चिन्तामणि मिश्र
हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण अंग्रेज सरकार को संघर्ष और युद्ध की खुली चुनौती के रूप में था। सुभाष ने अपने इस भाषण में कांग्रेस की विदेश नीति पर कहा कि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन के विरोधी देशों से भारत अपनी आजादी के लिए ब्रिटेन के विरुद्ध उनका साथ देगा। उन्होंने औद्योगीकरण का भी पक्ष लिया और उद्योगों पर राष्ट्रीय नियंत्रण की बात कही। यह गांधी की नीति के विरुद्ध था। बात 23 जनवरी और 30 जनवरी की ही है, इन दो तारीखों में छह दिनों का नहीं इक्यावन साल का अन्तर है। अन्तर यह भी है कि 23 जनवरी जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है तो 30 जनवरी निधन की तारीख है। जन्म दिन का संबंध सुभाष बोस से है तो निधन तिथि महात्मा गांधी की शहादत से जुड़ी है। इन दो तारीखों के बीच ही 26 जनवरी पड़ती है, जिसे हम गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते है। इस दिन स्वतंत्र भारत का संविधान अंगीकृत किया गया था। उस गौरवशाली दिन पर इसके साक्षी बनने के लिए दोनों नेता नहीं थे। अक्सर गांधी और सुभाष के नामों को भारतीय राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों की तरह याद किया जाता है। हालांकि दोनों का लक्ष्य देश को विदेशी शासन से मुक्त कराना ही था। यह गैर-विवादित है कि दोनों में नजरिए का अन्तर था।
गांधी अपनी अंहिसा की थ्योरी पर बहुत गहरे धंसे थे और उनका समस्त चिन्तन अंहिसा और धर्म पर आधारित और प्रेरित था। उनके लिए लक्ष्य तक पहुंचने के लिए साधन की पवित्रता भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी कि साध्य। गांधी ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सद्भावना रखते थे। भारत में डोमिनियन स्टेटस के रूप में गांधी सीमित स्वतंत्रता के पक्षधर थे। इसके विपरीत सुभाष ब्रिटिश सत्ता का कोई अंश भारत में नहीं चाहते थे। सुभाष इसके लिए कोई भी रास्ता अपनाने के पक्षधर थे। इंग्लैण्ड में अरईसीएस की परीक्षा पास करने के बाद सुभाष ने मई 1921 में नौकरी छोड़ी और धधकती देशभक्ति लेकर भारत आए। देश के लिए उनके इस बलिदान ने उन्हें युवा पीढ़ी का नायक बना दिया था। सुभाष 6 जुलाई को बम्बई पहुंचे और इसी दिन दोपहर को मणिभवन में पहली बार उनकी गांधी से मुलाकात हुई। इस पहली मुलाकात में ही उन पर गांधी का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा।
गांधी के मन में भी सुभाष के प्रति सदैव शंकाएं रही। गांधी को लगता रहा कि सुभाष का अंहिसा में कोई विश्वास नहीं है। सन् 1928 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सुभाष की फौजी जनरल की वर्दी की गांधी ने निन्दा की थी। सुभाष की तुलना में गांधी ने नेहरू के अन्दर का लचीलापन और भावुक अस्थिरता देख ली थी और वे आश्वस्त हो गए थे कि नेहरू को धीरे-धीरे अपने अनुरूप ढाल लेंगे। यह सम्भावना गांधी को सुभाष के प्रति कभी नहीं दिखी। इसके विपरीत सुभाष अपने मार्क्सवादी तथा गांधी विरोधी विचारों में दृढ़ होते गए। सन् 1929 में गांधी ने जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया। नेहरू ने अध्यक्ष बनने पर अपनी कार्ययमिति में सुभाष को नहीं लिया। यह गांधी की सबसे बड़ी जीत थी। सन 1936 में कांग्रेस में वामपंथियों का भी एक प्रवाह तैयार हो गया था। कांग्रेस के भीतर ये सब वामपंथी संगठित हो रहे थे। इस प्रवाह को रोकने के लिए सुभाष ही सबसे उपयुक्त थे, उनका इन पर जबरदस्त प्रभाव था। गांधी ने मजबूरी में अध्यक्ष के लिये सुभाष का चयन किया। उन्होंने हरिपुरा अधिवेशन के एक माह पहले नवम्बर 1937 को सरदार पटेल को पत्र में लिखा- मैंने देखा कि सुभाष किसी भी तरह निर्भर करने योग्य नहीं है, फिर भी कोई दूसरा अध्यक्ष नहीं हो सकता है।
ध्यान देने की बात है कि सुभाष के जोर देने के बाद भी नेहरू ने उस वर्ष कांग्रेस का महामंत्री बनने से इंकार कर दिया। सुभाष के लिए सबसे बड़ा टकराव और चुनौती का एक बिन्दु सरदार पटेल भी थे। हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण अंग्रेज सरकार को संघर्ष और युद्ध की खुली चुनौती के रूप में था। सुभाष ने अपने इस भाषण में कांग्रेस की विदेश नीति पर कहा कि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन के विरोधी देशों से भारत अपनी आजादी के लिए ब्रिटेन के विरुद्ध उनका साथ देगा। उन्होंने औद्योगीकरण का भी पक्ष लिया और उद्योगों पर राष्ट्रीय नियंत्रण की बात कही। यह गांधी की नीति के विरुद्ध था। 1938 के अन्त तक गांधी और सुभाष के मध्य मतभेद बहुत गहरे हो गए थे। गांधी को सुभाष एक बड़ी चेतावनी के रूप में दिखने लगे थे, उन्होंने तय किया कि त्रिपुरी में होने वाले अधिवेशन का अध्यक्ष सुभाष को नहीं होना चाहिए। गांधी दूसरी बार सुभाष को कांग्रेस अध्यक्ष क्यों नहीं चाहते थे, इसका एक कारण के एम मुंशी की किताब पिलग्रिमेज में दर्ज है। मुंशी ने लिखा है कि जब वे बम्बई में कानून मंत्री थे तब केन्द्रीय गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट में उन्होंने पढ़ा था कि सुभाष कलकत्ता में जर्मन कांउसिल के सम्पर्क में थे और उसके साथ किसी व्यवस्था पर बातचीत कर रहे हैं। मुंशी ने लिखा है कि मैंने यह सूचना गांधी को दी थी और गांधी ने सुभाष के विरुद्ध यह कड़ा रुख अपनाया ।
सुभाष दूसरी बार अध्यक्ष बनना चाहते थे किन्तु गांधी ने इंकार कर दिया था। उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष के लिए अपना उम्मीदवार बनाया और सुभाष के मुकाबले पट्टाभि सीतारमैया चुनाव हार गए। इस हार को गांधी पचा नहीं सके। पट्टाभि सीतारमैया की हार को अपनी हार सार्वजनिक रूप से कह दी। सुभाष अध्यक्ष पद पर आ जरूर गए थे, किन्तु उन्होंने जो अपनी कार्यसमिति बनाई उसने उनका बहिष्कार कर दिया और अन्त में उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। तीन मई 1939 को सुभाष ने एक नए दल फारवर्ड ब्लॉक के गठन की घोषणा कर दी। यह कांग्रेस के अन्दर ही दूसरा मंच था। इसे जयप्रकाश, नरेन्द्र देव,पटेल, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद आदि ने कांग्रेस को कमजोर करने की कार्यवाही माना। सुभाष को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया। कुछ समय बाद द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। सुभाष ने देश छोड़ दिया और विदेश में भारत की आजादी के लिए जो किया वह सर्वविदित है।
सुभाष के प्रयासों की कितनी भूमिका भारत की आजादी में रही इसका आकलन तो इतिहास करेगा, पर देश की जनता के दिलों में सुभाष ने जो जगह बनाई, उसे अनुभव करने के लिए किसी इतिहास की जरूरत नहीं है। उस दौर में कांग्रेस और उसके कामकाज के अंत:पुर में जो तथा जैसा घट रहा था, उसकी तुलना महाभारत से की जा सकती है। कौन कब निष्ठाएं बदल रहा है, कौन फुसफुसाती संधियां कर रहा है तथा कौन चक्रव्यूह रच रहा है, स्पष्ट दिखाई देता है। संशय,अविश्वास, प्रतिबद्धता के कोहरे में साफ दिखता है कि सुभाष को सब तरफ से घेर कर, धीरे-धीरे निहत्था किया जाता रहा और वे अपनी असंदिग्ध देशभक्ति से ओत-प्रोत होकर चक्रव्यूहों के द्वार भेद नहीं पाए। उन्हें राजनीति में तनहाई की ओर लगातार धकेला गया।
गांधी के मन में भी सुभाष के प्रति सदैव शंकाएं रही। गांधी को लगता रहा कि सुभाष का अंहिसा में कोई विश्वास नहीं है। सन् 1928 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सुभाष की फौजी जनरल की वर्दी की गांधी ने निन्दा की थी। सुभाष की तुलना में गांधी ने नेहरू के अन्दर का लचीलापन और भावुक अस्थिरता देख ली थी और वे आश्वस्त हो गए थे कि नेहरू को धीरे-धीरे अपने अनुरूप ढाल लेंगे। यह सम्भावना गांधी को सुभाष के प्रति कभी नहीं दिखी। इसके विपरीत सुभाष अपने मार्क्सवादी तथा गांधी विरोधी विचारों में दृढ़ होते गए। सन् 1929 में गांधी ने जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया। नेहरू ने अध्यक्ष बनने पर अपनी कार्ययमिति में सुभाष को नहीं लिया। यह गांधी की सबसे बड़ी जीत थी। सन 1936 में कांग्रेस में वामपंथियों का भी एक प्रवाह तैयार हो गया था। कांग्रेस के भीतर ये सब वामपंथी संगठित हो रहे थे। इस प्रवाह को रोकने के लिए सुभाष ही सबसे उपयुक्त थे, उनका इन पर जबरदस्त प्रभाव था। गांधी ने मजबूरी में अध्यक्ष के लिये सुभाष का चयन किया। उन्होंने हरिपुरा अधिवेशन के एक माह पहले नवम्बर 1937 को सरदार पटेल को पत्र में लिखा- मैंने देखा कि सुभाष किसी भी तरह निर्भर करने योग्य नहीं है, फिर भी कोई दूसरा अध्यक्ष नहीं हो सकता है।
ध्यान देने की बात है कि सुभाष के जोर देने के बाद भी नेहरू ने उस वर्ष कांग्रेस का महामंत्री बनने से इंकार कर दिया। सुभाष के लिए सबसे बड़ा टकराव और चुनौती का एक बिन्दु सरदार पटेल भी थे। हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण अंग्रेज सरकार को संघर्ष और युद्ध की खुली चुनौती के रूप में था। सुभाष ने अपने इस भाषण में कांग्रेस की विदेश नीति पर कहा कि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन के विरोधी देशों से भारत अपनी आजादी के लिए ब्रिटेन के विरुद्ध उनका साथ देगा। उन्होंने औद्योगीकरण का भी पक्ष लिया और उद्योगों पर राष्ट्रीय नियंत्रण की बात कही। यह गांधी की नीति के विरुद्ध था। 1938 के अन्त तक गांधी और सुभाष के मध्य मतभेद बहुत गहरे हो गए थे। गांधी को सुभाष एक बड़ी चेतावनी के रूप में दिखने लगे थे, उन्होंने तय किया कि त्रिपुरी में होने वाले अधिवेशन का अध्यक्ष सुभाष को नहीं होना चाहिए। गांधी दूसरी बार सुभाष को कांग्रेस अध्यक्ष क्यों नहीं चाहते थे, इसका एक कारण के एम मुंशी की किताब पिलग्रिमेज में दर्ज है। मुंशी ने लिखा है कि जब वे बम्बई में कानून मंत्री थे तब केन्द्रीय गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट में उन्होंने पढ़ा था कि सुभाष कलकत्ता में जर्मन कांउसिल के सम्पर्क में थे और उसके साथ किसी व्यवस्था पर बातचीत कर रहे हैं। मुंशी ने लिखा है कि मैंने यह सूचना गांधी को दी थी और गांधी ने सुभाष के विरुद्ध यह कड़ा रुख अपनाया ।
सुभाष दूसरी बार अध्यक्ष बनना चाहते थे किन्तु गांधी ने इंकार कर दिया था। उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष के लिए अपना उम्मीदवार बनाया और सुभाष के मुकाबले पट्टाभि सीतारमैया चुनाव हार गए। इस हार को गांधी पचा नहीं सके। पट्टाभि सीतारमैया की हार को अपनी हार सार्वजनिक रूप से कह दी। सुभाष अध्यक्ष पद पर आ जरूर गए थे, किन्तु उन्होंने जो अपनी कार्यसमिति बनाई उसने उनका बहिष्कार कर दिया और अन्त में उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। तीन मई 1939 को सुभाष ने एक नए दल फारवर्ड ब्लॉक के गठन की घोषणा कर दी। यह कांग्रेस के अन्दर ही दूसरा मंच था। इसे जयप्रकाश, नरेन्द्र देव,पटेल, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद आदि ने कांग्रेस को कमजोर करने की कार्यवाही माना। सुभाष को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया। कुछ समय बाद द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। सुभाष ने देश छोड़ दिया और विदेश में भारत की आजादी के लिए जो किया वह सर्वविदित है।
सुभाष के प्रयासों की कितनी भूमिका भारत की आजादी में रही इसका आकलन तो इतिहास करेगा, पर देश की जनता के दिलों में सुभाष ने जो जगह बनाई, उसे अनुभव करने के लिए किसी इतिहास की जरूरत नहीं है। उस दौर में कांग्रेस और उसके कामकाज के अंत:पुर में जो तथा जैसा घट रहा था, उसकी तुलना महाभारत से की जा सकती है। कौन कब निष्ठाएं बदल रहा है, कौन फुसफुसाती संधियां कर रहा है तथा कौन चक्रव्यूह रच रहा है, स्पष्ट दिखाई देता है। संशय,अविश्वास, प्रतिबद्धता के कोहरे में साफ दिखता है कि सुभाष को सब तरफ से घेर कर, धीरे-धीरे निहत्था किया जाता रहा और वे अपनी असंदिग्ध देशभक्ति से ओत-प्रोत होकर चक्रव्यूहों के द्वार भेद नहीं पाए। उन्हें राजनीति में तनहाई की ओर लगातार धकेला गया।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
No comments:
Post a Comment