चिन्तामणि मिश्र
भारत में प्राथमिक और माध्यमिक सरकारी स्कूलों में छात्रों की मिड डे मील योजना दुनिया की सबसे बड़ी मुफ्त स्कूली भोजन योजना है और भ्रष्टाचार की गोद में बैठी यह परियोजना दुनिया का सबसे बड़ा लूट-खसोट का कार्यक्रम भी है। तामिलनाडु और गुजरात से शुरू हुई यह योजना अब देश भर में चल रही है। इस योजना को शुरू करने का मकसद स्कूलों में दाखिलों और हाजरी में वृद्धि करना, बच्चों में कुपोषण कम करना, जातिभेद खत्म करके बच्चों में आपसदारी बढ़ाना है। इसको पूरे देश में लागू हुए एक दशक से अधिक हो गया है किन्तु कड़वा सच यह भी है कि पूरी दुनिया में कुपोषित बच्चों की मौत में आज भी हमारा देश दूसरे स्थान पर है। कुपोषण से मरने वाले बच्चों को बचाने के लिए छह साल तक के बच्चों पर ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि कुपोषण से मरने वाले बच्चों की उम्र छह साल तक की है।
सरकार को इन बच्चों के कुपोषण से लड़ना चाहिए जो खाने के अभाव में जिन्दा ही नहीं बचते है। इन बच्चों के मां-बाप का सपना शिक्षित होना नहीं बल्कि उनका जीवित बचे रहना है। यह जरूर है कि दोपहर के इस फोकट-भोजन के कारण स्कूलों में छात्रों की हाजरी बढ़ी है, किन्तु आधे से ज्यादा छात्र भोजन ग्रहण करने के बाद स्कूल से चले जाते हैं। अगर एक बार मान भी लिया जाए कि इस योजना से छात्रों के दाखिले और हाजरी में इजाफा हुआ है तो शिक्षा का स्तर जस का तस क्यों है? इस योजना का मकसद शिक्षा का स्तर बढ़ाना नहीं है, जो अपने आप सरकार के षड़यंत्र को बेनकाब कर रही है। हाजरी बढ़ाने से क्या हासिल होगा अगर पढ़ाई का स्तर नहीं बढ़ता है।
इस फोकट के भोजन कार्यक्रम ने पहले से ही चौपट पढ़ाई को पाताल में धकेल दिया है। स्कूलों में एक शिक्षक नियमित रूप से भोजन-पानी की व्यवस्था में लगा रहता है। रसद, नून-तेल- लकड़ी मंगवाना, रसोइयों से काम लेना, भोजन वितरित कराना और बर्तनों की देखभाल करने का काम जिम्मे में होने से वह किसी भी दिन कक्षा में प्रवेश ही नहीं करता है। स्कूल का हेडमास्टर कैश-बुक लिखने, स्टाक रजिस्टर भरने, बाउचर्स एकत्र करने में रोज कई घन्टे गुजारता है। इस तरह दो मास्टर रसोईया और भंडारी बना दिए गए है। सरकार का अंधतत्व इतना प्रबल है कि उसे नहीं दिखता कि दो मास्टरों की कक्षाओं के छात्रों को कौन पढ़ाता है, क्या भूत पढ़ाते है? एक तरफ बच्चों को एक वक्त का पोषक आहार देने के लिए करोड़ों रुपए सरकार लगा रही है और दूसरी तरफ बेहद घटिया भोजन बच्चों को परोसा जा रहा है। हर स्कूल में भ्रष्टाचार का बजबजाता कुन्ड बन गया है, जिसमें संस्था प्रधान उसका भंडारा सहायक मास्टर तैर रहे हैं, इस तैराकी में वे भी डुबकी लगा कर अपना इहलोक बनाने में जुटे हैं, जिनको निगरानी का काम सौंपा गया है। इस योजना को बनाने और लागू करने वालों को बुद्धि का अजीर्ण है। वे इतना भी नहीं समझ पाए कि एक बच्चे को एक जून का खाना देकर स्कूल जाने का लालच देने का जाल सफल नहीं हो सकता है। गरीब परिवार का बच्चा काम करके पूरे परिवार के लिए दो जून का खाना जुटा लेता है। बच्चे के श्रम से पूरे परिवार का पेट जुड़ा है न कि एक बच्चे की एक वक्त की भूख से।
स्कूलों में कई बच्चे भोजन के वक्त अपनी थाली लेकर आ जाते है और भोजन लेकर वापस चले जाते हैं। ऐसे बच्चें आसपास के खेतों में या सड़कों पर चल रहे निर्माण कार्य में अथवा मवेशी चराने के कामों में लगे हैं। इनके नाम स्कूलों में दर्ज हैं, इनको रोज स्कूल में उपस्थित भी दिखाया जा रहा है। ऐसी नौटंकी करने से किसी का भी भला नहीं हो रहा है। भ्रष्टाचारी जोंको का गिरोह जरूर मुटिया रहा है। स्कूलों में भंडारा चलाने का मकसद शिक्षा का स्तर बढ़ाना बताया गया है लेकिन शिक्षा का स्तर जस का तस ही है। फोकट के एक-जूनी भोजन से शिक्षा का स्तर कैसे बढ़ेगा, इसे सरकार ने आज तक नहीं बताया है। वैसे सरकार की प्राथमिकता में सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा प्रदान करने का प्रबन्ध करना है ही नहीं। शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक होते हैं इनका कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है, किन्तु सरकार शिक्षकों को मवेशी चराने वाले चरवाहों से अधिक और कुछ मानती ही नहीं।
प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों के वेतन, सेवा शर्ते, सरकार के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से भी ज्यादा बदतर हैं। उपर से सरकार का हर विभाग इनका माई-बाप है। शिक्षकों को शिक्षा देने के काम में न लगा कर नाना प्रकार के ऐसे काम दिए गए हैं, जिनका शिक्षा से कोई सम्बन्ध दूर-दूर तक नहीं है। सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तो दूर यहा शिक्षा देने का माहौल ही नदारत है क्योंकि सरकार पर्दे के पीछे निजी स्कूलों को आगे बढ़ाने के काम में लगी है। इसके लिए शिक्षक दोषी नहीं हैं अगर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर नहीं उठ रहा है तो इकलौती दोषी सरकार तथा एसी-कुटिया में बैठ कर बेतुकी योजना बनाने वाली थकी-हारी बूढ़ी नौकरशाही है जिसे मैदानी हकीकत और उसकी दुश्वारियों का ज्ञान ही नहीं है।
अगर सरकार वास्तव में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा तथा छात्रों का स्तर सुधारना चाहती है, तो शिक्षा में प्रयोग करने से बचना होगा। शिक्षा को आईएएस गिरोह के चंगुल से बाहर निकाल कर शिक्षाशास्त्रियों के सुपुर्द किया जाए। आजादी के एक दशक तक देश में यही प्रक्रिया थी। इसके परिणाम बहुत बेहतर थे। पढ़ाने का तरीका तथा समय और परीक्षाओं पर नियंत्रण, पाठक्रम एवं निरीक्षण शिक्षाशास्त्रियों के हाथ में होना चाहिए। इसके साथ जो बहुज जरूरी है कि शिक्षकों से गैरशिक्षिकीय कामों में बेगारी लेना बन्द किया जाए।
छात्रों को स्कूलों में भंडारा के माध्यम से उनको मानसिक रूप से भिखारी बनाने से हम उनका और देश का भला नहीं कर रहे हैं। असल लक्ष्य शिक्षा का स्तर उठाना है। निजी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा का स्तर इसीलिए ऊपर है क्योंकि वहा शिक्षकों से बेगारी नहीं ली जाती, उन पर ऐंठू नौकरशाही का दबाव नहीं है। शिक्षक केवल पढ़ाने का काम करते है। वहां रोज फोकट का खाना मांगने के लिए छात्र हाथ नहीं फैलाते। शिक्षा को गैर-शिक्षकीय नौकरशाही ने तबाह किया है। शिक्षक में आज भी क्षमता है कि वह देश के भविष्य को गढ़ सकता है उसे संवार सकता है। हमने उसे अवसर ही कब दिया है।
सरकार को इन बच्चों के कुपोषण से लड़ना चाहिए जो खाने के अभाव में जिन्दा ही नहीं बचते है। इन बच्चों के मां-बाप का सपना शिक्षित होना नहीं बल्कि उनका जीवित बचे रहना है। यह जरूर है कि दोपहर के इस फोकट-भोजन के कारण स्कूलों में छात्रों की हाजरी बढ़ी है, किन्तु आधे से ज्यादा छात्र भोजन ग्रहण करने के बाद स्कूल से चले जाते हैं। अगर एक बार मान भी लिया जाए कि इस योजना से छात्रों के दाखिले और हाजरी में इजाफा हुआ है तो शिक्षा का स्तर जस का तस क्यों है? इस योजना का मकसद शिक्षा का स्तर बढ़ाना नहीं है, जो अपने आप सरकार के षड़यंत्र को बेनकाब कर रही है। हाजरी बढ़ाने से क्या हासिल होगा अगर पढ़ाई का स्तर नहीं बढ़ता है।
इस फोकट के भोजन कार्यक्रम ने पहले से ही चौपट पढ़ाई को पाताल में धकेल दिया है। स्कूलों में एक शिक्षक नियमित रूप से भोजन-पानी की व्यवस्था में लगा रहता है। रसद, नून-तेल- लकड़ी मंगवाना, रसोइयों से काम लेना, भोजन वितरित कराना और बर्तनों की देखभाल करने का काम जिम्मे में होने से वह किसी भी दिन कक्षा में प्रवेश ही नहीं करता है। स्कूल का हेडमास्टर कैश-बुक लिखने, स्टाक रजिस्टर भरने, बाउचर्स एकत्र करने में रोज कई घन्टे गुजारता है। इस तरह दो मास्टर रसोईया और भंडारी बना दिए गए है। सरकार का अंधतत्व इतना प्रबल है कि उसे नहीं दिखता कि दो मास्टरों की कक्षाओं के छात्रों को कौन पढ़ाता है, क्या भूत पढ़ाते है? एक तरफ बच्चों को एक वक्त का पोषक आहार देने के लिए करोड़ों रुपए सरकार लगा रही है और दूसरी तरफ बेहद घटिया भोजन बच्चों को परोसा जा रहा है। हर स्कूल में भ्रष्टाचार का बजबजाता कुन्ड बन गया है, जिसमें संस्था प्रधान उसका भंडारा सहायक मास्टर तैर रहे हैं, इस तैराकी में वे भी डुबकी लगा कर अपना इहलोक बनाने में जुटे हैं, जिनको निगरानी का काम सौंपा गया है। इस योजना को बनाने और लागू करने वालों को बुद्धि का अजीर्ण है। वे इतना भी नहीं समझ पाए कि एक बच्चे को एक जून का खाना देकर स्कूल जाने का लालच देने का जाल सफल नहीं हो सकता है। गरीब परिवार का बच्चा काम करके पूरे परिवार के लिए दो जून का खाना जुटा लेता है। बच्चे के श्रम से पूरे परिवार का पेट जुड़ा है न कि एक बच्चे की एक वक्त की भूख से।
स्कूलों में कई बच्चे भोजन के वक्त अपनी थाली लेकर आ जाते है और भोजन लेकर वापस चले जाते हैं। ऐसे बच्चें आसपास के खेतों में या सड़कों पर चल रहे निर्माण कार्य में अथवा मवेशी चराने के कामों में लगे हैं। इनके नाम स्कूलों में दर्ज हैं, इनको रोज स्कूल में उपस्थित भी दिखाया जा रहा है। ऐसी नौटंकी करने से किसी का भी भला नहीं हो रहा है। भ्रष्टाचारी जोंको का गिरोह जरूर मुटिया रहा है। स्कूलों में भंडारा चलाने का मकसद शिक्षा का स्तर बढ़ाना बताया गया है लेकिन शिक्षा का स्तर जस का तस ही है। फोकट के एक-जूनी भोजन से शिक्षा का स्तर कैसे बढ़ेगा, इसे सरकार ने आज तक नहीं बताया है। वैसे सरकार की प्राथमिकता में सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा प्रदान करने का प्रबन्ध करना है ही नहीं। शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक होते हैं इनका कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है, किन्तु सरकार शिक्षकों को मवेशी चराने वाले चरवाहों से अधिक और कुछ मानती ही नहीं।
प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों के वेतन, सेवा शर्ते, सरकार के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से भी ज्यादा बदतर हैं। उपर से सरकार का हर विभाग इनका माई-बाप है। शिक्षकों को शिक्षा देने के काम में न लगा कर नाना प्रकार के ऐसे काम दिए गए हैं, जिनका शिक्षा से कोई सम्बन्ध दूर-दूर तक नहीं है। सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तो दूर यहा शिक्षा देने का माहौल ही नदारत है क्योंकि सरकार पर्दे के पीछे निजी स्कूलों को आगे बढ़ाने के काम में लगी है। इसके लिए शिक्षक दोषी नहीं हैं अगर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर नहीं उठ रहा है तो इकलौती दोषी सरकार तथा एसी-कुटिया में बैठ कर बेतुकी योजना बनाने वाली थकी-हारी बूढ़ी नौकरशाही है जिसे मैदानी हकीकत और उसकी दुश्वारियों का ज्ञान ही नहीं है।
अगर सरकार वास्तव में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा तथा छात्रों का स्तर सुधारना चाहती है, तो शिक्षा में प्रयोग करने से बचना होगा। शिक्षा को आईएएस गिरोह के चंगुल से बाहर निकाल कर शिक्षाशास्त्रियों के सुपुर्द किया जाए। आजादी के एक दशक तक देश में यही प्रक्रिया थी। इसके परिणाम बहुत बेहतर थे। पढ़ाने का तरीका तथा समय और परीक्षाओं पर नियंत्रण, पाठक्रम एवं निरीक्षण शिक्षाशास्त्रियों के हाथ में होना चाहिए। इसके साथ जो बहुज जरूरी है कि शिक्षकों से गैरशिक्षिकीय कामों में बेगारी लेना बन्द किया जाए।
छात्रों को स्कूलों में भंडारा के माध्यम से उनको मानसिक रूप से भिखारी बनाने से हम उनका और देश का भला नहीं कर रहे हैं। असल लक्ष्य शिक्षा का स्तर उठाना है। निजी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा का स्तर इसीलिए ऊपर है क्योंकि वहा शिक्षकों से बेगारी नहीं ली जाती, उन पर ऐंठू नौकरशाही का दबाव नहीं है। शिक्षक केवल पढ़ाने का काम करते है। वहां रोज फोकट का खाना मांगने के लिए छात्र हाथ नहीं फैलाते। शिक्षा को गैर-शिक्षकीय नौकरशाही ने तबाह किया है। शिक्षक में आज भी क्षमता है कि वह देश के भविष्य को गढ़ सकता है उसे संवार सकता है। हमने उसे अवसर ही कब दिया है।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
लेखक का आंकलन शतप्रतिशत सही है हाँ एक बात की तरफ लेखक का ध्यान नहीं गया कि निजी शिक्षण संस्थाओं के कारण इन सरकारी स्कूलों में बच्चों कि संख्या असल में कम रहती है लेकिन स्कुल को बचाने के लिए इन स्कूलों के अध्यापक उन बच्चों के नाम लिख देते हैं जो स्कुल आते हि नहीं है ! मेरा तो मानना यह है कि मिड डे मिल योजना उस शिक्षक बिरादरी को भ्रष्टाचार में लिप्त करने कि योजना है जो पहले ईमानदारी के लिए जानी जाती थी !
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