Sunday, January 27, 2013

गणतंत्र की मुंडेर पर बैठे हुए लोगों से


क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि रोशन रंगीनियों के जमाने में अपने देश की
तस्वीर कुछ ज्यादा ही श्वेत-श्याम बनकर उभर रही है? भारत के आँगन में ताड़
के पेड़ की तरह एक इण्डिया तेजी से पनप रहा है और वही इण्डिया अपने
गणतंत्र की मुंडेर पर बैठकर भारत को हांकने की कोशिश कर रहा है। भारत के
खाद-पानी से पनपे इस इण्डिया की उज्जवल व चमकदार छवि देख-देख कर हम निहाल
हैं और दुनिया हमें उभरती हुई महाशक्ति की उपाधि से उसी तरह अलंकृत कर
रही है जैसे कभी कम्पनी बहादुर अंग्रेज लोग हममें से ही किसी को राय
बहादुर, दीवान साहब की उपाधियां बांटते थे।
आजाद होने और गणतंत्र का जामा ओढ़ने के साठवें-सत्तरवें दशक में हम ऐसे
विरोधाभासी मुकाम पर आकर खड़े हो गए हैं, जहां तथ्यों को स्वीकार या
अस्वीकार करना भी असमंजस भरा है। भारत की व्यथा का बखान करना शुरू करें
तो इण्डिया सिरे से खारिज कर देता है, इण्डिया की चमक-दमक और कामयाबी की
बात करें तो भारत के तन-बदन में आग लगने लगती है। एक ही आंगन में दो पाले
हो गए हैं। हालात ऐसे बन रहे हैं कि तटस्थ रह पाना मुमकिन नहीं, यदि पूरे
पराक्रम के बाद भी इण्डिया के पाले में नहीं जा पाए तो भारत के पाले में
बने रहना नियति है।
क्या आपको इस बात की चिंता है कि यह यशस्वी देश के इस तरह के आभासी
बंटवारे का भविष्य क्या होगा? इस बंटवारे के पीछे जो ताकते हैं क्या आपने
उन्हें व उनके गुप्त मसौदे को जानने-पहचानने की कोशिश की है? परिवर्तन
प्रकृति का नियम है पर हर परिवर्तन प्रगतिशील नहीं होता। इस साठ दशक में
परिवर्तन-दर-परिवर्तन हुए। कह सकते हैं कि जिस देश में सुई तक नहीं बनती
थी आज वहां जहाज बनती है। क्षमता और संख्याबल में हमारी फौज की धाक है।
कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं का कार्बन बताता है कि
औद्योगिक प्रगति के मामले में भी हम अगली कतार पर बैठे हैं। फोर्ब्स की
सूची के धनिकों में हमारे उद्योगपति तेजी से स्थान बनाते जा रहे हैं।
वॉलीवुड की चमक के सामने हॉलीवुड की रोशनी मंदी पड़ती जा रही है। साल-दो
साल में एक विश्व सुन्दरी हमारे देश की होती है जो हमारे रहन-सहन, जीवन
स्तर के ग्लोबल पैमाने तय करती है। महानगरों के सेज व मॉलों की श्रृंखला,
नगरों, कस्बों तक पहुंच रही है। चमचमाते एक्सप्रेस हाइवे से लम्बी कारों
की कानवाय गुजरती हैं। माल लदे बड़े-बड़े ट्राले हमारी उत्पादकता का ऐलान
करते हुए फर्राटे भरते हैं। हमारे बच्चे अंग्रेजों से ज्यादा अच्छी
अंग्रेजी बोलते हैं। युवाओं के लिए पब डिस्कोथेक क्या-क्या नहीं है।
शाइनिंग इण्डिया की चमत्कृत करती इस तस्वीर को लेकर जब भी हम मुदित होने
की चेष्टा करते हैं तभी जबड़े भींचे और मुट्ठियां ताने भारत सामने आ जाता
है। वो भारत जो अम्बानी के 4 हजार करोड़ के भव्य महल वाले शहर मुम्बई में
अखबार दसा कर फुटपाथ पर सोता है। वो भारत जिसके 84 करोड़ लोगों के पास एक
दिन में खर्च करने को 20 रुपये भी नहीं। वो भारत जिसका अन्नदाता किसान
कर्ज व भूमि अधिग्रहण से त्रस्त आकर जीते जी चिताएं सजा कर आत्महत्याएं
करता है। वो भारत जहां हर एक मिनट में एक आदमी भूख से मर जाता है। वो
भारत जहां के नौजवान उच्च शिक्षा की डिग्री लेकर बेकारी व हताशा में
जंगलों में जाकर नक्सली बन जाते हैं?
गणतंत्र की मुंडेर पर बैठे रिपब्लिक इण्डिया के महाजनों को क्या भारत की
जमीनी हकीकत पता है? क्या वे जानना चाहेंगे, कि आहत भारत जो कि उनका भी
जन्मदाता है उसकी क्या ख्वाहिश है.. क्या गुजारिश है। समय के संकेतों को
समझिए... विषमता, शोषण और अन्याय के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्तियां अभी
टुकड़ों-टुकड़ों में अलग-अलग प्रगट हो रही है। कल ये एक होसकती हैं...। और
तब अग्निपुंज का ऐसा रूप लेंगी कि ट्यूनीशिया और अरब की क्रांति दुनिया
भूल जायेगी... और तब दिल्ली का विजय चौक-तहरीरी चौक नहीं अपितु इतिहास का
तवारीखी चौक बन जायेगा।
जय हिन्द-जय भारत
-जयराम शुक्ल

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