Saturday, January 5, 2013

जिसने गुजरात नहीं देखा.!


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
ह म, अपना अतीत (इतिहास) पुराणों में खोजने के लिए अभिशप्त हैं, जहां न शक और विक्रम सम्वत का पूर्व और पश्चात है, न ईसा की बी.सी. या ए.सी.। हमारे पुराण लिखे, भले ही बाद में गये हों, उनकी कथा सतयुग त्रेता और द्वापर की है।
वर्तमान का या मनुष्य के विकास का इतिहास उनमें दूर-दूर तक नहीं है। श्रीमद्भावगत में भक्ति के बारे में कहा गया है कि वह द्रविड़ में पैदा हुई, कर्नाटक में पली-बढ़ी, गुजर्र प्रदेश (गुजरात) में बूढ़ी हो गई। तत्पश्चात वह वृंदावन पहुंची, जहां पुन: तरुणी हो गई लेकिन उसके दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृंदावन में वृद्धता को प्राप्त हो गए। भक्ति के प्रवाह में ज्ञान और वैराग्य की जो गति हुई वह समाज और लोक ने भोगा। गंगा यमुना और सरस्वती के संगम में, सरस्वती (बुद्धि विद्या) का लुप्त हो जाना भक्ति की ही प्रबलता है। आने वाले दिनों मे लोग इस बात पर भी यकीन नहीं करेंगे कि लड़कियों के बाल गूंथने के लिए तीन वेणियां बनाई जाती थीं और उनको इस तरह से गूंथा जाता था कि बाहर से देखने में सिर्फ दो चोटियां ही दिखाई देती थीं, इसी वेणी को त्रिवेणी कहा जाता है। यहां संगम है तीन नदियों का। प्रभास में भी हिरण्य कपिला और सरस्वती का संगम है। सरस्वती न सिर्फ संगम में लुप्त हुई, उद्गम का ही पता नहीं। जिस देश की सरस्वती लुप्त हो, ‘सा विद्या या विमुक्तए’ का ज्ञान कौन सी सरस्वती देंगी? भक्ति की जवानी गुजरात महाराष्ट्र में बीते वहीं पुत्र पैदा हुए होंगे, वृद्ध भी वहीं हुई। वृद्ध कोई होना नहीं चाहता, वह वृंदावन पहुंची, जवान हो गई। ययाति भी पुत्र की उम्र लेकर युवा हुए थे। भक्ति का स्वरूप गुजरात में तब भी था, इतिहास में भी है। सोमनाथ पर महमूद गजनवी का हमला धन और मूर्तिपूजा की भक्तिमय आस्था पर प्रहार भी था। गुजरात के सोमनाथ पर अनेक हमले हुए। गिर-गिर कर वह मंदिर अनेक बार बना। आजादी के बाद के बने मंदिर के पहले महारानी अहिल्या बाई ने भी सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। गजनवी के तोड़े हुए अवशेष आज भी बगल में मूर्तिपूजा के अंधविश्वास की करुण कहानी आज भी कह रहे हैं कि मंदिरों में अकूत सम्पदा रखने का निहितार्थ क्या है? विदेशी बैंकों में जमा और पद्मनाभ मंदिर जैसे देश के अनेक मंदिरों में जमा स्वर्ण और मणि माणिक्य किस सफेद धन की कमाई है? गुजरात की द्वारका कृष्ण की राजधानी थी, समुद्र से घिरी पूर्ण सुरक्षित। जरासंध के हमले से त्रस्त कृष्ण मथुरा से द्वारका बसे।
रणछोड़ कहलाए। प्रभास क्षेत्र का भालका भील और गोलोकधाम कृष्ण के निर्वाण की कहानी कह रहा है। तप: मूर्ति दत्रात्रेय की साधना का चरम शिखर गिरिनार और सरदार पटेल के राज्यों के एकीकरण की बाधा का जूनागढ़ गुजरात में ही है।
बापू के अहिंसा के संस्कार का पोरबन्दर, राजकोट, और साधना क्षेत्र साबरमती आश्रम की कहानी, आज की साबरमती नदी की लहरें कह रही हैं। गांधी की प्रबल धार्मिकता के पीछे गुजरात की पौराणिक ऐतिहासिक और तात्कालिकता की पृष्ठ भूमि ही थी।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के आर्य समाज के बीच और नरसी मेहता के ‘वैष्णव जन ते तेणो कहिए, जे पीर पराई जाणो रे’यहीं लिखे गए। मैं गुजरात का ब्रांड एम्बेस्डर नहीं हूं फिर भी पिछले चालीस साल से मैंने गुजरात को बहुत नजदीक से देखा है। वहां नारियों का सम्मान देखकर लगता है कि क्या यह भी इसी देश का हिस्सा है। मैंने भरी बस में किसी लड़की को खड़े होकर सफर करते नहीं देखा। लड़की खड़ी हो और पुरुष बैठा हो, ऐसा देखने को नहीं मिला। रात के सेकेण्ड शो सिनेमा देखकर अकेले तिपहिया वाहनों में बेखौफ बेङिाझक सफर करते लड़कियां मैंने देखी हैं देश के अन्य प्रदेशों की पागल बीमार मानसिकता से आज भी गुजरात दूर है। गरबा के दिनों में रात-रात भर नाचते युवा बाल वृद्ध लड़कियों को निर्मल भाव सम्मत आंखें मैंने पढ़ी हैं। देश को देखकर कहने को विवश हूं, कि गुजराती अद्भुत हैं। हमारे ही लोग जो रोजी रोटी की तलाश में गुजरात गए हैं, बस गए हैं, वे अब छल प्रपंच से दूर अच्छी जिन्दगी जी रहे हैं, समभावी और समावेशी।
पिछले चालीस वर्षो से अक्सर गर्मियों की छुट्टी में अपने लोगों से मिलने जाता रहा हूं। जिस मुहल्ले में रहता था, शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि वहां धारा एक सौ चौवालिस या कफ्यरू न लगा रहा हो। पिछले दस वर्षो से शायद ही गुजरात में कहीं ऐसी स्थिति निर्मित हुई हो। गुजरात में टिकट के लिए लाइन तोड़ते किसी को नहीं देखा। गरीबी भी है लेकिन गुजराती भीख नहीं मांगता। कामकाज की तलाश में देश के अन्य हिस्सों में जितने दूसरे प्रदेशवासी मिलेंगे, गुजराती सबसे कम होंगे। व्यापारउद्यो ग-ईमानदारी में वे किसी से भी कमतर नहीं हैं।
रेत में लहललाता खाटी हवाओं को चुनौती देता हरि-हर वन, विकास की कहानी कहता, समुद्र को चुनौती दे रहा है।
लोककवि घाघ ने कहा था- ‘सावन शुक्ला सप्तमी, जो गरजैं अधिरात/ तू पिय छाए मालवा, हम छाउब गुजरात।’पुराने समय में प्रति तीसरे चौथे वर्ष अकाल पड़ते थे। लोग दाना पानी के तलाश में परदेश जाते थे। परदेश, देश में ही होता था, बोली भाषा बदली होती थी। विन्ध्याचल की इस लोकोक्ति में पति पत्‍नी के अलग-अलग खाने कमाने के स्थल हैं। मालवा और गुजरात में अकाल नहीं पड़ता था। पग-पग रोटी और डग-डग पानी था।
गुजरात से कमा खाकर लौटे लोगों के सपनों में हलुआ, पूरी, खीर, मालपुआ और श्रीखण्ड होता था। देश का साम्प्रदायिक सद्भाव अंग्रेजों ने बिगाड़ा था। उन्हीं के मानस पुत्र आज भी मंचों से बोलते हैं कि गुजरात में अल्पसंख्याक डरे हुए हैं। वे अल्पसंख्यक बहुसंख्यक जाति धर्म को ही राजनीति का आधार मानते हैं और फूट वैमनस्य पैदा कर वोट की राजनीति करते हैं, देश की एकता से उनका कोई लेना देना नहीं। गुजरातियों में उपजे साम्प्रदायिक सद्भाव को धार्मिकता की अंधी लाठी से हांकने का काम नेताओं को छोड़ना होगा। विकास की उच्च दर इसी सद्भाव का परिणाम है। वर्षो पहले मैंने देखा था। प्रभास पाटन में व्यक्तिगत रंजिश को साम्प्रदायिकता का रूप देकर कुछ लोगों ने तनाव पैदा कर दिया। रामनवमी के दिन लक्ष्मीनारायण भगवान का जुलूस पूरे मुहल्ले में निकलता था। तनाव देखते हुए मंदिर के महंत ने जुलूस स्थगित कर दिया। मुसलमानों ने स्वत: जाकर मूर्तियों सहित जुलूस निकाला। शाम को मंदिर के भंडारे में प्रसाद लिया। मैंने गजुरात देखा है कुछ ऐसा ही, जैसा लिखा है। प्रसिद्ध लेखक असगर वजाहत के अनुसार ‘जिसने लाहौर नहीं देख्या, वो जन्म्या ही नहीं’ के बरक्स कहूंगा कि जिसने गुजरात नहीं देखा, उसने भारत को देखकर भी नहीं देखा। लोकतंत्र में पैत्रिक परम्परा की राजशाही का गुजरात कभी कायल नहीं रहा।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. लोकायन 

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