चिन्तामणि मिश्र
ब्राम्हणवाद और साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड की प्रतिक्रिया एवं दलित-शूद्रों की दुर्दशा ने राजकुमार सिद्धार्थ को शाक्य मुनि और फिर बुद्ध बना दिया। बुद्ध ने जाति आधारित वर्ण व्यवस्था को पूरी मजबूती से नकारा और क्रांतिकारी सूत्र दिया कि व्यक्ति को उसके क्रियाकलापों से परखा जाना चाहिए। धम्मपद में बुद्ध ने कहा कि अच्छे चरित्र वाला और अच्छे कर्म करने वाला मनुष्य उच्च होता है। कर्म ही अच्छा-बुरा बनाते हैं। मैं किसी व्यक्ति को उसके कुल के ही कारण ब्राम्हण नहीं कहता। मैं उसे ब्राम्हण कहता हूं जो शरीर, वचन एवं विचार से किसी को दुखी नहीं करता है। कोई व्यक्ति जटा रखने, गोत्र, जाति, और जनेउ पहनने से ब्राम्हण नहीं होता है। वह व्यक्ति जिसमें धर्म, सत्य विराजमान है, सुखी है, बुद्धिमान है, सभी लिप्साओं से मुक्त है, वह ब्राम्हण है। बुद्ध किसी ईश्वर अथवा परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। बुद्ध और उनका दर्शन जाति भंजक भूमिका में अवलोकित तो होता है, किन्तु वे दलितों, औरतों और दासों का स्तर ऊंचा उठाने के लिए भिक्षुक बन कर संध में प्रवेश का रास्ता बताते हैं। गृहस्थ रह कर दलित-शूद्र को निजी रूप से बदलाव लाने का जो रास्ता सुझाया है वह जातियों के विनाश की ओर नहीं ले जाता है। बुद्ध का कथन है कि कोई भी शूद्र सम्पति और विद्वता प्राप्त कर सकता है और राजा भी हो सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बुद्ध और उनके दर्शन में सामाजिक क्रांति की कुनकुनाहट और गतिशीलता है। बुद्ध जाति, वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने कर्म स्वतंत्रता, कर्म प्रधानता एवं आत्मदीपो भव जैसे समतामूलक सिद्धांत देकर ब्राम्हणवादी सामाजिक संरचना को चुनौती दी।
दलितों-शूद्रों को बुद्ध स्वाधीन जीवन जीने के लिए आत्मविश्वास जगाते हैं। किन्तु बुद्ध और उनका दर्शन वर्ण व्यवस्था पर आमने-सामने सीधे प्रहार नहीं करते। बुद्ध दर्शन यह समझ पाने में नाकाम है कि कर्म स्वतंत्रता से व्यक्ति बदलता है, व्यवस्था नहीं। बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था पर वही कहा जो उनके समय में ब्राम्हणवाद के प्रमुख तत्वों में विद्यमान था। शंबूक यदि पढ़लिख कर सदाचारी जीवन जीते हुए ब्राम्हण वर्ग में आ जाता है तो यह बदलाव शूद्र वर्ग का उन्मूलन नहीं करता है। जो भी शूद्र वर्ग में होगा वह शंबूक बन तो जाएगा, किन्तु उसकी प्रताड़ना और दासता में कोई बदलाव नहीं आएगा। उच्च शिक्षा प्राप्त अम्बेडकर देश की राजनीति के शिखर पर पहुंच कर शासक वर्ग का हिस्सा तो बने किन्तु उससे न तो दलित वर्ग समाप्त हुआ और न ही दलित वर्ग की जलालत भरी जिन्दगी। बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था के जिस रूप को स्वीकार किया उससे मायावती बनने की सम्भावनाएं तो मौजूद हंै किन्तु दलित बनाने वाली समाज व्यवस्था खतम नहीं होती। फिर भी ब्राम्हणवाद की तुलना में बौद्ध दर्शन प्रगतिशील दृष्टिबिन्दु का परिचायक था। वह दलित के असंतोष को तथा सामाजिक समानता की वकालत करता था और इसी के चलते निर्धन और दलित वर्ग को अपनी ओर खींचता है।
जल्दी ही वैश्य, क्षत्री और अमीर बुद्ध के अनुयायी हो गए। यह ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि बौद्ध दर्शन का जनता में जब भरपूर प्रचार हो चला तब ही तत्कालीन राजाओं ने इसका समर्थन किया। राजाओं और धनिक वर्ग ने यह समझ लिया था कि बुद्ध ने मौजूदा सामाजिक ढांचे की आर्थिक बुनियाद पर चोट नहीं की थी। बुद्ध दासों के प्रति उदारता की बात तो करते हैं, किन्तु उन्होंने दास प्रथा के उन्मूलन पर कभी कुछ नहीं कहा। यह वह समय था जब देश में दास प्रथा तीव्र गति से विकास कर रही थी। बुद्ध की इस कमजोरी का शोषक वर्ग ने भरपूर लाभ उठाया। सम्राट, सामंत और धनिक वर्ग को बौद्ध दर्शन राहत और लाभ का अवसर उपलब्ध करा रहा था। वे भलीभांति जानते थे कि बौद्ध दर्शन तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक ढांचे को कायम रखने में सहायता करता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि दास प्रथा वाले साम्राज्यों के विकास के हितों की बौद्ध दर्शन ने सेवा की किन्तु दास प्रथा को समाप्त करने के लिए कभी मुंह नहीं खोला। लेकिन यह भी सच है कि नैतिक शुद्धता, अंहिसा, दया और दानपुण्य पर जोर देने के कारण बौद्ध दर्शन का राजाओं,धनिकों तथा दासों के स्वामियों पर मानवतावादी प्रभाव पड़ा। दासों का क्रय-विक्रय तो होता रहा, किन्तु उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाने लगा क्योंकि बुद्ध ने ऐसा कहा था।
बौद्व दर्शन महिलाओं के प्रति संवेदना-शून्य रहा। बुद्ध के समय भी महिलाओं की स्थिति दलित, शूद्र और दासों की तरह ही थी। बुद्ध स्वयं महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानते थे, अन्यथा महिलाओं के संघ प्रवेश का विरोध न करते। आनन्द के बार-बार कहने और दबाव बनाने पर महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति देने के बाद बुद्ध ने कहा था कि अब उनके धर्म को अल्पायु का रोग लग गया है। बुद्ध चरित में बुद्ध ने कहा कि पुरुष व्यर्थ ही स्त्रियों के पाश में फंसता है। बौद्ध महाकवि अश्वधोष ने अपनी रचना सौन्दरानन्द में लिखा है कि गौतम बुद्ध चाहते हैं कि भिक्षुक नन्द अपनी सुन्दर पत्नी की संगति के लिए फिर से गृहस्थाश्रम में प्रवेश न करे। अश्वधोष ने बुद्ध के माध्यम से नारी की निन्दा में अनेक सर्ग लिखे हैं।
बुद्ध और उनके दर्शन की व्याख्या करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि वे जिस समाज, समय एवं राजनैतिक दबाव के दौर से गुजर रहे थे, उसकी अपनी सीमाएं थी। इसका पूरी तरह से अतिक्रमण बुद्ध नहीं कर पाए। ऐसा कर पाना सम्भव भी नहीं था। कोई भी बदलाव आमूल-चूल नहीं होता है। बुद्ध दर्शन मध्यममार्गी और आत्मनिष्ठवादी है। ऐसी प्रवृतियां राजनैतिक और सामाजिक संधर्ष के निर्णायक क्षणों में आदर्शवाद और यथास्थितिवाद का मार्ग प्रशस्त करती हैं। आज व्यक्ति से पहले मुनाफा, समाज से पहले बाजार, सर्वोदय के पहले स्वार्थ, परोपकार के पहले लोभ ही जिन्दगीनामा हो गया है। मानव विरोधी विकास ने आम आदमी को दुखों और संकटों में धकेला है तथा सत्ता अपनी पूरी आक्रमकता के साथ जनविरोधी भूमिका में आ गई है। इन्हें भेदने और उखाड़ फेंकने में बुद्ध का अष्टागंमार्ग, कर्म सिद्धांत अथवा सदाचारी जीवन जैसे साधन भोथरे हैं। समाज के क्रांतिकारी बदलाव के वाहक बुद्ध नहीं बन सकते थे, किन्तु उन्होंने जातिधारक वर्ण व्यवस्था पर चोट करके सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाया। धार्मिक पाखंड में जकड़ी जनता को परलोक के भ्रम से निकालने का ईमानदारी से प्रयास किया यह उल्लेखनीय है। इसके लिए मानवजाति बुद्ध की ऋणी रहेगी।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 09425174450.
ब्राम्हणवाद और साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड की प्रतिक्रिया एवं दलित-शूद्रों की दुर्दशा ने राजकुमार सिद्धार्थ को शाक्य मुनि और फिर बुद्ध बना दिया। बुद्ध ने जाति आधारित वर्ण व्यवस्था को पूरी मजबूती से नकारा और क्रांतिकारी सूत्र दिया कि व्यक्ति को उसके क्रियाकलापों से परखा जाना चाहिए। धम्मपद में बुद्ध ने कहा कि अच्छे चरित्र वाला और अच्छे कर्म करने वाला मनुष्य उच्च होता है। कर्म ही अच्छा-बुरा बनाते हैं। मैं किसी व्यक्ति को उसके कुल के ही कारण ब्राम्हण नहीं कहता। मैं उसे ब्राम्हण कहता हूं जो शरीर, वचन एवं विचार से किसी को दुखी नहीं करता है। कोई व्यक्ति जटा रखने, गोत्र, जाति, और जनेउ पहनने से ब्राम्हण नहीं होता है। वह व्यक्ति जिसमें धर्म, सत्य विराजमान है, सुखी है, बुद्धिमान है, सभी लिप्साओं से मुक्त है, वह ब्राम्हण है। बुद्ध किसी ईश्वर अथवा परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। बुद्ध और उनका दर्शन जाति भंजक भूमिका में अवलोकित तो होता है, किन्तु वे दलितों, औरतों और दासों का स्तर ऊंचा उठाने के लिए भिक्षुक बन कर संध में प्रवेश का रास्ता बताते हैं। गृहस्थ रह कर दलित-शूद्र को निजी रूप से बदलाव लाने का जो रास्ता सुझाया है वह जातियों के विनाश की ओर नहीं ले जाता है। बुद्ध का कथन है कि कोई भी शूद्र सम्पति और विद्वता प्राप्त कर सकता है और राजा भी हो सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बुद्ध और उनके दर्शन में सामाजिक क्रांति की कुनकुनाहट और गतिशीलता है। बुद्ध जाति, वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने कर्म स्वतंत्रता, कर्म प्रधानता एवं आत्मदीपो भव जैसे समतामूलक सिद्धांत देकर ब्राम्हणवादी सामाजिक संरचना को चुनौती दी।
दलितों-शूद्रों को बुद्ध स्वाधीन जीवन जीने के लिए आत्मविश्वास जगाते हैं। किन्तु बुद्ध और उनका दर्शन वर्ण व्यवस्था पर आमने-सामने सीधे प्रहार नहीं करते। बुद्ध दर्शन यह समझ पाने में नाकाम है कि कर्म स्वतंत्रता से व्यक्ति बदलता है, व्यवस्था नहीं। बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था पर वही कहा जो उनके समय में ब्राम्हणवाद के प्रमुख तत्वों में विद्यमान था। शंबूक यदि पढ़लिख कर सदाचारी जीवन जीते हुए ब्राम्हण वर्ग में आ जाता है तो यह बदलाव शूद्र वर्ग का उन्मूलन नहीं करता है। जो भी शूद्र वर्ग में होगा वह शंबूक बन तो जाएगा, किन्तु उसकी प्रताड़ना और दासता में कोई बदलाव नहीं आएगा। उच्च शिक्षा प्राप्त अम्बेडकर देश की राजनीति के शिखर पर पहुंच कर शासक वर्ग का हिस्सा तो बने किन्तु उससे न तो दलित वर्ग समाप्त हुआ और न ही दलित वर्ग की जलालत भरी जिन्दगी। बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था के जिस रूप को स्वीकार किया उससे मायावती बनने की सम्भावनाएं तो मौजूद हंै किन्तु दलित बनाने वाली समाज व्यवस्था खतम नहीं होती। फिर भी ब्राम्हणवाद की तुलना में बौद्ध दर्शन प्रगतिशील दृष्टिबिन्दु का परिचायक था। वह दलित के असंतोष को तथा सामाजिक समानता की वकालत करता था और इसी के चलते निर्धन और दलित वर्ग को अपनी ओर खींचता है।
जल्दी ही वैश्य, क्षत्री और अमीर बुद्ध के अनुयायी हो गए। यह ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि बौद्ध दर्शन का जनता में जब भरपूर प्रचार हो चला तब ही तत्कालीन राजाओं ने इसका समर्थन किया। राजाओं और धनिक वर्ग ने यह समझ लिया था कि बुद्ध ने मौजूदा सामाजिक ढांचे की आर्थिक बुनियाद पर चोट नहीं की थी। बुद्ध दासों के प्रति उदारता की बात तो करते हैं, किन्तु उन्होंने दास प्रथा के उन्मूलन पर कभी कुछ नहीं कहा। यह वह समय था जब देश में दास प्रथा तीव्र गति से विकास कर रही थी। बुद्ध की इस कमजोरी का शोषक वर्ग ने भरपूर लाभ उठाया। सम्राट, सामंत और धनिक वर्ग को बौद्ध दर्शन राहत और लाभ का अवसर उपलब्ध करा रहा था। वे भलीभांति जानते थे कि बौद्ध दर्शन तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक ढांचे को कायम रखने में सहायता करता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि दास प्रथा वाले साम्राज्यों के विकास के हितों की बौद्ध दर्शन ने सेवा की किन्तु दास प्रथा को समाप्त करने के लिए कभी मुंह नहीं खोला। लेकिन यह भी सच है कि नैतिक शुद्धता, अंहिसा, दया और दानपुण्य पर जोर देने के कारण बौद्ध दर्शन का राजाओं,धनिकों तथा दासों के स्वामियों पर मानवतावादी प्रभाव पड़ा। दासों का क्रय-विक्रय तो होता रहा, किन्तु उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाने लगा क्योंकि बुद्ध ने ऐसा कहा था।
बौद्व दर्शन महिलाओं के प्रति संवेदना-शून्य रहा। बुद्ध के समय भी महिलाओं की स्थिति दलित, शूद्र और दासों की तरह ही थी। बुद्ध स्वयं महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानते थे, अन्यथा महिलाओं के संघ प्रवेश का विरोध न करते। आनन्द के बार-बार कहने और दबाव बनाने पर महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति देने के बाद बुद्ध ने कहा था कि अब उनके धर्म को अल्पायु का रोग लग गया है। बुद्ध चरित में बुद्ध ने कहा कि पुरुष व्यर्थ ही स्त्रियों के पाश में फंसता है। बौद्ध महाकवि अश्वधोष ने अपनी रचना सौन्दरानन्द में लिखा है कि गौतम बुद्ध चाहते हैं कि भिक्षुक नन्द अपनी सुन्दर पत्नी की संगति के लिए फिर से गृहस्थाश्रम में प्रवेश न करे। अश्वधोष ने बुद्ध के माध्यम से नारी की निन्दा में अनेक सर्ग लिखे हैं।
बुद्ध और उनके दर्शन की व्याख्या करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि वे जिस समाज, समय एवं राजनैतिक दबाव के दौर से गुजर रहे थे, उसकी अपनी सीमाएं थी। इसका पूरी तरह से अतिक्रमण बुद्ध नहीं कर पाए। ऐसा कर पाना सम्भव भी नहीं था। कोई भी बदलाव आमूल-चूल नहीं होता है। बुद्ध दर्शन मध्यममार्गी और आत्मनिष्ठवादी है। ऐसी प्रवृतियां राजनैतिक और सामाजिक संधर्ष के निर्णायक क्षणों में आदर्शवाद और यथास्थितिवाद का मार्ग प्रशस्त करती हैं। आज व्यक्ति से पहले मुनाफा, समाज से पहले बाजार, सर्वोदय के पहले स्वार्थ, परोपकार के पहले लोभ ही जिन्दगीनामा हो गया है। मानव विरोधी विकास ने आम आदमी को दुखों और संकटों में धकेला है तथा सत्ता अपनी पूरी आक्रमकता के साथ जनविरोधी भूमिका में आ गई है। इन्हें भेदने और उखाड़ फेंकने में बुद्ध का अष्टागंमार्ग, कर्म सिद्धांत अथवा सदाचारी जीवन जैसे साधन भोथरे हैं। समाज के क्रांतिकारी बदलाव के वाहक बुद्ध नहीं बन सकते थे, किन्तु उन्होंने जातिधारक वर्ण व्यवस्था पर चोट करके सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाया। धार्मिक पाखंड में जकड़ी जनता को परलोक के भ्रम से निकालने का ईमानदारी से प्रयास किया यह उल्लेखनीय है। इसके लिए मानवजाति बुद्ध की ऋणी रहेगी।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 09425174450.
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