स्वाकृति दी है। किसानों के हिस्से का पानी कारखानों का दिए जाने की सरकारी प्राथमिकता की यह एक हैरतअंगेज शुरुआत है।
तो उपचार क्या : अपने विन्ध्य के किसानों के सामने विकल्प के तौर पर वही मशहूर फिल्मी तराना है- जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां। तो इन्हीं परिस्थतियों के बीच से रास्ता निकालना होगा। हमारा कहना यह है कि सरकार खदानों पर आधारित उद्योगों के लिए जितनी बेताब है,उतनी ही बेताबी खेती पर आधारित उद्योगों को लेकर दिखाए। यदि आते-आते बाणसागर व बरगी का पानी यहां के खेतों में आ गया और अस्सी फासदी भी सिंचाई संभव हो पाई तो समझिए कि यहां के कृ षि उत्पादन का टर्नओवर व देश की अर्थव्यवस्था में यहां के किसानों का योगदान, यहां स्थापित होने वाले उद्योगों के टर्नओवर व अर्थव्यवस्था को उद्योगपतियों के योगदान से कई गुना ज्यादा होगा। इसलिए जरूरी है कि किसानों को सुविधाएं उपलब्ध कराने में सरकार उतनी ही सदाशयता दिखाए जितनी कि उद्योगपतियों के लिए दिखा रही है। शुरुआत छोटी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के साथ की जा सकती है। मसलन विन्ध्य के सभी जिलों में कम से कम जनपद स्तर पर शीतभंडारगृह व अन्न भंडारण के लिए वेयरहाउस बनाए जाएं। छोटे व सीमांत किसानों के लिए माइक्रोफाइनेंस जैसी स्कीम बनाएं ताकि किसान छोटी-मोटी जरूरतों के लिए सूदखोरों व व्यवहरों के आगे हाथ न पसारे। सिंचित व भविष्य में सिंचित होने वाली जमीन का किसी भी स्थिति में उद्योगों के लिए अधिग्रहण न किया जाए, चाहे इस हेतु उद्योगों का करार तोडऩा ही क्यों न पड़े। पहले पहाड़ी, बंजर व परती जमीन चिन्हित की जाए व इस किस्म की जमीन की उपलब्धता के आधर पर ही उद्योगों की स्थापना के बारे में विचार किया जाए। पानी का मामला सबसे गंभीर विषय है। सरकार पर एक एेसी कड़ी नीति बनाने पर दबाव बनाया जाए कि बाणसागर और बरगी से मिलने वाला पानी पहले पेयजल के लिए आरक्षित हो, इसके बाद खेतों को सिंचाई के लिए मिले, तदोपरांत सरप्लस पानी उद्योगों को दिया जाए। औद्योगिक इकाइयां किसी भी स्थिति में भूगर्भीय जल का दोहन न करने पाएं, इस पर कानूनी रोक तो लगे ही इसकी निगरानी के लिए मॉनिटरिंग कमेटियां बनाई जाए। औद्योगिक इकाइयां के खर्चे पर बरसाती पानी के संरक्षण के लिए संसाधन व संरचनाएं विकसित की जाएं। कारपोरेट फार्मिंग यहां के किसानों के कितने हित में है या नहीं, पहले विशेषज्ञों से इसका अध्ययन करवाया जाए इसके बाद ही एेसी खेती के लिए अनुमति दी जाए।
जरूरी सलाह: बड़े कारपोरेट जहां जाते हैं पहले वहां वे अपने हिसाब से माहौल बनाने के लिए निवेश करते हैं। बिजनेस की भाषा में इसे इनवायरमेंट मेकिंग कहा जाता है। ये सबसे पहले वहां के प्रभावशाली वर्ग मसलन, विधायक, सांसद, नगर व ग्रामीण क्षेत्र के अन्य छोटे-बड़े निर्वाचित प्रतिनिधि, पत्रकार व अन्य बौद्धिक वर्ग। इन्हें छोटे-मोटे ठेके, लायजनिंग का काम देकर एेसा उपकृत करते हैं कि ये भी उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं। सरकार और उसकी मशीनरी भी इन्ही की लंबरदार बन जाती है। उद्योग-धंधा जम जाने के बाद इन सब की औकात दो टके की भी नहीें बचती, क्योंकि तब तक ये भोपाल और दिल्ली में सत्ता के गलियारे में इतने मजबूत हो चुके होते हैं कि स्थानीय राजनीति भी इन्ही के इशारे पर संचालित होने लगती है। इसलिए सलाह यह है कि इनके झांसे में फंसे बगैर खुद के व अपने गांव-समाज के भाइयों के भावी व्यापक हित को सोचें इसके बाद ही कोई निर्णय लें। फूट डालो व राज करो की नीति को समझें, छोटे से फायदे के लिए गांव व वहां के लोगों के हितों को दांव पर न लगा दें। लेकिन यह भी ध्यान रखें कि कई कारपोरेट घराने एेसे भी हैं जो वाकयी लोकहित का ध्यान रखते हैं, इसलिए अच्छे-बुरे की परख उनके कार्यों के आधार पर समझें। और मोटी-मोटी बातों में यह तो जान ही लें कि हमारे लिए खेती भी जरूरी है और उद्योग भी, लेकिन देखने वाली बात यह है कि दोनों के बीच आवश्यक संतुलन बना रहे।
प्रकाशित- 10 जनवरी 2011
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