फिलहाल- जयराम शुक्ल
इस साल की बसंत बयार अरब विश्व में जनक्रांति के शोले लेकर आई है। 1989 में चीन के थिएनमेन चौक में जिन तोपों ने लोकतंत्र की ललक और लाल तानाशाही से मुक्ति की लालसा को बर्बरता के साथ कुचल दिया था, काहिरा के तहरीर चौक में उन्हीं तोपों की नाल पर बेखौफ बैठी मिस्त्र की तरूणाई नई विश्वव्यवस्था की इबारत लिखने के लिए डटी हुई है। अब तक अमेरिका के दुमछल्ले बनकर राज कर रहे अरब मुल्कों के बूढ़े अय्याश शासनाध्यक्षों, शेखों और सुल्तानों के खिलाफ वहां की अवाम ने अंगड़ाई ली है। ट्यूनीशिया से शुरू हुआ जास्मिन रिवाल्यूशन यमन, जार्डन होते हुई मिस्त्र पहुंच गया है। लीबिया, अल्जीरिया, बहरीन, अल्बानिया, सीरिया, सूडान जैसे मुल्कों में इस जनक्रांति की लपटें महसूस की जा रही हैं। काहिरा का तहरीर चौक अरब के शासनाध्यक्षों की तानाशाही और स्वेच्छाचरिता से मुक्ति प्रतीक स्थल बन चुका है। इस जनक्रांति की धमक से डरकर चीन ने अपने नागरिकों के लिए सूचना के सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। लंका के विपक्षी दल ने अल्टीमेटम दिया है कि सत्तातंत्र ने दमनकारी कदमों को नहीं रोका तो यहां भी अवाम मिस्त्र के नक्शों-कदम पर चल सकती है। अराजकता की पराकाष्ठा और बर्बाद अर्थव्यवस्था के बीच खड़े पाकिस्तान में ज्वालामुखी के फटने के पूर्व सी नि:स्तब्धता है। अरबसागर से उठी जनक्रांति की बसंती-बयार के झोंके से भारत महाद्वीप भी अछूता नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार की महागाथाओं, कालेधन की चकाचौंध के बीच बढ़ती मंहगाई, बेरोजगार युवाओं की पलटन और बेबस किसानों के कलेजे देश की सड़ी-गली और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ दहक रहे हैं। बस कपास तक एक चिंगारी पहुंचने का इंतजार है। यह जनक्रांति न तो खुमैनी के अल्फाजों में इस्लामिक नव-जागरण की शुरूआत है और न ही वहां के विपक्षी दलों का सत्ताविरोधी अभियान। यह गुस्सा इजराइल और अमेरिका के खिलाफ भी नहीं है। अरबसागर की लहरों से उठा यह तूफान गरीबी, शोषण, गैरबराबरी, भ्रष्टाचार व अराजकता के खिलाफ एक जैसा सोचने वाले बड़े-बूढ़े, छात्रों-नौजवानों, बच्चों और महिलाओं का समवेत जन अभियान है। फिलहाल उन्हें इस बात की फिक्र नहीं कि सामने विकल्प क्या है। अभी तो जिद व्यवस्था के परिवर्तन की है और लक्ष्य है करो या फिर मरो। बकौल राष्ट्रकवि दिनकर-दो राह, समय के रथ का घर घर नाद सुनो। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
इस जनक्रांति के मायने
उत्तरी अफ्रीका से अरब खाड़ी तक, अमीर-गरीब मुल्कों के सभी शासक खुद को एक जैसी स्थिति में पा रहे हैं। इनमें से ज्यादातर अमेरिका की सरपरस्ती में भ्रष्ट निरंकुश शासन की अध्यक्षता कर रहे हैं। दुनिया को लोकतंत्र और मानवाधिकारों की नसीहत देने वाले अमेरिका ने कभी भी अरब मुल्कों में लोकतंत्र की बयार नहीं देखनी चाही। यहां के शासकों ने भी कभी जनाकांक्षाओं का महत्व नहीं दिया। इस जनक्रांति की बुनियाद पर दुनिया की सूचना क्रांति है,जिसने आहत आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को स्वर दिया। विकीलीक्स खुलासों से उन्हें पता चला कि उनके शासक किस तरह देश के हितों का गिरवी रखकर अकूत दौलत के स्वामी बन चुके हैं। मुल्क की अवाम की बेहतरी के लिए उनके पास न कोई योजना है और न ही सोचने के लिए वक्त। भूख और गरीबी के खिलाफ जब ट्यूनाशिया की अवाम सडक़ पर उतरी तो उसके गुस्से को देखकर अमेरिका की छत्रछाया में 23 सालों से राज कर रहे तानाशाह बेन अली की जमीन खिसक गई। ट्यूनीशिया की सफलता से उत्साहित यमन के नागरिक भी सडक़ों पर उतर आए। राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला को जनता को यह वचन देना पड़ा कि अब वह न तो अपने कार्यकाल को आगे बढ़ाऐंगे और न ही अपने पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित करेंगे। अवाम के क्रांतिकारी तेवर को देखते हुए जार्डन के बादशाह अब्दुल्ला ने बिना कोई वक्त गंवाए प्रधानमंत्री समेत समूची सरकार को बर्खास्त कर दिया। इन तीनों मुस्लिम देशों में अवाम की बगावत के पीछे न तो कट्टरपंथी हैं और न ही कथित जेहाद की कोई भूमिका है। ये लोकतांत्रिक व्यवस्था में खुली सांस लेना चाहते हैं और जवाबदेह सत्ता में अपनी भागीदारी के महत्व को समझने लगे हैं। एक गुमनाम सा छोटा देश ट्यूनीशिया अरब विश्व में लोकतांत्रिक नवजागरण के ध्वजवाहक के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। यद्यपि अभी यह देखना होगा कि यह जनक्रांति प्रकारांतर में क्या शक्ल अख्तियार करती है, वैसे यह काफी कुछ हद तक मिस्त्र के हश्र पर निर्भर करता है।
तहरीर चौक पर मिश्र की तगदीर
इस समय पूरी दुनिया की नजरें मिस्त्र के प्रतिपल बदलते हुए घटनाक्रम पर टिकी हुई है। मुक्तिस्थल के प्रतीक के तौर पर उभर चुके तहरीर चौक पर क्रांतिकारी राष्ट्रपति मुबारक का तत्काल दफा करने की मांग को लेकर डटे हैं। मुबारक ने सितंबर तक की मोहलत मांगी है। क्रांतिकारियों को यह मंजूर नहीं। राष्ट्रपति अपने स्तर पर डैमेज कंट्रोल करने का यत्न कर रहे हैं। अपनी सरकार में उन्होंने आमूलचूल परिवर्तन किया है। उमर सुलेमान को उपराष्ट्रपति बनाकर आगे किया है लेकिन वे अप्रभावी साबित हो रहे हैं। तहरीर चौक पर जुटे क्रांतिकारियों के समूह की खासियत यह है कि इनके नेतृत्व में न तो मिश्र के रूढि़वादी नरमपंथी गुट मुस्लिम ब्रदरहुड का कोई प्रभाव है और न ही विपक्ष के नेता अलबरदेई को कोई भाव मिल रहा है। मिश्र में जिस तरह से स्वस्फूर्त प्रदर्शन शुरू हुआ है उसी तरह एक कलेक्टिव लीडरशिप पूरे अभियान की अगुआई कर रही है। करो या मरो के जज्बे के साथ मैदान पर उतरे युवा क्रांतिकारी यह मान चुके हैं कि अभी नहीं तो कभी नहीं। इधर अमेरिका के लिए मिस्त्र अरब मुल्कों में से सबसे अहम है। यहां उसका काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। अमेरिका अब तक मिश्र को 35 बिलियन डालर की मदद दे चुका है। मुबारक के हर कदम उसी के इशारे पर संचालित हो रहे हैं। मुबारक 30 सालों से मध्यपूर्व में पश्चिम के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। मिश्र के इजराइल से दोस्ताना संबंध हैं। अमेरिका के लिए चिंता की बात यह है कि कहीं मिश्र की सत्ता उसके विरोधी तत्वों के हाथों न चली जाए। वह बड़ी चालाकी के साथ सत्ता हस्तातंरण की बात कर रहा है। फिलहाल उसके सामने दो विकल्प हैं। पहला यह कि फौज के समर्थन के साथ उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान कमान संभाल लें। दूसरे उसने क्रांतिकारियों के बीच परमाणु नियंत्रण एजेंसी विएना के प्रमुख रहे अलबरदेई को भी स्थापित करने की कोशिश की है। अलबरदेई की अमेरिकी घनिष्टता का देखते हुए क्रांतिकारी शायद ही उन्हें स्वीकार कर पाएं। प्रदर्शनकारियों के क्रोध के निशाने पर भले ही अमेरिका और इजराइल न हों लेकिन यह बताने की जरूरत नहीं कि जिन होस्नी मुबारक को दफा करने का आंदोलन चल रहा है उनकी असली ताकत अमेरिका की ही सरपरस्ती रही है। अमेरिका के हिसाब से यदि किसी को सत्ता की कमान दी गई तो वह मुबारक का ही क्लोन होगा। इस बीच अमेरिका के सूचनातंत्रों ने यह भी प्रचारित करना शुरू कर दिया है कि इस प्रदर्शन के पीछे कहीं न कहीं अलकायदा की भी भूमिका है। एक रणनीति के तहत यह प्रचार इसलिए भी किया जा रहा है ताकि यदि जरूरत पड़े तो क्रांतिकारियों को अलकायदा के नाम पर कुचला जा सके। इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अमेरिका इस जनक्रांति को बदनाम करने के लिए कुछ विघटनकारी व विध्वंसक तत्व प्लांट कर सकता है। इधर आयतुल्ला खुमैनी काहिरा की क्रांति को 1979 में ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति की अनुगूंज मान रहे हैं। वे होस्नी मुबारक को ईरान के शाह रजा पहलवी की तरह अमेरिका और इजराइल का पिठ्ठू करार दे रहे हैं। कुछ भी हो तहरीर चौक पर जुटे क्रांतिकारियों की इच्छाशक्ति पर यह निर्भर करता है कि वे मिश्र के तगदीर की इबारत किस तरह लिखते हैं। वैसे न तो अमेरिका ओर न ही खुमैनी के लिए यह आसान नहीं होगा कि ट्यूनिशिया से शुरू हुई जनक्रांति की दिशा व दशा अपने हिसाब से तय कर सके।
तो क्या करे भारत
भारत के लिए यह समय न तो अरब खाड़ी से उठी जनक्रांति की लहरों के गिनने का है और न ही तूफान का देखकर शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ाकर खुद का महफूज समझने का। मिश्र से भारत की दोस्ती सदियों से रही है। दोनों ही देश संपन्न संास्कृतिक विरासत वाले देश हैं। नेहरू और नासिर की दोस्ती की बुनियाद पर ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन खड़ा हुआ था। पहले तो भारत मिश्र की जनक्रांति से यह सबक ले कि यदि भ्रष्टाचार और गरीबी के खिलाफ समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो तहरीर चौक के तूफान को दिल्ली के विजय चौक तक पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। दूसरे मिश्र की जनक्रांति का सम्मान करे व मिश्र से उसी तरह दोस्ती को यथावत रखे जैसे कि मोरारजी भाई देसाई ने ईरान के रजा पहलवी के पतन के बाद खुमैनी के साथ बरकरार रखी थी।
7 फरवरी 2011 को प्रकाशित
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इस साल की बसंत बयार अरब विश्व में जनक्रांति के शोले लेकर आई है। 1989 में चीन के थिएनमेन चौक में जिन तोपों ने लोकतंत्र की ललक और लाल तानाशाही से मुक्ति की लालसा को बर्बरता के साथ कुचल दिया था, काहिरा के तहरीर चौक में उन्हीं तोपों की नाल पर बेखौफ बैठी मिस्त्र की तरूणाई नई विश्वव्यवस्था की इबारत लिखने के लिए डटी हुई है। अब तक अमेरिका के दुमछल्ले बनकर राज कर रहे अरब मुल्कों के बूढ़े अय्याश शासनाध्यक्षों, शेखों और सुल्तानों के खिलाफ वहां की अवाम ने अंगड़ाई ली है। ट्यूनीशिया से शुरू हुआ जास्मिन रिवाल्यूशन यमन, जार्डन होते हुई मिस्त्र पहुंच गया है। लीबिया, अल्जीरिया, बहरीन, अल्बानिया, सीरिया, सूडान जैसे मुल्कों में इस जनक्रांति की लपटें महसूस की जा रही हैं। काहिरा का तहरीर चौक अरब के शासनाध्यक्षों की तानाशाही और स्वेच्छाचरिता से मुक्ति प्रतीक स्थल बन चुका है। इस जनक्रांति की धमक से डरकर चीन ने अपने नागरिकों के लिए सूचना के सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। लंका के विपक्षी दल ने अल्टीमेटम दिया है कि सत्तातंत्र ने दमनकारी कदमों को नहीं रोका तो यहां भी अवाम मिस्त्र के नक्शों-कदम पर चल सकती है। अराजकता की पराकाष्ठा और बर्बाद अर्थव्यवस्था के बीच खड़े पाकिस्तान में ज्वालामुखी के फटने के पूर्व सी नि:स्तब्धता है। अरबसागर से उठी जनक्रांति की बसंती-बयार के झोंके से भारत महाद्वीप भी अछूता नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार की महागाथाओं, कालेधन की चकाचौंध के बीच बढ़ती मंहगाई, बेरोजगार युवाओं की पलटन और बेबस किसानों के कलेजे देश की सड़ी-गली और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ दहक रहे हैं। बस कपास तक एक चिंगारी पहुंचने का इंतजार है। यह जनक्रांति न तो खुमैनी के अल्फाजों में इस्लामिक नव-जागरण की शुरूआत है और न ही वहां के विपक्षी दलों का सत्ताविरोधी अभियान। यह गुस्सा इजराइल और अमेरिका के खिलाफ भी नहीं है। अरबसागर की लहरों से उठा यह तूफान गरीबी, शोषण, गैरबराबरी, भ्रष्टाचार व अराजकता के खिलाफ एक जैसा सोचने वाले बड़े-बूढ़े, छात्रों-नौजवानों, बच्चों और महिलाओं का समवेत जन अभियान है। फिलहाल उन्हें इस बात की फिक्र नहीं कि सामने विकल्प क्या है। अभी तो जिद व्यवस्था के परिवर्तन की है और लक्ष्य है करो या फिर मरो। बकौल राष्ट्रकवि दिनकर-दो राह, समय के रथ का घर घर नाद सुनो। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
इस जनक्रांति के मायने
उत्तरी अफ्रीका से अरब खाड़ी तक, अमीर-गरीब मुल्कों के सभी शासक खुद को एक जैसी स्थिति में पा रहे हैं। इनमें से ज्यादातर अमेरिका की सरपरस्ती में भ्रष्ट निरंकुश शासन की अध्यक्षता कर रहे हैं। दुनिया को लोकतंत्र और मानवाधिकारों की नसीहत देने वाले अमेरिका ने कभी भी अरब मुल्कों में लोकतंत्र की बयार नहीं देखनी चाही। यहां के शासकों ने भी कभी जनाकांक्षाओं का महत्व नहीं दिया। इस जनक्रांति की बुनियाद पर दुनिया की सूचना क्रांति है,जिसने आहत आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को स्वर दिया। विकीलीक्स खुलासों से उन्हें पता चला कि उनके शासक किस तरह देश के हितों का गिरवी रखकर अकूत दौलत के स्वामी बन चुके हैं। मुल्क की अवाम की बेहतरी के लिए उनके पास न कोई योजना है और न ही सोचने के लिए वक्त। भूख और गरीबी के खिलाफ जब ट्यूनाशिया की अवाम सडक़ पर उतरी तो उसके गुस्से को देखकर अमेरिका की छत्रछाया में 23 सालों से राज कर रहे तानाशाह बेन अली की जमीन खिसक गई। ट्यूनीशिया की सफलता से उत्साहित यमन के नागरिक भी सडक़ों पर उतर आए। राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला को जनता को यह वचन देना पड़ा कि अब वह न तो अपने कार्यकाल को आगे बढ़ाऐंगे और न ही अपने पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित करेंगे। अवाम के क्रांतिकारी तेवर को देखते हुए जार्डन के बादशाह अब्दुल्ला ने बिना कोई वक्त गंवाए प्रधानमंत्री समेत समूची सरकार को बर्खास्त कर दिया। इन तीनों मुस्लिम देशों में अवाम की बगावत के पीछे न तो कट्टरपंथी हैं और न ही कथित जेहाद की कोई भूमिका है। ये लोकतांत्रिक व्यवस्था में खुली सांस लेना चाहते हैं और जवाबदेह सत्ता में अपनी भागीदारी के महत्व को समझने लगे हैं। एक गुमनाम सा छोटा देश ट्यूनीशिया अरब विश्व में लोकतांत्रिक नवजागरण के ध्वजवाहक के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। यद्यपि अभी यह देखना होगा कि यह जनक्रांति प्रकारांतर में क्या शक्ल अख्तियार करती है, वैसे यह काफी कुछ हद तक मिस्त्र के हश्र पर निर्भर करता है।
तहरीर चौक पर मिश्र की तगदीर
इस समय पूरी दुनिया की नजरें मिस्त्र के प्रतिपल बदलते हुए घटनाक्रम पर टिकी हुई है। मुक्तिस्थल के प्रतीक के तौर पर उभर चुके तहरीर चौक पर क्रांतिकारी राष्ट्रपति मुबारक का तत्काल दफा करने की मांग को लेकर डटे हैं। मुबारक ने सितंबर तक की मोहलत मांगी है। क्रांतिकारियों को यह मंजूर नहीं। राष्ट्रपति अपने स्तर पर डैमेज कंट्रोल करने का यत्न कर रहे हैं। अपनी सरकार में उन्होंने आमूलचूल परिवर्तन किया है। उमर सुलेमान को उपराष्ट्रपति बनाकर आगे किया है लेकिन वे अप्रभावी साबित हो रहे हैं। तहरीर चौक पर जुटे क्रांतिकारियों के समूह की खासियत यह है कि इनके नेतृत्व में न तो मिश्र के रूढि़वादी नरमपंथी गुट मुस्लिम ब्रदरहुड का कोई प्रभाव है और न ही विपक्ष के नेता अलबरदेई को कोई भाव मिल रहा है। मिश्र में जिस तरह से स्वस्फूर्त प्रदर्शन शुरू हुआ है उसी तरह एक कलेक्टिव लीडरशिप पूरे अभियान की अगुआई कर रही है। करो या मरो के जज्बे के साथ मैदान पर उतरे युवा क्रांतिकारी यह मान चुके हैं कि अभी नहीं तो कभी नहीं। इधर अमेरिका के लिए मिस्त्र अरब मुल्कों में से सबसे अहम है। यहां उसका काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। अमेरिका अब तक मिश्र को 35 बिलियन डालर की मदद दे चुका है। मुबारक के हर कदम उसी के इशारे पर संचालित हो रहे हैं। मुबारक 30 सालों से मध्यपूर्व में पश्चिम के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। मिश्र के इजराइल से दोस्ताना संबंध हैं। अमेरिका के लिए चिंता की बात यह है कि कहीं मिश्र की सत्ता उसके विरोधी तत्वों के हाथों न चली जाए। वह बड़ी चालाकी के साथ सत्ता हस्तातंरण की बात कर रहा है। फिलहाल उसके सामने दो विकल्प हैं। पहला यह कि फौज के समर्थन के साथ उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान कमान संभाल लें। दूसरे उसने क्रांतिकारियों के बीच परमाणु नियंत्रण एजेंसी विएना के प्रमुख रहे अलबरदेई को भी स्थापित करने की कोशिश की है। अलबरदेई की अमेरिकी घनिष्टता का देखते हुए क्रांतिकारी शायद ही उन्हें स्वीकार कर पाएं। प्रदर्शनकारियों के क्रोध के निशाने पर भले ही अमेरिका और इजराइल न हों लेकिन यह बताने की जरूरत नहीं कि जिन होस्नी मुबारक को दफा करने का आंदोलन चल रहा है उनकी असली ताकत अमेरिका की ही सरपरस्ती रही है। अमेरिका के हिसाब से यदि किसी को सत्ता की कमान दी गई तो वह मुबारक का ही क्लोन होगा। इस बीच अमेरिका के सूचनातंत्रों ने यह भी प्रचारित करना शुरू कर दिया है कि इस प्रदर्शन के पीछे कहीं न कहीं अलकायदा की भी भूमिका है। एक रणनीति के तहत यह प्रचार इसलिए भी किया जा रहा है ताकि यदि जरूरत पड़े तो क्रांतिकारियों को अलकायदा के नाम पर कुचला जा सके। इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अमेरिका इस जनक्रांति को बदनाम करने के लिए कुछ विघटनकारी व विध्वंसक तत्व प्लांट कर सकता है। इधर आयतुल्ला खुमैनी काहिरा की क्रांति को 1979 में ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति की अनुगूंज मान रहे हैं। वे होस्नी मुबारक को ईरान के शाह रजा पहलवी की तरह अमेरिका और इजराइल का पिठ्ठू करार दे रहे हैं। कुछ भी हो तहरीर चौक पर जुटे क्रांतिकारियों की इच्छाशक्ति पर यह निर्भर करता है कि वे मिश्र के तगदीर की इबारत किस तरह लिखते हैं। वैसे न तो अमेरिका ओर न ही खुमैनी के लिए यह आसान नहीं होगा कि ट्यूनिशिया से शुरू हुई जनक्रांति की दिशा व दशा अपने हिसाब से तय कर सके।
तो क्या करे भारत
भारत के लिए यह समय न तो अरब खाड़ी से उठी जनक्रांति की लहरों के गिनने का है और न ही तूफान का देखकर शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ाकर खुद का महफूज समझने का। मिश्र से भारत की दोस्ती सदियों से रही है। दोनों ही देश संपन्न संास्कृतिक विरासत वाले देश हैं। नेहरू और नासिर की दोस्ती की बुनियाद पर ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन खड़ा हुआ था। पहले तो भारत मिश्र की जनक्रांति से यह सबक ले कि यदि भ्रष्टाचार और गरीबी के खिलाफ समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो तहरीर चौक के तूफान को दिल्ली के विजय चौक तक पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। दूसरे मिश्र की जनक्रांति का सम्मान करे व मिश्र से उसी तरह दोस्ती को यथावत रखे जैसे कि मोरारजी भाई देसाई ने ईरान के रजा पहलवी के पतन के बाद खुमैनी के साथ बरकरार रखी थी।
7 फरवरी 2011 को प्रकाशित
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