आप जब यह लेख पढ़ रहे होंगे तब तक लोकसभा में रेल बजट प्रस्तुत हो रहा होगा। हम सब यह जानने की कोशिश कर रहे होंगे कि अपने इलाके को कितनी रेल सुविधाएं मिलीं, कौन नई ट्रेन चलेगी। कहां नई पटरियां बिछेंगी, या फिर किराए का क्या होगा। पिछले कई वर्षो से रेल बजट का प्रस्तुतिकरण महज राजनीतिक उपक्रम रह गया है। आम आदमी के हितों को फोकस करने की बजाय क्षेत्रवाद या गठबंधन के जिस दल के मंत्री के जिम्मे रेल मंत्रालय है उसकी दलीय प्रतिबद्धता प्रमुख रहती है। पिछले साल दिनेश त्रिवेदी ने इस चलन से हटकर बजट पेश करने की कोशिश की तो वे ममता बनर्जी के कोप के शिकार हो गए। दुनिया में यह पहली ऐसी घटना थी जब किसी मंत्री को राजनीतिक कारणों से इस तरह बेइज्जत होकर त्यागपत्र देना पड़ा हो। त्रिवेदी की सोच प्रगतिशील व यथार्थ के धरातल पर टिकी थी। ममता बनर्जी की सोच लालू यादव की सोच का विस्तार मात्र था। लोक लुभावन सड़क छाप घोषणाओं में आम आदमी के हित के लिए ये नेता स्टेशन पर कुल्हड-सत्तू लिट्टी-चोखा और 10 रुपए के जनता भोजन से ज्यादा नहीं। आम आदमी मवेशियों की तरह डिब्बे में सफर करें और स्टेशन के नलों का गंदा पानी पीकर बीमार होकर मरे इस दिशा में किसी रेल बजट में गंभीर पहल व ठोस विचार नहीं दिखा।
रेल की व्यवस्था और सोच में आम आदमी कहां है. रेलगाड़ियां ही अपने-आपमें जीवंत दृष्टान्त हैं। सामान्य श्रेणी, जिसमें आम गरीब मुसाफिर सफर करता है, लम्बी से लम्बी रेलगाड़ियों में महज दो डिब्बे लगते हैं। एक इन्जन के बाद और दूसरा गार्ड के डिब्बे से पहले। इनके बीच में वातानुकलित श्रेणियों के डिब्बे और सेकन्ड क्लास स्लीपर। ये मान सकते हैं कि रेलगाड़ी के आगे-पीछे लगने वाले ये सामान्य श्रेणी के डिब्बे, विशिष्ट श्रेणी के डिब्बों में सफर करने वालों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं। यानी कि रेलगाड़ी चाहे आगे से भिड़े या पीछे से कई टक्कर मारें (ईश्वर करे कभी ऐसा न हो) पहला आघात जनरल क्लास यानी कि आम आदमी को ही लगेगा।
दूसरे, सामान्य श्रेणी के डिब्बे अपराधों के मामले में भी शॉक आबजर्वर का काम करते हैं। मसलन जहरीला बिस्किट देकर यात्रियों को लूटने वाले, किसी न किसी बहाने यात्रियों से जबरिया वसूली करने वाले जीआरपी, आरपीएफ और रेल्वे के चेकिंग स्टाफ के लिए सबसे मुफीद जगह यही है। बजबजाते और गन्धाते सामान्य श्रेणी के डिब्बों के यात्री शशि थरुर के शब्दों में सचमुच कैटल क्लास के हैं। कहने को आम मुसाफिरों के लिए हर लाइन पर सस्ते किराए वाली पैसेन्जर गाड़ियां हैं। पर कभी इन गाड़ियों में कोई मंत्री, विधायक या सांसद या कि रेल्वे का आला अफसर यात्रा करके देखे तो पता चलेगा कि भारतीय रेल्वे अभी भी किस युग में है। पांच घंटे का सफर कभी-कभी पन्द्रह से बीस घंटे में तय होता है। सभी गाड़ियों को पास देने के लिए इन्हें ही कुर्बानी देनी पड़ती है। क्या गरीब भारतवासी को यह हक नहीं कि वह भी गन्तव्य तक वक्त पर पहुंचे। इन गाड़ियों के डिब्बे साफ-सफाई और सुरक्षा रेल्वे की सबसे निचली प्राथमिकता में होता है।
मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनने की बुनियाद में रेल्वे ही है। वह ऐतिहासिक घटना दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर से 80 किलोमीटर दूर पीटरमेरिटजबर्ग रेल्वे स्टेशन की है? वह ऐतिहासिक तारीख थी 7 जून 1893। प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे मोहनदास करमचन्द गांधी को रेल्वे के अंग्रेज अधिकारियों ने सामान समेत कोच से फेंक दिया था। करमचन्द की आत्मा में बैठा महात्मा इसी घटना के बाद जागृत हुआ। गांधीजी ने जाति-रंग- नस्ल व वर्ग के खिलाफ लड़ाई यहीं शुरु की। दक्षिण अफ्रीका में अहिंसक क्रांति की ये चिंगारी नेल्सन मंडेला तक जारी रही। दक्षिण अफ्रीका आज आजाद मुल्क है पर उसकी आजादी के पीछे रेल्वे के वर्ग चरित्र की यह घटना है। गांधीजी जब हिन्दुस्तान लौटे तब यहां रेल लाइनें बिछ चुकी थी और रेलगाड़ियां चलने लगी थी। यहां की रेल्वे का चरित्र दक्षिण अफ्रीका जैसा ही था, क्योंकि अंग्रेज बहादुरों के लिए स्पेशल कोच और सैलून लगा करते थे।
गांधीजी ने देश-दर्शन के लिए रेलयात्रा ही चुनी। वे जीवनभर तृतीय श्रेणी की यात्रा करते रहे गांधी डिवीजन का जो देसज शब्द चल निकला उसके पीछे गांधी जी की तृतीय श्रेणी की रेल यात्रा ही है। गांधीजी ने रेलयात्रियों के जरिए ही देश के आम आदमी के बारे में अपनी समझ विकसित की, और उनका स्वप्न था कि देश जब आजाद हो तो वह वर्गविहीन, श्रेणी विहीन रहे। देश में सिर्फ एक ही श्रेणी एक ही वर्ग रहे वह आम भारतीय का। आजादी के बाद रेल्वे ने सिर्फ एक संशोधन किया, अपने डिब्बों में "गांधी क्लास" यानी की तृतीय श्रेणी नाम को विलोपित कर दिया।
गांधी जी देश में वर्ग व श्रेणी विहीन समाज का सपना देखा था, वह कई क्षेत्रों में चूर-चूर तो हुआ ही, रेल्वे में वर्ग और श्रेणी विभाजन वास्तव में कई-कई खांचों में बंटे अपने समाज की फौरी तस्वीर प्रस्तुत करता है। सामान्य रेलगाड़ी में पांच श्रेणियां, तीन ऐसी की दो सामान्य की। रेल्वे का आला अफसर, सरकार के शीर्ष अधिकारी और महामहिमों के लिए स्पेशल सैलून। फिर राजधानी-शताब्दी और दूरन्तों श्रेणी की रेलगाड़ियां। पर्यटकों के लिए पैलेस-ऑन-व्हील जैसी स्पेशल गाड़ी। और जहां तक जनप्रतिनिधियों तथा धर्माचार्यो व मठाधीशों को शामिल करते हुए समाजसेवियों की बात करें तो ऐसे लोगों की संख्या सैकड़ों नहीं अपितु हजारों में है जिन्होंने पिछले दस साल से रेल में यात्रा ही नहीं की। इनके लिए सरकार के या कारपोरेट घरानों की चार्टर सेवाएं व हैलीकाप्टर हाजिर।
इस बाजारू व्यवस्था में गांधीजी के सपने को हकीकत में बदलने की बात करना महज जुबानी-जमा-खर्च होगा, लेकिन जिस आदमी की बात यूपीए सरकार की अगुआ कांग्रेस करती है उस आम आदमी के लिए रेल यात्रा सम्मानजनक बनायी जा सकती है। और ज्यादा क्या चाहिए, डिब्बे में बैठने के लिए एक सुविधाजनक सीट, स्वच्छ व साफ वातावरण। ज्यादा संख्या में फास्ट पैसेन्जर, साफ-सुथरे यात्री प्रतीक्षालय, शुद्धपेय जल, और सबसे बड़ी बात सुरक्षित यात्रा की गारंटी। जनता शासनकाल के रेलमंत्री मधुदण्डवते स्तुत्य है, उन्होंने ही सामान्य श्रेणी में लकड़ी के फट्टे की जगह गद्दीदार सीटों के लिए पहल की थी व बाकायदें बजट में प्रावधान भी किया था। आप जब तक इस लेख को पूरा कर रहे होंगे, देश का रेल बजट आपके सामने होगा। रेल सुविधाओं की क्षेत्रीय प्राथमिकता, चुनाव की दृष्टि से लोकलुभावन व लालूछाप मसालेदार योजनाओं के बीच रेलमंत्री के बजट में आम आदमी की कितनी चिन्ता है और उसकी हैसियत क्या है. सब कुछ बजट को देखने-सुनने के साथ ही साफ होता जाएगा।
रेल की व्यवस्था और सोच में आम आदमी कहां है. रेलगाड़ियां ही अपने-आपमें जीवंत दृष्टान्त हैं। सामान्य श्रेणी, जिसमें आम गरीब मुसाफिर सफर करता है, लम्बी से लम्बी रेलगाड़ियों में महज दो डिब्बे लगते हैं। एक इन्जन के बाद और दूसरा गार्ड के डिब्बे से पहले। इनके बीच में वातानुकलित श्रेणियों के डिब्बे और सेकन्ड क्लास स्लीपर। ये मान सकते हैं कि रेलगाड़ी के आगे-पीछे लगने वाले ये सामान्य श्रेणी के डिब्बे, विशिष्ट श्रेणी के डिब्बों में सफर करने वालों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं। यानी कि रेलगाड़ी चाहे आगे से भिड़े या पीछे से कई टक्कर मारें (ईश्वर करे कभी ऐसा न हो) पहला आघात जनरल क्लास यानी कि आम आदमी को ही लगेगा।
दूसरे, सामान्य श्रेणी के डिब्बे अपराधों के मामले में भी शॉक आबजर्वर का काम करते हैं। मसलन जहरीला बिस्किट देकर यात्रियों को लूटने वाले, किसी न किसी बहाने यात्रियों से जबरिया वसूली करने वाले जीआरपी, आरपीएफ और रेल्वे के चेकिंग स्टाफ के लिए सबसे मुफीद जगह यही है। बजबजाते और गन्धाते सामान्य श्रेणी के डिब्बों के यात्री शशि थरुर के शब्दों में सचमुच कैटल क्लास के हैं। कहने को आम मुसाफिरों के लिए हर लाइन पर सस्ते किराए वाली पैसेन्जर गाड़ियां हैं। पर कभी इन गाड़ियों में कोई मंत्री, विधायक या सांसद या कि रेल्वे का आला अफसर यात्रा करके देखे तो पता चलेगा कि भारतीय रेल्वे अभी भी किस युग में है। पांच घंटे का सफर कभी-कभी पन्द्रह से बीस घंटे में तय होता है। सभी गाड़ियों को पास देने के लिए इन्हें ही कुर्बानी देनी पड़ती है। क्या गरीब भारतवासी को यह हक नहीं कि वह भी गन्तव्य तक वक्त पर पहुंचे। इन गाड़ियों के डिब्बे साफ-सफाई और सुरक्षा रेल्वे की सबसे निचली प्राथमिकता में होता है।
मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनने की बुनियाद में रेल्वे ही है। वह ऐतिहासिक घटना दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर से 80 किलोमीटर दूर पीटरमेरिटजबर्ग रेल्वे स्टेशन की है? वह ऐतिहासिक तारीख थी 7 जून 1893। प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे मोहनदास करमचन्द गांधी को रेल्वे के अंग्रेज अधिकारियों ने सामान समेत कोच से फेंक दिया था। करमचन्द की आत्मा में बैठा महात्मा इसी घटना के बाद जागृत हुआ। गांधीजी ने जाति-रंग- नस्ल व वर्ग के खिलाफ लड़ाई यहीं शुरु की। दक्षिण अफ्रीका में अहिंसक क्रांति की ये चिंगारी नेल्सन मंडेला तक जारी रही। दक्षिण अफ्रीका आज आजाद मुल्क है पर उसकी आजादी के पीछे रेल्वे के वर्ग चरित्र की यह घटना है। गांधीजी जब हिन्दुस्तान लौटे तब यहां रेल लाइनें बिछ चुकी थी और रेलगाड़ियां चलने लगी थी। यहां की रेल्वे का चरित्र दक्षिण अफ्रीका जैसा ही था, क्योंकि अंग्रेज बहादुरों के लिए स्पेशल कोच और सैलून लगा करते थे।
गांधीजी ने देश-दर्शन के लिए रेलयात्रा ही चुनी। वे जीवनभर तृतीय श्रेणी की यात्रा करते रहे गांधी डिवीजन का जो देसज शब्द चल निकला उसके पीछे गांधी जी की तृतीय श्रेणी की रेल यात्रा ही है। गांधीजी ने रेलयात्रियों के जरिए ही देश के आम आदमी के बारे में अपनी समझ विकसित की, और उनका स्वप्न था कि देश जब आजाद हो तो वह वर्गविहीन, श्रेणी विहीन रहे। देश में सिर्फ एक ही श्रेणी एक ही वर्ग रहे वह आम भारतीय का। आजादी के बाद रेल्वे ने सिर्फ एक संशोधन किया, अपने डिब्बों में "गांधी क्लास" यानी की तृतीय श्रेणी नाम को विलोपित कर दिया।
गांधी जी देश में वर्ग व श्रेणी विहीन समाज का सपना देखा था, वह कई क्षेत्रों में चूर-चूर तो हुआ ही, रेल्वे में वर्ग और श्रेणी विभाजन वास्तव में कई-कई खांचों में बंटे अपने समाज की फौरी तस्वीर प्रस्तुत करता है। सामान्य रेलगाड़ी में पांच श्रेणियां, तीन ऐसी की दो सामान्य की। रेल्वे का आला अफसर, सरकार के शीर्ष अधिकारी और महामहिमों के लिए स्पेशल सैलून। फिर राजधानी-शताब्दी और दूरन्तों श्रेणी की रेलगाड़ियां। पर्यटकों के लिए पैलेस-ऑन-व्हील जैसी स्पेशल गाड़ी। और जहां तक जनप्रतिनिधियों तथा धर्माचार्यो व मठाधीशों को शामिल करते हुए समाजसेवियों की बात करें तो ऐसे लोगों की संख्या सैकड़ों नहीं अपितु हजारों में है जिन्होंने पिछले दस साल से रेल में यात्रा ही नहीं की। इनके लिए सरकार के या कारपोरेट घरानों की चार्टर सेवाएं व हैलीकाप्टर हाजिर।
इस बाजारू व्यवस्था में गांधीजी के सपने को हकीकत में बदलने की बात करना महज जुबानी-जमा-खर्च होगा, लेकिन जिस आदमी की बात यूपीए सरकार की अगुआ कांग्रेस करती है उस आम आदमी के लिए रेल यात्रा सम्मानजनक बनायी जा सकती है। और ज्यादा क्या चाहिए, डिब्बे में बैठने के लिए एक सुविधाजनक सीट, स्वच्छ व साफ वातावरण। ज्यादा संख्या में फास्ट पैसेन्जर, साफ-सुथरे यात्री प्रतीक्षालय, शुद्धपेय जल, और सबसे बड़ी बात सुरक्षित यात्रा की गारंटी। जनता शासनकाल के रेलमंत्री मधुदण्डवते स्तुत्य है, उन्होंने ही सामान्य श्रेणी में लकड़ी के फट्टे की जगह गद्दीदार सीटों के लिए पहल की थी व बाकायदें बजट में प्रावधान भी किया था। आप जब तक इस लेख को पूरा कर रहे होंगे, देश का रेल बजट आपके सामने होगा। रेल सुविधाओं की क्षेत्रीय प्राथमिकता, चुनाव की दृष्टि से लोकलुभावन व लालूछाप मसालेदार योजनाओं के बीच रेलमंत्री के बजट में आम आदमी की कितनी चिन्ता है और उसकी हैसियत क्या है. सब कुछ बजट को देखने-सुनने के साथ ही साफ होता जाएगा।
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