Friday, May 4, 2012

शब्दों का भी उत्थान पतन होता है


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
अब यह पूर्णत: सत्य नहीं रहा कि अक्षर, अ-क्षर है उसका क्षरण नहीं होता, वह ब्रह्म के समकक्ष है। ब्रह्म सदैव से अज्ञेय ही है कि नहीं, इसी में समूचा भारतीय दर्शन निमग्न है। ‘सोअहं’ से प्रारंभ हो ‘दासोअहं’ ‘सदासोहअं’ ‘दासदासोअहं’ की चिंतन पद्धति हमें अद्वैत, द्वैत कि शिष्टाद्वैत और शुद्धाद्वैत की अनंत-अमूढ़ अक्षर-यात्रा कराती है। ब्रह्म के उत्पत्ति-विकास की कहानी काव्य शास्त्र विनोदेन की तरह, ब्रह्मलीन ऋषियों के आर्ष वाक्य, समाज और लोक में व्याप्त है। ब्रह्मा के होने न होने और उसके मरने या अमर-अक्षर रहने को हम नहीं जानते परंतु अक्षर जिन्हें शब्द कहते हंै और जिनके अ-क्षर होने की बात कही जाती है, उनसे हमारा सामना हमेशा होता रहता है।  शब्द उसकी उपज है। शब्दों के उत्कर्ष और अपकर्ष होते हैं, उत्थान-पतन के साथ शब्दों की मृत्यु भी होती है। संसार की कितनी ही बोलियों के शब्द खत्म हो गये या दूसरी बोली-भाषा में रसमय होकर अपनी मूल अस्मिता ही खो बैठे। अत: यह कहना कि शब्द अमर हैं, अ-क्षर हैं, किंचित विरोधाभासी निर्मिति है।  ‘साहस’ शब्द का विकास कू्रर और जघन्य कर्म के लिये हुआ था। कभी किसी व्यक्ति को ‘साहसी’ कहना एक सामाजिक अवमानना और गाली से कमतर नहीं था।  आज ‘साहस’ मनुष्य के श्रेष्ठ गुणों में से एक है। इस एक शब्द ने दुर्गुण को सद्गुण में बदलने के लिए कितनी लम्बी यात्रा की होगी। कितनी  मुश्किलों बाद समाज ने इस शब्द को स्वीकार किया होगा, एक अभिजात्य गुण के रूप में, यह मननीय है।  शब्द भी तपस्या करते हैं। जिस शब्द की साधना सफल हो गई उसका उत्कर्ष हो गया। वाल्मीकि (दीमकों की वांमी के बीच) रहने वाला आदि कवि हो गया, महर्षि हो गया।
    मनुष्य के विकास के साथ ही शब्दों का विकास हुआ। उनके अर्थ रूढ़ हुए और वही लोक-मान्य हुये। एक साथ एक समय में एक ही शब्द के अर्थ कैसे बदल गये यह समझ में नहीं आया, न काव्य में न लोक में। ‘हरण’ शब्द का लोक प्रचलित अर्थ इच्छा के विरुद्ध किसी वस्तु या व्यक्ति को उठा लेना या हर लेना था। रामायण कालीन काव्यों में सीता-हरण उनकी इच्छा के विरुद्ध किया गया बलात हरण था। जिसे आज की भाषा में ‘अपहरण’ कहेंगे। पता नहीं इस हरण शब्द का निहितार्थ उस समय काव्य में क्या था। लोक इस अपहरण का हरण की स्वीकृति कैसे दे? महाभारत काल में ‘हरण’ शब्द स्वीकृति और सहमति के लिये विख्यात है। रुक्मिणी-हरण, सुभद्रा-हरण परिवार के विरोध के बावजूद कृष्ण-रुक्मिणी, अर्जुन-सुभद्रा की इच्छाओं के साथ हुआ। जबकि उसी काल में काशिराज की कन्याओं का देवव्रत भीष्म ने अपहरण किया, लेकिन महाकवि व्यास इसे हरण कहते हैं। एक ही समय में एक ही कार्य के लिये दो भिन्न अर्थ कैसे हो गए? उसे हरण शब्द का उत्कर्ष कहें या अपकर्ष। जिस हरण शब्द को रामायण काल में इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मानकर निंदनीय कहा गया। वही शब्द महाभारत में स्वीकृत और प्रतिष्ठित हो गया। वस्तुत: सीता-हरण नहीं वह पूर्णत: अपहरण था। और हम सभी भी सीता-हरण, सीता-हरण की रट लगाए जा रहे हैं? रुक्मिणी और सुभद्रा हरण भी लोक में, भागने के रूप में व्यवहृत होता है। ‘हरण’ शब्द के व्युत्पत्ति और विकास की कथा, मनुष्य के चिंतन का सिर उठाती हैं कि झुकाती हैं, यह विज्ञ लोग जाने। द्रौपदी चीर-हरण तो मनुष्यता के इतिहास का निकृष्टतम कृत्य था। एक ही समय में एक ही शब्द के दो अर्थ एक स्वीकृत दूसरा तिरस्कृत।
 मतों की प्रतिबद्धता ने वाद को जन्म दिया। काव्यों और लोक में वाद-विवाद की जगह संवाद का प्रयोग मिलता है। मत(वाद) के विरुद्ध मत (वाद) हर युग में होते रहे हैं। इनका मूल स्वर संवादी होता था। विवादी नहीं। संगीत में संवादी सुरों की महत्ता जीव की सर्वप्रिय शैली है। विवाद, संवाद का पटाक्षेप है जबकि संवाद विवाद को समाप्त करने का प्रयास है। चोरी और हरण करने जैसे जघन्य अपराध करने वाले रावण के साथ भी राम की नीति संवादी है। समुद्र-मंथन जैसे असंभव कार्य की प्रतीति कराने वाले राम, रावण के पास अंगद को बातचीत के लिये भेजते हैं। पौरुष को चुनौती देने वाले रावण को भी संवाद से उचित राह पर लाने की कोशिश विश्व के सिर्फ भारतीय काव्य में है। ‘मानस’ तो संवादों की अपरिमित संभावनाओं का काव्य है। अनेक शंका-समाधानों का विकास और विस्तार याज्ञवल्क्य-भारद्वाज, शिव-पार्वती, कागभुसुंडि-गरुण के संवादों में सहज रूप से हो जाता है। ज्ञान के विस्तार के लिये की गई बहसें संवाद के श्रेष्ठतम रूप हैं क्योंकि इसमें शामिल पक्ष यह मानता है कि सत्य की गहराई को समझने के लिये संवाद आवश्यक है। तर्क की कसौटी पर खरे उतरे ज्ञान को मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं। अब संवाद समाप्त हो गए हैं। वार्ताएं चल पड़ी हैं। किसी भी समस्या को विवाद का नाम दे दिया जाता है। कावेरी जल विवाद, फरुक्खा-विवाद, मंदिर-मस्जिद विवाद, सीमा विवाद, जैसी असहमतियों को हल करने के लिये संवाद प्रक्रिया का नाम वार्ता दे दिया गया है। संवाद शब्द विवादी हो गया। पुराणों में साम-दाम, दण्ड भेद की सारी चालें संवाद में ही चली गर्इं।
     वैश्विक बनने के चक्कर में हम अपनी भाषा बोली संस्कृति को हेय समझने लगे हैं। देश का संविधान देश की भाषाओं में  नहीं बन सका। भारत इंडिया हो गया। हजारों वर्षों का भारत शब्द अगले कुछ वर्षों में समाप्त हो जाएगा। संसार इंडिया को जानता है। भारत का ऐश्वर्य, कीर्ति    सुनकर आए बनियों ने उसे इंडिया बनाकर हमसे हमारा नाम छीन लिया। हमारे विदेश में पढ़ रहे छात्र, अनिवासी भारतीय, भारत को इंडिया कहने में फख्र महसूस करते हैं। वे न तो देश का अतीत जानना चाहते हैं न वर्तमान, वे सिर्फ अपने वर्तमान में जी रहे हैं। क्या ऐसा नहीं आभासित होता कि हम न देशी रहे, न समावेशी, हम विदेशी होने की रेस में शामिल हैं। हमारी पहचान किसी के बेटे, भतीजे, भांजे, नाती, पोते, काका आदि  रिश्तों के समूह से होती थी। अब तो सिर्फ मैं है। ‘हम’ शब्द भी सांसे गिन रहा है। कौन कहता है कि शब्दों का उत्थान-पतन, उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं होता, शब्दों की भी मृत्यु होती है? गोस्वामी तुलसीदास भी यही कह गए हैं? कि ‘धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना।’
                                                - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                          सम्पर्क - 09407041430.

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