जगदीश्वर चतुर्वेदीभ्रष्टाचारियों का सामाजिक प्रोफाइल होता है। याद करें 2जी स्पेक्ट्रम में शामिल तमिलनाडु के नेताओं को, मायावतीशासन में हुए भ्रष्टाचार और उसमें शामिल आधे दर्जन निकाले गए भ्रष्टमंत्रियों, शशांक शेखर और अन्य बड़े आईएएस अधिकारियों के द्वारा किए भ्रष्टाचार को, उन पर चल रहे केसों को। झारखंण्ड के तमाम नाम-चीन भ्रष्टनेताओं के सामाजिक प्रोफाइल को भी गौर से देखें।
भाजपा के पूर्व नेता येदुरप्पा के सामाजिक प्रोफाइल पर भी नजर डाल लें और लालू-मुलायम पर चल रहे आय से ज्यादा संपत्ति के मामलों को भी देखें। आखिरकार इन नेताओं की जाति भी है। राजनीति में जाति सबसे बड़ी सच्चाई है। उनकी जीत में जाति समीकरण की भूमिका रहती है। ऐसे में भ्रष्टाचार के प्रसंग में यदि जाति को भ्रष्टाचारी की प्रोफाइल के साथ पेश किया जाता है तो इसमें असत्य क्या है ? भ्रष्टाचारी की दो जाति होती हैं एक सामाजिकजाति और दूसरी आर्थिकजाति। दोनों केटेगरी विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण हैं। जाति आज भी महत्वपूर्ण केटेगरी है और इसपर जनगणना हो रही है। विकास के पैमाने के निर्धारण के लिए जाति खोजो और भ्रष्टाचार में जाति मत खोजो यह दुरंगापन नहीं चलेगा। जाति विश्लेषण की आज भी बड़ी महत्वपूर्ण केटेगरी है।
आशीषनंदी ने अपने बयान में कहा कि पश्चिम बंगाल में विगत 64 सालों में सत्ता कभी भ्रष्ट नहीं रही। यह बात सच भी है कि वामशासन में किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ करप्शन के आरोप नहीं हैं। यदि रहे होते तो ममता उनको छोड़ती नहीं। यही हाल वामशासन के पहले के मुख्यमंत्रियों का रहा है। यानी कुछ तो है बंगाल में विलक्षण जिसके कारण यहां पर किसी मंत्री को करप्शन में नहीं पकड़ा गया और सभी मुख्यमंत्री सादगी के प्रतीक रहे हैं।
आशीषनंदी के बयान की मायावती, भाजपा और अनेक दलितलेखकों ने निंदा की है और आशीषनंदी ने अपने बयान के लिए माफी मांग ली है। यह सारा घटनाक्रम जिस गति से घटा है उससे यह भी पता चलता है इनदिनों किसी बयान या विचार की उम्र बहुत कम होती है। एक ही व्यक्ति अपने बयान पर दो रूख अपना सकता है। हम पूरी तरह पोस्टमॉडर्न कंडीशन में जी रहे हैं। इसमें टुईंया महान है और महान टुईंया है। बयान है भी और नहीं भी है।यह कम्प्लीट वेदान्ती अवस्था है। सबकुछ माया है। रंगबिरंगा है।
आशीषनंदी के बयान पर जो लोग प्रतिवाद कर रहे हैं, वे कह रहे हैं जो भ्रष्ट हैं उनकी कोई जाति नहीं होती। काश, सारा देश भ्रष्ट हो जाता तो देश से जातिव्यवस्था का अंत ही हो जाता !! कमाल का मायावी संसार है भ्रष्टाचार का !! आशीषनंदी की अक्ल पर मुझे तरस आ रहा है। वे बेमेल पैनल में भाषण के लिए गए क्यों ? जयपुर साहित्य महोत्सव के आयोजकों ने उनके जैसे बड़े विद्वान बेमेल पैनल में रखकर उनका वजन तय कर दिया था।फलतः इसका जो परिणाम होना था वही हुआ ,बेमेल पैनल में यह सारा मामला बेर और केले के बीच में संवाद जैसा था। ज्ञान में समानता के मानक को पैनल बनाते हुए आयोजक क्यों भूल गए यह बात बुद्धि में नहीं आ रही।
प्रिंटमीडिया से लेकर फेसबुक तक नए युग के नए देवताओं का बैकुण्ठलोक फैला हुआ है। ये देवता आएदिन सवर्णों को गरियाते रहते हैं। इनमें वे भी हैं जो "तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार" का नारा देते रहे हैं। इन नए देवताओं को लोकतंत्र में परम अधिकार प्राप्त हैं। ये किसी को भी धमका सकते हैं, गरिया सकते हैं, बंद करा सकते हैं। पुलिस केस में फंसा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के एकमात्र मालिक ये ही नए देवता हैं। इनके यहां सवर्ण सड़े-गले-चोर-बेईमान-उचक्के -भ्रष्ट-शोषक आदि हैं। इनके अलावा समाज में जो वर्ग हैं वे सब पुण्यात्मा हैं, देवता हैं, दूध के धुले हैं। बैकुण्ठलोक के नए देवताओं की तलवारें चमक रही हैं, आओ हम सब मिलकर इनकी आरती उतारें और जय-जयकार करें।
आशीषनंदी के मामले में मीडिया के अज्ञान क्रांति नायकों ने जिस तरह सनसनी पैदा की है उसने यह खतरा पैदा कर दिया है टीवी कैमरे के सामने कोई भी लेखक खुलकर अपने मन की बातें नहीं कहेगा। टीवीमीडिया और उसके संपादक एक तरह से मीडिया आतंक पैदा कर रहे हैं। यह टीवी टेरर का युग भी है। टीवी टेरर और कानूनी आतंकवाद मिलकर सीधे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले कर रहे हैं। अहर्निश असत्य का प्रचार करने वाले कारपोरेट मीडियासंपादक अपने उथले ज्ञान के आधार पर ज्ञान-विज्ञान-विचार के निर्माताओं को औकात बताने पर उतर आए हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने कभी गंभीरता से भारत के समाज, संस्कृति आदि का कभी अध्ययन-मनन नहीं किया। लेकिन आशीशनंदी जैसे विलक्षणमेधावी मौलिक बुद्धिजीवी को कुछ इस तरह चुनौती दी जा रही है,गोया, आशीषनंदी का भारत की ज्ञानक्रांति में कोई योगदान ही न हो।
राजनीति में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नहीं रहा। यहां तक संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नहीं संपूर्ण क्रांति पर लिखा,इन्दिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नहीं लगता। जबकि हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नहीं मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्म समर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य,नैतिकता,परिवार और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचरण की धुरी है। यह प्रतिवाद को खत्म करता है। यह उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव हुआ। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है। अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े शासकों में पूंजी एकत्रित करने,येन-केन प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी। आज व्यवस्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिम वाले जिसे रीगनवाद,थैचरवाद आदि के नाम से सुशोभित करते हैं यह मूलतः 'आधुनिकीकरण की छलयोजना' है , इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार।रीगनवाद-थैचरवाद को हम नव्य आर्थिक उदारतावाद के नाम से जानते हैं । भारत में इसके जनक हैं नरसिंहाराव-मनमोहन । यह मनमोहन अर्थशास्त्र है। भ्रष्टाचार को राजनीतिक मसला बनाने से हमेशा फासीवादी ताकतों को लाभ मिला है। यही वजह है लेखकों ने आर्थिक भ्रष्टाचार को कभी साहित्य में नहीं उठाया। भ्रष्टाचार वस्तुतः नव्य उदार आर्थिक नीतियों से जुड़ा है। आप भ्रष्टाचार को परास्त तब तक नहीं कर सकते जबतक नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प सामने नहीं आता।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चलाते रहे हैं। ये मूलतःमीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं।ये मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।
उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैंकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिलीभगत से हुई है। नव्य उदार नीतियों का इस लूट से गहरा संबंध है। चीन और रूस में इसका असर हुआ है चीन में अरबपतियों में ज्यादातर वे हैं जो पार्टी मेंम्बर हैं या हमदर्द हैं,इनके रिश्तेदारसत्ता में सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। यही हाल सोवियत संघ का हुआ।
भारत में नव्य उदारतावादी नीतियां लागू किए जाने के बाद नेताओं की सकल संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। सोवियत संघ में सीधे पार्टी नेताओं ने सरकारी संपत्ति की लूट की और रातों-रात अरबपति बन गए। सरकारी संसाधनों को अपने नाम करा लिया। यही फिनोमिना चीन में भी देखा गया। उत्तर आधुनिकतावाद पर जो फिदा हैं वे नहीं जानते कि वे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नेताओं के द्वारा मचायी जा रही लूट में वे मददगार बन रहे हैं। मसलन गोर्बाचोव के नाम से जो संस्थान चलता है उसे अरबों-खरबों के फंड देकर गोर्बाचोव को रातों-रात अरबपति बना दिया गया। ये जनाव पैरेस्त्रोइका के कर्णधार थे। रीगन से लेकर क्लिंटन तक और गोर्बाचोब से लेकर चीनी राष्ट्रपति के दामाद तक पैदा हुई अरबपतियों की पीढ़ी की तुलना जरा हमारे देश के सांसदों-विधायकों की संपदा से करें। भारत में सांसदों-विधायकों के पास नव्य आर्थिक उदारतावाद के जमाने में जितनी तेजगति से व्यक्तिगत संपत्ति जमा हुई है वैसी पहले कभी जमा नहीं हुई थी। अरबपतियों-करोड़पतियों का बिहार की विधानसभा से लेकर लोकसभा तक जमघट लगा हुआ है। केन्द्रीयमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक सबकी दौलत दिन -दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। नेताओं के पास यह दौलत किसी कारोबार के जरिए कमाकर जमा नहीं हुई है बल्कि यह अनुत्पादक संपदा है जो विभिन्न किस्म के व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए जमा हुई है। कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला आदि तो उसकी सिर्फ झांकियां हैं। अमेरिका मे भयानक आर्थिकमंदी के बाबजूद नेताओं की परिसंपत्तियों में कोई गिरावट नहीं आयी है। कारपोरेट मुनाफों में गिरावट नहीं आयी है। भारत में भी यही हाल है।
इसी संदर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर में मार्क्सवाद की चौथी थीसिस में लिखा है इस संरचनात्मक भ्रष्टाचार का नैतिक मूल्यों के संदर्भ में कार्य-कारण संबंध के रूप में व्याख्या करना भ्रामक होगा क्योंकि यह समाज के शीर्ष वर्गों में अनुत्पादक ढंग से धन संग्रह की बिलकुल भौतिक सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होता है।
रिपब्लिक में लेखक को विचारों की किस तरह की सीमाओं में काम करना होता है इसका आदर्श उदाहरण आशीष नंदी प्रकरण। रिपब्लिक की सीमा को अब दंडधारी नए राजनीतिक दादा और वोटबैंकों के मालिक तय कर रहे हैं। धिक्कार है हमें हम इस तरह के लोकतंत्र में रह रहे हैं जिसमें 26जनवरी को एक लेखक के खिलाफ निर्दोष और विवादास्पद बयान देने के लिए वारंट जारी होता है। लोकतंत्र में विचारों पर कानूनी हमला और झुंड की राजनीति का हमला कलंक है। जो भ्रष्ट हैं वे सत्ता को आदेश दे रहे हैं।
भारत में लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है कानूनी आतंकवाद। इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल केन्द्र-राज्य सरकारें और फंडामेंटलिस्ट कर रहे हैं। आशीषनंदी के बयान पर जो वारंट जारी किया गया है उसे तत्काल वापस लिया जाय। एक लेखक और विचारक के नाते उनके विचारों का सम्मान करके असहमति व्यक्त करने का हक है लेकिन जिस तरह की कट्टरपंथी राजनीतिक शक्तियां मैदान में आ जमीं हैं वे सीधे अभिव्यक्ति की आजादी को कानून आतंकवाद के बहाने कुचलने का मन बना लिया है।
साहित्य,कला, संस्कृति आदि के लिए कानूनी आतंकवाद आज सबसे बड़ा खतरा है। आशीषनंदी ने जयपुर साहित्य महोत्सव में जो बयान दिया उसका साहित्य खासकर दलितसाहित्य और भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखे साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। नंदी का बयान राजनीतिक है और यह किसी दल की सभा में दिया जाता तो अच्छा था। इससे यह भी पता चलता है कि इस मेले में तथाकथित लेखकगण साहित्य पर कम और राजनीति पर ज्यादा बोल रहे हैं । साहित्य में राजनीति को आटे में नमक की तरह होना चाहिए।
आशीषनंदी ने अपने बयान में कहा कि पश्चिम बंगाल में विगत 64 सालों में सत्ता कभी भ्रष्ट नहीं रही। यह बात सच भी है कि वामशासन में किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ करप्शन के आरोप नहीं हैं। यदि रहे होते तो ममता उनको छोड़ती नहीं। यही हाल वामशासन के पहले के मुख्यमंत्रियों का रहा है। यानी कुछ तो है बंगाल में विलक्षण जिसके कारण यहां पर किसी मंत्री को करप्शन में नहीं पकड़ा गया और सभी मुख्यमंत्री सादगी के प्रतीक रहे हैं।
आशीषनंदी के बयान की मायावती, भाजपा और अनेक दलितलेखकों ने निंदा की है और आशीषनंदी ने अपने बयान के लिए माफी मांग ली है। यह सारा घटनाक्रम जिस गति से घटा है उससे यह भी पता चलता है इनदिनों किसी बयान या विचार की उम्र बहुत कम होती है। एक ही व्यक्ति अपने बयान पर दो रूख अपना सकता है। हम पूरी तरह पोस्टमॉडर्न कंडीशन में जी रहे हैं। इसमें टुईंया महान है और महान टुईंया है। बयान है भी और नहीं भी है।यह कम्प्लीट वेदान्ती अवस्था है। सबकुछ माया है। रंगबिरंगा है।
आशीषनंदी के बयान पर जो लोग प्रतिवाद कर रहे हैं, वे कह रहे हैं जो भ्रष्ट हैं उनकी कोई जाति नहीं होती। काश, सारा देश भ्रष्ट हो जाता तो देश से जातिव्यवस्था का अंत ही हो जाता !! कमाल का मायावी संसार है भ्रष्टाचार का !! आशीषनंदी की अक्ल पर मुझे तरस आ रहा है। वे बेमेल पैनल में भाषण के लिए गए क्यों ? जयपुर साहित्य महोत्सव के आयोजकों ने उनके जैसे बड़े विद्वान बेमेल पैनल में रखकर उनका वजन तय कर दिया था।फलतः इसका जो परिणाम होना था वही हुआ ,बेमेल पैनल में यह सारा मामला बेर और केले के बीच में संवाद जैसा था। ज्ञान में समानता के मानक को पैनल बनाते हुए आयोजक क्यों भूल गए यह बात बुद्धि में नहीं आ रही।
प्रिंटमीडिया से लेकर फेसबुक तक नए युग के नए देवताओं का बैकुण्ठलोक फैला हुआ है। ये देवता आएदिन सवर्णों को गरियाते रहते हैं। इनमें वे भी हैं जो "तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार" का नारा देते रहे हैं। इन नए देवताओं को लोकतंत्र में परम अधिकार प्राप्त हैं। ये किसी को भी धमका सकते हैं, गरिया सकते हैं, बंद करा सकते हैं। पुलिस केस में फंसा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के एकमात्र मालिक ये ही नए देवता हैं। इनके यहां सवर्ण सड़े-गले-चोर-बेईमान-उचक्के -भ्रष्ट-शोषक आदि हैं। इनके अलावा समाज में जो वर्ग हैं वे सब पुण्यात्मा हैं, देवता हैं, दूध के धुले हैं। बैकुण्ठलोक के नए देवताओं की तलवारें चमक रही हैं, आओ हम सब मिलकर इनकी आरती उतारें और जय-जयकार करें।
आशीषनंदी के मामले में मीडिया के अज्ञान क्रांति नायकों ने जिस तरह सनसनी पैदा की है उसने यह खतरा पैदा कर दिया है टीवी कैमरे के सामने कोई भी लेखक खुलकर अपने मन की बातें नहीं कहेगा। टीवीमीडिया और उसके संपादक एक तरह से मीडिया आतंक पैदा कर रहे हैं। यह टीवी टेरर का युग भी है। टीवी टेरर और कानूनी आतंकवाद मिलकर सीधे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले कर रहे हैं। अहर्निश असत्य का प्रचार करने वाले कारपोरेट मीडियासंपादक अपने उथले ज्ञान के आधार पर ज्ञान-विज्ञान-विचार के निर्माताओं को औकात बताने पर उतर आए हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने कभी गंभीरता से भारत के समाज, संस्कृति आदि का कभी अध्ययन-मनन नहीं किया। लेकिन आशीशनंदी जैसे विलक्षणमेधावी मौलिक बुद्धिजीवी को कुछ इस तरह चुनौती दी जा रही है,गोया, आशीषनंदी का भारत की ज्ञानक्रांति में कोई योगदान ही न हो।
राजनीति में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नहीं रहा। यहां तक संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नहीं संपूर्ण क्रांति पर लिखा,इन्दिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नहीं लगता। जबकि हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नहीं मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्म समर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य,नैतिकता,परिवार और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचरण की धुरी है। यह प्रतिवाद को खत्म करता है। यह उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव हुआ। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है। अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े शासकों में पूंजी एकत्रित करने,येन-केन प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी। आज व्यवस्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिम वाले जिसे रीगनवाद,थैचरवाद आदि के नाम से सुशोभित करते हैं यह मूलतः 'आधुनिकीकरण की छलयोजना' है , इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार।रीगनवाद-थैचरवाद को हम नव्य आर्थिक उदारतावाद के नाम से जानते हैं । भारत में इसके जनक हैं नरसिंहाराव-मनमोहन । यह मनमोहन अर्थशास्त्र है। भ्रष्टाचार को राजनीतिक मसला बनाने से हमेशा फासीवादी ताकतों को लाभ मिला है। यही वजह है लेखकों ने आर्थिक भ्रष्टाचार को कभी साहित्य में नहीं उठाया। भ्रष्टाचार वस्तुतः नव्य उदार आर्थिक नीतियों से जुड़ा है। आप भ्रष्टाचार को परास्त तब तक नहीं कर सकते जबतक नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प सामने नहीं आता।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चलाते रहे हैं। ये मूलतःमीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं।ये मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।
उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैंकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिलीभगत से हुई है। नव्य उदार नीतियों का इस लूट से गहरा संबंध है। चीन और रूस में इसका असर हुआ है चीन में अरबपतियों में ज्यादातर वे हैं जो पार्टी मेंम्बर हैं या हमदर्द हैं,इनके रिश्तेदारसत्ता में सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। यही हाल सोवियत संघ का हुआ।
भारत में नव्य उदारतावादी नीतियां लागू किए जाने के बाद नेताओं की सकल संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। सोवियत संघ में सीधे पार्टी नेताओं ने सरकारी संपत्ति की लूट की और रातों-रात अरबपति बन गए। सरकारी संसाधनों को अपने नाम करा लिया। यही फिनोमिना चीन में भी देखा गया। उत्तर आधुनिकतावाद पर जो फिदा हैं वे नहीं जानते कि वे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नेताओं के द्वारा मचायी जा रही लूट में वे मददगार बन रहे हैं। मसलन गोर्बाचोव के नाम से जो संस्थान चलता है उसे अरबों-खरबों के फंड देकर गोर्बाचोव को रातों-रात अरबपति बना दिया गया। ये जनाव पैरेस्त्रोइका के कर्णधार थे। रीगन से लेकर क्लिंटन तक और गोर्बाचोब से लेकर चीनी राष्ट्रपति के दामाद तक पैदा हुई अरबपतियों की पीढ़ी की तुलना जरा हमारे देश के सांसदों-विधायकों की संपदा से करें। भारत में सांसदों-विधायकों के पास नव्य आर्थिक उदारतावाद के जमाने में जितनी तेजगति से व्यक्तिगत संपत्ति जमा हुई है वैसी पहले कभी जमा नहीं हुई थी। अरबपतियों-करोड़पतियों का बिहार की विधानसभा से लेकर लोकसभा तक जमघट लगा हुआ है। केन्द्रीयमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक सबकी दौलत दिन -दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। नेताओं के पास यह दौलत किसी कारोबार के जरिए कमाकर जमा नहीं हुई है बल्कि यह अनुत्पादक संपदा है जो विभिन्न किस्म के व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए जमा हुई है। कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला आदि तो उसकी सिर्फ झांकियां हैं। अमेरिका मे भयानक आर्थिकमंदी के बाबजूद नेताओं की परिसंपत्तियों में कोई गिरावट नहीं आयी है। कारपोरेट मुनाफों में गिरावट नहीं आयी है। भारत में भी यही हाल है।
इसी संदर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर में मार्क्सवाद की चौथी थीसिस में लिखा है इस संरचनात्मक भ्रष्टाचार का नैतिक मूल्यों के संदर्भ में कार्य-कारण संबंध के रूप में व्याख्या करना भ्रामक होगा क्योंकि यह समाज के शीर्ष वर्गों में अनुत्पादक ढंग से धन संग्रह की बिलकुल भौतिक सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होता है।
रिपब्लिक में लेखक को विचारों की किस तरह की सीमाओं में काम करना होता है इसका आदर्श उदाहरण आशीष नंदी प्रकरण। रिपब्लिक की सीमा को अब दंडधारी नए राजनीतिक दादा और वोटबैंकों के मालिक तय कर रहे हैं। धिक्कार है हमें हम इस तरह के लोकतंत्र में रह रहे हैं जिसमें 26जनवरी को एक लेखक के खिलाफ निर्दोष और विवादास्पद बयान देने के लिए वारंट जारी होता है। लोकतंत्र में विचारों पर कानूनी हमला और झुंड की राजनीति का हमला कलंक है। जो भ्रष्ट हैं वे सत्ता को आदेश दे रहे हैं।
भारत में लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है कानूनी आतंकवाद। इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल केन्द्र-राज्य सरकारें और फंडामेंटलिस्ट कर रहे हैं। आशीषनंदी के बयान पर जो वारंट जारी किया गया है उसे तत्काल वापस लिया जाय। एक लेखक और विचारक के नाते उनके विचारों का सम्मान करके असहमति व्यक्त करने का हक है लेकिन जिस तरह की कट्टरपंथी राजनीतिक शक्तियां मैदान में आ जमीं हैं वे सीधे अभिव्यक्ति की आजादी को कानून आतंकवाद के बहाने कुचलने का मन बना लिया है।
साहित्य,कला, संस्कृति आदि के लिए कानूनी आतंकवाद आज सबसे बड़ा खतरा है। आशीषनंदी ने जयपुर साहित्य महोत्सव में जो बयान दिया उसका साहित्य खासकर दलितसाहित्य और भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखे साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। नंदी का बयान राजनीतिक है और यह किसी दल की सभा में दिया जाता तो अच्छा था। इससे यह भी पता चलता है कि इस मेले में तथाकथित लेखकगण साहित्य पर कम और राजनीति पर ज्यादा बोल रहे हैं । साहित्य में राजनीति को आटे में नमक की तरह होना चाहिए।
लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं।
jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in
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