अपन तो संत रैदास के चेले हैं-जब मनचंगा तो कठौती में गंगा। सो कुंभ स्नान करने नहीं गए। करोड़ों-करोड़ लोग लोग जो मोक्ष की लालसा लिए हुए गए उनमें से पैंतीस- चालीस लोग रेलवे स्टेशन की भीड़ में ही कुचलकर परलोक सिधार गए। कई अपाहिज होकर वापस लौटे। प्रयाग, कनखल, नासिक, उज्जैयिनी में भरने वाले महाकुंभों में प्राय: ऐसे हादसे होते आए हैं। मंदिरों में भरने वाले मेलों में भी भगदड़ से उपजी ऐसी जानलेवा घटनाएं होती आई हैं। पर आस्था हमेशा से जीतती रही है। लोग जान हथेली पर रख कर या यूं कहिए कि जान देने की शर्त पर भी पुण्य, मोक्ष की लालसा के साथ कुंभ, तीरथ व मंदिरों में पहुंचते रहे हैं और आगे भी पहुंचते रहेंगे। आस्था का मनोविज्ञान बड़ा जटिल है। यहां विज्ञान और तर्कशास्त्र पराजित हो जाता है। गंगाजी के जिस जल को पर्यावरणशास्त्री अत्यन्त प्रदूषित, अपेय व हानिकारक बताते हैं, उसी गरल को श्रद्धालु एक घूंट पीकर व शरीर में छिड़ककर खुद को धन्य मानता है।
अपने अंत समय के लिए भी वह गंगाजल का प्रबंध करके रखता है। हर महाकुंभ में करोड़-करोड़ श्रद्धालु पहुंचते हैं आस्था की डुबकी लगाने के लिए। सिर पर गठरी धरे या खुद गठरी से बने मीलों-मील पैदल चलकर।
यही आस्था नाम का तत्व साधु, संतों, मठाधीशों को प्रभावित करता है और राजनेताओं को भी। पिछले महाकुंभ में एक बड़े राजनेता के साथ महाकुंभ में जाने को मिला। वहां एक नामी संत के टेंटनुमा आश्रम में सत्कार का प्रबंध था। काजूकिश िमश, मेवा के साथ बोतलबंद पानी। जब गंगाजल के बारे में जानना चाहा तो आश्रम के प्रबंधक ने बताया कि यहां गंगाजी का पानी पीने योग्य नहीं। करोड़ों-करोड़ लोग जिस महाकुंभ में एक डुबकी-एक घूंट गंगाजल की लालसा से आते हैं, उसके तीर पर तप करने वाले महाराज जी बोतलबंद पानी पीते हैं। गंगा में डुबकी के दिखावे के बाद शॉवर में शैम्पू, साबुन मलकर स्नान करते हैं, फिर श्रृंगार कक्ष में लटें संवारने के बाद शाम को व्यास- गद्दी पर बैठकर पुण्य और मोक्ष पर प्रवचन देते हैं। महाकुंभ की विशाल बस्ती में ऐसे आश्रमों और साधु संतों की भी एक बस्ती है। कई साधु संतों के रजत व स्वर्णजड़ित सिंहासन हैं। एक बाबा चांदी के रथ पर सवार होकर स्नान करने गए तो दूसरे सजे, हाथी, घोड़ों में। यह वही प्रयाग है जहां प्रभु श्रीराम दीनहीन निरीह अछूत केवट का आतिथ्य स्वीकार करते हैं, गंगापार करने की ˜उतराई लेने को लेकर मनोविनोद करते हुए तुलसीबाबा लिखते हैं ˜उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय राम गुह लखन समेता और यहीं निषादराज को ˜तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई कहकर गले लगाते हैं। आज इसी प्रयागराज के दो रंग हैं। एक गरल को अमृत मानकर पीने वाले आस्थावानों का दूसरा बोतलबंद पानी पीने और र8जड़ित सिंहासन पर बैठने वाले कई कथित साधु-संतों व धर्माचार्यो का।
आस्था की तिजारत (व्यापार) सभी को भाती है। साधु-संत रूप बदलकर आम श्रद्धालुओं को इसी के नाम पर ठगने में सफल हो जाते हैं और राजनेता इसी को वोट का आधार बनाकर सत्ता तक पहुंचने में। इस महाकुंभ में यही हो रहा है। उसी साधुसं तों की अलग बस्ती में। अभी तक ऐसी कोई खबर सुनने-पढ़ने को नहीं मिली कि किसी साधु-संत ने अपने प्रवचन में धर्म के नाम पर होने वाले व्यभिचार-भ्रष्टाचार की कोई बात कभी कही हो। जबकि साल भर मीडिया में आश्रमों के व्यभिचार व भ्रष्टाचार की खबरें सुर्खियां बनती ही रहती हैं। कहीं सेक्स रैकेट तो कहीं हवाला। धर्म संसद में ऐसे भी किसी प्रस्ताव के बारे में चर्चा नहीं सुनी कि आर्थिक मंदी के इस दौर में गरीबों, मजलूमों व वंचितों की मदद में आश्रमों-मंदिरों में संचित अरबों की धनराशि का खजाना खोल दिया जाना चाहिए। स्विट्जरलैण्ड के बैंकों और मंदिरों, आश्रमों की तिजोरी का धन राष्ट्रीय संपत्ति में शामिल कर लिया जाए और हम इस एक कदम से ही चीन के आगे और अमेरिका की बराबरी पर खड़े हो जाएं। पर नहीं, हमारे साधु-संतों को नरेन्द्र मोदी और राम मंदिर की बड़ी चिंता है।
रामकथा को घर-घर पहुंचाने वाले एक थे तुलसीबाबा, जब अकबर ने उन्हें आगरा आने का आमंत्रण भेजा तो जवाब में उन्होंने कहा अपना क्या, मांगकर खाइबो, मसीत (मस्जिद) में सोइबो। आज के साधु-संतों राममंदिर की बड़ी चिंता है। राम की राम के आदर्शो की राम के प्रजा की नहीं, इसलिए उन्हें दिल्ली की गद्दी पर नरेन्द्र मोदी जैसा योद्धा चाहिए। महाकुंभ की विशाल बस्ती के बीच बसी, कुलीन साधु-संतों की बस्ती में राम-राम नहीं नमो-नमो का संकीर्तन चल रहा है। नरेन्द्रभाई मोदी कारपोरेट के चहेते हैं। नामचीन साधु-संतों के आश्रम भी सवा रुपए के गऊदान में नहीं अपितु कारपोरेट के चंदे से चलते हैं।
उद्योगपतियों को धन कमाने के आगे धर्म के लिए फुरसत कहां, सो ये साधु-संता उन्हीं के योग-क्षेम और कुशलता के लिए जप- तप करते हैं। इसलिए हमारे ऐसे साधु-संतों का भी कारपोरेटाइजेशन हो गया। आम श्रद्धालुओं के योग-क्षेम से इनका कोई लेना देना, इन्हें तो सिर्फ उनके हिस्से की आस्था चाहिए। और आस्था के लिए राम और राम मंदिर से बड़ी बात क्या। अत: धर्म संसद के इंतजामकर्ता विहिप के अशोक सिंहल ने अतिरेक में यहां तक कह दिया कि ˜नरेन्द्र मोदी-पंडित जवाहर लाल नेहरू की बराबरी के नेता हैं।सिंहल को मालूम होना चाहिए कि नेहरू का बचपन इन्हीं गंगा मैया की हिलोरें देखते हुए बीता है और ये वही नेहरू हैं जिनके खिलाफ सन 1956 में फूलपुर संसदीय क्षेत्र से साधु-संतों ने प्रभुदत्त ब्रrाचारी नाम के एक साधु को चुनाव में खड़ा किया था। आरएसएस के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के अत्यन्त निकट प्रभुदत्त ब्रrाचारी के समर्थन में करपात्रीजी महाराज की रामराज परिषद और सावरकर की हिंदू महासभा थी।
नेहरू ने अपने भाषणों में आमजनता से अपील की थी ‘यदि आपको लगता है कि ये साधु-संत ही देश और पार्लियामेंट को चलाने में सबसे योग्य हैं तो मैं आपसे अपील करता हूं कि इस चुनाव में आप मुङो भारी मतों से हरा दीजिए और जानते हैं क्या परिणाम निकला, प्रभुदत्त ब्रrाचारी की जमानत जब्त हो गई और उन्हें ऐतिहासिक मतों से पराजय मिली। सो इस महाकुंभ को आस्थाओं की तिजारत से बचाइए, भ्रम मत फैलाइए, इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है। देश की जनता हकीकत से वाकिफ है, वह अब भावनाओं में बहने वाली नहीं। राम की गंगा वैसे भी बहुत मैली हो चुकी। अपने-अपने वैचारिक मैल इसमें और मत मिलाइए। कारपोरेट के चंदे से धर्म का धंधा और मौज मस्ती करएि। देश को चलाने का काम औरों पर छोड़िए।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208
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