Tuesday, January 29, 2013

भ्रष्टाचार की प्रोफाइल तो यही कहती है


जगदीश्‍वर चतुर्वेदीभ्रष्टाचारियों का सामाजिक प्रोफाइल होता है। याद करें 2जी स्पेक्ट्रम में शामिल तमिलनाडु के नेताओं को, मायावतीशासन में हुए भ्रष्टाचार और उसमें शामिल आधे दर्जन निकाले गए भ्रष्टमंत्रियों, शशांक शेखर और अन्य बड़े आईएएस अधिकारियों के द्वारा किए भ्रष्टाचार को, उन पर चल रहे केसों को। झारखंण्ड के तमाम नाम-चीन भ्रष्टनेताओं के सामाजिक प्रोफाइल को भी गौर से देखें।
भाजपा के पूर्व नेता येदुरप्पा के सामाजिक प्रोफाइल पर भी नजर डाल लें और लालू-मुलायम पर चल रहे आय से ज्यादा संपत्ति के मामलों को भी देखें। आखिरकार इन नेताओं की जाति भी है। राजनीति में जाति सबसे बड़ी सच्चाई है। उनकी जीत में जाति समीकरण की भूमिका रहती है। ऐसे में भ्रष्टाचार के प्रसंग में यदि जाति को भ्रष्टाचारी की प्रोफाइल के साथ पेश किया जाता है तो इसमें असत्य क्या है ? भ्रष्टाचारी की दो जाति होती हैं एक सामाजिकजाति और दूसरी आर्थिकजाति। दोनों केटेगरी विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण हैं। जाति आज भी महत्वपूर्ण केटेगरी है और इसपर जनगणना हो रही है। विकास के पैमाने के निर्धारण के लिए जाति खोजो और भ्रष्टाचार में जाति मत खोजो यह दुरंगापन नहीं चलेगा। जाति विश्लेषण की आज भी बड़ी महत्वपूर्ण केटेगरी है।

आशीषनंदी ने अपने बयान में कहा कि पश्चिम बंगाल में विगत 64 सालों में सत्ता कभी भ्रष्ट नहीं रही। यह बात सच भी है कि वामशासन में किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ करप्शन के आरोप नहीं हैं। यदि रहे होते तो ममता उनको छोड़ती नहीं। यही हाल वामशासन के पहले के मुख्यमंत्रियों का रहा है। यानी कुछ तो है बंगाल में विलक्षण जिसके कारण यहां पर किसी मंत्री को करप्शन में नहीं पकड़ा गया और सभी मुख्यमंत्री सादगी के प्रतीक रहे हैं।

आशीषनंदी के बयान की मायावती, भाजपा और अनेक दलितलेखकों ने निंदा की है और आशीषनंदी ने अपने बयान के लिए माफी मांग ली है। यह सारा घटनाक्रम जिस गति से घटा है उससे यह भी पता चलता है इनदिनों किसी बयान या विचार की उम्र बहुत कम होती है। एक ही व्यक्ति अपने बयान पर दो रूख अपना सकता है। हम पूरी तरह पोस्टमॉडर्न कंडीशन में जी रहे हैं। इसमें टुईंया महान है और महान टुईंया है। बयान है भी और नहीं भी है।यह कम्प्लीट वेदान्ती अवस्था है। सबकुछ माया है। रंगबिरंगा है।

आशीषनंदी के बयान पर जो लोग प्रतिवाद कर रहे हैं, वे कह रहे हैं जो भ्रष्ट हैं उनकी कोई जाति नहीं होती। काश, सारा देश भ्रष्ट हो जाता तो देश से जातिव्यवस्था का अंत ही हो जाता !! कमाल का मायावी संसार है भ्रष्टाचार का !! आशीषनंदी की अक्ल पर मुझे तरस आ रहा है। वे बेमेल पैनल में भाषण के लिए गए क्यों ? जयपुर साहित्य महोत्सव के आयोजकों ने उनके जैसे बड़े विद्वान बेमेल पैनल में रखकर उनका वजन तय कर दिया था।फलतः इसका जो परिणाम होना था वही हुआ ,बेमेल पैनल में यह सारा मामला बेर और केले के बीच में संवाद जैसा था। ज्ञान में समानता के मानक को पैनल बनाते हुए आयोजक क्यों भूल गए यह बात बुद्धि में नहीं आ रही।

प्रिंटमीडिया से लेकर फेसबुक तक नए युग के नए देवताओं का बैकुण्ठलोक फैला हुआ है। ये देवता आएदिन सवर्णों को गरियाते रहते हैं। इनमें वे भी हैं जो "तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार" का नारा देते रहे हैं। इन नए देवताओं को लोकतंत्र में परम अधिकार प्राप्त हैं। ये किसी को भी धमका सकते हैं, गरिया सकते हैं, बंद करा सकते हैं। पुलिस केस में फंसा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के एकमात्र मालिक ये ही नए देवता हैं। इनके यहां सवर्ण सड़े-गले-चोर-बेईमान-उचक्के -भ्रष्ट-शोषक आदि हैं। इनके अलावा समाज में जो वर्ग हैं वे सब पुण्यात्मा हैं, देवता हैं, दूध के धुले हैं। बैकुण्ठलोक के नए देवताओं की तलवारें चमक रही हैं, आओ हम सब मिलकर इनकी आरती उतारें और जय-जयकार करें।

आशीषनंदी के मामले में मीडिया के अज्ञान क्रांति नायकों ने जिस तरह सनसनी पैदा की है उसने यह खतरा पैदा कर दिया है टीवी कैमरे के सामने कोई भी लेखक खुलकर अपने मन की बातें नहीं कहेगा। टीवीमीडिया और उसके संपादक एक तरह से मीडिया आतंक पैदा कर रहे हैं। यह टीवी टेरर का युग भी है। टीवी टेरर और कानूनी आतंकवाद मिलकर सीधे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले कर रहे हैं। अहर्निश असत्य का प्रचार करने वाले कारपोरेट मीडियासंपादक अपने उथले ज्ञान के आधार पर ज्ञान-विज्ञान-विचार के निर्माताओं को औकात बताने पर उतर आए हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने कभी गंभीरता से भारत के समाज, संस्कृति आदि का कभी अध्ययन-मनन नहीं किया। लेकिन आशीशनंदी जैसे विलक्षणमेधावी मौलिक बुद्धिजीवी को कुछ इस तरह चुनौती दी जा रही है,गोया, आशीषनंदी का भारत की ज्ञानक्रांति में कोई योगदान ही न हो।

राजनीति में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नहीं रहा। यहां तक संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नहीं संपूर्ण क्रांति पर लिखा,इन्दिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नहीं लगता। जबकि हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नहीं मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्म समर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य,नैतिकता,परिवार और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचरण की धुरी है। यह प्रतिवाद को खत्म करता है। यह उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव हुआ। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है। अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े शासकों में पूंजी एकत्रित करने,येन-केन प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी। आज व्यवस्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिम वाले जिसे रीगनवाद,थैचरवाद आदि के नाम से सुशोभित करते हैं यह मूलतः 'आधुनिकीकरण की छलयोजना' है , इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार।रीगनवाद-थैचरवाद को हम नव्य आर्थिक उदारतावाद के नाम से जानते हैं । भारत में इसके जनक हैं नरसिंहाराव-मनमोहन । यह मनमोहन अर्थशास्त्र है। भ्रष्टाचार को राजनीतिक मसला बनाने से हमेशा फासीवादी ताकतों को लाभ मिला है। यही वजह है लेखकों ने आर्थिक भ्रष्टाचार को कभी साहित्य में नहीं उठाया। भ्रष्टाचार वस्तुतः नव्य उदार आर्थिक नीतियों से जुड़ा है। आप भ्रष्टाचार को परास्त तब तक नहीं कर सकते जबतक नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प सामने नहीं आता।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चलाते रहे हैं। ये मूलतःमीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं।ये मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।

उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैंकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिलीभगत से हुई है। नव्य उदार नीतियों का इस लूट से गहरा संबंध है। चीन और रूस में इसका असर हुआ है चीन में अरबपतियों में ज्यादातर वे हैं जो पार्टी मेंम्बर हैं या हमदर्द हैं,इनके रिश्तेदारसत्ता में सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। यही हाल सोवियत संघ का हुआ।

भारत में नव्य उदारतावादी नीतियां लागू किए जाने के बाद नेताओं की सकल संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। सोवियत संघ में सीधे पार्टी नेताओं ने सरकारी संपत्ति की लूट की और रातों-रात अरबपति बन गए। सरकारी संसाधनों को अपने नाम करा लिया। यही फिनोमिना चीन में भी देखा गया। उत्तर आधुनिकतावाद पर जो फिदा हैं वे नहीं जानते कि वे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नेताओं के द्वारा मचायी जा रही लूट में वे मददगार बन रहे हैं। मसलन गोर्बाचोव के नाम से जो संस्थान चलता है उसे अरबों-खरबों के फंड देकर गोर्बाचोव को रातों-रात अरबपति बना दिया गया। ये जनाव पैरेस्त्रोइका के कर्णधार थे। रीगन से लेकर क्लिंटन तक और गोर्बाचोब से लेकर चीनी राष्ट्रपति के दामाद तक पैदा हुई अरबपतियों की पीढ़ी की तुलना जरा हमारे देश के सांसदों-विधायकों की संपदा से करें। भारत में सांसदों-विधायकों के पास नव्य आर्थिक उदारतावाद के जमाने में जितनी तेजगति से व्यक्तिगत संपत्ति जमा हुई है वैसी पहले कभी जमा नहीं हुई थी। अरबपतियों-करोड़पतियों का बिहार की विधानसभा से लेकर लोकसभा तक जमघट लगा हुआ है। केन्द्रीयमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक सबकी दौलत दिन -दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। नेताओं के पास यह दौलत किसी कारोबार के जरिए कमाकर जमा नहीं हुई है बल्कि यह अनुत्पादक संपदा है जो विभिन्न किस्म के व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए जमा हुई है। कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला आदि तो उसकी सिर्फ झांकियां हैं। अमेरिका मे भयानक आर्थिकमंदी के बाबजूद नेताओं की परिसंपत्तियों में कोई गिरावट नहीं आयी है। कारपोरेट मुनाफों में गिरावट नहीं आयी है। भारत में भी यही हाल है।

इसी संदर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर में मार्क्सवाद की चौथी थीसिस में लिखा है इस संरचनात्मक भ्रष्टाचार का नैतिक मूल्यों के संदर्भ में कार्य-कारण संबंध के रूप में व्याख्या करना भ्रामक होगा क्योंकि यह समाज के शीर्ष वर्गों में अनुत्पादक ढंग से धन संग्रह की बिलकुल भौतिक सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होता है।

रिपब्लिक में लेखक को विचारों की किस तरह की सीमाओं में काम करना होता है इसका आदर्श उदाहरण आशीष नंदी प्रकरण। रिपब्लिक की सीमा को अब दंडधारी नए राजनीतिक दादा और वोटबैंकों के मालिक तय कर रहे हैं। धिक्कार है हमें हम इस तरह के लोकतंत्र में रह रहे हैं जिसमें 26जनवरी को एक लेखक के खिलाफ निर्दोष और विवादास्पद बयान देने के लिए वारंट जारी होता है। लोकतंत्र में विचारों पर कानूनी हमला और झुंड की राजनीति का हमला कलंक है। जो भ्रष्ट हैं वे सत्ता को आदेश दे रहे हैं।

भारत में लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है कानूनी आतंकवाद। इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल केन्द्र-राज्य सरकारें और फंडामेंटलिस्ट कर रहे हैं। आशीषनंदी के बयान पर जो वारंट जारी किया गया है उसे तत्काल वापस लिया जाय। एक लेखक और विचारक के नाते उनके विचारों का सम्मान करके असहमति व्यक्त करने का हक है लेकिन जिस तरह की कट्टरपंथी राजनीतिक शक्तियां मैदान में आ जमीं हैं वे सीधे अभिव्यक्ति की आजादी को कानून आतंकवाद के बहाने कुचलने का मन बना लिया है।

साहित्य,कला, संस्कृति आदि के लिए कानूनी आतंकवाद आज सबसे बड़ा खतरा है। आशीषनंदी ने जयपुर साहित्य महोत्सव में जो बयान दिया उसका साहित्य खासकर दलितसाहित्य और भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखे साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। नंदी का बयान राजनीतिक है और यह किसी दल की सभा में दिया जाता तो अच्छा था। इससे यह भी पता चलता है कि इस मेले में तथाकथित लेखकगण साहित्य पर कम और राजनीति पर ज्यादा बोल रहे हैं । साहित्य में राजनीति को आटे में नमक की तरह होना चाहिए।

लेखक कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं।
jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in

Monday, January 28, 2013

किसानों की आत्महत्या: कितनी बड़ी समस्या?


वेस्ली स्टीफ़ेंसन
 सोमवार, 28 जनवरी, 2013 को 07:44 IST तक के समाचार
किसान
भारत में हर साल हजारों किसान आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या करते हैं
भारत में गरीबी और आर्थिक तंगी के चलते बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या करते हैं. सरकार कह रही है कि उसने किसानों की आत्महत्या के मामलों को कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं. लेकिन मौजूदा स्थिति क्या है?
1990 के दशक से भारत में किसानों की आत्महत्या के मामले सुर्खियां बटोरते रहे हैं. पहले-पहल महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या की घटनाएं सामने आईं और उसके बाद देश के दूसरे राज्यों में भी किसानों की आत्महत्या देखने को मिलीं.
सरकार ने कई समितियों को जांच का जिम्मा सौंपा, बावजूद इन सबके बीते 18 महीनों से ये मामला एक बार फिर सुर्खियों में हैं.
बीते साल, केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा था कि ये बेहद गंभीर मुद्दा है और सरकार किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कृषि में निवेश बढ़ाने पर जोर दे रही है. इसके लिए फसल का न्यूनतम मूल्य भी बढ़ाया गया.

कर्ज़ की वजह

किसानों का समर्थन कर रहे समूहों का कहना है कि अनाज की वास्तविक कीमतें किसानों को नहीं मिलती और उन्हें जीएम कंपनियों से कपास के काफी महंगे बीज और खाद खरीदने होते हैं.
इन समूहों के मुताबिक जीएम बीज को खरीदने में कई किसान गहरे कर्ज में डूब जाते हैं. जब फसल की सही कीमत नहीं मिलती है तो उन्हें आत्महत्या कर लेना एकमात्र विकल्प नजर आता है.
"भारत में वर्ष 2010 में करीब 1,90,000 आत्महत्याएं हुई हैं. इसमें किसान महज 10 फ़ीसदी ही हैं."
प्रभात झा, निदेशक, सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च
लेकिन वास्तविक आंकड़े क्या हैं और वे कितने सही हैं?
हाल ही में ब्रिटेन के निवेशक जिम रोजर्स ने बीबीसी से एक बहस के दौरान कहा कि पिछले कुछ सालों में भारत के लाखों किसानों ने आत्महत्या की है क्योंकि वे जीने लायक पैसे भी नहीं कमा पाए.
आधिकारिक तौर पर वर्ष 1995 से अब तक 2,70,000 किसानों ने आत्महत्या की है.
रोजर्स के मुताबिक, उन्होंने भारत में किसानों की आत्महत्या की खबरें अख़बारों में पढ़ी थी, लेकिन लगता है कि यहां एक लाख के लिए मिलियन का इस्तेमाल किया गया हो, जबकि एक मिलियन का मतलब दस लाख होता है.

बढ़ा चढ़ाकर पेश करते हैं आंकड़े

स्लमडॉग मिलेनियर का हिंदी वर्जन स्लमडॉग करोड़पति हो जाता है
ब्रिटेन की ईस्ट एंजिला यूनिवर्सिटी में गणित के प्रोफेसर अनीस घोष कहते हैं, ''एक लाख तो 1,00,000 होता है, चाहे वह रुपया हो या फिर इंसानों की संख्या.''
अनीस मानते हैं कि दक्षिण एशिया में जिस तरह से एक लाख लिखा जाता है, उससे भ्रम पैदा हो सकता है.
वे कहते हैं, ''1,00,000 में दो कॉमा का इस्तेमाल होता है, इससे हो सकता है किसी ने गलती से एक लाख को दस लाख समझ लिया हो.''
ऐसा ही भ्रम करोड़ और लाख में भी हो सकता है. एक करोड़ में एक सौ लाख होते हैं. इसे 1,00,00,000 लिखा जाता है. यही वजह है कि जब अंग्रेजी में मिलेनियर की बात होती है तो दक्षिण एशिया में उसे करोड़ ही समझा जाता है.
यही वजह है कि स्लमडॉग मिलेनियर का हिंदी वर्जन स्लमडॉग करोड़पति हो जाता है.

क्या है वास्तविक तस्वीर?

बावजूद इसके सरकारी आंकड़े भी कम भयावह नहीं हैं. इनके मुताबिक भी हर साल भारत में हजारों किसान आत्महत्या करते हैं. सरकार के ताजा आकंड़ों के मुताबिक 2011 में करीब 14 हजार किसानों ने आत्महत्या की है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लैंसेट में भारत में आत्महत्याओं पर एक विस्तृत रिपोर्ट छपी है जो बताती है कि कई आत्महत्याओं की रिपोर्ट दर्ज नहीं होती है.
लैंसेट के मुताबिक, वर्ष 2010 में 19 हजार किसानों ने आत्महत्या की.
इस रिपोर्ट के लेखकों में शामिल और टोरांटो स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के निदेशक प्रभात झा कहते हैं, ''आधिकारिक आकंड़ों के लिए भारत राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो पर निर्भर है, जहां वही मामले दर्ज होते हैं जिसे पुलिस आत्महत्या के तौर पर दर्ज करती है.''
लेकिन यहां आत्महत्या की वजह क्या है, उसे भी देखे जाने की जरूरत है, क्योंकि भारत एक बहुत विशाल देश है और यहां की आबादी भी बहुत ज़्यादा है. साथ ही आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा खेती पर ही निर्भर है.

केवल किसान ही नहीं करते आत्महत्याएं

सरकार के तमाम दावों के बाद भी किसानों का आत्महत्या करना जारी है
प्रोफेसर झा के मुताबिक, आत्महत्याओं को जीवन के दूसरे क्षेत्रों से भी जोड़कर देखे जाने की जरूरत है.
प्रभात झा कहते हैं, '' वर्ष 2010 में भारत में करीब 1,90,000 आत्महत्याएं हुई हैं. इसमें किसान महज 10 फ़ीसदी ही हैं.''
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, अब भारत की महज 20 फ़ीसद आबादी खेती से जुड़ी है. प्रभात झा के नतीजों और संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में प्रति एक लाख लोगों में 15 लोग आत्महत्या करते हैं. खेती से जुड़े लोगों में यह हिस्सेदारी घटकर प्रति लाख सात लोगों की हो जाती है.
अगर किसानों की समस्या को सही ढंग से हल किया जाए तो ये आंकड़े और भी कम हो सकते हैं. लेकिन संसाधनों की कमी के चलते यह नहीं हो पा रहा है.
वैसे भारत में सड़क दुर्घटना के बाद युवाओं की मौत की दूसरी सबसे बड़ी वजह आत्महत्या ही है.
प्रभात झा के मुताबिक, किसानों की आत्महत्या पर ज्यादा जोर दिए जाने से दूसरे क्षेत्रों में आत्महत्याओं पर बात नहीं हो पाती.
लैंसेट में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में किसान बड़े पैमाने पर आत्महत्या जरूर कर रहे हैं, लेकिन यह दूसरे क्षेत्रों के लोगों की आत्महत्याओं के मुकाबले बहुत ज़्यादा और अविश्वसनीय भी नहीं है.

Sunday, January 27, 2013

'मूड ऑफ द नेशन'

नई दिल्ली।। अगर आम चुनाव आज होते हैं तो किसकी सरकार बनेगी? इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे के मुताबिक ऐसी स्थिति में बीजेपी की अगुआई वाला एनडीए कांग्रेस नीत यूपीए पर भारी पड़ेगा। एनडीए की स्थिति पहले के मुकाबले थोड़ी बेहतर जरूर होगी, लेकिन वह बहुमत के आंकड़े से काफी दूर ही रहेगा। ऐसे में अन्य दलों का साथ निर्णायक साबित होगा।

इंडिया टुडे-नील्सन के सर्वे के मुताबिक कांग्रेस और उसके सहयोगी दल सिमटकर महज 152-162 पर आ जाएंगे। 2009 में उन्हें 259 सींटें मिली थीं। यूपीए से अलग होने वाली तृणमूल कांग्रेस को इसमें शामिल नहीं किया गया है। तृणमूल में 2009 के चुनाव में 19 सीटें हासिल की थीं। पोल के मुताबिक कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों से 7.7 पर्सेंट वोट खिसक जाएंगे। इसका सीधा फायदा बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए को होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखा। बीजेपी नेताओं की अंदरूनी खींचतान और करप्शन के आरोपों में घिरे नितिन गडकरी पर फैसले में देरी का असर लोगों के मूड पर दिखा। पोल के मुताबिक एनडीए को 27.3 पर्सेंट वोट शेयर के साथ 198-208 सीटें मिलेंगी। यह यूपीए के 28 पर्सेंट वोट शेयर से कुछ ही कम है। अन्य दलों को 178 से 188 के बीच सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है। सर्वे में 57 पर्सेंट ने बीजेपी के अंदर मोदी को पीएम उम्मीदवार के तौर पर चुना। 11 फीसदी आडवाणी के फेवर में थे।

एबीपी-नील्सन का सर्वे: उधर दूसरे चैनल एबीपी-नील्सन के सर्वे में भी ऐसा ही दावा किया गया है। यह सर्वे 10 से 17 जनवरी के बीच 28 शहरों में 8842 वोटर्स के बीच किया गया। एबीपी के सर्वे के मुताबिक 39 फीसदी लोग बीजेपी और उनके सहयोगियों के हाथ में सत्ता की कमान देना चाहते हैं, जबकि महज 22 फीसदी लोग ही यूपीए और उनके सहयोगियों को फिर से सत्ता सौंपने के मूड में है। इस तरह बीजेपी भी कांग्रेस पर भारी पड़ती दिखी। अगर आज चुनाव हुए तो 36 फीसदी जनता बीजेपी को वोट देगी, जबकि कांग्रेस महज 18 फीसदी वोट ही हासिल कर पाने में कामयाब हो पाएगी।

sourse-नवभारतटाइम्स.कॉम | Jan 25, 2013, 01.20PM IST

गणतंत्र की मुंडेर पर बैठे हुए लोगों से


क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि रोशन रंगीनियों के जमाने में अपने देश की
तस्वीर कुछ ज्यादा ही श्वेत-श्याम बनकर उभर रही है? भारत के आँगन में ताड़
के पेड़ की तरह एक इण्डिया तेजी से पनप रहा है और वही इण्डिया अपने
गणतंत्र की मुंडेर पर बैठकर भारत को हांकने की कोशिश कर रहा है। भारत के
खाद-पानी से पनपे इस इण्डिया की उज्जवल व चमकदार छवि देख-देख कर हम निहाल
हैं और दुनिया हमें उभरती हुई महाशक्ति की उपाधि से उसी तरह अलंकृत कर
रही है जैसे कभी कम्पनी बहादुर अंग्रेज लोग हममें से ही किसी को राय
बहादुर, दीवान साहब की उपाधियां बांटते थे।
आजाद होने और गणतंत्र का जामा ओढ़ने के साठवें-सत्तरवें दशक में हम ऐसे
विरोधाभासी मुकाम पर आकर खड़े हो गए हैं, जहां तथ्यों को स्वीकार या
अस्वीकार करना भी असमंजस भरा है। भारत की व्यथा का बखान करना शुरू करें
तो इण्डिया सिरे से खारिज कर देता है, इण्डिया की चमक-दमक और कामयाबी की
बात करें तो भारत के तन-बदन में आग लगने लगती है। एक ही आंगन में दो पाले
हो गए हैं। हालात ऐसे बन रहे हैं कि तटस्थ रह पाना मुमकिन नहीं, यदि पूरे
पराक्रम के बाद भी इण्डिया के पाले में नहीं जा पाए तो भारत के पाले में
बने रहना नियति है।
क्या आपको इस बात की चिंता है कि यह यशस्वी देश के इस तरह के आभासी
बंटवारे का भविष्य क्या होगा? इस बंटवारे के पीछे जो ताकते हैं क्या आपने
उन्हें व उनके गुप्त मसौदे को जानने-पहचानने की कोशिश की है? परिवर्तन
प्रकृति का नियम है पर हर परिवर्तन प्रगतिशील नहीं होता। इस साठ दशक में
परिवर्तन-दर-परिवर्तन हुए। कह सकते हैं कि जिस देश में सुई तक नहीं बनती
थी आज वहां जहाज बनती है। क्षमता और संख्याबल में हमारी फौज की धाक है।
कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं का कार्बन बताता है कि
औद्योगिक प्रगति के मामले में भी हम अगली कतार पर बैठे हैं। फोर्ब्स की
सूची के धनिकों में हमारे उद्योगपति तेजी से स्थान बनाते जा रहे हैं।
वॉलीवुड की चमक के सामने हॉलीवुड की रोशनी मंदी पड़ती जा रही है। साल-दो
साल में एक विश्व सुन्दरी हमारे देश की होती है जो हमारे रहन-सहन, जीवन
स्तर के ग्लोबल पैमाने तय करती है। महानगरों के सेज व मॉलों की श्रृंखला,
नगरों, कस्बों तक पहुंच रही है। चमचमाते एक्सप्रेस हाइवे से लम्बी कारों
की कानवाय गुजरती हैं। माल लदे बड़े-बड़े ट्राले हमारी उत्पादकता का ऐलान
करते हुए फर्राटे भरते हैं। हमारे बच्चे अंग्रेजों से ज्यादा अच्छी
अंग्रेजी बोलते हैं। युवाओं के लिए पब डिस्कोथेक क्या-क्या नहीं है।
शाइनिंग इण्डिया की चमत्कृत करती इस तस्वीर को लेकर जब भी हम मुदित होने
की चेष्टा करते हैं तभी जबड़े भींचे और मुट्ठियां ताने भारत सामने आ जाता
है। वो भारत जो अम्बानी के 4 हजार करोड़ के भव्य महल वाले शहर मुम्बई में
अखबार दसा कर फुटपाथ पर सोता है। वो भारत जिसके 84 करोड़ लोगों के पास एक
दिन में खर्च करने को 20 रुपये भी नहीं। वो भारत जिसका अन्नदाता किसान
कर्ज व भूमि अधिग्रहण से त्रस्त आकर जीते जी चिताएं सजा कर आत्महत्याएं
करता है। वो भारत जहां हर एक मिनट में एक आदमी भूख से मर जाता है। वो
भारत जहां के नौजवान उच्च शिक्षा की डिग्री लेकर बेकारी व हताशा में
जंगलों में जाकर नक्सली बन जाते हैं?
गणतंत्र की मुंडेर पर बैठे रिपब्लिक इण्डिया के महाजनों को क्या भारत की
जमीनी हकीकत पता है? क्या वे जानना चाहेंगे, कि आहत भारत जो कि उनका भी
जन्मदाता है उसकी क्या ख्वाहिश है.. क्या गुजारिश है। समय के संकेतों को
समझिए... विषमता, शोषण और अन्याय के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्तियां अभी
टुकड़ों-टुकड़ों में अलग-अलग प्रगट हो रही है। कल ये एक होसकती हैं...। और
तब अग्निपुंज का ऐसा रूप लेंगी कि ट्यूनीशिया और अरब की क्रांति दुनिया
भूल जायेगी... और तब दिल्ली का विजय चौक-तहरीरी चौक नहीं अपितु इतिहास का
तवारीखी चौक बन जायेगा।
जय हिन्द-जय भारत
-जयराम शुक्ल

Thursday, January 24, 2013

महापुरुषों की स्मृतियों के बहाने


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 किसी महापुरुष के सिद्धान्त को व्यवहार रूप देने से, दरकिनार करने का सबसे बेहतर तरीका है, उसकी पूजा करने की परम्परा की शुरुआत कर देना। अपने देश के महापुरुषों के साथ कमोवेश यही हुआ। बुद्ध ने मूर्ति पूजा का विरोध किया, विश्व में सबसे अधिक बुद्ध-मूर्तियां बनीं। पूरा पहाड़ बुद्ध हो गया जिसे तालिबानों ने तोड़कर अपने को जेहादी सिद्ध किया।
यदि अहिंसा बुद्ध का सिद्धान्त मानें, (गो कि गांधी की अहिंसा करुणा उपनिषदों, पुराणों से प्रभावित थी) तो वे हिन्दू हिंसा के शिकार हुए। उनके आदर्श और सिद्धान्त देश भर में गांधी की मूर्तियों और उनके नाम से बने पार्को में धूल फांक रहे हैं। सम्पूर्ण मानव होते हुए भी वे आस्तिक और हिन्दू थे परंतु अपने को असली हिन्दू मानने वालों में से एक ने गांधी को एक नहीं तीन तीन गोलियों से भून दिया। गांधी विश्ववंद्य हुए। गांधी के सिद्धान्तों को उनके ही देश ने सबसे अधिक झुठलाया।
महामहिम कहते हैं-‘स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय एकता के प्रतीक थे, सभी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना पैदा की थी। ऐसे वक्त में जब हमारे देश के लोगों का आत्मविश्वास काफी नीचे था और अधिकतर भारतीय अपने आदर्श और रोल मॉडल के लिए पश्चिम की ओर देख रहे थे, स्वामीजी ने उनमें आत्मविश्वास और गौरव भरा।’ क्या उनके महान संदेशों को हमने आत्मसात किया? कितना डरा हुआ देश है यह, केन्द्र और राज्य सरकारें जहां करोड़ों का विज्ञापन अपनी उपलब्धियों और पार्टी के नेताओं के प्रचार पर खर्च करती हैं, विवेकानन्द के योगदान पर चर्चा नहीं करतीं? उन्हें डर है कि विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की विशेषताएं न सिर्फ धर्मसभा में रखीं बल्कि उनकी स्वीकृति भी ले ली। विवेकानन्द पर केन्द्र सरकार का यह मौन अल्पसंख्यकों के डर का मौन है। जबकि स्वामीजी ने अपने किसी भी उदबोधन में किसी धर्म की निन्दा नहीं की।
इतिहास में हुई अपनी गलतियों को उन्होंने स्वीकारा। वर्ण विभाजन की जड़ता को तोड़ने के लिए उन्होंने कहा-‘युगों से ब्राrाण भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है, अब उसे इस संस्कृति को सबके पास विकीर्ण कर देना चाहिए। हमारे पतन का कारण ब्राrाण की अनुदारता रही है। भारत के पास जो भी सांस्कृतिक कोश है, उसे जनसाधारण के कब्जे में जाने दो। और चूंकि ब्राrाण ने यह पाप किया था, इसलिए प्रायश्चित भी सबसे पहले उसी को करना है। सांप का काटा हुआ आदमी जी उठता है, यदि वही सांप आकर फिर से अपना जहर चूस ले। भारतीय समाज को ब्राrाण रूपी सर्प ने डसा है, यदि ब्राrाण अपना विष वापस ले ले, तो यह समाज अवश्य जी उठेगा।’ सन्यासी होते हुए भी उन्होंने निवृत्ति का नहीं प्रवृत्ति का मार्ग अपनाया। उन्होंने एक पत्र में लिखा था कि हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिन्दू और मुसलमान, मिलकर एक हो जाएं। वेदान्ती मष्तिस्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा, वही भारत की आशा है? कहां और किसमें है ऐसे चिंतन का अहसास। भाजपा यदि उन्हें सिर पर उठा लेती हैं तो कांग्रेस और और अन्य दल बिदक जाते हैं।
विवेकानन्द ने तो धर्म को देश से जोड़ा था और आज जब महामहिम विवेकानन्द की 150 वीं जयंती पर कहते हैं कि स्वामी जी ने जिन उद्देश्यों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी न्यौछावर कर दी उनके प्रति लोगों को आज फिर से प्रतिबद्ध करने की जरूरत है? यह आह्वान राष्ट्र के नाम संदेश जैसी परम्परा की तरह लगता है। स्वामीजी के सिद्धान्त एवं व्यवहार में अंतर नहीं था, इसलिए कि वे उस पर चले, परंतु आज हर व्यक्ति उपदेशक है। क्या ऐसा नहीं लगता कि आज हमारा रोल माडल अमेरिका और ब्रिटेन है।
हमारे हर निर्णय उनके इशारे पर नहीं लिए जा रहे हैं? इतने मुखापेक्षी तो हम कभी नहीं थे? यह आत्माभिमान कौन स्वामी जगाने आएगा? क्या हमारे महापुरुष मात्र प्रतीक रह गए हैं? आदमी के जन्म के हजारों हजार वर्ष बाद हिन्दू, मुसलमान, क्रिस्तान, बौद्धों ने जन्म लिया और आदम की मूल जाति खत्म होकर नई जातीय पौध विकसित हुई। जिनसे सम्प्रदाय निकले परंतु उनका प्रदेय अधिकतर आत्मीय संघर्ष और श्रेष्ठता का ही रहा। विविधता में एकता का सिद्धान्त सामाजिक परिपेक्ष्य में अंग्रेजों के आने तक चलता रहा। बिना किसी विवाद के देश ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में अठारह सौ संतावन की लड़ाई लड़ी। हिन्दू और मुस्लिम एकता से अंग्रेजों का भविष्य अंधकार में दिखा और फूट डालने के सिद्धान्त की परिणति भारत विभाजन में हुई। जायसी, खुसरो, रसखान, आलम, रहीम का देशी सपना चूर चूर हो गया। मुस्लिम विश्वविद्यालय के बरक्स हिन्दू विश्वविद्यालय खुला। महामना पं. मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के उन्नयकों में माने जाते थे।
अकबर इलाहाबादी की श्रद्धा कुरान तथा नमाज में पूरी शिद्दत से थी, वे पक्के मुसलमान थे। सर सैयद अहमद खान ने यह कहने में गुरेज नहीं किया- ‘हजार शेख ने दाढ़ी बढ़ाई सन की सी। मगर वो बात कहां, मौलवी मदन की सी।’ अकबर इलाहाबादी ने तो गांधी से बेहतर महामना को माना-‘भाई गांधी खुदसरी आरजू के साथ हैं। और साहेब लोग गांधी रंगे-बू के साथ हैं। मालवीय जी सबसे बेहतर हैं मेरी दानिश्त में। यानी, मंदिर में है और अपनी गऊ के साथ हैं।’ ऐसी बातें कहने का साहस आजादी के बाद कहां गुम हो गया? ईश्वर-अल्लाह को एक मानने वाले ने दुआ की थी कि सबको सन्मति दें भगवान, लेकिन दुआ कुबूल हो गई। उस गांधी की एक भी बात आजादी के बाद नहीं मानी। आजादी के बाद भी अपनी पहली और आखिरी सालगिरह की प्रार्थना सभा में बापू ने कहा था-‘आज तो मेरी जन्मतिथि है। मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक जिन्दा पड़ा हूं, इस बात पर मुझको खुद आश्चर्य होता है, शर्म लगती है। मैं वही शख्स हूं कि जिसकी जुबान से एक चीज निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों उसको मानते थे।
पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है। ऐसी हालत में हिन्दुस्तान में मेरे लिए जगह कहां है, और मैं उसमें जिन्दा रहकर क्या करूंगा? राष्ट्रपिता की इस पीड़ा को तत्कालीन शासकों ने क्या कभी समझने की कोशिश की? नीतिगत जनाधार के स्थान पर धर्म जाति, पिछड़े अगड़े, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, पंद्रह-पच्चासी का आधार देश को कहां ले जाएगा, इसकी चिन्ता किनको है? विभिन्न संस्कृतियों में बंटे इस देश की एकता जिन महापुरुषों के चिंतन का परिणाम है, उसे अपने वोट के लिए भुनाने की कोशिश राष्ट्रीय एकता को कमजोर करेगी, इसका अहसास नेतृत्व को करना होगा।
महापुरुषों को मात्र पूजनीय बनाने से कुछ होगा नहीं? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क- 09407041430. लोकायन

महापुरुषों की स्मृतियों के बहाने






चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 किसी महापुरुष के सिद्धान्त को व्यवहार रूप देने से, दरकिनार करने का सबसे बेहतर तरीका है, उसकी पूजा करने की परम्परा की शुरुआत कर देना। अपने देश के महापुरुषों के साथ कमोवेश यही हुआ। बुद्ध ने मूर्ति पूजा का विरोध किया, विश्व में सबसे अधिक बुद्ध-मूर्तियां बनीं। पूरा पहाड़ बुद्ध हो गया जिसे तालिबानों ने तोड़कर अपने को जेहादी सिद्ध किया।
यदि अहिंसा बुद्ध का सिद्धान्त मानें, (गो कि गांधी की अहिंसा करुणा उपनिषदों, पुराणों से प्रभावित थी) तो वे हिन्दू हिंसा के शिकार हुए। उनके आदर्श और सिद्धान्त देश भर में गांधी की मूर्तियों और उनके नाम से बने पार्को में धूल फांक रहे हैं। सम्पूर्ण मानव होते हुए भी वे आस्तिक और हिन्दू थे परंतु अपने को असली हिन्दू मानने वालों में से एक ने गांधी को एक नहीं तीन तीन गोलियों से भून दिया। गांधी विश्ववंद्य हुए। गांधी के सिद्धान्तों को उनके ही देश ने सबसे अधिक झुठलाया।
महामहिम कहते हैं-‘स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय एकता के प्रतीक थे, सभी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना पैदा की थी। ऐसे वक्त में जब हमारे देश के लोगों का आत्मविश्वास काफी नीचे था और अधिकतर भारतीय अपने आदर्श और रोल मॉडल के लिए पश्चिम की ओर देख रहे थे, स्वामीजी ने उनमें आत्मविश्वास और गौरव भरा।’ क्या उनके महान संदेशों को हमने आत्मसात किया? कितना डरा हुआ देश है यह, केन्द्र और राज्य सरकारें जहां करोड़ों का विज्ञापन अपनी उपलब्धियों और पार्टी के नेताओं के प्रचार पर खर्च करती हैं, विवेकानन्द के योगदान पर चर्चा नहीं करतीं? उन्हें डर है कि विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की विशेषताएं न सिर्फ धर्मसभा में रखीं बल्कि उनकी स्वीकृति भी ले ली। विवेकानन्द पर केन्द्र सरकार का यह मौन अल्पसंख्यकों के डर का मौन है। जबकि स्वामीजी ने अपने किसी भी उदबोधन में किसी धर्म की निन्दा नहीं की।
इतिहास में हुई अपनी गलतियों को उन्होंने स्वीकारा। वर्ण विभाजन की जड़ता को तोड़ने के लिए उन्होंने कहा-‘युगों से ब्राrाण भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है, अब उसे इस संस्कृति को सबके पास विकीर्ण कर देना चाहिए। हमारे पतन का कारण ब्राrाण की अनुदारता रही है। भारत के पास जो भी सांस्कृतिक कोश है, उसे जनसाधारण के कब्जे में जाने दो। और चूंकि ब्राrाण ने यह पाप किया था, इसलिए प्रायश्चित भी सबसे पहले उसी को करना है। सांप का काटा हुआ आदमी जी उठता है, यदि वही सांप आकर फिर से अपना जहर चूस ले। भारतीय समाज को ब्राrाण रूपी सर्प ने डसा है, यदि ब्राrाण अपना विष वापस ले ले, तो यह समाज अवश्य जी उठेगा।’ सन्यासी होते हुए भी उन्होंने निवृत्ति का नहीं प्रवृत्ति का मार्ग अपनाया। उन्होंने एक पत्र में लिखा था कि हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिन्दू और मुसलमान, मिलकर एक हो जाएं। वेदान्ती मष्तिस्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा, वही भारत की आशा है? कहां और किसमें है ऐसे चिंतन का अहसास। भाजपा यदि उन्हें सिर पर उठा लेती हैं तो कांग्रेस और और अन्य दल बिदक जाते हैं।
विवेकानन्द ने तो धर्म को देश से जोड़ा था और आज जब महामहिम विवेकानन्द की 150 वीं जयंती पर कहते हैं कि स्वामी जी ने जिन उद्देश्यों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी न्यौछावर कर दी उनके प्रति लोगों को आज फिर से प्रतिबद्ध करने की जरूरत है? यह आह्वान राष्ट्र के नाम संदेश जैसी परम्परा की तरह लगता है। स्वामीजी के सिद्धान्त एवं व्यवहार में अंतर नहीं था, इसलिए कि वे उस पर चले, परंतु आज हर व्यक्ति उपदेशक है। क्या ऐसा नहीं लगता कि आज हमारा रोल माडल अमेरिका और ब्रिटेन है।
हमारे हर निर्णय उनके इशारे पर नहीं लिए जा रहे हैं? इतने मुखापेक्षी तो हम कभी नहीं थे? यह आत्माभिमान कौन स्वामी जगाने आएगा? क्या हमारे महापुरुष मात्र प्रतीक रह गए हैं? आदमी के जन्म के हजारों हजार वर्ष बाद हिन्दू, मुसलमान, क्रिस्तान, बौद्धों ने जन्म लिया और आदम की मूल जाति खत्म होकर नई जातीय पौध विकसित हुई। जिनसे सम्प्रदाय निकले परंतु उनका प्रदेय अधिकतर आत्मीय संघर्ष और श्रेष्ठता का ही रहा। विविधता में एकता का सिद्धान्त सामाजिक परिपेक्ष्य में अंग्रेजों के आने तक चलता रहा। बिना किसी विवाद के देश ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में अठारह सौ संतावन की लड़ाई लड़ी। हिन्दू और मुस्लिम एकता से अंग्रेजों का भविष्य अंधकार में दिखा और फूट डालने के सिद्धान्त की परिणति भारत विभाजन में हुई। जायसी, खुसरो, रसखान, आलम, रहीम का देशी सपना चूर चूर हो गया। मुस्लिम विश्वविद्यालय के बरक्स हिन्दू विश्वविद्यालय खुला। महामना पं. मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के उन्नयकों में माने जाते थे।
अकबर इलाहाबादी की श्रद्धा कुरान तथा नमाज में पूरी शिद्दत से थी, वे पक्के मुसलमान थे। सर सैयद अहमद खान ने यह कहने में गुरेज नहीं किया- ‘हजार शेख ने दाढ़ी बढ़ाई सन की सी। मगर वो बात कहां, मौलवी मदन की सी।’ अकबर इलाहाबादी ने तो गांधी से बेहतर महामना को माना-‘भाई गांधी खुदसरी आरजू के साथ हैं। और साहेब लोग गांधी रंगे-बू के साथ हैं। मालवीय जी सबसे बेहतर हैं मेरी दानिश्त में। यानी, मंदिर में है और अपनी गऊ के साथ हैं।’ ऐसी बातें कहने का साहस आजादी के बाद कहां गुम हो गया? ईश्वर-अल्लाह को एक मानने वाले ने दुआ की थी कि सबको सन्मति दें भगवान, लेकिन दुआ कुबूल हो गई। उस गांधी की एक भी बात आजादी के बाद नहीं मानी। आजादी के बाद भी अपनी पहली और आखिरी सालगिरह की प्रार्थना सभा में बापू ने कहा था-‘आज तो मेरी जन्मतिथि है। मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक जिन्दा पड़ा हूं, इस बात पर मुझको खुद आश्चर्य होता है, शर्म लगती है। मैं वही शख्स हूं कि जिसकी जुबान से एक चीज निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों उसको मानते थे।
पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है। ऐसी हालत में हिन्दुस्तान में मेरे लिए जगह कहां है, और मैं उसमें जिन्दा रहकर क्या करूंगा? राष्ट्रपिता की इस पीड़ा को तत्कालीन शासकों ने क्या कभी समझने की कोशिश की? नीतिगत जनाधार के स्थान पर धर्म जाति, पिछड़े अगड़े, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, पंद्रह-पच्चासी का आधार देश को कहां ले जाएगा, इसकी चिन्ता किनको है? विभिन्न संस्कृतियों में बंटे इस देश की एकता जिन महापुरुषों के चिंतन का परिणाम है, उसे अपने वोट के लिए भुनाने की कोशिश राष्ट्रीय एकता को कमजोर करेगी, इसका अहसास नेतृत्व को करना होगा।
महापुरुषों को मात्र पूजनीय बनाने से कुछ होगा नहीं? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क- 09407041430.

तन्हाई में धकेला था सुभाष को


चिन्तामणि मिश्र
हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण अंग्रेज सरकार को संघर्ष और युद्ध की खुली चुनौती के रूप में था। सुभाष ने अपने इस भाषण में कांग्रेस की विदेश नीति पर कहा कि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन के विरोधी देशों से भारत अपनी आजादी के लिए ब्रिटेन के विरुद्ध उनका साथ देगा। उन्होंने औद्योगीकरण का भी पक्ष लिया और उद्योगों पर राष्ट्रीय नियंत्रण की बात कही। यह गांधी की नीति के विरुद्ध था। बात 23 जनवरी और 30 जनवरी की ही है, इन दो तारीखों में छह दिनों का नहीं इक्यावन साल का अन्तर है। अन्तर यह भी है कि 23 जनवरी जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है तो 30 जनवरी निधन की तारीख है। जन्म दिन का संबंध सुभाष बोस से है तो निधन तिथि महात्मा गांधी की शहादत से जुड़ी है। इन दो तारीखों के बीच ही 26 जनवरी पड़ती है, जिसे हम गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते है। इस दिन स्वतंत्र भारत का संविधान अंगीकृत किया गया था। उस गौरवशाली दिन पर इसके साक्षी बनने के लिए दोनों नेता नहीं थे। अक्सर गांधी और सुभाष के नामों को भारतीय राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों की तरह याद किया जाता है। हालांकि दोनों का लक्ष्य देश को विदेशी शासन से मुक्त कराना ही था। यह गैर-विवादित है कि दोनों में नजरिए का अन्तर था।
गांधी अपनी अंहिसा की थ्योरी पर बहुत गहरे धंसे थे और उनका समस्त चिन्तन अंहिसा और धर्म पर आधारित और प्रेरित था। उनके लिए लक्ष्य तक पहुंचने के लिए साधन की पवित्रता भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी कि साध्य। गांधी ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सद्भावना रखते थे। भारत में डोमिनियन स्टेटस के रूप में गांधी सीमित स्वतंत्रता के पक्षधर थे। इसके विपरीत सुभाष ब्रिटिश सत्ता का कोई अंश भारत में नहीं चाहते थे। सुभाष इसके लिए कोई भी रास्ता अपनाने के पक्षधर थे। इंग्लैण्ड में अरईसीएस की परीक्षा पास करने के बाद सुभाष ने मई 1921 में नौकरी छोड़ी और धधकती देशभक्ति लेकर भारत आए। देश के लिए उनके इस बलिदान ने उन्हें युवा पीढ़ी का नायक बना दिया था। सुभाष 6 जुलाई को बम्बई पहुंचे और इसी दिन दोपहर को मणिभवन में पहली बार उनकी गांधी से मुलाकात हुई। इस पहली मुलाकात में ही उन पर गांधी का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा।

गांधी के मन में भी सुभाष के प्रति सदैव शंकाएं रही। गांधी को लगता रहा कि सुभाष का अंहिसा में कोई विश्वास नहीं है। सन् 1928 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सुभाष की फौजी जनरल की वर्दी की गांधी ने निन्दा की थी। सुभाष की तुलना में गांधी ने नेहरू के अन्दर का लचीलापन और भावुक अस्थिरता देख ली थी और वे आश्वस्त हो गए थे कि नेहरू को धीरे-धीरे अपने अनुरूप ढाल लेंगे। यह सम्भावना गांधी को सुभाष के प्रति कभी नहीं दिखी। इसके विपरीत सुभाष अपने मार्क्‍सवादी तथा गांधी विरोधी विचारों में दृढ़ होते गए। सन् 1929 में गांधी ने जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया। नेहरू ने अध्यक्ष बनने पर अपनी कार्ययमिति में सुभाष को नहीं लिया। यह गांधी की सबसे बड़ी जीत थी। सन 1936 में कांग्रेस में वामपंथियों का भी एक प्रवाह तैयार हो गया था। कांग्रेस के भीतर ये सब वामपंथी संगठित हो रहे थे। इस प्रवाह को रोकने के लिए सुभाष ही सबसे उपयुक्त थे, उनका इन पर जबरदस्त प्रभाव था। गांधी ने मजबूरी में अध्यक्ष के लिये सुभाष का चयन किया। उन्होंने हरिपुरा अधिवेशन के एक माह पहले नवम्बर 1937 को सरदार पटेल को पत्र में लिखा- मैंने देखा कि सुभाष किसी भी तरह निर्भर करने योग्य नहीं है, फिर भी कोई दूसरा अध्यक्ष नहीं हो सकता है।

ध्यान देने की बात है कि सुभाष के जोर देने के बाद भी नेहरू ने उस वर्ष कांग्रेस का महामंत्री बनने से इंकार कर दिया। सुभाष के लिए सबसे बड़ा टकराव और चुनौती का एक बिन्दु सरदार पटेल भी थे। हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण अंग्रेज सरकार को संघर्ष और युद्ध की खुली चुनौती के रूप में था। सुभाष ने अपने इस भाषण में कांग्रेस की विदेश नीति पर कहा कि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन के विरोधी देशों से भारत अपनी आजादी के लिए ब्रिटेन के विरुद्ध उनका साथ देगा। उन्होंने औद्योगीकरण का भी पक्ष लिया और उद्योगों पर राष्ट्रीय नियंत्रण की बात कही। यह गांधी की नीति के विरुद्ध था। 1938 के अन्त तक गांधी और सुभाष के मध्य मतभेद बहुत गहरे हो गए थे। गांधी को सुभाष एक बड़ी चेतावनी के रूप में दिखने लगे थे, उन्होंने तय किया कि त्रिपुरी में होने वाले अधिवेशन का अध्यक्ष सुभाष को नहीं होना चाहिए। गांधी दूसरी बार सुभाष को कांग्रेस अध्यक्ष क्यों नहीं चाहते थे, इसका एक कारण के एम मुंशी की किताब पिलग्रिमेज में दर्ज है। मुंशी ने लिखा है कि जब वे बम्बई में कानून मंत्री थे तब केन्द्रीय गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट में उन्होंने पढ़ा था कि सुभाष कलकत्ता में जर्मन कांउसिल के सम्पर्क में थे और उसके साथ किसी व्यवस्था पर बातचीत कर रहे हैं। मुंशी ने लिखा है कि मैंने यह सूचना गांधी को दी थी और गांधी ने सुभाष के विरुद्ध यह कड़ा रुख अपनाया ।

सुभाष दूसरी बार अध्यक्ष बनना चाहते थे किन्तु गांधी ने इंकार कर दिया था। उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष के लिए अपना उम्मीदवार बनाया और सुभाष के मुकाबले पट्टाभि सीतारमैया चुनाव हार गए। इस हार को गांधी पचा नहीं सके। पट्टाभि सीतारमैया की हार को अपनी हार सार्वजनिक रूप से कह दी। सुभाष अध्यक्ष पद पर आ जरूर गए थे, किन्तु उन्होंने जो अपनी कार्यसमिति बनाई उसने उनका बहिष्कार कर दिया और अन्त में उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। तीन मई 1939 को सुभाष ने एक नए दल फारवर्ड ब्लॉक के गठन की घोषणा कर दी। यह कांग्रेस के अन्दर ही दूसरा मंच था। इसे जयप्रकाश, नरेन्द्र देव,पटेल, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद आदि ने कांग्रेस को कमजोर करने की कार्यवाही माना। सुभाष को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया। कुछ समय बाद द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। सुभाष ने देश छोड़ दिया और विदेश में भारत की आजादी के लिए जो किया वह सर्वविदित है।

सुभाष के प्रयासों की कितनी भूमिका भारत की आजादी में रही इसका आकलन तो इतिहास करेगा, पर देश की जनता के दिलों में सुभाष ने जो जगह बनाई, उसे अनुभव करने के लिए किसी इतिहास की जरूरत नहीं है। उस दौर में कांग्रेस और उसके कामकाज के अंत:पुर में जो तथा जैसा घट रहा था, उसकी तुलना महाभारत से की जा सकती है। कौन कब निष्ठाएं बदल रहा है, कौन फुसफुसाती संधियां कर रहा है तथा कौन चक्रव्यूह रच रहा है, स्पष्ट दिखाई देता है। संशय,अविश्वास, प्रतिबद्धता के कोहरे में साफ दिखता है कि सुभाष को सब तरफ से घेर कर, धीरे-धीरे निहत्था किया जाता रहा और वे अपनी असंदिग्ध देशभक्ति से ओत-प्रोत होकर चक्रव्यूहों के द्वार भेद नहीं पाए। उन्हें राजनीति में तनहाई की ओर लगातार धकेला गया।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Wednesday, January 23, 2013

खतरनाक हैं भारतीय टीवी न्‍यूज चैनल!

मुंबई से प्रकाशित साप्‍ताहिक इकोनॉमिक्‍स एंड पॉलिटिकल वीकली ने टीवी चैनलों के किसी मुद्दे पर हाइपर हो जाने पर कड़ा संपादकीय लिखा है. इस वीकली ने 26 जनवरी के अपने अंक में लिखा है कि टीवी चैनल जितने तेज हैं ये समाज के लिए उतने ही खतरनाक होते जा रहे हैं. वीकली लिखता है कि जिस तरह से पाकिस्‍तानी सैनिकों द्वारा एक भारतीय सैनिक का सर काट लिए जाने मामले में लगभग सभी टीवी चैनल एक दूसरे को मात देने के चक्‍कर में हाइपर हुए वो समाज के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है. नीचे साप्‍ताहिक में प्रकाशित संपादकीय.
“It has not just been the reporting of news but rather the sustained and well-planned build-up of a mass hysteria over the issue. It is not just one, or a few, channels which are guilty of this. With a few, and notable exceptions, television news channels and anchors have competed with each other to get people angry and hysterical.

“Stilted news, half-truths, outright falsehoods, a careful selection of “opinion makers” and “experts” who push hawkish positions and a shrill intemperate language have all been deployed each evening in a calculated move to ratchet up anger in the drawing rooms (and by extension, the “street”) and thus enhance viewership.

“In this particular context, the television channels have single-handedly built up a serious, yet minor, issue into a national hysteria. The parties and politicians of the right – from the Shiv Sena who collected a bunch of stragglers to attack Pakistani hockey players to leader of the opposition, Sushma Swaraj who demanded 10 Pakistani heads for the one soldier who was beheaded – merely took up the issue which was built up from scratch by these television channels.

“There are various reasons given for this behaviour of television news channels. These include the overcrowding of the television news space with more channels than are sustainable with the concomitant pressure on finances requiring increased advertisement revenues through higher viewership, which lead to the need to constantly create sensational news to lock in viewers.

“Television news channels are not only competing with each other for viewers but with general entertainment channels, sports channels and even non-television events as they try to get more eyeballs. Many of these pressures on television news are not unique to India and different media cultures have found solutions to this in ways that address their specific contexts. However, the Indian television media seems to have decided to use shrill chauvinism as a way out of this.

“The Kargil war of 1999 first illustrated the potential for such a business strategy but it was the terrorist attack on Mumbai in 2008 that finally seems to have convinced India’s television journalists of the profitability of rabid demagoguery. There is nothing inevitable about this business strategy and those who have initiated it and been its willing purveyors have to assume responsibility.

“As various people have already noted, by getting coerced by television news’ manufactured hysteria and sending back the Pakistani hockey players and postponing the agreement on visa-on-arrival for the elderly, the Government of India has allowed its foreign policy to be held hostage by Indian television media’s dangerous chauvinism.

“There is no easy way out of this dead end that we appear to have reached. Government regulation of media is dangerous and unacceptable, but equally so is a media that often outdoes India’s virulent right-wing in stoking xenophobia.

“Can we think of creative methods of oversight on the media which do not involve government or corporate influence? Or perhaps, should we reclassify television news channels as general entertainment (of the “Big Boss” reality television variety) and deal with it accordingly?”

Tuesday, January 22, 2013

तो फिर विन्ध्यप्रदेश क्यों नहीं!


तो क्या यह तय मान लिया जाए कि सरकार नजरों में वहीं मांगे जायज हैं, जिनको लेकर जनता सड़कों पर उतरे, आगजनी, नाकाबंदी कर कुछ लाशें बिछें, रेलगाड़ियां जलें सार्वजनिक भवन फूंके जाएं? पृथक तेलंगाना राज्य को लेकर बनी सहमति और विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय को लेकर उपेक्षा से ऐसे सवाल खड़े होना लाजमी हैं। हफ्ते-दो हफ्ते के भीतर देश में एक नए राज्य तेलंगाना का उदय होना तय है, जबकि विन्ध्यप्रदेश के निर्माण के लिये विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव की फाइल केन्द्रीय गृहमंत्रालय में धूल खा रही है।
केन्द्र के गृहमंत्रालय से जो खबरें आ रहीं हैं उसके अनुसार इसी महीने के अंतिम सप्ताह में किसी भी दिन तेलंगाना राज्य की घोषणा की जा सकती है। आन्ध्रप्रदेश के मुख्य सचिव व डीजीपी नए राज्य के फौरी मसौदों के साथ दिल्ली में है। इससे पहले 28 दिसम्बर को गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने दिल्ली में सर्वदलीय बैठक के बाद कहा था कि तेलंगाना मुद्दे पर एक महीने के भीतर फैसला ले लिया जाएगा। तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने का मुद्दा आजादी के बाद से ही उठता रहा है। धुर तेलगूभाषियों का यह क्षेत्र आन्ध्र के 23 में से 10 जिलों में फैला है और प्रदेश की 294 में से 119 विधानसभा सीटें इसी क्षेत्र में हैं। पृथक तेलंगाना को लेकर अब तक कई हिंसक प्रदर्शन हुए, अरबों की सम्पत्ति स्वाहा हुई, गोलियां चलीं और कुछेक ने आत्मदाह भी किया अब यह पूरी तरह से तेलगू स्वाभिमान का भावनात्मक मुद्दा बन चुका है अतएव कोई भी राजनीतिक दल इसे भुनाने में पीछे नहीं रहना चाहता। दरअसल तेलंगाना का मुद्दा कांग्रेस के लिये राजनीतिक नासूर बन चुका है, यदि उसे दक्षिण की राजनीति में अपनी जड़ें जमाए रखना है तो इस भावनात्मक मुद्दे को अपने पक्ष में मोड़ना होगा। राजशेखर रेड्डी की मौत और उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी की बगावत के बाद कांग्रेस की स्थिति वैसे भी खराब है। इसलिये कुछ ऐसी व्यूह रचना की गई है ताकि यह संदेश जाए कि नया राज्य कांग्रेस नेतृत्व की सदाशयता का प्रतिफल है। दरअसल नए राज्यों के गठन को लेकर केन्द्र सरकार का रवैय्या निहायत अव्यवहारिक रहा है। ऐसे कोई मापदण्ड तय नहीं किए गए जिसके आधार पर यह साबित किया जा सके कि नए राज्यों की जरूरत इसलिए है! सिर्फ जनभावनाओं के ज्वार और अपनी राजनीतिक अनुकूलता को आधार बनाया गया। वर्ष 2000 जब उत्तराखण्ड-झरखण्ड और छत्तीसगढ़ को भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने मंजूरी दी तब भाजपा के वरिष्ठ नेता (चार बार भोपाल से सांसद रहे) व पूर्व नौकरशाह सुशील चन्द्र वर्मा ने आहत मन से वक्तव्य दिया था कि पहला हक विन्ध्यप्रदेश का बनता है, विन्ध्यवासियों के साथ छल किया गया। श्री वर्मा प्रशासनिक अधिकारी के रूप में विन्ध्यप्रदेश की राजधानी रीवा में पदस्थ थे। विन्ध्यप्रदेश के विलीनीकरण के पूर्व सरकार ने प्रदेश की आर्थिक क्षमता समेत जिन क्षेत्रों के सव्रेक्षण करवाए थे उन सबके निष्कर्ष में ये बात सामने आयी कि विन्ध्य प्रदेश की क्षमता शेष मध्यप्रदेश से बेहतर है। विन्ध्यप्रदेश की पहली निर्वाचित विधानसभा के सदस्य रहे और अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्रीनिवास तिवारी ने विलीनीकरण के विरोध में सात घंटे का ऐतिहासिक भाषण दिया था और एक-एक तथ्य सामने रखे थे।
विलीनीकरण के विरोध में हुआ बड़ा आन्दोलन भी केन्द्र की साजिश को रोक नहीं पाया। और यह कहते हुए कि छोटे राज्यों का भविष्य सुरक्षित नहीं है विन्ध्यप्रदेश को मध्यप्रदेश में शामिल कर दिया गया।
यद्यपि विन्ध्यप्रदेश तब भी कई समकालीन राज्यों के मुकाबले विस्तृत व सक्षम था। 23.603 वर्गमील फैला यह राज्य अपने उन 35 रियासतों को समेटे था। 4 अप्रैल 1948 को आस्तित्व में आने के बाद प्रशासनिक रूप से दो संभागों व आठ जिलों में बांटा गया।
तब की जनसंख्या व मतदाताओं के हिसाब से 60 विधानसभा क्षेत्र व 4 लोकसभा क्षेत्र थे। सन् 50 में विन्ध्यप्रदेश को केन्द्र शासित बनाने की पहल हुई थी। उसी के विरोध में हुए आन्दोलन में गंगा-अजीज और चिन्ताली शहीद हुए थे। समाजवादियों का यह नारा ‘‘लाठी गोली खाएंगे, धारासभा बनाएंगे’’ कामयाब रहा। विन्ध्यप्रदेश को नया रूप मिला व मार्च 1952 में पहला चुनाव हुआ। फलते फूलते विन्ध्य प्रदेश के कत्लेआम के पीछे तब के कांग्रेसी नेतृत्व की साम्राज्यवादी व सामंती सोच की भीषण साजिश थी। केरल में नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सत्ता में आ चुके थे। कांग्रेस नेतृत्व को भय था कि विन्ध्य प्रदेश में जिस ताकत के साथ समाजवादी उभर रहे हैं उसके चलते यह प्रदेश भी उनके हाथ से चला जाएगा।
यह बात सही है कि विन्ध्यप्रदेश के निर्माण के लिए अब तक तेलंगाना या छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड जैसे तीव्र आन्दोलन नहीं हुए, लेकिन यह भी सही है कि विन्ध्यप्रदेश की लालसा विन्ध्यवासियों के दिलों में कहीं न कहीं अब तक जीवंत है। 10 मार्च 2000 को मध्यप्रदेश की विधानसभा में तत्कालीन विधायक शिवमोहन सिंह ने विन्ध्यप्रदेश के गठन का अशासकीय संकल्प प्रस्तुत किया। यह संकल्प सर्वसम्मति से पारित होकर कार्रवाई हेतु केन्द्र सरकार के गृहमंत्रालय भेज दिया गया।
तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने तब के रीवा के सांसद सुन्दरलाल तिवारी के एक सवाल के जवाब में यह स्वीकार किया कि मध्यप्रदेश की विधानसभा से जो प्रस्ताव आया है उसके विविध पहलुओं की जांच करवाई जा रही है। 2004 तक एनडीए सरकार इस फाइल को दबाए बैठे रही, इसके बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार आई। दुर्भाग्य है कि हमारे विन्ध्य क्षेत्र के सांसदों ने इस क्षेत्र में कोई पहल नहीं की। प्रदेश में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायकों को भी इसकी चिन्ता नहीं।
प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए तो विन्ध्य क्षेत्र नया ठिकाना है, सो वह इसे मध्यप्रदेश से क्यों अलग होने देना चाहेगी। असली सवाल यह है कि हम पृथक विन्ध्यप्रदेश की बात क्यों करें? इसके आसान से जवाब हैं। विन्ध्यप्रदेश को यह तर्क देते हुए तोड़ा गया था कि छोटे राज्य व्यवहारिक नहीं है। झरखण्ड-छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड के उदय के बाद यह तर्क गर्त में चला गया।
विन्ध्यप्रदेश को एक नए राज्य का स्वमेव नैसर्गिक अधिकार मिल जाता है। दूसरे छत्तीसगढ़ की बात करें तो मध्यप्रदेश के मुकाबले वह तेजी से विकास कर रहा है। हर क्षेत्र में उसके तरक्की की रफ्तार मध्यप्रदेश से आगे है। वहां के नागरिकों का जीवन व क्षेत्र का विकास काफी बेहतर हुआ है। आज वहां शिक्षा व स्वास्थ्य के सभी राष्ट्रीय संस्थान है, जो नहीं हैं वो खुलने जा रहे हैं।
एक नए राज्य के तौर पर विन्ध्यप्रदेश देश के अन्य राज्यों को काफी पीछे छोड़ने की कूव्वत रखता है। ऊर्जा व सीमेंट के उत्पादन मे ंयह क्षेत्र आज भी देशभर में सवरेपरि है। खनिज व वन संसाधन, इस प्रदेश की तरक्की में चार चांद लगाएंगे। कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व के लिए यह अच्छा अवसर है कि तेलगांना के साथ ही विन्ध्यप्रदेश के गठन की प्रक्रिया शुरु करें, कांग्रेस के लिए इससे बढ़िया पुण्यात्मक प्रायाश्चित कुछ हो ही नहीं सकता।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

Friday, January 18, 2013

सहज पकै सो मीठा

चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
वे उस दिन बहुत खुश थे, अपनी खुशी बांटने के लिए मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। नव वर्ष का प्रथम दिन था। मैंने उनके चेहरे की चमक देख नव वर्ष की औपचारिक बधाई दी। वे मारे खुशी के गले लग गए, बोले- आज मैं आनंद के चरम पर हूं, मैंने उत्सुकता जाहिर की। बोले-"सुबह-सुबह उदास बैठा था कि बहुत पुराने मित्र का फोन आया, बधाई दी, नव वर्ष के लिए मंगल कामना की।" मैंने कहा -यार, अब तो पका फल हूं, कब टपक पड़ूं, क्या मंगल, क्या अमंगल। उसने कहा- नहीं सर! पके फल में ही सबसे अधिक स्वाद होता है। तब से मैं इसके निहितार्थ में लगा हूं, पके फल की मिठास और खुशबू की अनुभूति तुमसे शेयर करना चाहता हूं। मंगल कामनाएं ही जीने की उम्र बढ़ा देती हैं। कुछ लोग तो बचपन में ही बुढ़ा जाते हैं, कुछ जवानी में ही, यह कहते हुए कि यह संसार मिथ्या है, यहां कोई किसी का नहीं। परंतु कुछ वृद्ध ऐसे भी हैं जो तन से भले ही अशक्त हों, मन और आत्मा से वे किसी भी युवा से कम नहीं। जो यह मानकर चलते हैं कि सब कुछ यहीं, इसी संसार में ही है, इसे ही सुन्दरतम बनाना है। महाश्वेता, मेघा पाटेकर, अरुधंती राय की वृद्धताओं के सौंदर्य के सामने, हजार मिस यूनिवर्स पानी भरें। इनका सौंदर्य, इनके कर्म और प्रकृति का है। इनका मेकअप नैसर्गिक है किसी ब्यूटीशियन द्वारा लिपा पुता नहीं। प्रतिपदा से बढ़ते चंद्रमा का सौंदर्य पूर्णिमा को चरम पर होकर वृद्धता के प्रथम चरण में भी होता है। प्रकारांतर में कहीं तो पूर्णिमा का चांद वृद्ध चांद ही होता है। उसका सौंदर्य शरद के महारास की खुशबू बिखेरता है।

गुरुनानक ने बहुत पहले कहा था- "सहज पकै सो मीठा।" कच्चे फल को कृत्रिम तरीके से पकाने की पुरानी परम्परा है। शहरों में कार्बाइड से पके फलों में वह स्वाद कहां जो पेड़ में पके फलों में। चाहे वे आम हों, अमरूद और बेर, और अन्य फलों की बात ही क्या, फूट (ककड़ी) के स्वाभाविक रूप से टहनी पर ही फूटने की महक दूर तक फैलती है। इस पकने का भौतिक और आध्यात्मिक महत्व भी है। कबीर भी सहज समाधि को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। असहज अर्थात कृत्रिम, बनावटी में अपनापन नहीं, मिठास नहीं। विचार और आचरण का मूल्यांकन, प्रौढ़ता ही करती है। किसी वृद्ध को यदि वृद्ध कह दिया जाए तो उसे बुरा लगता है। अपने यहां वृद्धता, व्यर्थता बोध का अहसास कराती है। यह अहसास मृत्यु की ओर ले जाता है। अमर्ष का भाव पैदा करता है, चिढ़ाता है। मित्रों के साथ, तमाम शारीरिक वृद्धता के बाद भी हंसना-बोलना ऊर्जा देता है। अपने को अशक्त मानना और दूसरे को बीमार कहना दोनों अलग हैं। व्यर्थता-बोध आत्मघाती होता है चाहे यह युवा का हो या वृद्ध का, क्योंकि इसका संबंध मन से है। मन की वृद्धता से हरेक को बचना चाहिए। पके फल का सौंदर्य दर्शकों की आंखों में चमक पैदा करता है। पके आम के फल को रिमही में "शाह" और "मरई" कहते हैं। शाह का अर्थ बादशाह है, पका फल बादशाह है। जीवन तंतु से वह इतना जुड़ा रहता है कि जल्दी टपकना नहीं चाहता, पके फल पर झुर्रियां आने को मरई कहते हैं, जो मरने के करीब होता है, और तब ढेंप भी सूखकर फल को अपनी टहनी से मुक्त कर देता है।

वृद्धता को परिपक्वता भी कहते हैं, जिसमें पक्व जुड़ा है। उम्र की इस पूर्णता में थकान नहीं होती। महात्मा गांधी ने सत्तर वर्ष से अधिक उम्र में "करो या मरो" और "अंग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दिया, और यही से वे राष्ट्रपिता और सर्वमान्य हुए। जयप्रकाश नारायण का "सम्पूर्ण क्रांति" युवाओं के लिए एक वृद्ध का ही संदेश था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बिनोवा भावे, सुन्दरलाल बहुगुणा की वृद्धता, युवाओं को कर्म और सौंदर्य का अहसास दिलाती रहेगी। महाभारत की भरी सभा में द्रोपदी की आशा जुआरियों से खत्म हो चुकी थी, तब उसने पितामह, कृपाचार्य और द्रोण की तरफ ही आशा भरी दृष्टि से देखा था, परंतु वे सभी वृद्ध विवश और अवश थे। शास्त्र कहते हैं कि वह सभा सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों, और वे वृद्ध, वृद्ध नहीं है जो धर्म की बात नहीं कहते। सभा और वृद्धता को धर्म से जोड़ने की परिकल्पना सिर्फ भारतीय मनीषा में है। लोक में एक कथा प्रचलित है कि विवाह तय होने पर लड़की वालों ने लड़के वालों से कहा कि बाराती सभी युवा और सुन्दर हों, वृद्धों को बारात में लाने की कोई जरूरत नहीं। बच्चे और युवा बहुत खुश थे कि कोई टोकने वाला वृद्ध तो नहीं है। बड़ा मजा आएगा। एक वृद्ध ने कहा कि जरूरी इसमें कोई चाल है। ऐसा करो कि किसी वृद्ध को झंपी (बड़ी टोकरी) में लेते जाओ। बाराती मान गए और गांव के सबसे बुजुर्ग को झंपी में ले गए। घराती बहुत खुश कि बारात तो ठीक है। स्वागत सत्कार के बाद विवाह की परम्परा शुरु हुई। कुछ आवश्यक परम्पराओं की जानकारी बारातियों को बिल्कुल नहीं थी। घराती नाराज हुए, उन्होंने बिना विवाह के बारात लौटाने की बात कह दी। बाराती परेशान। झंपी के पास पहुंचकर बारातियों ने बुजुर्ग से बात की, उन्होंने प्रक्रिया बताई। घराती खुश तो हुए परंतु उन्होंने पूछा की तुम लोगों के तो अकल थी नहीं, कहां से प्रक्रिया की जानकारी ली, जरूर बारात में कोई वृद्ध है। तलाशी ली गई बुजुर्ग बाहर आए उन्होंने कहा- "मैं जानता था कि घराती, बारातियों के बुद्धि की परीक्षा लेना चाहते हैं। इसलिए मैं छिपकर आया।" तब से गांवों में यह लोकोक्ति बनी कि "वृद्ध को झंपी में" अर्थात सहेज कर और सिर पर लेकर चलना चाहिए। झंपी को सिर पर ही लेकर चलने की परम्परा है क्योंकि सगुन के सारे सामान उसी में होते थे। वृद्ध सगुन हैं लोक में।

अशोक, कलिंग युद्ध के कारण देवनामप्रिय नहीं हुआ। बौद्ध बनने के समय उसकी उम्र वृद्धता की थी। अपने बुद्धि चातुर्य के बल पर ही अकबर महान हुआ, उन दिनों वह युवा नहीं था। युवा निर्णयों में ओज और उत्साह होता है, अक्सर विवेक शून्यता रहती है। रामायण और महाभारत की रचना वयोवृद्ध और ज्ञान वृद्धता के कारण ही सम्भव हो सकी। "मानस" की सम्पाती शरीर से अशक्त है। अपनी कंदरा से सीता को अशोक वाटिका में बैठी देख रहा है। अपनी वृद्धता से क्षुब्ध है। कहता है - "बूढ़ भएउ, न त करतेंउ, कछुक सहाय तुम्हार" जबकि वृद्ध होते हुए भी जटायु रावण से भिड़कर, चोंच मार मार कर घायल कर देता है। मेघनाद ने जाम्बवात को वृद्ध मानकर छोड़ दिया था, लेकिन जाम्बवान ने उस महायोद्धा को टांग पकड़कर घुमाकर, रणक्षेत्र से सीधे लंका फेंक दिया था। युवा, बच्चों को वृद्धों के साथ खेलने दें तो पके फल सा स्वाद और खुशबू बिखेरते रहेंगे। अन्यथा उनके टपकने के दिन ही हैं, उसमें दुख मनाने की कोई बात नहीं।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।

दीवालों से न दरवाजों से घर बनता है घरवालों से


चिन्तामणि मिश्र
मकान सब के होते हैं। कोई खुद के मकान में रहता है तो कोई किराए के मकान में रहता है। कुछ लोगों के मकान आधुनिक तकनीक से पक्के होते हैं और कुछ के मकान कच्चे और खपरैल वाले होते हैं। देश में बहुत बड़ी आबादी झुग्गी झोपड़ी में रहती है। इसके निवासी अपने इस आशियाने को भी मकान ही कहते हैं। बहुत से ऐसे भी भाग्यशाली होते हैं, जिनके कई मंजिल के मकान में सैकड़ों कमरे होते हैं। मकानों की एक किस्म बंगलों और कोठियों के नाम से भी पुकारी जाती है। सन् 1947 तक जो शासक बिरादरी किलों, कोठियों और गढ़ी में रहती थी, अब उन्हीं की संशोधित शासक बिरादरी कोठी और बंगलों में ही रह रही है। पुराने शासकों को नए शासकों ने जब से घर-बाहर किया है, तभी से किला और गढ़ी देख-भाल के अभाव में जर्जर हो कर धराशाही होने की कगार पर आ गए। कुछ में होटल खुल गए। सरकारी नौकरशाही के निवास का नामकरण थोड़ा विचित्र है। हमारे भूतपूर्व अंग्रेज मालिकों ने अपने वेतन भोगियों की जो जाति निर्धारित की थी, उसके अनुसार इनके निवास-स्थान का नामकरण होता है। तहसीलदार के सरकारी आवास को बंगला कहा जाएगा और इसी के बगल में इतने ही भूखन्ड में, इतने ही कमरों और बरामदे होने पर भी इसे क्वाटर का नाम दिया जाएगा, क्योंकि इसमें क्लर्क रहता है।

मकान जिन्दगी गुजारने की शरणस्थली होते हैं। इस बात से मकान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि कुछ लोग मकानों में सारी उम्र अशान्त, तनाव, कुंठा, अलगाव, क्रोध, धमंड, अहंकार और भय को बदंरिया के मरे बच्चे की तरह अपनी छाती में चिपकाए हुए गुजार देते हैं। हर मनुष्य के मन में बस एक ही ललक होती है कि किसी तरह उसका भी एक घर हो जाए। वैसे हर आदमी की इच्छा होती है कि उसका मकान, घर की तरह हो। लेकिन घर बनाने के लिए जो बुनियादी चीज परम जरूरी है उस पर कभी कोई ध्यान ही नहीं देता है। लोग सारी जिन्दगी भौतिक और विलासता की महंगी से महंगी चीजें मकान में एकत्र करते रहते हैं सुख सुविधा का ढेर लगा देते हैं, किन्तु घर नहीं बना पाते। घर को लेकर हर कोई सपनें देखता है। सन्यासी, साधु, बाबा, महात्मा भी घर बनाने और उसे सजाने में जुटे हैं। यह अलग बात है कि अपने इन मकानों को आश्रम, मठ, अखाड़ा और मंदिर का नाम देकर गृहस्थ से खुद को अलग दिखा कर दिखावा कर रहे हैं। अब वह समय नहीं रहा जब सन्यासी-बाबा खुले आसमान या पेड़ के नीचे रहते थे और महाराजा जनक दशरथ से लेकर सिकन्दर-अशोक जैसे प्रबल प्रतापी सम्राट मिलने के लिए हाथ बांधे वहां खड़े होते थे। जंगलों में पहाड़ों की गुफा में रहने के भी दिन बीत गए। वह नगर और महानगर आबाद करता है। भीमकाय और गगनचुम्बी पक्के, मजबूत मकान बना कर रहने लगा है। कंक्रीट की उगाई मीनारों में माचिस की डिब्बी जैसे फ्लैट नाम की आधुनिक गुफाओं में धरती और आकाश के बीच टंगा हुआ "स्वीट होम" का कीर्तन कर रहा है।

आज लोगों के अपने घरों में बेहद कीमती पत्थर, टाइल्स, विदेशी सेनेटरी सामग्री लाखों का फर्नीचर सपनों वाला शयनकक्ष और किचन हैं। टॉयलेट और बाथरूम देख कर हमारे जैसे चिरकुटों को तो लगने लगता है कि यहीं पसर कर सो जाए। ऐसे मकानों में जा कर मैं सोचने लगता हूं कि क्यों इतना रुपया खुद अपने लिए जेल का निर्माण कराने के लिए खर्च किया है? खिड़की, रौशनदान, बालकनी, बरामदें होते हैं, किन्तु सभी में लोहे की मोटी छड़ों का ऐसा जाल लगा होता है कि चिड़ियों का भी प्रवेश असम्भव है। पूरी दुनिया से कट कर हम अपनी ही बनाई गुफा में समा जाते हैं। पहले के ऋषि-मुनि पूरे जगत से कट कर ध्यान "समाधि" लगाते थे आज हम काल्पनिक भय के मारे बन्दी बन कर जी रहे हैं। इन घरों में से खुला आसमान भी नहीं दिखता है, क्योंकि एसी ने उसे भी छीन लिया है।

आधुनिकता की चूहा दौड़ में आंगन और बरामदें वाले घरों का समय हमने विदा कर दिया है। स्वाभाविक खुलापन उपलब्ध नहीं है। लोग मुहल्ला छोड़कर कालोनियों में रहने लगे हैं। मुहल्लेदारी हमारी सामाजिकता की पहली सीढ़ी थी। अब फ़्लैट ने सब काट दिया है। हर फ्लैट का द्वार हमेशा बन्द रहता है। किसी का किसी से कोई संवाद नहीं है। बाहर से काम करके आइए और अपने फ्लैट में समा जाइए। अगल-बगल और आमने-सामने रह कर भी लोग वर्षो अबोले रहे आते हैं। संवाद की स्थिति कभी नहीं बनती। सामाजिकता के लिए कोई जगह नहीं बचती। हालांकि नएपन या अजनबीपन को विर्सजित करने का पहला चरण है संवाद। आज के मकानों में भौतिक सुखसुविधा तो भरपूर है किन्तु सामाजिकता के लिए कोई जगह नहीं है। सरोकार से कट जाना ही नियति बन गई है। इन आधुनिक मकानों में आपसी प्रेम, आपसी सहकार, स्नेह, आदर के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। एक छत के नीचे कई लोग रहते हैं किन्तु सभी में विचित्र प्रकार का अबोला है। किचन तो एक ही होता है, किन्तु लंच और डिनर एक साथ बैठकर खाना अंतिम बार कब खाया था किसी को याद नहीं है। मकानों में होटल की तरह लोग बाहर से आते हैं और अपने कमरें में चले जाते हैं, यदि घर में बुजुर्ग हैं तो उनके पास बैठने और उनसे बात करना किसी को नहीं सूझता।

पैसा होने पर कोठिया बंगले, फ्लैट आदि बनाए जा सकते हैं किन्तु घर बनाने के लिए धन नहीं मन की जरूरत है। माना कि आज उपभोगतावाद की कुत्ता दौड़ ने आदमी को यांत्रिक मानव बना दिया है, किन्तु कुछ पल ऐसे तो निकाले ही जा सकते हैं जिसमें आदमी शान्ति से अपनों के बीच अपनों के लिए जी सके। मकान को घर में बदलने के लिए कुछ भी खर्च नहीं करना होता है। मन से अंहकारी ऐंठन और स्वार्थ की भावना से पिन्ड छुड़ाने की जरूरत है। अजनबीपन की आदत ने आज हर आदमी को तनाव, भय, अविश्वास, अधैर्य, लालच की पठौनी दे कर कुंठित कर रखा है। हमारे पुरखे मकान नहीं घर बनाते थे। उनकी धारणा थी कि घर में पांच तत्व का होना जरूरी है। वह आरोग्यवर्धक हो, समृद्धिवर्धक हो, सस्ता हो, पर्यावरण से तालमेल वाला और सामाजिक हो तथा शांति प्रदाता हो। आजकल के मकान भूखे हैं। समृद्धिवर्धक नहीं है, उनकी भूख मिटाने के लिए अतिरिक्त सामान की आवश्यकता बराबर पड़ती रहती है। वे सामाजिक भी नहीं होते। अनजान तो क्या जान-पहचान के व्यक्ति का भी मकान स्वागत करता प्रतीत नहीं होता, झिझक सी बनी रहती है।  पर्यावरण से भी तालमेल नगण्य प्राय: है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Monday, January 14, 2013

ये सब्र का बाँध किस कंक्रीट का बना है


कल सपने में इन्दिराजी दिखी थीं। रक्षा मंत्रालय के वाँर रूम में  स्पात से दमकते चेहरे के साथ युद्ध का संचालन करते हुए। दृश्य 1971 के युद्ध के दिख रहे थे। ढाका में पाकिस्तान का जनरल नियाजी अपने 93 हजार पाकी फौजियों के साथ ले.जनरल जेएस अरोरा के सामने घुटने टेके हुए गिड़गिड़ाता हुआ। इधर गड़गड़ाती तोपों के साथ लाहौर और रावलपिन्डी तक धड़धड़ाकर घुसते टैंक। आसमान से बमवर्षक जेटों की चीख और धूल-गदरे-गुबार से ढंका हुआ पाकिस्तान का वजूद। मेरे जैसे करोड़ों लोगों को आज निश्चित ही इन्दिराजी याद आती होंगी जिन्होंने देश के स्वाभिमान के साथ कभी समझोता नहीं किया। पाकिस्तानियों ने सरहद से हमारे दो जवानों का सिर ही नहीं काटा वरन् इन्दिराजी ने भारतीय शौर्य की जो प्राण प्रतिष्ठा की थी वे उसकी नाक भी काट ले गए हैं।
सुधाकर और हेमराज जो राजपूताना रायफल्स के जवान थे, आज उनके साथी रक्त के आंसू बहा रहे हैं। हेमराज का परिवार भूख हड़ताल पर है कि मेरे बेटे का सिर तलाश कर लाइए। सेना का गुस्सा उबल रहा है। आज हमारी पलटन में घुटनों पर दिमाग रखने वाले जवान नहीं हैं। वे बीए, एमए, एमएससी की डिग्रियों के साथ सेना में भर्ती हो रहे हैं, मिलिट्री के अनुशासन के दायरे में भी वे विवेकवान और संवेदनशील हैं। देश का भला बुरा सोचते हैं। पिछली मर्तबे जब पार्लियामेंट में पाक आतंकवादियों ने हमला किया था तब भी सेना गुस्से में थी और सीमा की ओर कूंच करने के निर्देश मिले थे। पर तब शांति के अग्रदूत अटलबिहारी वाजपेई के सब्र का बाँध छलकता रहा, फूटा नहीं। अक्षरधाम में अटैक हुआ, जेके एसंबली पर हमला हुआ और अन्तत: देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई में हमला बोला गया। एनडीए के बाद यूपीए की सरकार आई और सब्र का बाँध छलकता ही रहा फूटा नहीं।
आज देश पूछता है कि तुम्हारे सब्र का बाँध किस कंक्रीट का बना है, इसके फूटने की मियाद तो बता दीजिए, क्योंकि अब स्थितियां बर्दाश्त से बाहर हो चुकी हैं।
टीवी स्टूडियो में टाई और स्नो-पाउडर लगाकर देश की रक्षा व सुरक्षा का विश्लेषण व भावी खतरे का आंकलन करने वाले ये कथित रक्षा विशेषज्ञ, जब देखो तब संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर और युद्ध के अंतर्राष्ट्रीय नियमों का बखान करते रहते हैं।
क्या अमेरिका के लिए ये नियम लागू नहीं, जो अपने एक दुश्मन को मारने के लिए सौ पाकिस्तानियों की लाश बिछा देता है।
जिसके ड्रोन विमानों के लिए कोई एलओसी, कोई सीमा रेखा नहीं। उसके शील कमान्डो एटबाबाद में हवा से उतरते हैं और उसामा बिन लादेन का खेल खत्म कर उसकी लाश महासागर की अनंत गहराइयों में गाड़ देते हैं। चीन ने हमारे बड़े भू-भाग पर कब्जा जमा रखा है। रोज अरुणाचल प्रदेश व तिब्बत में कोई न कोई खुराफात करता रहता है। क्या इनके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर और अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध नियम नहीं है। अरे हमें तो इजराइल से सबक लेना चाहिए। हमास के मन्सूबों को हर बार मिट्टी में मिला देने वाले इजराइल के राष्ट्रपति कहते हैं कि जब तक एक भी इजराइली अपने आपको असुरक्षित महसूस करता है तब तक दुनिया की परवाह किए बगैर हमले जारी रखेंगे। युद्ध का यही सार्वभौमिक नियम है ‘हमला ही बचाव का सबसे बेहतर तरीका है।’ सांप से दोस्ती नहीं हो सकती। वह मौका मिलते ही डसेगा। पाकिस्तान 1948 में कबिलियाइयों को आगे रखकर युद्ध छेड़ा। फिर 1965 में अकारण हमले किए सन् 71 की कथा तो सभी को पता है। इधर कारगिल तो विश्वासघात की पराकाष्ठा था। हम यहां से अमन के पैगाम के साथ बस भेजते हैं वह बदले में आतंकियों के वेश में फौजियों को रवाना करता है। क्या दुनिया के सारे नियम कानून हमारे लिए ही बने हैं? कब तक संयुक्त राष्ट्र के आज्ञाकारी शिष्य बनकर ऐसे ही नाक कटाते रहेंगे, पिटते रहेंगे, अपने जवानों के सिर कटाते रहेंगे? और बार-बार उन्हें बुलाकर आगरा में बिरियानी खिलाते रहेंगे, अजमेर में चादर चढ़वाते रहेंगे। सांप को वश में करना है तो उसके विषदंत को तोड़ दीजिए, इसके बाद भी फुफकारे तो कुचल दीजिए, समूचा देश यही चाहता है।
देश यह भी जानता है कि पाकिस्तान के पास एटम बम है और वह उसका इस्तेमाल कर सकता है पर अब तक हम भी एटम बम बनाकर दो परीक्षण किए अग्नि, पृथ्वी, आकाश और न जाने कौन-कौन से विध्वंसक हथियारों का जखीरा जमा करके उस पर भय नहीं बना पाए तो इस जखीरे को समुद्र में तिरोहित कर देना चाहिए और हमारे नीति नियंताओं को पाकिस्तान के आगे जाकर उसी तरह गिड़गिड़ाना चाहिए जैसे ढाका में नियाजी अरोरा के सामने गिड़गिड़ाए थे। दरअसल आम देशवासी राष्ट्रीय स्वाभिमान की शर्त पर मर-मिटने का जज्बा रखता है लेकिन मुश्किल यह है कि अपने सबल भारत की कमान डरपोक इन्डियन्स के हाथों में है। लौह कवच में रहने वाले ये डरपोक इन्डियन्स इन स्थितियों के निर्मित होते ही अपनी पीढ़ियों, धन-दौलत, विदेशी बैलेंस और कारपोरेट में फंसी पूंजी को लेकर चिंतित हो जाते हैं क्योंकि उन्हें मालुम है कि एटम बम के विध्वंसक र्छे उनके व उनके परिजनों के जिस्म पर भी धंसेंगे।
आम हिन्दुस्तानी को मौत का डर नहीं क्योंकि जब राष्ट्र रहेगा उसका स्वाभिमान बना रहेगा तभी जीने का मतलब है।
उसे संयुक्त राष्ट्र संघ के नियम कानूनों की कोई परवाह नहीं। वह चाहता कि देश एक बार दुश्मन को तरीके से सबक सिखा दे।
इतिहास में जाकर देखिए अमेरिका हमेशा ही दुनिया के किसी न किसी कोने में युद्धरत रहा है। वियतनाम से लेकर अफगानिस्तान तक लाखों अमेरिकी सैनिकों ने अपने राष्ट्र की गरिमा को दुनिया में स्थापित रखने के लिए अपनी शहादतें दीं।
ईराक में भी मरे और अब अफगानिस्तान में भी मर रहे हैं पर युद्ध जारी है। हम युद्ध से क्यों डरते हैं? यही एक ऐसा तत्व है जो राष्ट्रीय भावना को प्रबल बनाता है। यह देश की कई आंतरिक बीमारियों का भी इलाज है। पाकिस्तान ऐसी चेष्ठा क्यों करता है, क्योंकि उसे मालुम है कि दुश्मन भारत और उस पर हमले की तैयारी ही पाकिस्तान को बचाए रख सकती है।
आज पाकिस्तान के कई प्रान्तों में अलगाववादी आन्दोलन चल रहे हैं। बलूचिस्तान, पख्तूनिस्तान, सिंध सभी अलग देश के रूप में उदित होना चाहते हैं। इन स्थितियों के चलते इन्दिराजी का बार-बार स्मरण हो आता है, यदि वे आज होतीं तो विश्व बिरादरी की चिन्ता किए बगैर फौज भेजकर पाकिस्तान को उसी तरह चार टुकड़ों में फाड़ देतीं जैसा कि सन् 71 में किया गया। क्या यूपीए या कांग्रेस को इन्दिराजी की विरासत संभालने का हक बचा है? इसका उत्तर आप पर छोड़ता हूं।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208 

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Sunday, January 6, 2013

कहि न जाए का कहिए


 अमेरिका की एक चौंकाने वाली घटना की खबर पढ़ी। संभव है आपके नजरों से भी गुजरी हो। खबर यह थी कि एक पति ने अपनी पत्‍नी को ..गैंगरेप.. का गिफ्ट दिया। पकड़े जाने के बाद उसने अदालत से कहा कि उसकी पत्‍नी अक्सर उससे ..बलात्कार.. के रोमांच के बारे में चर्चा किया करती थी।
मुङो महसूस हुआ कि यह रोमांच उसके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश है। पत्‍नी ने अदालत में इस वाकए की तस्दीक की।
अभी नेवादा (एक अमेरिकी प्रान्त) के एक सिनेटर की राय न्यूयार्क टाइम्स में छपी कि यदि देश में वैश्यावृत्ति को कानूनी तौर पर निगमीकृत कर दिया जाए तो उससे प्राप्त होने वाले टैक्स की रकम से आर्थिक मंदी से राहत पा सकते हैं। यह अमेरिका बिल क्लिंटन और मोनिका लेवस्की का देश है, जहां का राष्ट्रपति ..वियाग्रा.. की लांचिंग के पहले खुद को प्ले ब्वाय मॉडल के तौर पर पेश करने में भी नहीं हिचकता क्योंकि उसके देश को दुनिया की खरबों की सेक्स व पोर्न इन्डस्ट्री में लॉयन शेयर (बड़ा हिस्सा) चाहिए।
अमेरिका के इन उदाहरणों के साथ बात इसलिए शुरू की क्योंकि यह उसकी उस उदात्त संस्कृति का नमूना है, जिस उदात्त संस्कृति की ओर हम नव उदारीकरण के बाद तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। यह देश हमारे नीति-नियंताओं के लिए न सिर्फ आर्थिक और सामरिक क्षेत्र का प्रेरणास्नेत व तारणहार है अपितु उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना की ओर भी हम ललचाई नजर से देखते हैं और वैसा ही हो जाना चाहते हैं। मुश्किल यह है कि जब हम किसी संकट में फंसते हैं तो अपनी भारतीय संस्कृति का पीतांबर ओढ़ने की चेष्टा करते हैं और पुरातन मूल्यों की दुहाई देने लगते हैं। क्या हमें उन कारणों की ओर नहीं जाना चाहिए जिनकी वजह से दिल्ली के दुराचारियों की नस्लें और फसलें पलती-बढ़ती और फलती-फूलती हैं। दिल्ली के दुराचारी तो दस में से एक हैं। शेष नौ तो हमारे अपने हैं, जो घर में दफ्तर में नात रिश्तेदारों के रूप में या पड़ोस में रहते हैं। जी हां! नेशनल क्राइम ब्यूरो आफ रेकार्ड के बहुप्रचारित आंकड़े बताते हैं कि देश में हर 21 सेकन्ड में एक दुष्कर्म होता है और दस में से नौ घटनाओं में घर-पड़ोस या रिश्तेदारी का आदमी शामिल होता है। हम क्या दस में एक के लिए फांसी की मांग उठा रहे हैं? दरअसल हम एक सांस्कृतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। इस संक्रमण ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों के तानेबाने को रुग्ण करना शुरू कर दिया है। हमारे चारों ओर प्रायोजित तरीके से ऐसा वातावरण व ऐसी सोच थोपी जा रही है, जो यूरोप और अमेरिका की उदात्त संस्कृति के निकट ले जाती है। सुबह से लेकर शाम तक खान-पान, रहन-सहन, मनोरंजन, शिक्षा-दीक्षा के रूप में जो परोसा जा रहा है, उसी की परवरिश का फल है कि कथित दुराचारियों की नस्ल और फस्ल तैयार हो रही है। पाश्चात्य की उदात्त संस्कृति और हमारी भारतीय संस्कृति में उतना ही फर्क है जितना कि दिन और रात में। इन दोनों संस्कृतियों का घालमेल हरगिज नहीं हो सकता। हम ऊहापोह की स्थिति में इसलिए हैं कि पीताम्बर भारतीय संस्कृति का ओढ़ते हैं और लालसा अमेरिका-यूरोप की उदात्त संस्कृति की रखते हैं। दिल्ली के दुराचार काण्ड ने कई बहसों को जन्म दिया है। उन्हें हम छिछले तौर पर नहीं देख सकते और न ही डस्टबिन में डाल सकते हैं। पिस्तौल की तरह मुंह में माइक अड़ाकर और वक्तव्यों के कटपीस को सनसनी बनाकर आइटम पेश करने वाले चैनलों ने एक ऐसा भ्रमजाल निर्मित कर रखा है कि उन लोगों को भी सच कहने का साहस नहीं होता जिन लोगों से देश व समाज को उम्मीदें हैं।
हमारी लोक परंपरा संस्कृति में पग-पग पर मर्यादाओं की सीमा रेखा है, एक-एक बातें सुस्पष्ट और परिभाषित हैं। वैदिक काल से ही हमारा सामाजिक ताना-बाना नारी सम्मान के इर्द िगर्द बुना गया है। रामायण और महाभारत जो भारतीयों के रगों में खून के साथ चेतना बनकर संचारित होता है वह नारी सम्मान के लिए रचा गया। यहां तो नारी के साथ दुराचार करने वालों को फांसी की सजा मांगी जा रही है। रामायण काल में तो सीता के साथ दुराचार की चेष्ठा करने वाले रावण के कुल का ही नाश कर दिया गया। द्रोपदी पर कुदृष्टि डालने वाले कौरवों का भी ऐसा ही अंत हुआ। माता भगवती सती का अपमान तो उनके पिता प्रजापति दक्ष ने किया था पर महादेव शिव व उनके गणों ने दक्ष के समूचे साम्राज्य को तहस-नहस करके रख दिया। वैदिक वांग्मय में नारी शक्ति स्वरूपा हैं, वे सिंहवाहिनी हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा पवित्र और पूज्य शिवलिंग को माना जाता है। वह ज्योतिर्मय है। सृष्टि के सृजन का प्रतीक। शिवलिंग क्या है, माता भगवती की योनिस्वरूपा जलहली में स्थापित लिंग। भारतीय और पाश्चात्य सांस्कृतिक मूल्यों का संघर्ष इसी बिन्दु से शुरू होता है। पवित्र-पूज्य और भौतिक भोग्य के बीच। यह हमें तय करना है कि हम पवित्र व पूज्य की सनातन परंपरा के साथ हैं या भौतिकता की भोगवादी परम्परा के साथ हैं। पाश्चात्य संस्कृति इसी की पोषक है। वहां रिश्तों की कोई परिभाषा नहीं और न ही संवेदना की प्रगाढ़ता। वहां तो सिर्फ सूचना का साम्राज्य और उसी की सत्ता है। माता-पिता, भाई-बहन, पत्‍नी सब जैविक सम्बन्धों से पशुवत् आबद्ध। मनु और उनके स्मृति ग्रंथ को पिछले दशकों से जितनी गालियां मिली हैं शायद अन्य किसी को नहीं। पर गालियां देने वाले एक लाख लोगों में से संभवत: एक ने भी मनु स्मृति नहीं पढ़ा होगा। नैसर्गिक न्याय और रिश्तों की जो अद्भुद् व्याख्या और वजर्नाएं इस ग्रंथ में वर्णित हैं शायद अन्यत्र कहीं नहीं। दुनिया के किसी भी देश का संविधान नहीं होगा जिस पर मनु के स्मृति ग्रंथ के दर्शन की छाप न हो। यह बात अलहदा है कि कर्मकाण्डियों व पोंगापंथियों ने अपनी सुविधा व महत्ता के हिसाब से कुछेक श्लोक घुसेड़ दिए हों। मनुस्मृति में रिश्ते मर्यादाओं का चरमोत्कर्ष इस वजर्ना के साथ है कि ‘‘रजस्वला बेटी पर पिता तक की छाया पड़ना महापाप है’’। महर्षि वात्सायन का ‘कामसूत्र’ अद्भुत ग्रन्थ है, पर इसे अश्लील साहित्य का दर्जा देकर अध्ययन से बाहर कर दिया गया। महर्षि ने इस ग्रंथ की प्रस्तावना में कहा कि मनुष्य के जीवन की लालसा धर्म- अर्थ-काम और मोक्ष को लेकर रहती है। धर्म-अर्थ और मोक्ष पर तो धुंआधार प्रवचन होते हैं, ‘काम’ पर विद्वत्जन क्यों चुप हैं? लेकिन मुश्किल यह है कि ‘काम’ को हम पश्चिम की उदात्त संस्कृति से सीखना चाहते हैं भारतीय दर्शन से नहीं। अब वह क्षण आ गया है कि हम सांस्कृतिक आक्रमण के संकेतों को समङों और उसके मोहपाश से मुक्त होकर अपने सनातनी साश्वत् मूल्यों की ओर लौटें इसी में हमारे समाज और देश का कुशलक्षे म सन्निहित है।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208