फिलहाल-जयराम शुक्ल
मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे गांव के एक लडक़े को भर्ती होने के तीन महीने के भीतर ही सिपाही की नौकरी इसलिए गंवानी पड़ी थी क्योंकि उसके पुलिस वैरीफिकेशन में बताया गया था कि इसके खिलाफ थाने एक सौ सात सत्रह के तहत मामला दर्ज है। एक सौ सात सत्रह कोई गंभीर मामला नहीं है। शांति-भंग की आशंका को आधार बनाकर पुलिस किसी के खिलाफ यह मामला दर्ज कर सकती है, आप के खिलाफ भी। लेकिन पीजे थॉमस साहब के खिलाफ भ्रष्टाचार का गंभीर मामला दर्ज है यह बताए जाने के बावजूद उन्हें देश के चीफ विजीलेंस कमिश्रर(सीवीसी) जैसे संवैधानिक पद पर नियुक्ति दे दी गई। अपने देश में सिपाही की नौकरी के लिए तो पुलिस वैरीफिकेशन होता है पर भ्रष्टाचरियों पर नजर रखने वाले सर्वोच्च पद पर एेसे व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाता है जो हाल ही में टूजी-स्पेक्ट्रम की श्याम-कोठरी से निकलकर आया है, जिस पर खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, और उन पर मामला चलाने की मंजूरी केरल की राज्य सरकार ने दे रखी है। यानी कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। यदि वकील प्रशांत भूषण की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट संज्ञान न लेता और केंद्र सरकार को इस कदाचरण के लिए फटकार न लगाता तो मामला यूं ही चलता रहता। भाजपा लाख चिल्लाती या आरोप लगाती रहती, इसे राजनीतिक अदावत का मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया जाता।
पीजे थॉमस में ऐसा क्या?
मामले में कहीं न कहीं गंभीर गड़बड़ इसलिए लगती है क्योंकि सीवीसी की चयन समिति में प्रधानमंत्री की हैसियत से डॉ.मनमोहन सिंह थे, जिन्हें राजनीति और निजी जीवन में सादगी, ईमानदारी, विद्वता की प्रतिमूर्ति माना जाता है। गृहमंत्री की हैसियत से पी चिंदम्बरम साहब भी थे जो खुद आला दर्जे के वकील और बेलौस राजनीतिज्ञ हैं। खैर सुषमा स्वराज जी तो नेता प्रतिपक्ष की हैसियत से थीं। सत्तापक्ष की राय से असहमत होना उनका राजनीतिक धर्म भी है। श्रीमती स्वराज ने थॉमस की नियुक्ति को लेकर सवाल खड़े किए थे, लेकिन उनकी आपत्ति का दरकिनार करते हुए बहुमत के आधार पर थॉमस को सीवीसी बना दिया गया। अब सरकार की ओर से सुप्रीमकोर्ट को बताया जा रहा है कि उन्हें थॉमस पर चल रहे मामले की जानकारी नहीं थी और न ही थॉमस ने अपने बायोडाटा में इसका कोई जिक्र किया था। गफलत इसलिए हो गई और अब सरकार थॉमस की नियुक्ति पर विचार करेगी। क्या यह गंभीर बात नहीं कि देश का मुखिया संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों को दरकिनार करते हुए नेता प्रतिपक्ष की आपत्ति को यूं ही हवा में उड़ा दे? बिंदास बोल बोलने वाले गृहमंत्री चिदंबरम बड़े वकील होते हुए भी अपनी ही सरकार की भावी फजीहत का आकलन न कर सकें? आखिर थॉमस में ऐसी क्या बात है कि उनके लिए सरकार को ही दांव पर लगा दिया गया? झूठ पर झूठ बोला गया। यदि आप मानते हैं कि यूपीए के सत्ता-सूत्र दस जनपथ से संचालित हैं तो क्या आप को नहीं लगता कि कहीं न कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ है।
मजबूरी या नई राजनीतिक शैली
घपलों,घोटालों और घोटालेबाजों को हटाने में किंतु-परंतु और थॉमस जैसी विवादस्पद नियुक्तियों ने यह सोचने-विचारने का मौका दिया है कि मिस्टर क्लीन डॉ.मनमोहन सिंह की चुप्पी उनकी मजबूरी है या फिर उन्होंने अपनी एेसी खास राजनीतिक शैली ईजाद कर ली है। वैसे इस पर ज्यादा रोशनी सत्ता के गलियारों से वास्ता रखने वाले सियासी नगमानिगार ही डाल सकते हैं, पर अब यह साफ नजर आने लगा है कि डॉ.मनमोहन सिंह की वह छवि नहीं रही जो यूपीए प्रथम के दौर में थी। सही मायने में देखा जाए तो डॉ.मनमोहन सिंह के राजनीतिक गुरू पीवी नरसिंहराव थे, उन्होंने ही अपनी सरकार में वित्तमंत्री बनाकर इनकी राजनीतिक प्राणप्रतिष्ठा की थी। नरसिंहराव की खास शैली थी कि वे पेचीदा मसलों को फ्रीज कर चुप्पी ओढ़ लेते थे। कॉमनवेल्थ, टूजी-स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी घोटाला और अब थॉमस मामलें में डॉ.मनमोहन सिंह का अंदाज कुछ-कुछ राव से ही मेल खाता है। इनकी कैफियत में बस इतना ही जोड़ा जा सकता है कि मजबूरी इन्हें विरासत में मिली है। लेकिन एेसी भी मजबूरी क्या कि गुनाह होते रहें और ये चुपचाप देखते रहें। राष्ट्रकवि दिनकर ने सही लिखा है- जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। यूपीए द्वितीय के कार्यकाल में जो कुछ न कुछ गड़बड़ है, डॉ. सिंह को चुप्पी तोडक़र या तो उसे दुरस्त करना होगा या फिर गड़बड़ करने वालों की जमात में शामिल होना स्वीकार करना पड़ेगा।
एक थे एंडरसन, एक थे क्वात्रोची
चर्चित सीवीसी पीजे थॉमस कोई एेसे अकेले पॉवरफुल शख्स नहीं हैं जिनके लिए कॉग्रेस सरकार सबकुछ ताक पर रखकर ढाल बन गई हो। बोफोर्स तोप मामले इटली के सौदागर ऑटिवो क्वात्रोची और भोपाल में गैस लीककर जनसंहार करने वाली यूनियन कार्बाइड के मुखिया एन्डरसन भी एेसे
सौभाग्यशालियों में से एक थे जिनपर अदृश्य सत्ता की कृपा रही है। यद्यपि थॉमस का मामला इन दोनों से सर्वथा भिन्न और अलग मिजाज का है पर जहां तक इन्हें बचाने के लिए सत्ता की मर्यादा को ही दांव लगा देने की बात हो वहां पर तीनों एक ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं। भोपाल में बीस हजार लोगों की मौत के सौदागर एन्डरसन के लिए दिल्ली से आए विशेष संदेश के आधार पर रास्ता खाली कराया गया और विशेष विमान से अमेरिका भाग जाने दिया गया। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और प्रदेश मे अर्जुन सिंह के नेतृत्व वाली कॉगे्रस सरकार। हजारों मौतों के दोषी एन्डरसन के साथ किस रहस्यमयी सत्ता की सदाशयता प्राप्त थी आज भी यह खोज का विषय है। क्वात्रोची का मामला भी एेसा ही है। क्वात्रोची को क्लीनचिट देने के मामले में सीबीआई आज भी कठघरे में खड़ी है। क्वात्रोची को कानून के फंदे से बचाने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने भी तो किसी न किसी अदृश्य सत्ता के इशारे पर ही एेसी पैतरेबाजी दिखाई होगी।
और अंत में
इस बीच यदि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का यह वक्तव्य आ जाए कि पी.जे. थामस यह नाम ही काफी है सारे गुनाह ढंकने के लिए तो आश्चर्य न मानिएगा। मुझे याद है कि पिछले के पिछले गुजरात चुनाव में जब चुनाव आयोग ने मोदी सरकार को कसा था तो मोदी साहब ने शब्दों को चबाते हुए संकेतों में कुछ यूं बताया था ये जेम्स माइकल लिंगदोह हैं और किसके इशारे पर इतनी सख्ती बरत रहे हैं समझ सकते हैं। इससे और ज्यादा स्पष्ट या तो तोगडिय़ा जी कर सकते हैं या फिर अशोक सिंहल।
30 जनवरी 2011 को प्रकाशित
मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे गांव के एक लडक़े को भर्ती होने के तीन महीने के भीतर ही सिपाही की नौकरी इसलिए गंवानी पड़ी थी क्योंकि उसके पुलिस वैरीफिकेशन में बताया गया था कि इसके खिलाफ थाने एक सौ सात सत्रह के तहत मामला दर्ज है। एक सौ सात सत्रह कोई गंभीर मामला नहीं है। शांति-भंग की आशंका को आधार बनाकर पुलिस किसी के खिलाफ यह मामला दर्ज कर सकती है, आप के खिलाफ भी। लेकिन पीजे थॉमस साहब के खिलाफ भ्रष्टाचार का गंभीर मामला दर्ज है यह बताए जाने के बावजूद उन्हें देश के चीफ विजीलेंस कमिश्रर(सीवीसी) जैसे संवैधानिक पद पर नियुक्ति दे दी गई। अपने देश में सिपाही की नौकरी के लिए तो पुलिस वैरीफिकेशन होता है पर भ्रष्टाचरियों पर नजर रखने वाले सर्वोच्च पद पर एेसे व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाता है जो हाल ही में टूजी-स्पेक्ट्रम की श्याम-कोठरी से निकलकर आया है, जिस पर खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, और उन पर मामला चलाने की मंजूरी केरल की राज्य सरकार ने दे रखी है। यानी कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। यदि वकील प्रशांत भूषण की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट संज्ञान न लेता और केंद्र सरकार को इस कदाचरण के लिए फटकार न लगाता तो मामला यूं ही चलता रहता। भाजपा लाख चिल्लाती या आरोप लगाती रहती, इसे राजनीतिक अदावत का मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया जाता।
पीजे थॉमस में ऐसा क्या?
मामले में कहीं न कहीं गंभीर गड़बड़ इसलिए लगती है क्योंकि सीवीसी की चयन समिति में प्रधानमंत्री की हैसियत से डॉ.मनमोहन सिंह थे, जिन्हें राजनीति और निजी जीवन में सादगी, ईमानदारी, विद्वता की प्रतिमूर्ति माना जाता है। गृहमंत्री की हैसियत से पी चिंदम्बरम साहब भी थे जो खुद आला दर्जे के वकील और बेलौस राजनीतिज्ञ हैं। खैर सुषमा स्वराज जी तो नेता प्रतिपक्ष की हैसियत से थीं। सत्तापक्ष की राय से असहमत होना उनका राजनीतिक धर्म भी है। श्रीमती स्वराज ने थॉमस की नियुक्ति को लेकर सवाल खड़े किए थे, लेकिन उनकी आपत्ति का दरकिनार करते हुए बहुमत के आधार पर थॉमस को सीवीसी बना दिया गया। अब सरकार की ओर से सुप्रीमकोर्ट को बताया जा रहा है कि उन्हें थॉमस पर चल रहे मामले की जानकारी नहीं थी और न ही थॉमस ने अपने बायोडाटा में इसका कोई जिक्र किया था। गफलत इसलिए हो गई और अब सरकार थॉमस की नियुक्ति पर विचार करेगी। क्या यह गंभीर बात नहीं कि देश का मुखिया संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों को दरकिनार करते हुए नेता प्रतिपक्ष की आपत्ति को यूं ही हवा में उड़ा दे? बिंदास बोल बोलने वाले गृहमंत्री चिदंबरम बड़े वकील होते हुए भी अपनी ही सरकार की भावी फजीहत का आकलन न कर सकें? आखिर थॉमस में ऐसी क्या बात है कि उनके लिए सरकार को ही दांव पर लगा दिया गया? झूठ पर झूठ बोला गया। यदि आप मानते हैं कि यूपीए के सत्ता-सूत्र दस जनपथ से संचालित हैं तो क्या आप को नहीं लगता कि कहीं न कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ है।
मजबूरी या नई राजनीतिक शैली
घपलों,घोटालों और घोटालेबाजों को हटाने में किंतु-परंतु और थॉमस जैसी विवादस्पद नियुक्तियों ने यह सोचने-विचारने का मौका दिया है कि मिस्टर क्लीन डॉ.मनमोहन सिंह की चुप्पी उनकी मजबूरी है या फिर उन्होंने अपनी एेसी खास राजनीतिक शैली ईजाद कर ली है। वैसे इस पर ज्यादा रोशनी सत्ता के गलियारों से वास्ता रखने वाले सियासी नगमानिगार ही डाल सकते हैं, पर अब यह साफ नजर आने लगा है कि डॉ.मनमोहन सिंह की वह छवि नहीं रही जो यूपीए प्रथम के दौर में थी। सही मायने में देखा जाए तो डॉ.मनमोहन सिंह के राजनीतिक गुरू पीवी नरसिंहराव थे, उन्होंने ही अपनी सरकार में वित्तमंत्री बनाकर इनकी राजनीतिक प्राणप्रतिष्ठा की थी। नरसिंहराव की खास शैली थी कि वे पेचीदा मसलों को फ्रीज कर चुप्पी ओढ़ लेते थे। कॉमनवेल्थ, टूजी-स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी घोटाला और अब थॉमस मामलें में डॉ.मनमोहन सिंह का अंदाज कुछ-कुछ राव से ही मेल खाता है। इनकी कैफियत में बस इतना ही जोड़ा जा सकता है कि मजबूरी इन्हें विरासत में मिली है। लेकिन एेसी भी मजबूरी क्या कि गुनाह होते रहें और ये चुपचाप देखते रहें। राष्ट्रकवि दिनकर ने सही लिखा है- जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। यूपीए द्वितीय के कार्यकाल में जो कुछ न कुछ गड़बड़ है, डॉ. सिंह को चुप्पी तोडक़र या तो उसे दुरस्त करना होगा या फिर गड़बड़ करने वालों की जमात में शामिल होना स्वीकार करना पड़ेगा।
एक थे एंडरसन, एक थे क्वात्रोची
चर्चित सीवीसी पीजे थॉमस कोई एेसे अकेले पॉवरफुल शख्स नहीं हैं जिनके लिए कॉग्रेस सरकार सबकुछ ताक पर रखकर ढाल बन गई हो। बोफोर्स तोप मामले इटली के सौदागर ऑटिवो क्वात्रोची और भोपाल में गैस लीककर जनसंहार करने वाली यूनियन कार्बाइड के मुखिया एन्डरसन भी एेसे
सौभाग्यशालियों में से एक थे जिनपर अदृश्य सत्ता की कृपा रही है। यद्यपि थॉमस का मामला इन दोनों से सर्वथा भिन्न और अलग मिजाज का है पर जहां तक इन्हें बचाने के लिए सत्ता की मर्यादा को ही दांव लगा देने की बात हो वहां पर तीनों एक ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं। भोपाल में बीस हजार लोगों की मौत के सौदागर एन्डरसन के लिए दिल्ली से आए विशेष संदेश के आधार पर रास्ता खाली कराया गया और विशेष विमान से अमेरिका भाग जाने दिया गया। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और प्रदेश मे अर्जुन सिंह के नेतृत्व वाली कॉगे्रस सरकार। हजारों मौतों के दोषी एन्डरसन के साथ किस रहस्यमयी सत्ता की सदाशयता प्राप्त थी आज भी यह खोज का विषय है। क्वात्रोची का मामला भी एेसा ही है। क्वात्रोची को क्लीनचिट देने के मामले में सीबीआई आज भी कठघरे में खड़ी है। क्वात्रोची को कानून के फंदे से बचाने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने भी तो किसी न किसी अदृश्य सत्ता के इशारे पर ही एेसी पैतरेबाजी दिखाई होगी।
और अंत में
इस बीच यदि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का यह वक्तव्य आ जाए कि पी.जे. थामस यह नाम ही काफी है सारे गुनाह ढंकने के लिए तो आश्चर्य न मानिएगा। मुझे याद है कि पिछले के पिछले गुजरात चुनाव में जब चुनाव आयोग ने मोदी सरकार को कसा था तो मोदी साहब ने शब्दों को चबाते हुए संकेतों में कुछ यूं बताया था ये जेम्स माइकल लिंगदोह हैं और किसके इशारे पर इतनी सख्ती बरत रहे हैं समझ सकते हैं। इससे और ज्यादा स्पष्ट या तो तोगडिय़ा जी कर सकते हैं या फिर अशोक सिंहल।
30 जनवरी 2011 को प्रकाशित
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