Sunday, February 3, 2013

संभावनाओं के पांव पर कुल्हाड़ेबाजी


 सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने कभी कहा था कि राजनीति तड़ित की तरह चंचल और भुजंग की भांति कुटिल होती है। पिछले एक पखवाड़े से जो कुछ भी देखने-सुनने को मिल रहा है उससे उपरोक्त उक्ति सौ फीसदी सच लगती है। आतंकवाद के इस खूंरेजी दौर में जो बात अब तक किसी मुस्लिम संगठन या मुसलमान नेता ने नहीं कही थी वह गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बेङिाझक बिना परिणाम जाने कह दी। हिन्दू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद। जयपुर में कांग्रेस के चिन्तन शिविर की चिन्ता राहुल गांधी के भविष्य को लेकर चल रही थी।चारण-भांटों और ब्रान्ड मैनेजरों ने पार्टी में नम्बर-दो की बात को लेकर अच्छी मार्केटिंग शुरू की पर शिन्दे के बयान ने चर्चा का रुख ही बदल दिया। दिग्विजय सिंह के प्रिय हाफिज सईद साहब ने इसे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश की व संयुक्त राष्ट्र संघ से भारत को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने की गुजारिश कर दी। शिन्दे और दिग्विजय तयशुदा पटकथा पर काम कर रहे हैं। देश के 14 फीसदी मुसलमान एकमुश्त कांग्रेस को वोट दे दें और शेष कांग्रेस के पारंपरिक वोट जुड़े रहें तो मिशन 2014 कामयाब हो सकता है। गोया कि मुसलमान वोट कोई ढोर-डंगर हैं कि चारा दिखाया और जिधर हांकना चाहा हांक दिया। मुसलमान कोई अलग हिन्दुस्तानी प्रजाति नहीं है। देश को गढ़ने, सजाने-संवारने और शरहद पर शहीद होने से लेकर हर मामले में वह बराबरी में खड़ा है। अपना भल-अनभल वह जानता है इसीलिए वह बिहार में नीतीश कुमार को वोट देता है और गोधरा के कुप्रचार-सुप्रचार के बावजूद नरेन्द्र मोदी के उम्मीदवारों को भी जिताता है। ओवैसी बन्धु उसके नेता न कभी रहे हैं और ऐसे सिरफिरों पर न कोई यकीन है।
दरअसल आजादी के बाद से ही कांग्रेस की यह रणनीति रही है कि वह आरएसएस के हिन्दूवाद का हौव्वा खड़ा करके अल्पसंख्यकों को ज्यादा से ज्यादा डराकर रख सके। आजादी से पहले जिस कांग्रेस की हर साम्प्रदायिक दंगों के पीछे मुस्लिम लीग और आरएसएस की भूमिका नजर आया करती थी, वहीं कांग्रेस अब मुस्लिम लीग की भूमिका में नजर आने लगी है और दिग्विजय सिंह-शिन्दे सरीखे अग्रिम पंक्ति के नेता यदि ऐसा बयान देते हैं तो निश्चित ही ऊपर की सहमति के बगैर नहीं। सो यह तयशुदा पटकथा के संवाद हैं। मुङो तो आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक एमजी वैद्य की बात पर भी दम दिखता है कि नितिन गड़करी को भाजपा के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस की सत्ता के सहयोग से निपटाया है। गड़करी प्रकरण में आयकर के छापों की टायमिंग और उनकी कम्पनियों के घोटालों के खुलासे के पीछे भाजपा के उन भेदियों का हाथ है जिनकी पैठ कांग्रेस व केन्द्र की सत्ता के गलियारों में भी है। कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि चुनाव आने के पहले हिन्दू-मुसलमानों की साम्प्रदायिक गोलबंदी के पीछे कांग्रेस व भाजपा का मिलाजुला खेल है। राजनाथ सिंह की भाजपाध्यक्ष की ताजपोशी के ऐन पहले कुछ शीर्ष अखबारों व टीवी चैनल्स ने चुनावी सव्रे प्रकाशित-प्रसारित किया। इस सव्रे में कांग्रेस के गिरते ग्राफ को तो रेखांकित ही किया है लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को भी कोई निर्णायक बढ़त नहीं बताई है। अब तक के सव्रे में बिखरे व अलग-थलग होने के बावजूद तीसरे मोर्चे के किंग मेकर बताया है। खासकर मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को खास तवज्जो दी है। जैसा कि तय माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी को भाजपा अपना प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित कर देगी, ऐसे में नीतीश कुमार और उनकी जदयू का एनडीए से बाहर आना उतना ही तय है। हिन्दी पट्टी के दो बड़े राज्यों उत्तरप्रदेश व बिहार के दोनों राजनीतिक सूबेदारों की रहनुमाई वाला तीसरा मोर्चा निश्चित ही यूपीए और एनडीए की नींद हराम करने वाला होगा। ऐसी स्थिति में न तो कांग्रेस नेतृत्व और न ही भाजपा नेतृत्व चाहेगा कि तीसरे मोर्चे का विजय रथ दिल्ली की ओर बढ़े, सो हिन्दू-मुसलमानों के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कवायद राजनीतिक सागामीती हो सकती है इससे कोई इंकार नहीं करेगा। आखिर राजनीति तड़ित की तरह चंचल और भुजंग की भांति कुटिल होती ही है।
चुनावी जनतंत्र का यही सबसे बड़ा खोट होता है कि हर मसलों को वोट के ही नजरिए से देखा और तौला जाता है। सामाजिक मूल्य, देश की इज्जत, प्रतिष्ठा रहे या खाक में मिल जाए फौरी लाभ के लिए इन बातों की कोई परवाह नहीं। कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम् का विरोध, सलमान रुश्दी की भारत आने पर पाबंदी या फिर जयपुर के लिट्रेरी फेस्टिवल में समाजविज्ञानी आशीष नंदी के बयान से उठा बवाल। हर जगह राजनीति के जहर का असर है। एक के बाद एक ये सभी प्रकरण और देश के राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के आचरण से देश की जो नई तस्वीर उभर रही है वह निहायत असहिष्णु, दकियानूस और मध्ययुगीन बर्बरता को समेटे हुए है। मध्ययुगीन बर्बरता के दौर में तो कबीर, नानक और तुलसी हुए। कबीर जब काशी के पण्डों और मुल्लाओं का पोल खोल अभियान चला रहे थे, उस समय दिल्ली में इब्राहीम लोदी की सल्तनत थी। ऐसे तंग दौर में भी कबीर कितना कुछ कह गए और अपने पीछे इतना बड़ा पंथ खड़ा कर गए और पूरी उम्र बिना किसी हमले व सेंसरशिप के जिए, बड़ा ताज्जुब लगता है। क्या आज के दौर में कबीर जैसे इन्सान की कल्पना की जा सकती है? कमल हासन ने विश्वरूपम् में जो दिखाना चाहा या आशीष नंदी ने भ्रष्टाचार के वर्ग चरित्र की जो बातें कहीं, इस प्रगतिशील युग में हम उसे ही पचा नहीं पा रहे हैं। राजनीति इन मसलों को अपनी-अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर रही है? कितना शर्मनाक है ये दौर? सब कोई अपने सुविधानुसार टुकड़ों-टुकड़ों में सच सुनना चाहता है, या फिर सच को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर सनसनी घोलने में जुटा हुआ है। यह सब उस देश में हो रहा है जिस देश में सहिष्णुता और स्वतंत्र विचारों की पराकाष्ठा के प्रतिमान दर्ज हैं।
पुराणों की कथाएं आज भी बांची व सुनी जाती हैं कि एक विप्र भृगु ने भगवान विष्णु की छाती पर पद प्रहार किया और भगवान ने इस बात के लिए क्षमा याचना की कि उनकी छाती वज्र जैसे कठोर है कहीं आपके पांव में आघात तो नहीं पहुंचा। दुनिया के किसी भी धर्म, उसके ईश्वर, अवतार और पैगम्बरों में सहिष्णुता के ऐसे दृष्टांत खोजे नहीं मिलेंगे। प्रभु श्रीराम ने उन जबालि ऋषि को भी अयोध्या के पुरोहित मण्डल से बर्खास्त नहीं किया जिन्होंने मां-बाप, भाई-बहन को कैद कर निर्बाध राज्य करने का सार्वजनिक उपदेश दिया था। दुनिया तरक्की की सरग-नसेनी पर चढ़ रही है और हमारे नीति-नियंता देश को ऐसी अंधी सुरंगों में ले जाने को बेताब हैं जिसका रोशनदान कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखता। पढ़ी-लिखी समझदार और तरक्की पसंद युवा पीढ़ी के सामने राजनीति के कुटिल भुजंगों के फन कुचलने की चुनौती है, देश को दकियानूसी और असहिष्णुता की अंधी सुरंग से निकालकर जनपथ से राजपथ तक पहुंचाने की जिम्मेवारी भी।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

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