चिन्तामणि मिश्र
चित्रकूट की अनमोल विरासत को, ऋषियों की तपस्थली को खोद-खोद कर कमाई में जुटे खनन माफिया अपनी धन लोलुपता के लिए जो ताडंव कर रहे हैं, वह उस चित्रकूट को विदाई दे रहा है जिससे चित्रकूट की पहचान है। भविष्य का चित्रकूट केवल नाम भर का चित्रकूट रह जाएगा।
चित्रकूट के पर्यावरण और उसकी संस्कृति, उसके पुरातत्व-इतिहास,उसकी धार्मिकता, उसकी पवित्रता को तिल-तिल कर मारा जा रहा है। यह धतकरम पिछले पांच दशक से शुरू है। तुलसी के चित्रकूट का रूपान्तरण पक्की धूर्तता और पूरी दबंगई से किया गया है कि अब चित्रकूट की नैसर्गिक शान्ति,और उसका तपोवनी पवित्र रूप ताजा-ताजा विधवा की मांग की तरह धो-पोछकर वीरान कर दिया गया है। जो पराक्रम मूर्ति-भंजक शासकों ने नहीं किया उसे विकास का सोहर गाते उन स्वार्थी लोगों के गिरोहों ने बेशर्मी से सम्पन्न किया जो गले में तुलसी-रुद्राक्ष की माला,माथे में तिलक सजाए, हाथ में रक्षासूत्र लपेटे समाज-सेवक,राजनीतिज्ञ होने का दावा करते नहीं अघाते हैं। चित्रकूट की गंगा सरयू और मंदाकिनी को हमारे लोभी समाज ने जीम लिया है। इन सदानीरा नदियों को जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे पुरखों ने हमारे हाथों में इस विश्वास से सौंपा था कि हम इन जीवनदायिनी जल धाराओं की देख-भाल करेगें और अगली पीढ़ी को सौप कर सामाजिक ऋण चुका कर संसार से विदा लेंगे। लेकिन हमने पुरखों की अमानत में ही ख्यानत कर डाली और इन नदियों को मार डालने का अपराध किया है। यह भी हकीकत है कि यह जुर्म मुठी भर लोगों के गिरोह करते रहे, किन्तु इस पाप में हमारी भी सहभागिता रही है।
चित्रकूट के पुरजन, समाजसेवक, जनप्रतिनिधि, छात्र और साक्षात धर्म-स्वरूप साधू-संत,मठ,आश्रम प्रेतलीला देखते रहे किन्तु ऐसा कारगर कदम उठाने से परहेज करते रहे। जिला प्रशासन, राज्य शासन को भी पइंया-पइंया भाग कर चित्रकूट आना पड़ता और वहां का विनाश करने वाले असुरों का क्रियाकर्म करने के लिए बाध्य होना पड़ता। चित्रकूट का चेहरा बदलने और उसका दोहन शोषण खुले आम हुआ किन्तु न जाने किस भय ने ईमानदार लोगों को गूंगा बना दिया। दो-चार ऐसे लोग जरूर गुहार लगाते रहे, किन्तु इनके कागजी ज्ञापन कचरे की तरह अनदेखे कर दिए गए।
चित्रकूट में कामदगिरि धार्मिक आस्था और भगवान राम के वनवास काल की सांस्कृतिक धरोहर हैं। हर श्रद्धालु इसकी परिक्रमा करने की अभिलाषा लेकर चित्रकूट आता हैं किन्तु इस परिक्रमा पथ का भी शहरीकरण कर दिए जाने से वह अनुभूति ही नहीं होती कि हम राम,लक्षमण और सीता के आवास और यहां उनकी सक्रियता को अपनी भावाजंलि निवेदित कर रहे हैं। लोग यहां पूरी श्रद्धा से आते हैं किन्तु सीमेन्ट का जंगल, शोर-गुल भरा बाजार मल-मूत्र बहाती खुली नालिया, दुर्गन्ध मारते कचरे के जगह-जगह लगे ढेर के साथ प्रदक्षिणा करने के लिए श्रापित हैं। चित्रकूट में हर जगह निर्माण का महायज्ञ चलता रहता है। धंधेबाज, भूमाफिया पवित्र नदियों,धर्मस्थलों पर कब्जा कर रहे हैं, कई मंजिल की इमारतें अतिक्रमण की दम पर खड़ी कर ली गई हैं। किन्तु इनको रोकने-टोकने की हिम्मत किसी ने कभी नहीं दिखाई। चित्रकूट में विश्वविद्यालीय,कई शिक्षण संस्थाएं और राष्ट्रीय ख्याति का चिकित्सालय व कई होटलें हैं, किन्तु इनके भवन का शिल्प स्थानीयता का नमूना नहीं हैं क्योंकि चित्रकूट के नगरीय प्रशासन ने इसकी जरूरत ही नहीं समझी। अब तो लगता ही नहीं कि यह वही चित्रकूट है जहां राम ने वनवास के दौरान निवास किया। तुलसी ने मानस रची। जहां रहीम ने शरण ली और अपना अमर हो चुका दोहा लिखा-। चित्रकूट में बस रहे,रहिमन अवध नरेश। जा पर विपदा पड़त है ,सो आवत है यहि देश॥ चित्रकूट की पतित-पावन नदियों और समग्र चित्रकूट की रक्षा का विषय कोई आर्थिक,तकनीकी विषय नहीं हैनका इन सब से बहुत उच्च महत्व है। इन नदियों के साथ हमारी मुक्ति जुड़ी है। आज भी सीधे-सरल ग्रामीण रोज चित्रकूट में आते हैं, लेकिने वे इन नदियों में कोई गंदगी नहीं डालते हैं। यहां तक कि इनमें पैर डालने से पहले इनका जल उठा कर अपने माथे में लगा कर प्रणाम करते हैं। वे इसे पानी नहीं जल कहते हैं। इन नदियों को इन्हें पूजने वालों ने गन्दा नहीं किया बल्कि कुबेर बनने की लिजलिजी मानसिकता, तटस्थता की बैरागी नपुंसकता ने गन्दा ही नहीं सत्यानाश किया है।
चित्रकूट की अनमोल विरासत को, ऋषियों की तपस्थली को खोद-खोद कर कमाई में जुटे खनन माफिया अपनी धन लोलुपता के लिए जो ताडंव कर रहे हैं, वह उस चित्रकूट को विदाई दे रहा है जिससे चित्रकूट की पहचान है। भविष्य का चित्रकूट केवल नाम भर का चित्रकूट रह जाएगा। हम यह भूल जाते हैं कि जिस विकास का कीर्तन हो रहा है, वह किसी सत्य की तलाश के लिए नहीं बल्कि बाजार की जरूरत पूरी करने के लिए है। बाजार पागल हाथी की तरह सब को रौंदता जा रहा है। राज्य और समाज को बाजार ने निरर्थक बना दिया है। विकास जरूरी है और चित्रकूट में भी विकास होना चाहिए किन्तु कैसा हो विकास? प्रकृति से कोई नाता-रिश्ता न हो और जिसे सहेजना है उसे मुनाफा कमाने के लिए ठिकाने लगा दिया जाए। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में आधुनिक सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा था। उन्होंने इस सभ्यता की जो विसंगतियां उस समय गिनाई थी वही आज दैत्याकार हो कर हमारे सामने खड़ी हैं और विनाश का कारण बन रही हैं। यह सभ्यता मनुष्य और प्रकृति के बीच शत्रुता का सम्बन्ध मानती है।
चित्रकूट को ध्वस्त करने वाले लोग बर्बर और संगठित हैं। वास्तविकता यही है कि नदियों,पहाड़ों को मिटाने की शुरूआत स्वार्थ और भौतिकवादी सोच का अंग है। असलियत तो यह है कि चाहे नदियां हों या फिर सांस्कृतिक धरोहर, इन्हें बचाए रखने के लिए केवल सरकारी हाथ नाकाफी होते हैं। जरूरत इस बात की है कि हमें अपना भौतिकवादी नजरिया बदलना होगा। इसके लिए धन जुटाने की नहीं, मन बनाने की आवश्यकता है। हमारी संस्कृति ने कभी भी नदियों को भौतिकवादी दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है। चित्रकूट में हुए शहरीकरण ने भी संकट को लगातार गहरा किया है। सर्वोच्य अदालत कह चुकी है कि प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर किसी तरह का विकास कार्य नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन देश की बड़ी अदालत की बाहुबलियों को जरा भी परवाह नहीं है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 09425174450.
चित्रकूट की अनमोल विरासत को, ऋषियों की तपस्थली को खोद-खोद कर कमाई में जुटे खनन माफिया अपनी धन लोलुपता के लिए जो ताडंव कर रहे हैं, वह उस चित्रकूट को विदाई दे रहा है जिससे चित्रकूट की पहचान है। भविष्य का चित्रकूट केवल नाम भर का चित्रकूट रह जाएगा।
चित्रकूट के पर्यावरण और उसकी संस्कृति, उसके पुरातत्व-इतिहास,उसकी धार्मिकता, उसकी पवित्रता को तिल-तिल कर मारा जा रहा है। यह धतकरम पिछले पांच दशक से शुरू है। तुलसी के चित्रकूट का रूपान्तरण पक्की धूर्तता और पूरी दबंगई से किया गया है कि अब चित्रकूट की नैसर्गिक शान्ति,और उसका तपोवनी पवित्र रूप ताजा-ताजा विधवा की मांग की तरह धो-पोछकर वीरान कर दिया गया है। जो पराक्रम मूर्ति-भंजक शासकों ने नहीं किया उसे विकास का सोहर गाते उन स्वार्थी लोगों के गिरोहों ने बेशर्मी से सम्पन्न किया जो गले में तुलसी-रुद्राक्ष की माला,माथे में तिलक सजाए, हाथ में रक्षासूत्र लपेटे समाज-सेवक,राजनीतिज्ञ होने का दावा करते नहीं अघाते हैं। चित्रकूट की गंगा सरयू और मंदाकिनी को हमारे लोभी समाज ने जीम लिया है। इन सदानीरा नदियों को जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे पुरखों ने हमारे हाथों में इस विश्वास से सौंपा था कि हम इन जीवनदायिनी जल धाराओं की देख-भाल करेगें और अगली पीढ़ी को सौप कर सामाजिक ऋण चुका कर संसार से विदा लेंगे। लेकिन हमने पुरखों की अमानत में ही ख्यानत कर डाली और इन नदियों को मार डालने का अपराध किया है। यह भी हकीकत है कि यह जुर्म मुठी भर लोगों के गिरोह करते रहे, किन्तु इस पाप में हमारी भी सहभागिता रही है।
चित्रकूट के पुरजन, समाजसेवक, जनप्रतिनिधि, छात्र और साक्षात धर्म-स्वरूप साधू-संत,मठ,आश्रम प्रेतलीला देखते रहे किन्तु ऐसा कारगर कदम उठाने से परहेज करते रहे। जिला प्रशासन, राज्य शासन को भी पइंया-पइंया भाग कर चित्रकूट आना पड़ता और वहां का विनाश करने वाले असुरों का क्रियाकर्म करने के लिए बाध्य होना पड़ता। चित्रकूट का चेहरा बदलने और उसका दोहन शोषण खुले आम हुआ किन्तु न जाने किस भय ने ईमानदार लोगों को गूंगा बना दिया। दो-चार ऐसे लोग जरूर गुहार लगाते रहे, किन्तु इनके कागजी ज्ञापन कचरे की तरह अनदेखे कर दिए गए।
चित्रकूट में कामदगिरि धार्मिक आस्था और भगवान राम के वनवास काल की सांस्कृतिक धरोहर हैं। हर श्रद्धालु इसकी परिक्रमा करने की अभिलाषा लेकर चित्रकूट आता हैं किन्तु इस परिक्रमा पथ का भी शहरीकरण कर दिए जाने से वह अनुभूति ही नहीं होती कि हम राम,लक्षमण और सीता के आवास और यहां उनकी सक्रियता को अपनी भावाजंलि निवेदित कर रहे हैं। लोग यहां पूरी श्रद्धा से आते हैं किन्तु सीमेन्ट का जंगल, शोर-गुल भरा बाजार मल-मूत्र बहाती खुली नालिया, दुर्गन्ध मारते कचरे के जगह-जगह लगे ढेर के साथ प्रदक्षिणा करने के लिए श्रापित हैं। चित्रकूट में हर जगह निर्माण का महायज्ञ चलता रहता है। धंधेबाज, भूमाफिया पवित्र नदियों,धर्मस्थलों पर कब्जा कर रहे हैं, कई मंजिल की इमारतें अतिक्रमण की दम पर खड़ी कर ली गई हैं। किन्तु इनको रोकने-टोकने की हिम्मत किसी ने कभी नहीं दिखाई। चित्रकूट में विश्वविद्यालीय,कई शिक्षण संस्थाएं और राष्ट्रीय ख्याति का चिकित्सालय व कई होटलें हैं, किन्तु इनके भवन का शिल्प स्थानीयता का नमूना नहीं हैं क्योंकि चित्रकूट के नगरीय प्रशासन ने इसकी जरूरत ही नहीं समझी। अब तो लगता ही नहीं कि यह वही चित्रकूट है जहां राम ने वनवास के दौरान निवास किया। तुलसी ने मानस रची। जहां रहीम ने शरण ली और अपना अमर हो चुका दोहा लिखा-। चित्रकूट में बस रहे,रहिमन अवध नरेश। जा पर विपदा पड़त है ,सो आवत है यहि देश॥ चित्रकूट की पतित-पावन नदियों और समग्र चित्रकूट की रक्षा का विषय कोई आर्थिक,तकनीकी विषय नहीं हैनका इन सब से बहुत उच्च महत्व है। इन नदियों के साथ हमारी मुक्ति जुड़ी है। आज भी सीधे-सरल ग्रामीण रोज चित्रकूट में आते हैं, लेकिने वे इन नदियों में कोई गंदगी नहीं डालते हैं। यहां तक कि इनमें पैर डालने से पहले इनका जल उठा कर अपने माथे में लगा कर प्रणाम करते हैं। वे इसे पानी नहीं जल कहते हैं। इन नदियों को इन्हें पूजने वालों ने गन्दा नहीं किया बल्कि कुबेर बनने की लिजलिजी मानसिकता, तटस्थता की बैरागी नपुंसकता ने गन्दा ही नहीं सत्यानाश किया है।
चित्रकूट की अनमोल विरासत को, ऋषियों की तपस्थली को खोद-खोद कर कमाई में जुटे खनन माफिया अपनी धन लोलुपता के लिए जो ताडंव कर रहे हैं, वह उस चित्रकूट को विदाई दे रहा है जिससे चित्रकूट की पहचान है। भविष्य का चित्रकूट केवल नाम भर का चित्रकूट रह जाएगा। हम यह भूल जाते हैं कि जिस विकास का कीर्तन हो रहा है, वह किसी सत्य की तलाश के लिए नहीं बल्कि बाजार की जरूरत पूरी करने के लिए है। बाजार पागल हाथी की तरह सब को रौंदता जा रहा है। राज्य और समाज को बाजार ने निरर्थक बना दिया है। विकास जरूरी है और चित्रकूट में भी विकास होना चाहिए किन्तु कैसा हो विकास? प्रकृति से कोई नाता-रिश्ता न हो और जिसे सहेजना है उसे मुनाफा कमाने के लिए ठिकाने लगा दिया जाए। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में आधुनिक सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा था। उन्होंने इस सभ्यता की जो विसंगतियां उस समय गिनाई थी वही आज दैत्याकार हो कर हमारे सामने खड़ी हैं और विनाश का कारण बन रही हैं। यह सभ्यता मनुष्य और प्रकृति के बीच शत्रुता का सम्बन्ध मानती है।
चित्रकूट को ध्वस्त करने वाले लोग बर्बर और संगठित हैं। वास्तविकता यही है कि नदियों,पहाड़ों को मिटाने की शुरूआत स्वार्थ और भौतिकवादी सोच का अंग है। असलियत तो यह है कि चाहे नदियां हों या फिर सांस्कृतिक धरोहर, इन्हें बचाए रखने के लिए केवल सरकारी हाथ नाकाफी होते हैं। जरूरत इस बात की है कि हमें अपना भौतिकवादी नजरिया बदलना होगा। इसके लिए धन जुटाने की नहीं, मन बनाने की आवश्यकता है। हमारी संस्कृति ने कभी भी नदियों को भौतिकवादी दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है। चित्रकूट में हुए शहरीकरण ने भी संकट को लगातार गहरा किया है। सर्वोच्य अदालत कह चुकी है कि प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर किसी तरह का विकास कार्य नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन देश की बड़ी अदालत की बाहुबलियों को जरा भी परवाह नहीं है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क - 09425174450.
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