Thursday, May 17, 2012

आईपीएल के तमाशे में खेल भावना के सौदे

 जयराम शुक्ल
अमीरों के मनोरंजन के लिए रचा गया आईपीएल का तमाशा खेल भावना का किस तरह सत्यानाश कर रहा है और नवोदित खिलाड़ियों को पतित बना रहा है, हाल के स्टिंग आॅपरेशन से यह बात सामने आ गई है। अपने लिए यह हादसा इसलिए भी मायने रखता है कि इस दुष्चक्र में फंसने वालों में से एक मोहनीश मिश्र विंध्य में क्रिकेट की संभावनाओं का सबसे चमकदार चेहरा है। रीवा शहर के गली-कूचों से क्रिकेट करियर की शरुआत करने वाले मोहनीश की प्रतिभा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वे आस्ट्रेलियाई धुरंधर एडम गिलक्रिस्ट की आंखों के तारे हैं और गिली इनमें क्रिकेट की सितारा छवि देखते हैं। क्रिकेट को खेल से मनोरंजन और मनोरंजन से अमीरों की हवस बना देने वाले बीसीसीआई ने भले ही इस स्टिंग आॅपरेशन को आधार बनाकर क्रिकेटरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की हो पर खेल भावना के बाजारीकरण का दुष्कर्म करने की शुरुआत उसी ने की थी। आईपीएल के पहले कमिश्नर ललित मोदी इसकी सजा भोग भी रहे हैं! दरअसल क्रिकेट के आईपीएल फार्म में खेल भावना की कहीं गुंजाइश ही नहीं। खिलाड़ी रेस के घोड़ों की तरह नीलाम होते हैं और इनके खरीददार प्रीति जिंटा, नीता अंबानी, शाहरुख खान, विजय माल्या और सुब्रत राय सहारा जैसे लोग हैं, जो इस तमाशे का आनंद उसी तरह से लूटते हैं जैसे आदम युग में वनवासी लोग मुर्गों की खूनी लड़ाई का लुत्फ उठाते थे। मैदान में चीयर गर्ल्स, वीआईपी बॉक्स में शराबखोरी और इश्क मिजाजी, मैदान के बाहर सटोरियों और मैच फिक्स करने वालों के गिरोह, आईपीएल के अघोषित हिस्से बन चुके हैं। टीवी चैनलों ने भी इस तमाशे को हाइप देकर दर्शकों को उसी तरह बांधने की कोशिश की है जैसे मेले में डमरू बजाने वाले बाजीगर। क्या बच्चा, क्या जवान, क्या बूढ़े सभी घंटों का कीमती वक्त इस निरर्थक तमाशे में जाया करते हैं। नए प्रतिभाशाली खिलाड़ी जल्दी अमीर व सेलिब्रिटी बनने के चक्कर में आईपीएल के मोहपाश में फंसकर खेल, खेल भावना और नैतिकता को दांव पर लगा रहे हैं। यह अच्छी बात है कि संसद ने इस पर चिन्ता जाहिर की। आईपीएल को बंद करने के भी स्वर उठने लगे हैं। पर यह सबको मालूम है कि क्रिकेट संघ के जिले से लेकर राष्ट्रीय संगठन तक सभी पदाधिकारी नेता हैं, और जैसा कि सोशल साइटों में प्रतिक्रियाओं का दौर चल रहा है कि जब तक नेताओं की छाया खेल संघों पर रहेगी भ्रष्टाचार इसी तरह सड़ांध मारता रहेगा, कोई क्या कर लेगा?

Tuesday, May 15, 2012

कैसे-कैसे मंजर सामने आने लगे हैं

                                                   जयराम शुक्ल
प्रदेश के लाखें-लाख किसान औद्योगिकरण के नाम पर इसी तरह छले और ठगे जा रहे हैं। अफसरशाही-नेता-उद्योगपतियों का गठजोड़ उत्तरोत्तर मजबूत होता जा रहा है। नक्सलवाद को समाज का नासूर करार देने वालों के कानों में क्या कभी औद्योगिक आतंकवाद की दस्तक सुनाई देगी।                                                
 ऊॅ चे लोगों की बड़ी महफिलें कैसे सजती हैं उसके ब्यौरे सुनकर आँखें चुंधिया जाती हैं। पिछले पखवाड़े भोपाल में दो वरिष्ठ आईएएस की स्वागत व विदाई पार्टियां एक साथ हुर्इं। इन हाईप्रोफाइल पार्टियों में शामिल रहे मेरे एक मित्र ने बताया कि एक नाइट पार्टी में छ: हजार प्रति पैग वाली शराब का दौर चला। इस हिसाब से गणित लगाएं तो औसतन एक मेहमान 24 से 25 हजार की सिर्फ शराब ही गटक गए होंगे। आश्चर्य में डाल देने वाले इस ब्यौरे में मित्र को कुछ भी असहज नहीं लगा। उसने बताया कि जहां अरविंद-टीनू जोशी, डॉ. एएन मित्तल और डीएफओ पलाश जैसे लोगों की फेहरिश्त हो, जिन की कमाई का टर्नओवर एक अच्छी खासी इंडस्ट्री के भी टर्न ओवर से ज्यादा हो, वहां तो आप जैसे अखबारियों की महीने भर की पगार एक वेटर की टिप में दी जा सकती है। पिछले हफ्ते इस घटना के ‘हैंग ओवर’ से सहज हो नहीं पाया कि खबर आ गई, रायसेन बरेली में किसानों पर पुलिस ने गोलियां चलाई, एक की मौत हो गई, कई घायल हो गए। ये किसान मण्डी में अपना गेहूं बेचने के लिए गए थे। हफ्ते भर से चिलचिलाती धूप और मच्छर-खटमल भरी रात काट रहे किसानों के सब्र का बांध टूटने लगा तो उन्होंने प्रदर्शन-धरना देकर यह जानने की कोशिश की थी कि उनका अनाज खरीदा भी जायेगा या नहीं?  बस बात इतने से ही बिगड़ी और पुलिस ने पहले लाठियां भांजी फिर धांय-धांय गोलियां चला दी। जो किसान मारा गया वह घर का इकलौता चिराग था।
 किसानों के गेहूं का मूल्य कितना? प्रति क्विंटल सरकार का समर्थन मूल्य है 1385 रुपये । व्यापारी किसानों के खलिहान से 11 सौ से 12 सौ रुपये में खरीद लेते हैं। 185 रुपये प्रति क्विंटल अतिरिक्त का लोभ किसानों को मण्डी तक खींच लाता है। इसी लोभ के चलते हजारों-हजार किसान पूरे प्रदेश भर की मंडियों और खरीद केन्द्रों में लाखों क्विंटल अन्न के साथ हफ्तों-हफ्तों से जमा हंै। सरकार के पास वारदाने नहीं हैं। पर एक खेतिहर कमिश्नर के फार्महाउस में हजारों की संख्या में सरकारी वारदाने यूं ही पहुंच जाते हैं, वहीं अन्न तुलता है ,उन्हीं के गोदाम में स्टोर हो जाता है और वहीं नगद भुगतान भी। कमिश्नर साहब अरविंद-टीनू जोशी, मित्तल या पलाश की प्रजाति के नहीं हैं पर फिर भी व्यवस्था तंत्र एक ओर किसानों पर गोलियां दागता है तो दूसरी ओर उनके चरणों पर पड़ा है। एक ओर शराब के एक पैग का मूल्य छ: हजार दूसरी ओर 185 रुपये के अतिरिक्त लाभ को लेकर जीवन की बाजी लगा देने वाला अन्नदाता। ऐसे मंजर आप अपने देश में ही देख सकते हैं, अपने इर्द-गिर्द,अपनी राजधानी में।
पिछले के पिछले साल कला का शिल्पलोक कहे जाने वाले खजुराहो में इंटरनेशनल इनवेस्टर समिट का आयोजन किया गया था। अपनी समूची प्रदेश सरकार कारपोरेट घरानों  के लिए रेडकारपेट बिछाए बैठी थी। मंत्री, सचिव आला अफसर उद्योगपतियों की फूलमाला गुलदस्तों के साथ स्वागत आरती में मग्न थे। पांच सितारा होटल की रंगीनियों के बीच कोई डेढ़ दो लाख करोड़ रुपये के एमओयू साइन हुए। तुर्रा था कि पिछड़ा प्रदेश विकास की रफ्तार पकड़कर गुजरात से एक पायदान ऊपर हो जायेगा। खजुराहो की रंगीनियों के बीच किसानों और वनवासियों की किस्मत का सौदा हो गया। पिन्डारियों की तरह ये औद्योगिक घरानें, प्रकृति संपदा से सम्पन्न जिलों की ओर अब छिटक रहे हैं। अकूत प्राकृतिक संपदा वहां के रहवासियों के लिए वैसे ही जानलेवा  है जैसे की मृग के लिए कस्तूरी। हाल ही की अनूपपुर की घटना सामने है। मोजर-वेयर के प्रस्तावित पावरप्लांट में प्रशासन व किसानों के बीच खूनी झड़प हुई। इस बार पुलिस प्रशासन का पलड़ा कुछ कमजोर था, लिहाजा किसान भारी पड़े, पुलिसवाले पिट गए किसान जेलों में बंद हैं। अगली बार फैक्ट्री प्रबंधन और प्रशासन का गठजोड़ ज्यादा मजबूत होगा। संभव है कि दुबारा विरोध हो तो किसानों की लाशें बिछ जायें। फैक्ट्री प्रबंधन और प्रशासन दोनों इसकी चेतावनी अभी से देना शुरू कर दिया है। नतीजा किसानों की जमीन औने-पौने दाम पर छीनी जाती हैं तो छिनने दी जाये, विरोध किया गया तो पुलिस की बंदूकें तैयार हैं।
पूरे प्रदेश में जहां-जहां नए उद्योग जा रहे हैं, किसानों के समक्ष ऐसा ही संकट खड़ा हो रहा है। फैक्ट्री के गुन्डों व दलालों को उनकी कीमत के अनुसार जमीन बेंच दें या फिर मरने या गांव छोड़ने के लिए तैयार हो जायें। सिंगरौली के विस्थापितों के संताप के बारे में दुनिया भर के मानव अधिकार संगठनों ने कई किताबें रचीं। शोध अध्ययन प्रकाशित किये। पर क्या हुआ, सिंगरौली अंचल के ढाई सौ गांव उनकी सभ्यता,संस्कृति, लोक परंपरा, रीति-रिवाज सब कोयले के ओवर वर्डन के नीचे दबी हैं। खैरवार जैसी जनजाति लुप्त प्राय हो  गई जो मौलिक रूप से यहीं की थी। पूरे विंध्य में सरकार की छत्रछाया और प्रशासन की लाठी के दम पर उद्योगों का ऐसा ही विस्तार होना शुरू हुआ है। कहने को केन्द्र व राज्यों की भू-अर्जन व विस्थापन नीति तय है।   विस्थापितों को रोजगार व अन्य सुविधाओं के आकर्षक कारारनामें हैं लेकिन सब पुस्तिकाओं और इन्वेस्टर मीट के आकर्षक फोल्डरों व ब्राउसर्स में। प्रदेश में आज जितने भी उद्योग स्थापित होने जा रहे हैं उनके लिए यह कारारनामें रद्दी के टुकड़े हैं। रुचि सोया की सीमेंट इकाई सतना में खुल रही है। इससे पहले इसी गु्रप ने यहां कृषि अनुसंधान केन्द्र खोलने के लिए किसानों से सैकड़ों एकड़ भूमि अर्जित की थी। अब कृषि अनुसंधान केन्द्र गया चूल्हे-भाड़ में, उसी जमीन पर खड़ी हो रही है सीमेंट इकाई कोई क्या कर लेगा? इसी सीमेंट इकाई के नक्शे कदम पर हर नई औद्योगिक इकाइयां चल रही हैं। इनके एजेंट व दलाल किसानों की जमीनों का सौदा करते हैं और फिर उसे उद्योगों को पलट देते हैं। कारपोरेट सोशल रिसपांसबिल्टी की बात सिर्फ सरकार की इनवेस्टर समिट में ही सिमट जाती है। समूचे प्रदेश के लाखों-लाख औद्योगीकरण के नाम पर इसी तरह छले और ठगे जा रहे हैं। हमारा व्यवस्था तंत्र छ: हजार रुपये की एक पैग वाली शराब के साथ नाइटपार्टी में मगन हैं। अफसरशाही-नेता-उद्योगपतियों का गठजोड़ उत्तरोत्तर मजबूत होता जा रहा है। नक्सलवाद को समाज का नासूर करार देने वालों के कानों में क्या कभी औद्योगिक आतंकवाद की दस्तक सुनाई देगी।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
    सम्पर्क - 09425813208.

Wednesday, May 9, 2012

ठगवां लूटिन तुलसी की नगरिया हो

 चिन्तामणि मिश्र
 चित्रकूट की अनमोल विरासत को, ऋषियों की तपस्थली को खोद-खोद कर कमाई में जुटे खनन माफिया अपनी धन लोलुपता के लिए जो ताडंव कर रहे हैं, वह उस चित्रकूट को विदाई दे रहा है जिससे चित्रकूट की पहचान है। भविष्य का चित्रकूट केवल नाम भर का चित्रकूट रह जाएगा।
चित्रकूट के पर्यावरण और उसकी संस्कृति, उसके पुरातत्व-इतिहास,उसकी धार्मिकता, उसकी पवित्रता को तिल-तिल कर मारा जा रहा है। यह धतकरम पिछले पांच दशक से शुरू है। तुलसी के चित्रकूट का रूपान्तरण पक्की धूर्तता और पूरी दबंगई से किया गया है कि अब चित्रकूट की नैसर्गिक शान्ति,और उसका तपोवनी पवित्र रूप ताजा-ताजा विधवा की मांग की तरह धो-पोछकर वीरान कर दिया गया है। जो पराक्रम मूर्ति-भंजक शासकों ने नहीं किया उसे विकास का सोहर गाते उन स्वार्थी लोगों के गिरोहों ने  बेशर्मी से सम्पन्न किया जो गले में तुलसी-रुद्राक्ष की माला,माथे में तिलक सजाए, हाथ में रक्षासूत्र लपेटे समाज-सेवक,राजनीतिज्ञ होने का दावा करते नहीं अघाते हैं। चित्रकूट की गंगा सरयू और मंदाकिनी को हमारे लोभी समाज ने जीम लिया है। इन सदानीरा नदियों को जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे पुरखों ने हमारे हाथों में इस विश्वास से सौंपा था कि हम इन जीवनदायिनी जल धाराओं की देख-भाल करेगें और अगली पीढ़ी को सौप कर सामाजिक ऋण चुका कर संसार से विदा लेंगे। लेकिन हमने पुरखों की अमानत में ही ख्यानत कर डाली और इन नदियों को मार डालने का अपराध किया है। यह भी हकीकत है कि यह जुर्म मुठी भर लोगों के गिरोह करते रहे, किन्तु इस पाप में हमारी भी सहभागिता रही है।
      चित्रकूट के पुरजन, समाजसेवक, जनप्रतिनिधि, छात्र और साक्षात धर्म-स्वरूप साधू-संत,मठ,आश्रम प्रेतलीला देखते रहे किन्तु ऐसा कारगर कदम उठाने से परहेज करते रहे। जिला प्रशासन, राज्य शासन को भी पइंया-पइंया भाग कर चित्रकूट आना पड़ता और वहां का विनाश करने वाले असुरों का क्रियाकर्म करने के लिए बाध्य होना पड़ता। चित्रकूट का चेहरा बदलने और उसका दोहन शोषण खुले आम हुआ किन्तु न जाने किस भय ने ईमानदार लोगों को गूंगा बना दिया। दो-चार ऐसे लोग जरूर गुहार लगाते रहे, किन्तु इनके कागजी ज्ञापन कचरे की तरह अनदेखे कर दिए गए।
     चित्रकूट में कामदगिरि धार्मिक आस्था और भगवान राम के वनवास काल की सांस्कृतिक धरोहर हैं। हर श्रद्धालु इसकी परिक्रमा करने की अभिलाषा लेकर चित्रकूट आता हैं किन्तु इस परिक्रमा पथ का भी शहरीकरण कर दिए जाने से वह अनुभूति ही नहीं होती कि हम राम,लक्षमण और सीता के आवास और यहां उनकी सक्रियता को अपनी भावाजंलि निवेदित कर रहे हैं। लोग यहां पूरी श्रद्धा से आते हैं किन्तु सीमेन्ट का जंगल, शोर-गुल भरा बाजार मल-मूत्र बहाती खुली नालिया, दुर्गन्ध मारते कचरे के जगह-जगह लगे ढेर के साथ प्रदक्षिणा करने के लिए श्रापित हैं। चित्रकूट में हर जगह निर्माण का महायज्ञ चलता रहता है। धंधेबाज, भूमाफिया पवित्र नदियों,धर्मस्थलों पर कब्जा कर रहे हैं, कई मंजिल की इमारतें अतिक्रमण की दम पर खड़ी कर ली गई हैं। किन्तु इनको रोकने-टोकने की हिम्मत किसी ने कभी नहीं दिखाई। चित्रकूट में विश्वविद्यालीय,कई शिक्षण संस्थाएं और राष्ट्रीय ख्याति का चिकित्सालय व कई होटलें हैं, किन्तु इनके भवन का शिल्प स्थानीयता का नमूना नहीं हैं क्योंकि चित्रकूट के नगरीय प्रशासन ने इसकी जरूरत ही नहीं समझी। अब तो लगता ही नहीं कि यह वही चित्रकूट है जहां राम ने वनवास के दौरान निवास किया। तुलसी ने मानस रची। जहां रहीम ने शरण ली और अपना अमर हो चुका दोहा लिखा-।  चित्रकूट में बस रहे,रहिमन अवध नरेश। जा पर विपदा पड़त है ,सो आवत है यहि देश॥  चित्रकूट की पतित-पावन नदियों और समग्र चित्रकूट की रक्षा का विषय कोई आर्थिक,तकनीकी विषय नहीं हैनका इन सब से बहुत उच्च महत्व है। इन नदियों के साथ हमारी मुक्ति जुड़ी है। आज भी सीधे-सरल ग्रामीण रोज चित्रकूट में आते हैं, लेकिने वे इन नदियों में कोई गंदगी नहीं डालते हैं। यहां तक कि इनमें पैर डालने से पहले इनका जल उठा कर अपने माथे में लगा कर प्रणाम करते हैं। वे इसे पानी नहीं जल कहते हैं। इन नदियों को इन्हें पूजने वालों ने गन्दा नहीं किया बल्कि कुबेर बनने की लिजलिजी मानसिकता, तटस्थता की बैरागी नपुंसकता ने गन्दा ही नहीं सत्यानाश किया है।
     चित्रकूट की अनमोल विरासत को, ऋषियों की तपस्थली को खोद-खोद कर कमाई में जुटे खनन माफिया अपनी धन लोलुपता के लिए जो ताडंव कर रहे हैं, वह उस चित्रकूट को विदाई दे रहा है जिससे चित्रकूट की पहचान है। भविष्य का चित्रकूट केवल नाम भर का चित्रकूट रह जाएगा। हम यह भूल जाते हैं कि जिस विकास का कीर्तन हो रहा है, वह किसी सत्य की तलाश के लिए नहीं बल्कि बाजार की जरूरत पूरी करने के लिए है। बाजार पागल हाथी की तरह सब को रौंदता जा रहा है। राज्य और समाज को बाजार ने निरर्थक बना दिया है। विकास जरूरी है और चित्रकूट में भी विकास होना चाहिए किन्तु कैसा हो विकास? प्रकृति से कोई नाता-रिश्ता न हो और जिसे सहेजना है उसे मुनाफा कमाने के लिए ठिकाने लगा दिया जाए। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में आधुनिक सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा था। उन्होंने इस   सभ्यता की जो विसंगतियां उस समय गिनाई थी वही आज दैत्याकार हो कर हमारे सामने खड़ी हैं और विनाश का कारण बन रही हैं। यह  सभ्यता  मनुष्य और प्रकृति के बीच शत्रुता का सम्बन्ध मानती है।
      चित्रकूट को ध्वस्त करने वाले लोग बर्बर और संगठित हैं।  वास्तविकता यही है कि नदियों,पहाड़ों को मिटाने की शुरूआत स्वार्थ और भौतिकवादी सोच का अंग है। असलियत तो यह है कि चाहे नदियां हों या फिर सांस्कृतिक धरोहर, इन्हें बचाए रखने के लिए केवल सरकारी हाथ नाकाफी होते हैं। जरूरत इस बात की है कि हमें अपना भौतिकवादी नजरिया बदलना होगा। इसके लिए धन जुटाने की नहीं, मन बनाने की आवश्यकता है। हमारी संस्कृति ने कभी भी नदियों को भौतिकवादी दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है। चित्रकूट में हुए शहरीकरण ने भी संकट को लगातार गहरा किया है। सर्वोच्य अदालत कह चुकी है कि प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर किसी तरह का विकास कार्य नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन देश की बड़ी अदालत की बाहुबलियों को जरा भी परवाह नहीं है।
                                       - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                            सम्पर्क - 09425174450.

Tuesday, May 8, 2012

चोरों को चोर कहने में कैसा डर

  जयराम शुक्ल
धन और बाहुबल हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर किस तरह कब्जा करने के लिए आतुर हैं और सालों-साल स्थितियां खतरनाक होती जा रही हैं, इससे देश के हर विवेकवान नागरिक का चिंतित होना स्वाभाविक है और ऐसी स्थिति में जब वह अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति करता है तो उसे किसी भी विशेषाधिकार के हनन का न तो डर रहता है और न ही परवाह।
जि स देश में चक्रवर्ती सम्राट राजा राम और उनकी धर्मपत्नी सीता के चरित्र और आचरण पर अंगुली उठाने और सार्वजनिक चर्चा करने का अधिकार एक आम नागरिक को मिला रहा हो, उस देश के नागरिकों को अपने भ्रष्ट, चरित्रहीन और अपराधी सांसदों, विधायकों और जनप्रतिनिधियों के आचरण के बारे में चर्चा करने से कोई कानून नहीं रोक सकता। माननीयों के विशेषाधिकार से बड़ा विशेषाधिकार उन मतदाताओं का है जिन्होंने वोट देकर इन्हें विधानसभाओं और संसद में बैठाकर साधारण आदमी से माननीय बना दिया। यह बात अलग है कि अपने देश के कानून में यह व्यवस्था है कि चौराहे की भीड़ के सामने किसी निरीह का कत्ल करने वाले को भी तब तक कातिल नहीं कहा जा सकता जब तक कि उसका जुर्म साबित न हो जाए।
संसद और विधानसभाओं में बैठे कतिपय माननीयों के लिए जो बातें बाबा रामदेव और केजरीवाल ने कही हैं, वहीं बातें देश भर में चौबीस घन्टों में से, प्रति सेकन्ड किसी न किसी कंठ से फूटती हैं। यही बातें लगातार साहित्य, सिनेमा, कला के जरिए भी कही जाती हैं। देश में बनने वाली हर दूसरी फिल्म में नेता, विलेन के रूप में चित्रित किए जाते हैं। देश की नई पीढ़ी लोकतांत्रिक संस्थाओं में बैठे ऐसे ही विलेनों को देखते हुए जवान हो रही है और तभी तो ‘पान सिंह तोमर’ फिल्म में जब यह डायलाग गूंजता है कि बीहड़ में बागी रहते हैं, डाकू तो संसद में रहते हैं तो हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है। दरअसल राजनीति में अपराधीकरण खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है और ऐसी स्थिति में आम नागरिक के आक्रोश की अभिव्यक्ति को कोई कानून नहीं रोक सकता। यदि विशेषाधिकार हनन के तहत किसी एक को भी सजा पड़ी तो यकीन मानिए देश भर के डेढ़ अरब लोग इस विशेषाधिकार का हनन करने के लिए तैयार बैठे हैं, किस-किस को संसद के बंदीगृह में डालिएगा।
अब संसद में ही अपराधियों के ब्योरे के बारे में जानें संसद में दाखिल किए गए 533 हलफनामों के आधार पर कहें 150 (28.14%) ऐसे सांसद हैं जिनके खिलाफ अपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। 72 सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ आईपीसी की संगीन धाराएं लगी हैं। इन पर हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती, बलात्कार जैसे जुर्म का आरोप हैं। 2009 की लोकसभा में 300 सांसद ऐसे हैं जो कि करोड़पति हैं, जबकि 2004 की लोकसभा में करोड़पतियों की संख्या महज 154 थी। इस लिहाज से संसद में धनाढ्यों की संख्या में 95 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसी तरह पिछली लोकसभा में जहां आपराधिक पृष्ठिभूमि के 128 सांसद थे वहीं इस लोकसभा में यह संख्या बढ़कर 150 हो गई है। यूपी समेत पांच राज्यों के चुनाव भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण के बीच हुए। इस दरम्यान अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने पूरे परवान पर था। चुनाव परिणामों पर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म एन्ड नेशनल इलेक्शन वाच का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन बताता है कि पांच राज्यों में चुने गए 690 विधायकों में से 252 विधायकों के खिलाफ अपराधिक प्रकरण दर्ज हैं। पिछले चुनाव यानी कि 2007 के मुकाबले आपराधिक पृष्ठिभूमि वाले विधायकों की संख्या में आठ प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। पांच राज्यों में चुने गए कुल विधायकों में से 66 प्रतिशत यानी कि 457 विधायक करोड़पति हैं। पिछले चुनाव के मुकाबले करोड़पतियों में 32 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इस मामले में यूपी की स्थिति बदतर है। अध्ययन के अनुसार यूपी में 189 (47%) नए विधायक अपराधिक रेकार्ड वाले हैं, जबकि पिछली विधानसभा में यह संख्या 140 (34%) थी। इसी तरह यूपी में 271 (67%) विधायक करोड़पति हैं। जबकि 2007 की विधानसभा में महज 124 विधायक ही करोड़पति थे।
धन और बाहुबल हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर किस तरह कब्जा करने के लिए आतुर हैं और सालों-साल स्थितियां खतरनाक होती जा रही हैं, इससे देश के हर विवेकवान नागरिक का चिंतित होना स्वाभाविक है और ऐसी स्थिति में जब वह अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति करता है तो उसे किसी भी विशेषाधिकार के हनन का न तो डर रहता है और न ही परवाह।
वैसे भी यह विशेषाधिकार किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को आम आदमी से विशिष्ट नहीं बना देता, अपितु यह विशेषाधिकार संसद, उसकी समितियों के स्वतंत्र कार्य करने और प्रतिनिधियों को अपने विचार व्यक्त करने की व्यवस्था देता है। विधानसभा या संसद में कही गई किसी बात को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके उलट जब मतदाता विधानसभाओं में बैठे अपने प्रतिनिधियों को ब्लू फिल्म देखते, लात घूंसे चलाते, माइक कुर्सी उखाड़ते, गाली गलौज करते देखते हैं, तब उन्हें नैसर्गिक विशेषाधिकार प्राप्त हो जाता है कि सार्वजनिक रूप से इनके आचरण व चरित्र के बारे में अपनी बात रखें। उसी तरह संसद में जिस तरह माननीय गण महीनों-महीनों कार्रवाई ठप्प रखते हैं या कोई दस्तावेज फाड़ते हैं या नोटों के बंडल   लहराते हैं, या फिर तहलका के स्टिंग आपरेशन में घूस लेते पकड़े जाते हैं, या सवाल पूछने के एवज में रुपये लेते हैं तो इनकी चर्चा करना किस विशेषाधिकार हनन की श्रेणी में आता है। इन स्थितियों में ऐसे सांसदों को विचलित होने की जरूरत नहीं जो पाक-साफ हैं अपितु जनता के साथ खड़े होने की जरूरत है ताकि उनके बगल में बैठे भ्रष्ट और अपराधी लोगों को सबक मिले कि समूचा सदन उनके साथ नहीं है।
अब दो अहम सवाल उठते हैं। पहला पार्टियां इन्हें टिकट क्यों देती है, दूसरा, जनता इन्हें चुनती क्यों है? पहले का जवाब हाल ही में उत्तराखण्ड के लिए नियुक्त किए गए महामहिम राज्यपाल अजीज कुरैशी के आभार वक्तव्य से मिलता है। श्री कुरैशी ने राज्यपाल चयन के लिए गांधी-नेहरू परिवार के साथ वफादारी का पुरस्कार और सोनिया गांधी की कृपा बताया। एक संवैधानिक पद की योग्यता चाटुकारिता और वफादारी। प्राय: सभी पार्टियां इसी आधार पर लोकसभा व विधानसभा की टिकटें बांटती हैं और तब ये नहीं देखतीं कि जिसे वे टिकट दे रही हैं वह फ्राड़, करप्ट और क्रिमिनल है। इसी रोग की शिकार सभी पार्टियां हैं और राजनीति का अपराधीकरण खतरनाक स्तर तक इसी प्रवृत्ति के चलते पहुंचा। अब रहा सवाल जनता ऐसे लोगों को क्यों चुनती हैं, तो सहज जवाब है उसके सामने सिर्फ दो विकल्प हैं। सांपनाथ या नागनाथ। तीसरा विकल्प है कि वोट ही न दें। खुदा न खास्ता कभी किसी ईमानदार को चुन भी लिया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि अगली बार वह नागनाथ-सांपनाथ की जमात में शामिल नहीं होगा। और अब रही पते की बात, तो वह बकौल ‘ब्रेख्त’ हुजूर यदि आप इस जनता से नाखुश हैं तो आपको खुली छूट है कि अपने हिसाब से कोई दूसरी जनता चुन लें।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
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Monday, May 7, 2012

कानून नहीं आचरण का विषय है भ्रष्टाचार

जयराम शुक्ल
शरद जोशी ने कोई पैतीस साल पहले हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे व्यंग्य निबंध रचा था। तब यह व्यंग्य था, लोगों को गुदगुदाने वाला। भ्रष्टाचारियों के सीने में नश्तर की तरह चुभने वाला। अब यह व्यंग्य, व्यंग्य नहीं रहा। यथार्थ के दस्तावेज में बदल चुका है। भ्रष्टाचार की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ ही व्यंग्य की मौत हो गई। समाज की विद्रूपताओं की चीर-फाड़ करने के लिए व्यंग्य का जन्म हुआ था। परसाईजी ने व्यंग्य को शूद्रों की जाति में रखते हुए लिखा था व्यंग्य चरित्र से स्वीपर है। वह समाज में फैली सड़ांध में फिनाइल डालकर उसके कीटाणुओं को नाश करने का काम करता है। जोशी-परसाई युग में सदाचार, लोकलाज व सामाजिक मर्यादा के मुकाबले विषमताओं,विद्रूपताओं और भ्रष्टाचार का आकार बेहद छोटा था। व्यंग्य  उन पर प्रहार करता था। लोग सोचने-विचारने के लिए विवश होते थे। भ्रष्टाचार का स्वरुप इतना व्यापक नहीं था। व्यंग्य कब विद्रूपता के मुंह में समा गया पता ही नहीं चला। वेद पुराणों में भगवान का यह कहते हुए उल्लेख है कि हम भक्तन के भक्त हमारे। जोशी जी ने भ्रष्टाचार के लिए यही भाव लिया था।
आज के दौर के बारे में सोचते हुए लगता है कि हमारे अग्रज साहित्यकार कितने बड़े भविष्यवक्ता थे। भ्र्रष्टाचार, सचमुच भगवान की तरह सर्वव्यापी है, कण-कण में, क्षण-क्षण में। इसे संयोग ही कह सकते हैं कि भगवान की परिभाषा और उनकी महिमा जो कि वेद-पुराणों में वर्णित है सब हूबहू भ्रष्टाचार के साथ भी लागू होती है। गोस्वामी ने लिखा, बिन पग चलै,सुनै बिन काना कर बिनु कर्म करै विधि नाना। बिन वाणी वक्ता बड़ जोगी़..़़ आदि-आदि। मंदिर में, धर्माचार्यों के बीच भगवान की पूजा हो न हो, भ्रष्टाचारजी पूरे विधि-विधान से पूजे जाते हैं। नित्यानंद, निर्मलबाबा से लेकर धर्माचार्यों की लंबी कतार है जिन्होंने मंत्रोच्चार और पूरे कर्मकांड के साथ भ्रष्टाचार की प्राण-प्रतिष्ठा की है और हम वहां शीश नवाने पहुंचते हैं। भगवान को माता लक्ष्मी प्रिय है तो भ्रष्टाचारजी को भी लक्ष्मीमैया अतिप्रिय। रूप बदलने, नए-नए नवाचार और अवतार में भी भ्रष्टाचार का कोई सानी नहीं। आज के दौर में परसाई जी-शरद जोशी जी होते तो भ्रष्टाचार को लेकर और क्या नया लिखते! उनके जमाने में एक-दो भोलाराम यदाकदा मिलते जिनके जीव पेंशन की फाइलों में फड़फड़ाते। आज हर रिटायर्ड आदमी भोलाराम है, फर्क इतना कि वह परिस्थितियों से समझौता करते हुए परसेंट देने पर राजी है। परसेंट की यह कड़ी नीचे से ऊपर तक उसी तरह जाती है जैसे राजीव गांधी का सौ रुपया नीचे तक दस पैसा बनकर पहुंचता है।
पिछले कुछ दिनों से भ्रष्टाचार पर भारी बहस चल रही है। भ्रष्टाचारी भी भ्रष्टाचार पर गंभीर बहस छेड़े हुए हैं। चैनलों ने इसे प्रहसन का विषय बना दिया। बंगारू लक्ष्मण को सजा पड़ गई तो इस पर पिछले चौबीस घंटों से प्रहसन रचा जा रहा है। टीवी चैनलों में कभी-कभी बहस इतनी तल्ख हो जाती है कि मोहल्लों में औरतों के बीच होने वाले झगड़ों का दृश्य उपस्थित हो जाता है। एक कहती है..तू रांड तो दूसरी जवाब देती है तू रंडी़.़. एक ने कहा तुम्हारी पार्टी भ्रष्ट तो दूसरा तड़ से जवाब देता है, तुम्हारी तो महाभ्रष्ट है। टीवी शोे में भाजपा के एक प्रतिभागी ने कहा, बंगारू जी से बस इतनी गलती हो गई कि उन्होंने कांग्रेस में जाकर प्रशिक्षण नहीं लिया था। वे लाखों गटक लेते हैं और पता भी नहीं चलता जैसे कि कांग्रेसी लाखों करोड़ यूं ही हजम कर जाते हैं। भ्रष्टाचार अब बुद्घिविलास का विषय बन चुका है। चमड़ी इतनी मोटी हो गई कि व्यंग्य की कौन कहे गालियां तक जज्ब हो जाती हैं। एक नया फार्मूला है खुद को ईमानदार दिखाना है तो दूसरों को जोर-जोर से बेईमान कहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी कर्मकांडी हो गई है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ईमानदारी की अलख जगाने वाले नए पंडों के रूप में अवतरित हुए हैं। संसद पर हमले के गुनहगार अफजल गुरू की मुक्ति के लिए अभियान चलाने वाले और उद्योगपतियों के खिलाफ याचिका में फोकट का इन्टरविनर बनने वाले पिता-पुत्र की जोड़ी शांति भूषण और प्रशान्त भूषण टीम अन्ना की नीति तय करते हैं। मंचीय कवियों का गिरोह चलाने वाले मसखरे कुमार विश्वास अन्ना की सभाओं का संचालन करते हैं। योग सिखाने के लिए निर्मल बाबा की तर्ज पर करोड़ों की फीस वसूलने वाले बाबा रामदेव नैतिकता का पाठ सिखाते हैं। रंगमंच पर यही सब नाटक चल रहा है।
अन्ना के आव्हान पर कैण्डल मार्च निकालने वाले भ्रष्टाचार से लड़ने चंदे के पैसे से दिल्ली तो कूंच कर सकते हैं पर अपने गांव के उस सरपंच के खिलाफ बोलने से मुंह फेर लेते हैं जो गरीबों का राशन और मनरेगा की मजदूरी में हेरफेर कर दो साल के भीतर ही बुलेरो और पजेरो जैसी गाड़ियों की सवारी करने लगता है। इसके खिलाफ हम इसलिए कुछ नहीं बोल पाते क्योंकि यह हमारा अपना बेटा, भाई, भतीजा और नात-रिश्तेदार हो सकता है। जब शहर के अखबार गायों की तस्करी और उनके कटने का मुद्द उठाते हैं तब अपने धर्म-धुरंधर लोग कश्मीर से धारा 370 उठाने के लिए धरने पर बैठते हैं। ये दिल्ली के भ्रष्टाचार पर बहस करते हैं, अपने गांव व शहर की बात करने से लजाते हैं, भ्रष्टाचारी कौन है? यह दिया लेकर खोजने   का विषय नहीं है। समाज में भ्रष्टाचार की प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले लोग कौन हैं? यह अलग से बताने की बात नहीं है, हम सबने मिलकर भ्रष्टाचार को अपने आचरण में जगह दी है। जिस दिन कोई पिता अपने बेटे को इसलिए तिरष्कृत कर देगा कि उसके भ्रष्टाचार की कमाई से बनी रोटी का एक टुकड़ा भी स्वीकार नहीं करेगा, कोई बेटा बाप की काली कमाई के साथ बाप को भी त्यागने का साहस दिखाएगा, परिवार और समाज में भ्रष्टाचार करने वालों का सार्वजनिक बहिष्कार होने लगेगा, उस दिन से ही भ्रष्टाचार की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। क्योंकि भ्रष्टाचार कानून से ज्यादा आचरण का विषय है। कत्ल करने वाले को फांसी दिए जाने का प्रावधान है लेकिन कत्ल का सिलसिला नहीं रुका है।  कत्ल भी हो रहे हैं और फांसी भी। भ्रष्टाचारियों को कानून की सजा देने मात्र से भ्रष्टाचार रुकने वाला नहीं। क्या कोई अपने घर से भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़नें की शुरुआत करने को तैयार है?  
-लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
संपर्क सूत्र : 9425813208

Friday, May 4, 2012

रिश्तों की बुनियाद पर लोकमंगल की कामना

चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
भारतीय काव्य-शास्त्रों में स्त्री के अद्भुत स्वरूप हैं। कभी वह शेर पर सवारी करती दिखती है तो कभी हंस पर भी विराजती है। कमल का फूल उसका आसन है। कठोरता और कोमलता का ऐसा चेहरा संगम अन्य किसी संस्कृति में देखने में नहीं मिलता। जब जब देवता, असुरों से हारते रहे वे अपनी मदद के लिए स्त्री-ऋषि या मनुष्य के पास ही जाते रहे। स्वयं अपने बल पर उन्होंने कभी कोई लड़ाई नहीं जीती। किसी की तपस्या भंग करनी हो तो स्त्री, किसी का वध करना हो तो स्त्री। स्त्री उनके लिये सबसे ताकतवर हथियार थी। जिस स्त्री की विनती कर अनेक युद्ध जीते गये हों, उसी को हाशिये पर भी रखा, उसके लिये सीमाएं तय की, रेखायेंं खींची। तमाम तरह की अग्नि परीक्षाओं के बाद भी उस पर विश्वास नहीं किया, निष्कासित किया। उससे डरकर ही उसे नियंत्रित करने के अनेक प्रयास किये, विवाह बंधन ही ऐसा ही एक प्रयास था। स्त्री उसकी मां थी, बहन थी, पुत्री थी, पत्नी थी। पुत्र ने मां को अनुशासन में रखने की मुख्य प्रतिज्ञा की। अनेक अनुशासनों के बावजूद पुरुष, हमेशा स्त्री के स्नेह, प्रेम और कृपा का आकांक्षी रहा। स्त्री को कभी-कभार स्वयंवर का अधिकार दिया परंतु एकाध शर्तें ऐसी रखीं कि स्वयंवर का अर्थ ही बेमानी हो गया। सीता के स्वयंवर में धनुष-भंग और द्रौपदी स्वयंवर में मत्स्य भेद की शर्तें पिताओं की थीं, कन्याओं की नहीं। फिर स्वयंवर कैसा? उक्त संदर्भों में एक ही बात श्रेष्ठ थी कि उसमें जाति बन्धन नहीं था। परन्तु महारथी कर्ण से तो उसकी जाति ही पूछी गई। स्वयंवर के आयोजन मात्र नाटक थे। अलबत्ता रुक्मिणी, सुभद्रा-ऊषा ने बिना माता पिता परिवार की इच्छा के स्वयंवर चुन लिया। इतिहास के अनेक उदाहरणों में संयोगिता की इच्छा निश्चित रूप से शब्द की सार्थकता निरुपित करती है।
आदिकाल से विवाह के तरीके बदलते रहे हैं। शास्त्र और इतिहास से हटकर लोक में विवाह की अपनी अलग धज है अलग ठाठ है। उसके साथ सभी जातियों का तालमेल है। मण्डप से लेकर विदा तक सभी जातियों के सहयोग और उनके लाये पदार्थों और सामग्रियों से ही विवाह सम्पन्न होता है। बढ़ई, लोहार, पंडित, पटहार, बसुहार, सोनार, चमार, नाई, बारी, कहार, धोबी, कुम्हार का समन्वय विवाह के अवसरों पर देखा जाता है। आपाधापी भरे इस मूल्यहीन युग में जिन्दगी के अर्थ बदल गये हैं। मूल्यहीनता, मूल्य निर्धारण करने लगी है। शहरों की तड़क-भड़क और शोर में विवाह का आनंद समाप्त होता जा रहा है। कानफोड़ू संगीत में विवाह की रस्में और गीत अंतिम सांसे ले रही हैं। साधन और सुविधा की कमी से गांव के लोग भी विवाह घर ढूंढ़ने लगे हैं। महीने और सप्ताह भर के आनन्द दिन और तीन-चार घन्टों में सिमट कर रह गये हैं। गांव अब अतीत हैं, उसको याद करना गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा है। फिर भी अतीत हमारी पहचान है, विशिष्टता है, उसको याद करना अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञ होना है। शाम को विवाह वाले घर में औरतें इकट्ठा होकर मंगलगीत गाती थीं। इस गीत-गाने से एक दूसरे में नजदीकी बढ़ने के साथ गुणों की जानकारी होती थी। एक तरह से यह गीत-गाने की अघोषित प्रतिस्पर्धा होती थी।
    मंगलगीत, लोक के स्वर हैं, उनमें लोक की आत्मा है, कन्या या अन्य रिश्तों की भावना इन गीतों में मुखर होकर वातावरण को जीवन्त बना देती है। सुख और दुख के आंसुओं का अद्भुत संगम विवाह है। ‘लड़की पराया धन है’ यह सुनकर लड़की की आत्मा बाजू से ही प्रश्न करती है- ‘बाबा! कउने नगरिया जुआं खेले के हमरा हारि आये। बिटिया! अवध नगरिया जुआं खेलेन, के तोंहका हारि आयेन।’ बिटिया कहती है कि ‘कोठी-अटारी, भइया-भउजी, पूत-पतोह, गाय-भैंस क्यों नहीं हारे।’ बाबा जवाब देते हैं कि ‘ये सब हमारी लक्ष्मी हैं, तू पराया धन है।’ कितनी विवश रही है बिटिया? जिन्दगी के सबसे सुन्दर दिन जहां उसने बिताये उसे छोड़ना  है।
  नीम के डाल में पड़े हिंडोले में झूलते हुए वह कहती है- ‘बाबा! निमिया क पेड़ न  काटे, निमिया चिरैया बसेर। बिटिया, चिरैया के नार्इं। सबेरे चिरैया उड़ि जइहैं, रहि जहहैं निमिया अकेलि। सबेरे बिटिया जइहैं सासुर, रहि जइहैं माई अकेलि।’ उन्मुक्त वातावरण में पली बिटिया और पंछी तो एक ही हैं। बघेली में बिटिया को चिरई भी कहा जाता है। भले ही सोने-चांदी से भरे घर में लड़की ब्याह दी जाय परंतु विवाह तो बंधन है आदि काल से। लोक इसीलिये लड़की के दुख से दुखी हो उठता है- ‘सोनमा के पिंजरा में बंद भइले हाय राम, चिरई के जीयबा उदास।’ लड़की के जन्म लेने के दिन से ही मां-बाप नाते-रिश्ते में लड़के की खोज में मन ही मन लग जाते हैं। लोक मान्यता है कि लड़की शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ती है। रात-दिन चिन्ता में मग्न लोकमन की प्रतिध्वनि गीतों में किस सब्जढंग से मुखरित हो जाती है। स्त्रियां सोहाग गाती हैं- ‘हर लड़की रानी और प्रत्येक वर राजा होता है - चिरई रे सोइगें, चुनगुन रे सोइगें, सोइगें शहरबा के लोग। एक नहिं सोवैं अजबा (दादा) ओ हई राम, जेनके घरे नातिन कुमारि। सभी चैन की नींद सो रहे हैं लेकिन जिनकी नातिन बिटिया, बहिनी कुमारी बैठी है, वे कैसे सो सकते हैं।’ संयोग से दूल्हे राजा उसी रास्ते निकले, उनकी कलगी सेहुड़ा  के बारी में उलझ गई, उनकी विनयशीलता और विवशता   देखें- ‘सांकरि खोरिया, घन सेंहुड़रिया बिच बिच बमुरे क डारि। ओंही तर निकरे हइ दुलहे दुलउआ, कलंगी उलझि गइ डारि।
विवाह की परम्परा अभी भी गांवों में शेष है अपसंस्कृति की हवा से गांव पूर्णतया मुक्त नहीं है, सुरसुरी पहुंची है। एक तिलकोत्सव के कार्यक्रम में शहर से लगे एक गांव में गया था। महिलाएं बन्ना गा रही थीं- ‘मानो मेरा अहसान के बन्ना ने हां कर दी’ सुनकर हंसी आ गई मैंने तुक मिलाया- ‘मानो हमारा अहसान के बन्नी ने हां कर दी।’ इन गीतों का क्या मतलब है यह मंगलगीत तो  नहीं हैं। एहसानमंदी जताने वाले भाव, गीत तो नहीं हो सकते। लोक इसे विकृति मानता है। द्वारचार, चढ़ाव, विवाह, पवपखन्नी, भंगरी, सिंदूरदान, लावा परछाई, कलेबा गारी शहरों से मुक्ति पा चुके हैं। अवसरों के इन गीतों को इस तरह विद्रूप कर दिया गया है कि हंसी आती है।  जिस कलेबा की गारी सुनने के लिए अयोध्या, जनकपुर तक उमड़ पड़ा था, वे गालियां अभी भी लोक में पूरी ठसक के साथ अवस्थित हैं। घूंघट के भीतर से सारी मर्यादा को चुनौती देती अछोर-बेपर्द गालियां सुनकर बाराती धन्य होते हैं। अब ये प्रेम भरी गालियां ‘जनरेशन गैप’ के कारण हाशिये पर आ गई हैं। आदिकाल से ही बहुत कम लोगों को मन का मीत मिला है। स्त्रियों ने फिर भी हर तरह से समझौते किये हैं। गांव ने हर प्रकार के कष्ट भोगकर भी अदालतों के दरवाजे नहीं खटखटाये। हां गीतों में अपनी पीड़ा व्यक्त की। कानूनों ने प्रताड़ना को अपराध बताकर रास्ते दिखाये हैं। सद्भाव और प्रेम किसी कानून के मुखापेक्षी नहीं होते।
                                               
 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                        सम्पर्क - 09407041430.

व्यक्ति की उदासी पर बात जरा सी


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
भक्तिकालीन साहित्य को हम इसलिए सर्वश्रेष्ठ मानते हैं कि उसमें लोकहित की प्रधानता है। लोकनीति, व्यवहार और तत्व, मनुष्य जीवन के न सिर्फ संचालित करते हैं, अपितु दिशा देते हुए मार्ग भी निष्कंटक बनाते हैं। तत्कालीन काव्य की कसौटी के लोक तत्व ही थे। लोक का व्यक्ति अधिक पढ़ा लिखा विद्वान नहीं था, परन्तु बुद्धिमान था। उसे लोक हित की चिन्ता थी। समाज के बरक्स व्यक्ति गौवा था। परन्तु उसमें साहस था, इसी कारण कुंभनदास जैसे लोकधर्मी कवि में इतनी चेतना थी कि सीकरी के राजकीय प्रस्ताव को भी न सिर्फ ठुकराया, यह भी कह दिया- ‘जिनको देखे दुख उपजत है, उनको करिबो पीर सलाम।’ सत्ता का चरित्र हर युग में एक ही तरह होता रहा है । शासक का चरित्र कभी भी श्लाघ्य नहीं था, तभी न जिनको देखने मात्र से ही दुख पैदा होता है, कहने का साहस फकीरी में जीने वाले कविओं में था। गोस्वामीजी बेझिझक कह देते हैं कि ‘हम तो रघुवीर के पंजीकृत चाकर हैं।’ किसी नर के मनसबदार कैसे हो सकते हैं? यह साहस आज कहां बिला गया? अब तो दोनों को एक साथ साधने की परम्परा का चलन है।
    लोक का सबसे प्रिय धन ‘संतोष’ सिर्फ  शब्दकोष में है, व्यवहार क्षेत्र में नहीं उतरा। भक्तिकाल का कवि लोक का प्रतिनिधित्व करता है। अभाव में रहता है, जीवन के भाव-मूल्य तय करता है। फकीर है, लेकिन बादशाह की तरह निर्द्वन्द जिन्दगी जीता है। कभी नींद भर नहीं सोता, असत ही सारी रात बिता देता है। एक ओर संत भी है जो रात दिन जागता है और सोने वालों के सुख पर चिंतित है, किसी ईर्ष्यावश नहीं, उनकी अज्ञानता के कारण दुखी है। सेवानिवृत्त शिक्षक मित्र ने उस दिन मेरी अनेक चिंताओं पर एक दोहा जड़ दिया और वहां से फूट लिये। मैंने जानना चाहा कि किसका दोहा है यह? कबीर-तुलसी-रहीम किसी का नाम नहीं है जबकि नीतिगत दोहों में इनके नाम हैं। इनकी लोकप्रियता का आधार यही लोकदृष्टान्त है, जिनसे समाज हमेशा रूबरू होता है। उन्होंने नाम नहीं बताया, दोहा भी नहीं कहा इसे बोले चोगोलबा है यह। चौगोलबा याने चार चरण वाला (गोल) जिसे हम दोहा कहते हैं- ‘खर, घुघ्घू, मूरख, पशु, सदा सुखी, सब मास। चाकर, चकबा, चतुर नर ओषे, पहर उदास।’ लोक यह यथार्थ सारे विश्व का यथार्थ है। सीधे-सीधे कहें कि गधा, घुघ्घू, मूर्ख और पशु हमेशा सुखी रहते हैं, परंतु चाकर, चकवा, चतुर व्यक्ति हमेशा उदास और दुखी रहता है। यह ऐसी लोकोक्ति हैं जिसमें मनुष्य और पशु पक्षियों का स्वभाव  स्पष्ट वर्णित है, जिसे अधिक व्याख्यायित किये बिना भी सहज ढंग से समझा जा सकता है। लेकिन इसमें जिस चतुर नर के लिये इतने उपादान-सहधर्मी सहेजे गये हैं। उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता। लोक की ये उक्तियां लोक के वेद और शास्त्र हैं। इनमें लोक की खुशी है, पीड़ा है और अनुभव है। ये सौ प्रतिशत खरी है। इनकी अनदेखी लोक अपराध है।
संसार का सबसे अपरिग्रही पशु गधा है। जहां लाद कर ले जाना चाहें, तैयार है, कोई विरोधात्मक प्रतिरोध नहीं। बैशाख की धरती पर जब कहीं घास का तिनका भी नहीं रहता तब भी पीछे मुड़कर और देखकर संतुष्ट हो लेता है कि आज उसने इतनी घास खा ली कि पीछे एक तिनका तक नहीं छोड़ा। मात्र बैशाख ही नहीं हर महीने खुश होकर शेष पशु जगत को चिपोंग-चिपोंग कहता रहता है। लेखकों ने गधे पर आत्मकथाएं लिखीं। चीन से हुए युद्ध के दौरान गधा नेफा तक गया। कृष्ण चन्दर ने देखा था। ‘गधा’ आधुनिक शिक्षकों का प्रिय उजमान है। ‘घुघ्घू’ एक अपशकुनी पक्षी है, उल्लू प्रजाति का यह पक्षी उल्लू से किंचित बड़ा, सिर और धड़ आकार में मोटा होता है। गांव के लोग इसे घुघुआ कहते हैं। हर स्थिति में मुंह फुलाये मस्त बैठे आदमी को इसी संबोधन से प्राय: लोग पुकारते हैं। यह मनुष्य की आवाज की नकल करता है। किसी के मरने पर यह मनुष्य की आवाज में रोता है, कल्हारता है। इसे ढेले से मारकर नहीं उड़ाते। कहते हैं कि मारे हुए ढेले को लेकर घूघ्घू पानी में डुबाता है। जैसे जैसे यह मिट्टी का ढेला पानी में घुलता है, ढेला मारने वाला व्यक्ति भी शनै: शनै: घुलकर एक दिन समाप्त हो जाता है। घुघ्घू हमेशा सुखी रहने वाला पक्षी है। ऐसी लोकमान्यता है।
मूर्ख व्यक्ति भी सदा सुखी रहता है। तुलसीबाबा ने मूढ़ों को सबसे अच्छा व्यक्ति घोषित किया है। तुलसी जिस व्यक्ति के पक्ष में खड़े हों, फिर कौन तर्क दे सकता है। -‘सबसे अच्छे मूढ़, जिन्हैं न व्यावै जगत गति।’ जिनको संसार से कुछ लेना-देना ही नहीं है निश्चित रूप से वे सबसे श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठों की संख्या निश्चित ही कम है, सामान्यों की तुलना में। और ये मूर्ख इतने महान हैं कि यदि विरंचि (ब्रह्मा) भी आ जाएं तो उन्हें चेताना चाहें तो नहीं चेता सकते। ऐसा व्यक्ति भला क्यों न सुखी रहेगा।
     पशुओं का यह सामान्यीकरण है कि वह हर हमेशा सुखी रहता है सुखी रहने वालों की संख्या इस चौगोलबा में इतनी ही है। मनुष्य, पशु, पंछी के अतिरिक्त अन्य जीवधारियों की चर्चा न होने से दोहे की सार्थकता कम नहीं होती। सभी चर प्राणियों को एक अर्द्धाली में समेटता विशिष्टता है।
मालिक के निरंतर नजदीक रहने वाला चाकर (नौकर) हमेशा परेशान और उदास रहता है कि पता नहीं कब पुकार हो जाए। अपने और अपनी समस्याओं के बारे में सोचने की बात से कला नितांत मुश्किल है। जैसे ही   सोचने लगेगा मालिक का हुक्म हो जाएगा- ‘ऐसा करो-वैसा करो।’ एक काम पूरा हुआ नहीं कि दूसरा काम सिर पर। अत: चाकर का उदास रहना गुण-धर्म है जिसे न चाहते हुए भी उसे निभाना पड़ेगा। लोक मान्यता में चकवा हमेशा इस आशंका में उदास रहता है कि पता नहीं किस क्षण शाम हो जाएगी। रात की आशंका से चकवा उदास है। और चतुर नर तो हर क्षण उदास है।
संसार भर की चिन्ता एक विवेकशील व्यक्ति की होती है। क्या क्यों, कैसे हो रहा है इन प्रश्नों से वह उदास है। सिकंदर महान विश्व विजयी कहलाने के लिए चिंतित है। अमेरिका सबसे महान बनने में लगा है। रावण कुछ चिंताएं लिये मर गया कि कल-कल  करूंगा, कहते-कहते चला गया। मनुष्य ऐसा चतुर प्राणी है कि सोता है तो सपने देखता है, जागता है तो छटपटाता है, उसे एक क्षण चैन नहीं है। संसार भर के सुख-दुख की चिंता लिए चतुर नर हमेशा उदास रहा है, रहेगा। हमारी चिंता के निहितार्थ में ही मित्र ने मेरे ऊपर यह दोहा पटका-‘और मुझे उदास कर जाने कहां चला गया।’
                                                          - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                             सम्पर्क - 09407041430.

शब्दों का भी उत्थान पतन होता है


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
अब यह पूर्णत: सत्य नहीं रहा कि अक्षर, अ-क्षर है उसका क्षरण नहीं होता, वह ब्रह्म के समकक्ष है। ब्रह्म सदैव से अज्ञेय ही है कि नहीं, इसी में समूचा भारतीय दर्शन निमग्न है। ‘सोअहं’ से प्रारंभ हो ‘दासोअहं’ ‘सदासोहअं’ ‘दासदासोअहं’ की चिंतन पद्धति हमें अद्वैत, द्वैत कि शिष्टाद्वैत और शुद्धाद्वैत की अनंत-अमूढ़ अक्षर-यात्रा कराती है। ब्रह्म के उत्पत्ति-विकास की कहानी काव्य शास्त्र विनोदेन की तरह, ब्रह्मलीन ऋषियों के आर्ष वाक्य, समाज और लोक में व्याप्त है। ब्रह्मा के होने न होने और उसके मरने या अमर-अक्षर रहने को हम नहीं जानते परंतु अक्षर जिन्हें शब्द कहते हंै और जिनके अ-क्षर होने की बात कही जाती है, उनसे हमारा सामना हमेशा होता रहता है।  शब्द उसकी उपज है। शब्दों के उत्कर्ष और अपकर्ष होते हैं, उत्थान-पतन के साथ शब्दों की मृत्यु भी होती है। संसार की कितनी ही बोलियों के शब्द खत्म हो गये या दूसरी बोली-भाषा में रसमय होकर अपनी मूल अस्मिता ही खो बैठे। अत: यह कहना कि शब्द अमर हैं, अ-क्षर हैं, किंचित विरोधाभासी निर्मिति है।  ‘साहस’ शब्द का विकास कू्रर और जघन्य कर्म के लिये हुआ था। कभी किसी व्यक्ति को ‘साहसी’ कहना एक सामाजिक अवमानना और गाली से कमतर नहीं था।  आज ‘साहस’ मनुष्य के श्रेष्ठ गुणों में से एक है। इस एक शब्द ने दुर्गुण को सद्गुण में बदलने के लिए कितनी लम्बी यात्रा की होगी। कितनी  मुश्किलों बाद समाज ने इस शब्द को स्वीकार किया होगा, एक अभिजात्य गुण के रूप में, यह मननीय है।  शब्द भी तपस्या करते हैं। जिस शब्द की साधना सफल हो गई उसका उत्कर्ष हो गया। वाल्मीकि (दीमकों की वांमी के बीच) रहने वाला आदि कवि हो गया, महर्षि हो गया।
    मनुष्य के विकास के साथ ही शब्दों का विकास हुआ। उनके अर्थ रूढ़ हुए और वही लोक-मान्य हुये। एक साथ एक समय में एक ही शब्द के अर्थ कैसे बदल गये यह समझ में नहीं आया, न काव्य में न लोक में। ‘हरण’ शब्द का लोक प्रचलित अर्थ इच्छा के विरुद्ध किसी वस्तु या व्यक्ति को उठा लेना या हर लेना था। रामायण कालीन काव्यों में सीता-हरण उनकी इच्छा के विरुद्ध किया गया बलात हरण था। जिसे आज की भाषा में ‘अपहरण’ कहेंगे। पता नहीं इस हरण शब्द का निहितार्थ उस समय काव्य में क्या था। लोक इस अपहरण का हरण की स्वीकृति कैसे दे? महाभारत काल में ‘हरण’ शब्द स्वीकृति और सहमति के लिये विख्यात है। रुक्मिणी-हरण, सुभद्रा-हरण परिवार के विरोध के बावजूद कृष्ण-रुक्मिणी, अर्जुन-सुभद्रा की इच्छाओं के साथ हुआ। जबकि उसी काल में काशिराज की कन्याओं का देवव्रत भीष्म ने अपहरण किया, लेकिन महाकवि व्यास इसे हरण कहते हैं। एक ही समय में एक ही कार्य के लिये दो भिन्न अर्थ कैसे हो गए? उसे हरण शब्द का उत्कर्ष कहें या अपकर्ष। जिस हरण शब्द को रामायण काल में इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मानकर निंदनीय कहा गया। वही शब्द महाभारत में स्वीकृत और प्रतिष्ठित हो गया। वस्तुत: सीता-हरण नहीं वह पूर्णत: अपहरण था। और हम सभी भी सीता-हरण, सीता-हरण की रट लगाए जा रहे हैं? रुक्मिणी और सुभद्रा हरण भी लोक में, भागने के रूप में व्यवहृत होता है। ‘हरण’ शब्द के व्युत्पत्ति और विकास की कथा, मनुष्य के चिंतन का सिर उठाती हैं कि झुकाती हैं, यह विज्ञ लोग जाने। द्रौपदी चीर-हरण तो मनुष्यता के इतिहास का निकृष्टतम कृत्य था। एक ही समय में एक ही शब्द के दो अर्थ एक स्वीकृत दूसरा तिरस्कृत।
 मतों की प्रतिबद्धता ने वाद को जन्म दिया। काव्यों और लोक में वाद-विवाद की जगह संवाद का प्रयोग मिलता है। मत(वाद) के विरुद्ध मत (वाद) हर युग में होते रहे हैं। इनका मूल स्वर संवादी होता था। विवादी नहीं। संगीत में संवादी सुरों की महत्ता जीव की सर्वप्रिय शैली है। विवाद, संवाद का पटाक्षेप है जबकि संवाद विवाद को समाप्त करने का प्रयास है। चोरी और हरण करने जैसे जघन्य अपराध करने वाले रावण के साथ भी राम की नीति संवादी है। समुद्र-मंथन जैसे असंभव कार्य की प्रतीति कराने वाले राम, रावण के पास अंगद को बातचीत के लिये भेजते हैं। पौरुष को चुनौती देने वाले रावण को भी संवाद से उचित राह पर लाने की कोशिश विश्व के सिर्फ भारतीय काव्य में है। ‘मानस’ तो संवादों की अपरिमित संभावनाओं का काव्य है। अनेक शंका-समाधानों का विकास और विस्तार याज्ञवल्क्य-भारद्वाज, शिव-पार्वती, कागभुसुंडि-गरुण के संवादों में सहज रूप से हो जाता है। ज्ञान के विस्तार के लिये की गई बहसें संवाद के श्रेष्ठतम रूप हैं क्योंकि इसमें शामिल पक्ष यह मानता है कि सत्य की गहराई को समझने के लिये संवाद आवश्यक है। तर्क की कसौटी पर खरे उतरे ज्ञान को मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं। अब संवाद समाप्त हो गए हैं। वार्ताएं चल पड़ी हैं। किसी भी समस्या को विवाद का नाम दे दिया जाता है। कावेरी जल विवाद, फरुक्खा-विवाद, मंदिर-मस्जिद विवाद, सीमा विवाद, जैसी असहमतियों को हल करने के लिये संवाद प्रक्रिया का नाम वार्ता दे दिया गया है। संवाद शब्द विवादी हो गया। पुराणों में साम-दाम, दण्ड भेद की सारी चालें संवाद में ही चली गर्इं।
     वैश्विक बनने के चक्कर में हम अपनी भाषा बोली संस्कृति को हेय समझने लगे हैं। देश का संविधान देश की भाषाओं में  नहीं बन सका। भारत इंडिया हो गया। हजारों वर्षों का भारत शब्द अगले कुछ वर्षों में समाप्त हो जाएगा। संसार इंडिया को जानता है। भारत का ऐश्वर्य, कीर्ति    सुनकर आए बनियों ने उसे इंडिया बनाकर हमसे हमारा नाम छीन लिया। हमारे विदेश में पढ़ रहे छात्र, अनिवासी भारतीय, भारत को इंडिया कहने में फख्र महसूस करते हैं। वे न तो देश का अतीत जानना चाहते हैं न वर्तमान, वे सिर्फ अपने वर्तमान में जी रहे हैं। क्या ऐसा नहीं आभासित होता कि हम न देशी रहे, न समावेशी, हम विदेशी होने की रेस में शामिल हैं। हमारी पहचान किसी के बेटे, भतीजे, भांजे, नाती, पोते, काका आदि  रिश्तों के समूह से होती थी। अब तो सिर्फ मैं है। ‘हम’ शब्द भी सांसे गिन रहा है। कौन कहता है कि शब्दों का उत्थान-पतन, उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं होता, शब्दों की भी मृत्यु होती है? गोस्वामी तुलसीदास भी यही कह गए हैं? कि ‘धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना।’
                                                - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
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बुद्घ की जाति-भंजक भूमिका

चिन्तामणि मिश्र
ब्राम्हणवाद और साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड की प्रतिक्रिया एवं दलित-शूद्रों की दुर्दशा ने राजकुमार सिद्धार्थ को शाक्य मुनि और फिर बुद्ध बना दिया। बुद्ध ने जाति आधारित वर्ण व्यवस्था को पूरी मजबूती से नकारा और क्रांतिकारी सूत्र दिया कि व्यक्ति को उसके क्रियाकलापों से परखा जाना चाहिए। धम्मपद में बुद्ध ने कहा कि अच्छे चरित्र वाला और अच्छे कर्म करने वाला मनुष्य उच्च होता है। कर्म ही अच्छा-बुरा बनाते हैं। मैं किसी व्यक्ति को उसके कुल के ही कारण ब्राम्हण नहीं कहता। मैं उसे ब्राम्हण कहता हूं जो शरीर, वचन एवं विचार से किसी को दुखी नहीं करता है। कोई व्यक्ति जटा रखने, गोत्र, जाति, और जनेउ पहनने से ब्राम्हण नहीं होता है। वह व्यक्ति जिसमें धर्म, सत्य विराजमान है, सुखी है, बुद्धिमान है, सभी लिप्साओं से मुक्त है, वह ब्राम्हण है। बुद्ध किसी ईश्वर अथवा परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। बुद्ध और उनका दर्शन जाति भंजक भूमिका में अवलोकित तो होता है, किन्तु वे दलितों, औरतों और दासों का स्तर ऊंचा उठाने के लिए भिक्षुक बन कर संध में प्रवेश का रास्ता बताते हैं। गृहस्थ रह कर दलित-शूद्र को निजी रूप से बदलाव लाने का जो रास्ता सुझाया है वह जातियों के विनाश की ओर नहीं ले जाता है। बुद्ध का कथन है कि कोई भी शूद्र सम्पति और विद्वता प्राप्त कर सकता है और राजा भी हो सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बुद्ध और उनके दर्शन में सामाजिक क्रांति की कुनकुनाहट और गतिशीलता है। बुद्ध जाति, वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने कर्म स्वतंत्रता, कर्म प्रधानता एवं आत्मदीपो भव जैसे समतामूलक सिद्धांत देकर ब्राम्हणवादी सामाजिक संरचना को चुनौती दी।
    दलितों-शूद्रों को बुद्ध स्वाधीन जीवन जीने के लिए आत्मविश्वास जगाते हैं। किन्तु बुद्ध और उनका दर्शन वर्ण व्यवस्था पर आमने-सामने सीधे प्रहार नहीं करते। बुद्ध दर्शन यह समझ पाने में नाकाम है कि कर्म स्वतंत्रता से व्यक्ति बदलता है, व्यवस्था नहीं। बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था पर वही कहा जो उनके समय में ब्राम्हणवाद के प्रमुख तत्वों में विद्यमान था। शंबूक यदि पढ़लिख कर सदाचारी जीवन जीते हुए ब्राम्हण वर्ग में आ जाता है तो यह बदलाव शूद्र वर्ग का उन्मूलन नहीं करता है। जो भी शूद्र वर्ग में होगा वह शंबूक बन तो जाएगा, किन्तु उसकी प्रताड़ना और दासता में कोई बदलाव नहीं आएगा। उच्च शिक्षा प्राप्त अम्बेडकर देश की राजनीति के शिखर पर पहुंच कर शासक वर्ग का हिस्सा तो बने किन्तु उससे न तो दलित वर्ग समाप्त हुआ और न ही दलित वर्ग की जलालत भरी जिन्दगी। बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था के जिस रूप को स्वीकार किया उससे मायावती बनने की सम्भावनाएं तो मौजूद हंै किन्तु दलित बनाने वाली समाज व्यवस्था खतम नहीं होती। फिर भी ब्राम्हणवाद की तुलना में बौद्ध दर्शन प्रगतिशील दृष्टिबिन्दु का परिचायक था। वह दलित के असंतोष को तथा सामाजिक  समानता की वकालत करता था और इसी के चलते निर्धन और दलित वर्ग को अपनी ओर खींचता है।
   जल्दी ही वैश्य, क्षत्री और अमीर बुद्ध के अनुयायी हो गए। यह ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि बौद्ध दर्शन का जनता में जब भरपूर प्रचार हो चला तब ही तत्कालीन राजाओं ने इसका समर्थन किया। राजाओं और धनिक वर्ग ने यह समझ लिया था कि बुद्ध ने मौजूदा सामाजिक ढांचे की आर्थिक बुनियाद पर चोट नहीं की थी। बुद्ध दासों के प्रति उदारता की बात तो करते हैं, किन्तु उन्होंने दास प्रथा के उन्मूलन पर कभी कुछ नहीं कहा। यह वह समय था जब देश में दास प्रथा तीव्र गति से विकास कर रही थी। बुद्ध की इस कमजोरी का शोषक वर्ग ने भरपूर लाभ उठाया। सम्राट, सामंत और धनिक वर्ग को बौद्ध दर्शन राहत और लाभ का अवसर उपलब्ध करा रहा था। वे भलीभांति जानते थे कि बौद्ध दर्शन तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक ढांचे को कायम रखने में सहायता करता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि दास प्रथा वाले साम्राज्यों के विकास के हितों की बौद्ध दर्शन ने सेवा की किन्तु दास प्रथा को समाप्त करने के लिए कभी मुंह नहीं खोला। लेकिन यह भी सच है कि नैतिक शुद्धता, अंहिसा, दया और दानपुण्य पर जोर देने के कारण बौद्ध दर्शन का राजाओं,धनिकों तथा दासों के स्वामियों पर मानवतावादी प्रभाव पड़ा। दासों का क्रय-विक्रय तो होता रहा, किन्तु उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाने लगा क्योंकि बुद्ध ने ऐसा कहा था।
बौद्व दर्शन महिलाओं के प्रति संवेदना-शून्य रहा। बुद्ध के समय भी महिलाओं की स्थिति दलित, शूद्र और दासों की तरह ही थी। बुद्ध स्वयं महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानते थे, अन्यथा महिलाओं के संघ प्रवेश का विरोध न करते। आनन्द के बार-बार कहने और दबाव बनाने पर महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति देने के बाद बुद्ध ने कहा था कि अब उनके धर्म को अल्पायु का रोग लग गया है। बुद्ध चरित में बुद्ध ने कहा कि पुरुष व्यर्थ ही स्त्रियों के पाश में फंसता है। बौद्ध महाकवि अश्वधोष ने अपनी रचना सौन्दरानन्द में लिखा है कि गौतम बुद्ध चाहते हैं कि भिक्षुक नन्द अपनी सुन्दर पत्नी की संगति के लिए फिर से गृहस्थाश्रम में प्रवेश न करे। अश्वधोष ने बुद्ध के माध्यम से नारी की निन्दा में अनेक सर्ग लिखे हैं।
   बुद्ध और उनके दर्शन की व्याख्या करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि वे जिस समाज, समय एवं राजनैतिक दबाव के दौर से गुजर रहे थे, उसकी अपनी सीमाएं थी। इसका पूरी तरह से अतिक्रमण बुद्ध नहीं कर पाए।   ऐसा कर पाना सम्भव भी नहीं था। कोई भी बदलाव आमूल-चूल नहीं होता है। बुद्ध दर्शन मध्यममार्गी और आत्मनिष्ठवादी है। ऐसी प्रवृतियां राजनैतिक और सामाजिक संधर्ष के निर्णायक क्षणों में आदर्शवाद और यथास्थितिवाद का मार्ग प्रशस्त करती हैं। आज व्यक्ति से पहले मुनाफा, समाज से पहले बाजार, सर्वोदय के पहले स्वार्थ, परोपकार के पहले लोभ ही जिन्दगीनामा हो गया है। मानव विरोधी विकास ने आम आदमी को दुखों और संकटों में धकेला है तथा सत्ता अपनी पूरी आक्रमकता के साथ जनविरोधी भूमिका में आ गई है। इन्हें भेदने और उखाड़ फेंकने में बुद्ध का अष्टागंमार्ग, कर्म सिद्धांत अथवा सदाचारी जीवन जैसे साधन भोथरे हैं।  समाज के क्रांतिकारी बदलाव के वाहक बुद्ध नहीं बन सकते थे, किन्तु उन्होंने जातिधारक वर्ण व्यवस्था पर चोट करके सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाया। धार्मिक पाखंड में जकड़ी जनता को परलोक के भ्रम से निकालने का ईमानदारी से प्रयास किया यह उल्लेखनीय है। इसके लिए मानवजाति बुद्ध की ऋणी रहेगी।
                                        - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
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